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पोदकरुिते वृष्टिप्रकरणम् ।
( २०३ )
अदक्षिणा या विनिवृत्तिकाले सा संमता प्रावृषि वर्षणार्थम् ॥ प्रदक्षिणं याति तु या निवृत्तौ सा ब्रह्मपुत्री घनविघ्नकर्त्री ॥ ॥ ३४० ॥ विमुच्य शब्दं यदि भूत्रयेऽपि भवेद्वितारा विनि-वर्तते तु ॥ तारा तदा स्यात्तपनांशुमालाकरालदाहाकलिता धरित्री ॥ ३४१ ॥ संमृत्र्य वांस्त्वा यदि वा विहंगः स्याद्दक्षिणो वर्षति नितांतम् ॥ पूर्वोक्तकारी यदि चोद्धृतः स्यात्तद्वारिदो वारि ददाति तुच्छम् ॥ ३४२ ॥ श्यामा सुदेशे कृतमूत्रवतिर्महीयसीं शुष्कतरौ तु तुच्छाम् ॥ पाषाणखंडे सतुषारखंड त्रवीति वृष्टि जलदस्य काले || ३४३ ॥
॥ टीका ॥ अदक्षिणेति ॥ या विनिवृत्तिकाले पोदकी अदक्षिणा वामा स्यात्सा प्रावृषि वर्षणार्थं संमता । तु पुनः या निवृत्तौ प्रदक्षिणं याति सा ब्रह्मपुत्रो घनविघ्नकर्त्री स्यात् ॥ ३४० ॥ विमुच्येति ॥ यदि भूत्रयेऽपि शब्दं विमुच्य वितारा भवेद्यदा पुनः विनिवर्तते तारा स्यात्तदा तपनांशुमालाकरालदाहाकलितेति तपनः सूर्यः तस्य अंशुमाला किरण श्रेणिः तेन यः करालः कठिनो दाहः तापाधिक्यं तेनाकलिता व्याप्ता धरित्री पृथ्वी स्यादित्यर्थः ॥ ३४१ ॥ संमूत्र्येति । यदि विहंगः संमूत्रय वांवा वा प्रदक्षिणः स्यात्तदा नितांतमत्यर्थं वर्षति । यदि पूर्वोक्तकारी उद्धृतः स्यात्तदा वारिदो मेघः तुच्छं वारि ददाति ॥ ३४२ ॥ श्यामेति ॥ यदि वर्षाकाले श्यामा सुदेशे कृतमूत्रवतिर्भवति तदा महीयसीं वृष्टिं ब्रवीति । यदि शुष्कतरौ कृतमूत्रवांतिःस्यात्तदा तुच्छ वृष्टिं ब्रवीति । पाषाणखंडे पुनः सतुषारखंडां वृष्टिं ब्रवीति ॥ ३४३ ॥
॥ भाषा !
क्षिणा करै तो वर्षा व्यतीत हुये पै बहुत वृष्टि होय. और बीचमें अल्पभी वर्षा न होय ॥ ॥ ३३९ ॥ अदक्षिणेति ॥ जो शकुनसूं निवृत्ति कालमें पोदकी वामा होय तो वर्षाकाल में वर्षा बहुत होय और जो निवृत्तिकाल में दक्षिणा होय तो ब्रह्मपुत्री मेघमें विघ्न करनेवाली होय ॥ ३४० ॥ विमुच्येति ॥ जो पोदकी तीनों भूमिमें शब्दकरके वामा होय और निः वृत्तिकालमें तारा होय. तो सूर्यके किरणोंकी बहुत तापकरके व्याप्त पृथ्वी होय ॥ ३४१ ॥ संमूत्र्येति । जो विहंग मूत्रकरके वा वमनकरके दक्षिण में होय तो अत्यंत वर्षा करे. जो मूत्र करके वमनकरके उद्धृत होय तो मेघ तुच्छ जल देवें ॥ ३४२ ॥ श्यामेति ॥ जो
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