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श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणम् । . (१८३) पद्भ्यां क्षिति तक्षति पश्चिमाभ्यामुद्दलितो दीर्घतरोचनादः।। वमत्यथाग्रे हदतेक्षतांगो बिभेति वा यः स भयंकरः खा ॥ ॥२०७॥ अग्रांघ्रिणोमवदारयेद्वा प्रोच्चैः स्थितः प्रस्थितमीक्षते वा ॥ कंडूयते चोत्तममंगभागं यो जागरूकः कुरुते स सिद्धिम् ॥२०८॥ लांगूलजिह्वाकटिपृष्ठभागान्प्रचालयन्सम्मुखमेति हृष्टः ॥ कूजल्लिइन्पृष्ठवपुः सुचेष्टो यः श्वा . स कार्येषु भवत्यभीष्टः ॥२०९॥
॥ टीका ॥
शीघ्रं यात्रां वक्ति यियासतः गंतुमिच्छतः पादौ लेढि जिव्रति वा तदा प्रणयात्प्र. याणभंगं ब्रवीति ॥२०६ ॥ पद्यामिति ॥ यदि पश्चिमाभ्यां पन्या श्वा क्षिति तक्षति तनूकरोति खनतीति यावत्। तक्ष तनूकरणे धातुः कीदृक् उद्धलितःधूलीदिग्धः।पुनः कीदृक् दीर्घतरोचनादः दीर्घतर उच्चश्व नादो यस्य स तथा|अथ यो यक्षः । अग्रेवमति वांतिं कुरुते हदते विष्ठांविधत्ते अक्षतांग: अक्षतशरीरो विभेति वास श्वा भयंकरो भयजनको भवति ॥२०७ ॥ अग्रेति ॥ यो जागरूकः अग्रोविणा अग्रपादेन उर्वी पृथ्वीमवदारयन्विकर्षयन्प्रोच्चैः स्थितः प्रस्थितमीक्षते विलोकते अथ वा उत्तममंगभागं कंडूयति स सिद्धिं कुरुते ॥ २०८॥ लांगूलेति ॥ यः श्वा लांगूलजिह्वाकटिपृष्ठभागान्प्रचालयन् हृष्टःसम्मुखमेति तथा याकूजन्पृष्टवपुलिहन्मु. चेष्टो भवतिसश्वा कार्येषु अभीष्ट भमतोभवति।लांगूलं च जिह्वाच कटिपृष्ठभागश्चे
॥ भाषा॥
जो गमन• इच्छा करतो होय वा पुरुषके पाँवकू चाटे वा सुंघे तो स्नेहसू गमनको भंग कहैहै ये जानना ॥ २०६ ॥ पयामिति ॥ जो श्वान पिछाडीके पावनकरके पृथ्वी खोदतो होय, धूलसे भरी होय अथवा जो श्वान अगाडी वमन करतो होय वा विष्टा करतो होय शरीर जाको हीन और प्रहारयुक्त नहीं होय भयवान् होय तो वो श्वान भय प्रगट करै ॥ २०७ ॥ अग्रेति ॥ जो श्वान अगाडीके पात्र करके पृथ्वीकू खोदै का बहुत ऊंचपै स्थित होत स्थित पुरुषन• देखतो होय अथवा उत्तम अंगकू खुजावतो होय तो बो श्वान सिद्धी करै ॥ २०८ ॥ लांगूलेति ॥ जो श्वान पूंछ, जिह्वा, कटि, पृष्ठभाग इनें चलावत प्रसन्नमुख होय सन्मुख आवे तैसेही शब्द करत पीठ शरीर इनें चाटतो हुयो सुंदर
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