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पोदकीरुते धान्यनिष्पत्तिप्रकरणम् । (२०७) तारापि भूत्वोपदि याति दीप्तं विरुद्धभावा शकुनैकदेवी ॥ तदेति पृथ्वीशहुताशपरैरुत्साद्यतेशस्यमवाप्तवृद्धि ॥३५४॥ कीटजग्धमफलांकुरशाख माखिनं श्रयति दक्षिणगापि ॥ पोदकी यदि तदा खलु धान्य क्षयंति शलभाखुशकाद्याः ॥३६५॥ दक्षिणेरटतिगच्छति वाम एपमाश्रयतिकर्मवि पाकात् । पांडवी यदि तदा नियमेन ब्रीहयः पयति । पाकम् ॥ ३५६॥ पूर्णोत्पत्तिः पूर्णया तारया स्याद त्वर्द्रतारा ब्रवीति ॥ धान्यस्य स्याद्रामया सर्वनाशस्तस्य त्वद्धनाशयत्यर्द्धवामा ॥३५७ ॥
॥ टीका ॥
दग्धवृक्षमधिरोहति तदा मुरक्षितस्यापि पक्वस्य धान्यस्य अमितो दाहः स्यात् ।। ॥ ३५३ ॥ तारापीति ॥ यदि विरुद्धभावा शकुनैकदेवी तारापि भूत्वा दीप्त स्थलं याति पृथ्वीशद्वताशचौरैः अवाप्तवृद्धि शस्यमुत्साद्यते दूरीक्रियते ॥ ३५४ ॥ कीट इति ।। यदि दक्षिणगापि पोदकी कीटजग्धं अफलांकुरशाख फलांकुरशाखा वर्जितं शाखिनं श्रयति तदा शलभाखुशुकाद्या इति शलभाः तीडी इति प्रसिद्धाः आखवः मूषकाः शुकाद्याः प्रतीताः खलु निश्चयेन धान्यं भक्षयंति ॥ ३५५ ॥ दक्षिण इति ॥ यदि पोदकी दक्षिणे रटति कर्मविपाकादीप्तं वामं स्थानं आश्रयति तदा नियमेन ब्रीहयः न पाकं समुपयाति ॥ ३५६ ॥ पूर्णति ॥ पूर्णया तारया पूर्णोत्पत्तिः धान्यस्य स्यात् । अर्थोत्पत्ति अर्धतारा ब्रवीति वामया धान्य
॥ भाषा॥ जो शुभ शब्दकर जमनी चली जाय और भस्मा होय दग्धवृक्षके ऊपर जाय बैठे तो खूब रक्षा जाकी होय रही होय पकोहुयो धान्य होय तो अग्निकर जर जाय ॥ ३५३ ॥ तारापीति ॥ जो पोदकी विरुद्धभाव होय फिर तारा भी होय करके दीप्तस्थानमें आय जाय तो राजा करके अग्निकरके चौर करके धान्यकी बृद्धि नाश करै ॥ ३५४ ॥ कीट इति ॥ जो पोदकी जेमनी भी होय कीडाको खायो फल अंकुर शाखा रहित वृक्षपै स्थित होय तो टीडी मूसासू या इनकू आदिले जन्तु निश्चयही धान्यकू भक्षण करें ॥ ३६५ ॥ दक्षिण इति ॥ जो पोदकी जेमने भागमें शब्द करै कोई कर्म फलसूं वाममें होय दीप्तस्थानमें स्थित होय तो नियम करके चावल परिपक्क नहीं होय ॥ ३५६ ॥ पूर्ण इति ॥ जो श्यामा दक्षिणभागमें
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