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काकरुते यात्राप्रकरणम् ।
( २९१ )
गोपुच्छवल्मीककृतास्पदश्च रुवन्भवेत्सर्पविलोकनाय ॥ स्यामृत्यवेंगारचितास्थिसंस्थः काकः प्रकुर्वन्कचकर्षणं च ॥ ॥ ९२ ॥ रुवन्पुरो हानिरुजौ करोति मृत्युं पुनर्निष्ठुरपृष्ठशदः ॥ प्रसार्य रिक्तं वदनं य आस्ते सर्वत्र निद्यो बलिभोजनोऽसौ ॥ ९३ ॥ वामोऽप्यसृक्पातभयं मृतिं वा संताडयन्नीरसदारुखंडम् || चंच्वास्थि भंजन्धुवमस्थिभंगं बंधं वधं जल्पति युध्यमानः॥ ९४ ॥ वामोऽतिरोगं कुरुते विशष्के तिक्ते च वृक्षे कलिकार्यनाशौ ॥ पक्षौ विधुन्वन्विरुवन्स रूक्षं सकंटके मृत्युमुपादधाति ॥ ९५ ॥
॥ टीका ॥
तर्हि रुधिरश्रुतिः रुधिरवार्ताश्रवणं स्यात् तथा यः काकः वल्लीवरत्रादि गृहीत्वा प्रदक्षिणं याति स सर्पभीत्यै स्यात् ॥ ९१ ॥ गोपुच्छेति ॥ गोपुच्छवल्मीककृतास्पद रुवञ्शब्दायमानः सः सर्पविलोकनाय स्यात् तथा अंगारचितास्थिसंस्थःकच कर्षणं च प्रकुर्वन्काको मृत्यवे स्यात् ॥ ९२ ॥ रुवन्निति । काकः पुरो रुवन्हानिरुजौ करोति निष्ठुरपृष्ठशब्दः पुनः मृत्युं करोति यश्च रिक्तं वदनं प्रसार्य आस्तेऽसौ बलिभोजनः सर्वत्र निद्यः स्यात् ॥ ९३ ॥ वाम इति । नरिसदारुखंडं संताडयन् काकः वामोsपि असृक्पातभयं मृर्ति वा कुरुते चंच्वा अस्थि भंजन्धुवं निश्वयेनास्थि भंगं वक्ति तथा युध्यमानो बंधं वधं जल्पति ॥ ९४ ॥ वाम इति ॥ वामः काकः ॥ भाषा ॥
जो काफ दक्षिणमाऊं बोलकर पीठपीछे चलो जाय तो रुधिरकी वार्ता सुने. जो लता जेवडी मुखमें लेके जेमने माऊं आवे तो सर्पको भय करे ॥ ९१ ॥ गोपुच्छेति ॥ गौकी पूंछ और सर्पकी बंबे इनपे बैठके बोलै सो सर्पको दर्शन होय और अंगार चिताहाड इनपे बैठो होय और केश खैचरह्यौ होय तो मृत्यु होय ॥ ९२ ॥ रुवन्निति ॥ जो काक अगाडी बोले तो हानि रोग करें. फिर पीठमाऊं कठोर शब्द करे तो मृत्यु करे. जो खाली मोढो फैलायकर बैठो होय तो काक सदा निंदित हैं ॥ ९३ ॥ वाम इति ॥ सूखे काष्टके टूककूं ताडना करे चोचसूं और वामभागमें भी होय तो रुधिरपातको भय और मृति करे - और चोंचकर हाडकूं उखाड पछाड करतो होय तो हाडको भंग और बन्धन कहे हैं. और युद्ध करतो होय काक तो वध करै ॥ ९४ ॥ वाम इति ॥ वामभागमें शुष्कवृक्षपै बैठो
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