Book Title: Surishwar aur Samrat Akbar
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Vijaydharm Laxmi Mandir Agra
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003208/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education furama dainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट अकबर। मूल गुजराती लेखकमुनिराज श्रीविद्याविजयजी। अनुवादककृष्णलाल वर्मा। ADDARDOICROREHLOROSPORTET उपोद्घातके लेखकरायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा. प्रकाशकश्रीविजयधर्मलक्ष्मी-ज्ञानमंदिर आगरा. संवत् १९८० ] वीर संवत् २४५० [ धर्म सं. २ मूल्य ४॥) ADDRESORiches Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T बडोदा, घी लहाणा मित्र स्टीम प्रेसम टकर लिये छापकर प्रकट किया. ता. १-३-२४. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि, ए. एम. ए. एस. बी. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची। १ प्रस्तावना (मूळ लेखककी) ... .... २ सहायक ग्रंथ-सूची . ३ उपोद्घात ( रा. ब. पं. गौरीशंकर ओझा द्वारा लिखित ) ४ अनुवादका कथन.... .... ५ प्रकरण पहिला; परिस्थिति .... ६ , दूसरा; सूरिपरिचय.... ७ , तीसरा सम्राट् परिचय ८ , चौथा; आमंत्रण .... , पाँचवाँ; प्रतिबोध .... , छठा; विशेष कार्य-सिद्धि , सातवाँ; सूबेदारोंपर प्रभाव ..... , आठवाँ; दीक्षादान ... , नवा; शिष्यपरिवार , दसवाँ; शेष पर्यटन.... १५ , ग्यारहवाँ; जीवनकी सार्थकता .... १६ , बारहवाँ निर्वाण ... .... १७ , तेरहवाँ; सम्राट्का शेषजीवन १८ परिशिष्ट ( क ); फर्मान नं. १ का अनुवाद । १९ , (ख) , नं. २ , ... ३७९ २० , (ग); " न. ३ , २१ , (घ); " न. ४ , २२ , (ङ); , न. ५ , (च); , नं. ६ ॥ २४ , (छ); पोटगील.पणारी पिनहरोके दो पत्र.... ३९७ २६, (ज); अकबरके समयके सिक्के orror Morror ... ३८२ .... ३८७ .... ३९० .... ३९३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन । प्रस्तुत पुस्तकको छपकर तय्यार हुए करीब एक वर्ष हो गया, परन्तु कई अनिवार्य कारणों से हम जनताके करकमलों में यह पुस्तक उपस्थित करने में विलम्बित हुए । इसके लिये क्षमाप्रार्थी हैं। हम चाहते थे कि-ऐसे उत्तम ग्रंथों कर्ताकी फोटू देकर उसके द्वारा कर्ताका परिचय पाठकों से करा; परन्तु कर्ता मुनिवरने इसपर अपनी अनिच्छा प्रकटकर, अपने निप्त गुरुदेवकी शीतल छायामें बैठकर-उनकी कृपासे इस ग्रंथ का निर्माण किया है, उन्हीं स्वर्गस्थ आचार्य श्रीविनयधर्मसूरीश्वरजी महारानका फोटू देने की सम्मति देनेसे उनका फोटू इस ग्रंथमें दिया गया है। पौष व. ५, वीर सं. २४९१ । धर्म सं. ३ प्रकाशक. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजाधिराज, श्रीमान् माधवराव सिंधिया, आलीजाह बहादुर. Jain Education Intemational , Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V समर्पण। जो - महाराजाधिराज, श्रीमान् माधवराव सिंधिया, आलीजाह बहादुर; जी. सी. एस. आई; als _____ जी. सी. वी. ओ; नी. वी. ई ए डी.सी. ग्वालियर. श्रीमन्महोदय, एक उच्चकोटिके राज्याधिपतिमें धार्मिक उदारता, प्रजावत्सलता, न्यायप्रियता, शूरवीरता, कार्यदक्षता, ईष्टदेवोपासना एवं अनुपम मातृभक्ति आदि जो गुण होने चाहिएं, वे आपमें देखकर धार्मिक एवं ऐतिहासिक यह ग्रंय आपहीको समर्पण करता हूँ। श्रीविजयधर्मसूरि समाधि मंदिर । शिवपुरी (ग्वालीयर) मार्गशीर्ष शुक्ला २, वीर सं, २४५१॥ धर्म सं. ३ विद्याविजय. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जगद्गुरु श्रोहीरविजयसूरि. निर्वाण सं. १६५२० चन्म सं. १५८३. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। जनसाधुआन गुजरसाहित्यकी सेवा सनत ज्यादा का ह । इस बातको वर्तमानके सभी विद्वानोंने, अब स्वीकार कर लिया है। मगर देशसेवा करनेमें भी जैनसाधु किसीसे पीछे नहीं रहे हैं, इस बातसे प्रायः लोक अजान हैं । कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य और ऐसे ही दूसरे अनेक जैनविद्वान् हो गये हैं कि जिनका सारा जीवन देशकल्याणके कार्योंमें ही व्यतीत हुआ था। यह बात,उनकी कार्यावलीका सुक्ष्मदृष्टिसे निरीक्षण करनेपर, स्पष्टतया मालुम हो जाती है। वे दृढतापूर्वक मानते थे कि-" देशकल्याणका आधार अधिकारियोंकीसत्ताधारियोंकी अनुकूलतापर अवलम्बित है।" और इसी लिए उनका यह विश्वास था कि,-" लाखों मनुष्योंको उपदेश देनेसे जितना लाभ होता है उतना ही लाभ एक राजाको प्रतिबोध देनेसे होता है।" इस मन्तव्य और विश्वासहीके कारण वे मानापमानकी कुछ परवाह न करके भी राज-दर्वारमें जाते थे और राजामहाराजाओंको प्रतिबोध देते थे । कहाँ प्राचीन जैनाचार्योंकी वह उदारता और कहाँ इस जीती-जागती बीसवीं सदीमें भी कुछ जैनसाधुओंकी संकोचवृत्ति ? प्राचीन समयमें देशकल्याणके काम करनेवाले अनेक जनसाधु हुए हैं। उन्हींमसे हीरविजयसूरि मी एक हैं । ये महात्मा सोलहवीं शताब्दिमें हुए हैं । इन्होंने जैनसमाजहीको नहीं समस्त मारतको और मुख्यतया गुजरातको महान् कष्टोंसे बचानेका प्रयत्न किया है और अपने शुद्ध चारित्रबलसे उसमें सफलता पाई है । इस बातको बहुत ही कम लोग जानते हैं। थोडे बहुत जैन हीरविजयसूरिके Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जीवनसे परिचित है; मगर उन्होंने सूरिजीके चरित्रका एक ही पक्षसे -धार्मिक दृष्टिहीसे-परिचय पाया है, इस लिए वे भी उनको भली प्रकार पहचानते नहीं हैं। हीरविजयमूरि भले अकबरके दरिमें एक जैनाचार्य की तरह गये हों और भले उन्होंने प्रसंगोपात्त जैनतीर्थोंकी स्वतंत्रताके लिए, अकबरको उपदेश देकर पट्टे परवाने करवाये हों; मगर उनका वास्तविक उपदेश तो समस्त भारतको सुखी बनानेहीका था। जो हीरविजयसूरिके जीवनका पूर्णतया अध्ययन करेगा वह इस बातको माने विना ल रहेगा । 'जजिया' बंद कराना, लड़ाईमें जो मनुष्य पकड़े जाते थे उन्हें छुड़ाना ( बंदी-मोचन ) और मरे हुए मनुष्यका धनग्रहण नहीं करनेका बंदोबस्त करना-ये और इसी तरहके दसरे कार्य भी केवल जैनोंहीके लिये ही नहीं थे बरके समस्त देशकी प्रजाके हितके थे। क्यों भुलाया जाता है, भारतके आधार गाय, भैंस, बैल और भैंसों आदि पशुओंकी हत्याको सर्वथा बंद कराना, और एक बरसमें जुदाजुदा मिलकर छः महीने तक जीवहिंसा बंद कराना, ये भी सभी भारत-हितके ही कार्य थे। इस कथनमें अतिशयोक्ति कौनसी है ? जिस पशुवधको बंद करनेके लिए आज सारा भारत त्राहि त्राहि कर रहा है तो भी वह बंद नहीं होता, वही पशुवध केवल हीरविजयसूरिके उपदेशसे बंद हो गया था । यह क्या कम जनकल्याणका कार्य था ? ऐसे महान् पवित्र जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिजीके वास्तविक जीवनचरित्रसे जनताको वाकिफ करना, यही इस पुस्तकका उद्देश्य है । इस उद्देश्यको ध्यानमें रखकर ही इस ग्रंथकी रचना हुई है। ई. सन् १९१७ के चातुर्मासमें, सुप्रसिद्ध इतिहासकार विन्सेन्ट ए. स्मिथका अंग्रेजी — अकबर' जब मैंने देखा, और उसमें हीरविजयसरिका भी, अकबरकी कार्यावलिमें, स्थान दृष्टिगत हुआ, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब मेरे मनमें इस भावनाका उदय हुआ कि, केवल धार्मिक दृष्टिहीसे नहीं बल्के ऐतिहासिक और धार्मिक दोनों दृष्टियोंसे, हीरविजयसूरि और अकबरसे संबंध रखनेवाला एक स्वतंत्र ग्रंथ लिखना चाहिए । इस विचारको कार्य में परिणत करनेके लिए मैंने उसी चातुर्माससे इस विषयके साधन एकत्र करनेका कार्य प्रारंभ कर दिया। जब कार्य प्रारंभ किया था तब, स्वप्नमें भी, मुझे यह खयाल न आया था कि, मैं इस विषयमें इतना लिख सकूँगा, मगर जैसे जैसे मैं गहरा उतरता गया और मुझे अधिकाधिक साधन मिलते गये वैसे ही वैसे मेरा यह कार्यक्षेत्र विशाल होता गया; और उसका परिणाम यह हुआ कि, जनताके सामने मुझे, अपने इस क्षुद्र प्रयासका फल उपस्थित करनेमें दीर्घकालका भोग देना पड़ा । साधुधर्मके नियमानुसार एक वर्ष आठ महीनेतक हमें पैदल ही परिभ्रमण करना पड़ता है इससे भी पुस्तकके तैयार होनेमें बहुत ज्यादा समय लग गया । इस पुस्तकमें यथासाध्य, प्रत्येक बातकी सत्यता इतिहासद्वारा ही प्रमाणित करनेका प्रयत्न किया गया है । इसी लिए हीरविजयसूरिके संबंधकी कई ऐसी बातें छोड़ दी गई हैं, जिन्हें लेखकोंने केवल सुनकर ही बिना आधारके लिख दिया है। मैंने इस ग्रंथमें केवल उन्हीं बातोंका मुख्यतया, उल्लेख किया है जिन्हें हीरविजयमूरिने अथवा उनके शिप्योंने अपने चारित्रगल और उपदेशद्वारा की-कराई थीं और जिनको जैन लेखकोंके साथ ही अन्यान्य इतिहासकारोंने भी लिखा है। इस ग्रंथको पढ़नेवाले भली भाँति जान जायँगे कि, हीरविजयसूरि और उनके शिष्योंने, केवल अपने चारित्रबल और उपदेशके प्रभावहीसे, अकबरके समान मुसलमान सम्राटपर गहरा असर डाला था । यही कारण था कि जैनोंका संबंध मुगल साम्राज्यके साथ अकबर तक ही नहीं रहा बल्के पीछे ४, ५ पीढ़ी तक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जहाँगीर, शाहजहाँ, मुरादबख्श, औरंगजेब और आज़मशाह तक-घनिष्ठ रहा था । इतना ही नहीं उन्होंने भी अकबरकी तरह अनेक नये फर्मान दिये थे । अकबरके दिये हुए कई फर्मानोंको भी उन्होंने फिरसे कर दिया था। ऐसे कुछ फर्मानों के हिन्दी एवं अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित भी हो चुके हैं। इनके अलावा हमारे विहारभ्रमण के समय, खंभातके प्राचीन जैनभंडारोंको देखते हुए, सागरगच्छके उपाश्रयमेंसे अकबर और जहाँगीरके दिये हुए छः फ़र्मान ( जहाँगीरके एक पत्रके साथ ) अकस्मात् हमें मिल गये । खेद है कि उन छः फर्मानोंमेंसे एक फ़र्मानको-जो जहाँगीरका दिया हुआ है; जिसमें विजयसेनसूरिके स्तूपके लिए,खंभातके निकटवर्ती अकबरपुरमें, चंद संघवीके कहनेसे दस बीघे जमीन देनेका उल्लेख है, बहुत जीर्ण होजानेसे जिसका हिन्दी अनुवाद न हो सका-मैं इस पुस्तकमें न दे सका । शेष असल पाँच फर्मान-जो इस पुस्तकमें आई हुई कई बातोंको पुष्ट करते हैं-उनके हिन्दी अनुवाद सहित परिशिष्टमें लगा दिये हैं। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि, यद्यपि अकबरके बाद भी आज़मशाहतक जैनों और जैनसाधुओंका संबंध रहा था; तथापि अकबरके जितना प्रगाढ संबंध तो केवल जहाँगीरके साथ ही रहा था । पृष्ट २४०-२४१ में वर्णित जहाँगीर और भानुचंद्रजीकी मेट तथा परिशिष्ट (ङ) का पत्र इस बातको परिपुष्ट करता है। इस तरह जहाँगीर केवल तपागच्छके साधु भानुचंद्रजी और विजयदेवसूरिजीहीको नहीं चाहता था बल्के खरतरगच्छके साधु मानसिंहजी-जिनका प्रसिद्ध नाम जिनसिंहसरि था और जिनका परिचय इसी पुस्तकके पृ० १५६ में कराया गया है के साथ भी उसका अच्छा संबंध था। हाँ पीछेसे न मालूम क्यों जहाँगीर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी उपेक्षा करने लग गया था, यह बात जहाँगीरद्वारा लिखे हुए अपने आत्मचरित- तौज़के जहाँगीरी' के प्रथम मागसे मालूम होती है। इस पुस्तकका मुख्य हेतु अकबर और हीरविजयसूरिका संबंध बताना ही था। इसलिए अकबरके बादके बादशाहोंके साथ जैनसाधुओंका कैसा संबंध रहा था सो बतानेका प्रयत्न मैंने, इप्त पुस्तकमें नहीं किया । मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि, जैसे जैसे विशेष रूपसे इस विषयका अध्ययन करनेकी मुझे सामग्री मिलती गई, वैसे ही वैसे अनेक नई बातें भी मालूम होती गई । उनमेंसे यद्यपि कइयोंको मैंने इस पुस्तकमें स्थान दिया है तथापि अनेकको विवश छोड़ देना पड़ा है। इतिहासके अभ्यासियोंसे यह बात गुप्त नहीं है कि, जितने हम गहरे उतरते हैं उतनी ही नवीन बातें इतिहासमेसे जाननेको मिलती हैं। ____ मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह पुस्तक एक ऐतिहासिक पुस्तक है; तो भी मैंने इस बातका प्रयत्न किया है कि, पाठकोंको इतिहासकी नीरसताका अनुभव न करना पड़े । मेरी नम्र मान्यता है कि,-प्रजाकी राजाके प्रति कैसी भावनाएँ होनी चाहिएं और राजामें किन किन दुर्गुणोंका अभाव व किन किन सद्गुणोंका सद्भाव होना चाहिए ? इस बातको जाननेके लिए इस पुस्तकमे चित्रित अकबरका चरित्र जैसे जनताको उपयोगी होगा; वैसे ही यह समझनेके लिए, किएक साधुका-धर्मगुरुका-नहीं नहीं एक आचार्यका समाज और देशकल्याणके साथ कितना घनिष्ठ संबंध होता है और संसारी मनुष्यकी अपेक्षा एक धर्मगुरुके सिर कितना विशेष उत्तरदायित्व होता है; इस पुस्तकमें वर्णित आचार्यश्री हीरविजयसूरिकी प्रत्येक बात सचमुच ही आशीर्वादरूप होगी। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आन्तरिक भक्तिभावसे प्रेरित होकर मैंने जिन महान प्रभावक आचार्यका जीवन इस ग्रंथमें लिखनेका प्रयत्न किया उन्हीं महान् पुरुषका ( हीरविजयसूरिका ) वास्तविक चित्र मुझे कहींसे भी प्राप्त न हुआ,इस लिए वह इसमें न दिया जासका । विवश उनके निर्वाण होनेके थोड़े ही दिन बाद स्थापित की हुइ पाषाणमूर्ति, जो कि 'महुवा' (काठियावाड़) में विद्यमान है, उसीका फोटो इसमें दिया गया है । यद्यपि अज्ञानजन्य प्रचलित रूढिके कारण श्रावकोंने चांदीके टीले लगाकर मूर्तिकी वास्तविक सुन्दरता बिगाड़ दी है तथापि यह समझकर इसका फोटो दिया गया है कि, इसके द्वारा वास्तविक फोटोकी कई अंशोंमें पूर्ति होगी। इस पाषाण-मूर्तिके नीचे जो शिलालेख है। वह पूरा यहाँ उद्धृत किया जाता है। “१६५३ पातसाहि श्रीअकबरपवर्तित सं० ४१ वर्षे फा० सुदि ८ दिने श्रीस्तंभतीर्थवास्तव्य श्रा० पउमा (भा०) पांची नाम्न्या श्रीहीरविजयसूरीश्वराणां० मूर्तिः का०प्र० तपागछे (च्छे) श्रीविजयसेनसूरिभिः।" इस लेखसे ज्ञात होता है कि, हीरविजयसूरिके निर्वाणके बाद दूसरे ही बरस खंभातनिवासी श्रावक पउमा और उसकी स्त्री पाँची नामकी श्राविकाने यह मूर्ति करवाई थी और उसकी प्रतिष्ठा विजयसेनमूरिने की थी। इस पुस्तकके दूसरे नायक अकबर और उसके मुख्य मंत्री अबुल्फ़ज़लके चित्र डा० एफ डब्ल्यु थामसने, ' इंडिया ऑफिस लायब्ररी -जो लंदनमें है- मेंसे पूज्यपाद परमगुरु शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजके पास भेजकर, इस पुस्तककी शोभाको बढ़ानेमें कारणभूत हुए हैं, अतएव मैं उन्हें धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान कालमें प्रस्तावना पुस्तकका भूषण समझी जाती है। इसलिए इस पुस्तककी प्रस्तावना या उपोद्घात लिखनेका कार्य मेरी अपेक्षा विशेष, गुर्नरसाहित्यका, कोई विद्वान करे तो उत्तम हो । वे इस पुस्तकके गुणदोष विशेषरूपसे बता सकें। इस कार्यके लिए मैंने गुर्जर साहित्यके प्रौढ एवं ख्यातनामा लेखक श्रीयुत कन्हैयालाल माणेकलाल मुन्शी बी. ए. एलएल. बी. एडवोकेटको उपयुक्त समझा । त्रे कार्यमें इतने रत रहते हैं कि उन्हें इस कार्यके लिए कहनेमें संकोच होता था; परन्तु उनके समान तटस्थ लेखकके सिवा इसे कर ही कौन सकता था ? अगत्या मैंने उनसे आग्रह किया। अपनी सज्जनताके कारण वे मेरे आग्रहको टाल न सके । कार्यकी अधिकता होते हुए भी उन्होंने उपोद्घात लिखना स्वीकार किया; लिख भी दिया । मुन्शीजीको उनके इस सौजन्यके लिए कौनसे शब्दोमें धन्यवाद दूँ? खंभात हाइस्कूलके हैड मास्टर शाह भोगीलाल नगीनदास एम. ए. को भी मैं धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि उन्होंने अपने हाइस्कूलके फ़ारसी-शिक्षकसे इस पुस्तकमें दिये हुए फ़ारसी फर्मानोंका गुजराती अनुवाद करवा दिया। एल्फिन्स्टन कॉलेज बम्बईके प्रोफेसर शेख अब्दुलकादिर सरफ़राज़ एम. ए. को भी धन्यवाद देता हूँ कि, जिन्होंने परिश्रम करके फर्मानोंके अनुवाद ठीक कर दिये हैं। बहाउद्दीन कॉलेज जूनागढ के प्रोफेसर एस. एच. होडीवाला एम. ए. का नाम भी मैं सादर स्मरण किये विना नहीं रह सकता कि, जिन्होंने पुस्तकके छपेते फार्म देखकर मुझे कई ऐतिहासिक सूचनाएँ दे विशेष जानकर बनाया। अन्तमें मैं एक बातको यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ। वह यह Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) है, - इस ग्रंथको लिखनेमें मुझे ' इतिहासतत्त्व महोदधि ' उपाध्याय श्री इन्द्रविजयजी ( वर्तमान में आचार्यश्री विजयइन्द्रसूरिजी ) की मुझे पूर्ण सहायता मिली है । यदि वे सहायक न होते तो मेरे समान अंग्रेजी, फ़ारसी और उर्दू से सर्वथा अनभिज्ञ व्यक्तिके लिए इस ग्रंथका लिखना सर्वथा असंभव था । इसलिए शुद्ध अन्तःकरणके साथ उनका उपकार ही नहीं मानता हूँ बल्के यह स्पष्ट कर देता हूँ कि, इस ग्रंथको लिखनेका श्रेय मुझे नहीं उन्हें है । शान्तमर्त्ति आत्मबंधु श्रीमान् जयन्तविजयजी महाराजका उपकार मानना भी नहीं भूल सकता; क्योंकि उन्होंने प्रूफ-संशोधन करनेमें मेरी अतीव सहायता की है । गोडीजीका उपाश्रय, पायधौनी, बम्बई. अक्षय तृतीया वीर सं. २४४६. विद्याविजय । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय आवृत्ति । " आधुनिक जैनलेखकों द्वारा लिखे गये ग्रंथोंका जनतामें चाहिए वैसा आदर नहीं होता " जैन समाजमें यह बात प्रायः लोग कहा करते है । मगर किसी लेखकने इस बातकी खोज न की कि, ऐसा होता क्यों है ? यह कहा जाता है कि जैनेतर लोग पक्षपातके कारण, आदर नहीं करते; यह भी सही है मगर यह भी मिथ्या नहीं है कि, जैनलेखकोंकी लेखनपद्धति-एकान्त धार्मिक विषयकी ही पुष्टि, या 'पुराना वह सभी सत्य बतानेकी पद्धति-भी इसका एक खास कारण है। किसी बातको प्रमाणोंद्वारा पुष्ट न करके “ दो सौ वरस पहले अमुक बात हुई थी " " अमुकने ऐसा किया था। इस लिए उसको मानना ही चाहिए, हमें भी करनाही चाहिए; इस तरहका आग्रह यदि जनताको आकर्षित न कर सके तो इसमें आश्चर्यकी मात ही कौनसी है ! मैंने इस बातको ध्यानमें रख कर ही यह ग्रंथ लिखा था और इसी लिए प्रथम संस्करणकी भूमिकामें मैंने लिखा था कि, " इस ग्रंथको लिखने हरेक बातकी सचाई इतिहास द्वारा प्रमाणित करनेहीका प्रयत्न किया गया है। इसी लिए, हीरविजयसरिसे संबंध रखनेवाली कई बाते-जो केवल किंवदन्तियोंके आधार पर कुछ लेखकोंने लिखी है-इस ग्रंयमें छोड़ दी गई हैं। मैंने इसमें मुख्यतया केवल उन्हीं बातोंका उल्लेख किया हैं जिन्हें जैन लेखकोंके साथही जैनेतर लेखकोंने भी एक या दूसरे रूपमें स्वीकार किया है । मुझे यह लिखते हर्ष होता है कि, मेरी इस मनोवृत्ति और धारणाके अनुसार लिये गये इस क्षुद्र प्रयत्नका जनताने अच्छा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) आदर किया है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि, भारत के हिन्दी गुजराती एवं बंगाल के प्रायः प्रसिद्ध पत्रोंने एवं विद्वानोंने इस कृतिको मीठी नजरसे देखा है और इसके विषयमें उच्च अभिप्राय दिये हैं; कई पत्राने इसके उद्धरण लिये हैं । यहाँ तक कि, 'प्रवासी' के समान बँगला के प्रसिद्ध मासिकपत्र में भी इसके आधार से लिखे हुए बड़े बड़े लेख प्रकाशित हुए हैं। जनता का यह आदर मेरे क्षुद्र प्रयत्नकी सफलता - चाहे वह थोडे अंशोंही में क्यों न हो - बताता है । इससे प्रसन्न होना मेरे लिए स्वाभाविक बात हैं। दूसरी तरफ जैनसमाज भी जो अपने इन महान् परम प्रमादक आचार्यको उनके वास्तविकस्वरूपर्मे न देख सका था - मेरे इस प्रयत्नसे सूरिजीको वास्तविक स्वरूपमें देख सका है और अबतक जिन्हें वह एक सामान्य आचार्य या साधु समझता था उन्हें वह महान् पुरुष समझ उनकी जयन्ती मनाने लगा है; यह बात भी मेरे लिए प्रसन्नता की है । इस तरह यह ग्रंथ एक इतिहास - मुख्यतया जैन इतिहास- ग्रंथ होने परभी इसने जैन और जैनेतरोंमें अच्छा आदर पाया है । यही कारण है कि प्रकाशकको इतनी जल्दी इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा है । दूसरा संस्करण यद्यपि छपकर बहुत दिनसे तैयार रक्खा था तथापि एक नवीन फर्मानका - जो इसके अंदर परिशिष्ट 'च' में दिया गया है- अनुवाद न हो सका इससे तथा कई अन्य अनिवार्य कारणों से इसको प्रकाशित करने बहुत विलंब हो गया । प्रथमावृत्तिकी अपेक्षा इस आवृत्ति में यह विशेषता है कि, इसमें एक फर्मान नया दिया गया है। खंभातसे मिले हुए अकबर और जहाँगीर के छः फर्मानों में एक फर्मान - जो जहांगीरका दिया हुआ है- अति जीर्ण होने एवं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) उसका अनुवाद संतोषकारक न हो सकने के कारण प्रथम संस्करणम नहीं दिया गया था; हाँ उसका उल्लेख प्रथम संस्करणकी भूमिका जरूर कर दिया गया था, वही फर्मान इसबार परिशिष्ठ 'च' में दे दिया गया है । अन्य पाँच फर्मानोंकी भांति यह फर्मान भी जैन इतिहासमें बहुत महत्त्वका है। हीरविजयसूरिके प्रधान शिष्य विजयसेनमूरिका स्वर्गवास खंभातके पासका अकबरपुरमें हुआ था । उनका स्मारक कायम रखनेके लिए, स्तूपादि करानेको, दश वीघा जमीनका एक टुकडा चंदू संघवीने बादशाह जहाँगीरसे माँगा था। बादशाहने 'मदद-ई-मुभाश । जागीरके रूपमें, अकबरपुरहीमें उतनी जमीनका भाग दे दिया था। इस पुस्तक के २३८ । पृष्ठमें निस बातका उल्लेख हैं उसको यह फर्मान अक्षरशः प्रमाणित करता है। पाठक देखेंगे कि इस फर्मानमें केवल भूमी देने की ही बात नहीं है, इसमें उसके शारीरकी आकृतिका और उसने कैसे मौके पर जमीन माँगी थी इसका भी पूर्ण उल्लेख है। अतः यह फर्मान विजयसेनमरिके स्मारकके साथ घनिष्ठ संबंध रखनेवाला होनेसे ऐतिहासिक सत्यको विशेष दृढ करता है। . यह फर्मान बहुत जीर्ण था, इसलिए इस का अनुवाद करना अत्यंत कठिन था, तो भी पंजाबके वयोवृद्ध मौलवी महम्मदमूनीरने अत्यधिक परिश्रम करके इसका अनुवाद कर दिया। इसी तरह शिवपुरीके तहसीलदारे नवाब अब्दुलमुनीमने उसकी जाँच कर दी इसके लिए उक्त दोनों महाशयों को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता। अन्तमें-जगद्गुरु हीरविजयसूरि केवल जैनोंहीके नहीं बल्के मारतवर्षके उद्धारक एक महान् पुरुष थे । अकबरके समान मुसलमान Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्से परिचय कर देशके अभ्युदय में उन्होंने बहुत बड़ा योग दिया था। और वस्तुतः देखा नाय तो समाज और देशके कल्याणके साथ, साधुओंका-आचार्योंका-धर्मगुरुओंका संसारी मनुष्योंकी अपेक्षा कुछ कम संबंध नहीं हैं । जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिकी तरह, यदि धर्मगुरु समझें तो उनके सिर गृहस्थोंकी अपेक्षा कई गुणा अधिक उत्तरदायित्व है और अपने उत्तरदायित्वको समझनेवाले धर्मगुरु कदापि यह कहनेका साहस नहीं करेंगे कि-" हमारा देशके साथ और स्वदेशीके साथ क्या संबंध है।" कमसे कम अपने इन जगत्पूज्य जगद्गुरुके जीवनकी प्रत्येक घटना पर ही यदि धर्मगुरु ध्यान दें तो उन्हें बहुत कुछ जानकारी हो सकती है। इस लिए धर्मगुरु हीरविजयसूरिके जीवन पर ध्यान दें, उनके जीवनका अनुकरण करें; जैनसमाज हीरविजयसूरिके माहात्म्यको पहचाने, उनकी महिमा सर्वत्र फैलावे और प्रत्येक गाँवहीमें नहीं बरले प्रत्येक घरमें उनकी वास्तविक जयन्ती मनाई जाय, यही हार्दिक इच्छा प्रकटकर अपना कथन समाप्त करता हूँ : श्रीविजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमंदिर बेलनगंज, आगरा. विद्याविजय. द्वि. ज्ये. शु. ५ वीर संवत् २४४९. धर्म संवत् १ - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात । भारतवर्ष की उन्नति के लिये यहाँ के पहले के राजा महाराजाओं, विद्वानों, धर्माचार्यों, वीरपुरुषों एवं देश हितैषी धनाढ्यों के जीवनचरित्र के ऐतिहासिक दृष्टि से लिखे हुए ग्रंथों की बड़ी आवश्यकता है | हिन्दी साहित्य में ऐसे प्रामाणिक ग्रंथ अब तक बहुत ही कम दृष्टिगोचर होते हैं । मुनिराज विद्याविजयजी ने 'सूरीश्वर अने सम्राट् ' नामक जैनाचार्य हीरविजयसूरिजी और बादशाह अकबर के संबंध का एक अपूर्व ग्रंथ गुजराती भाषा में अनुमान तीन वर्ष पूर्व प्रकाशित कर गुर्जरसाहित्य की बड़ी सेवा बजाई थी और उनका ग्रंथ बड़ी खोज और ऐतिहासिक दृष्टि से एवं विद्वत्तापूर्ण लिखा हुआ होने से साक्षर गुर्जरवर्ग में बड़े महत्व का माना गया और तीन वर्ष के भीतर ही उसका दूसरा संस्करण छपवाने की आवश्यकता हुई । ऐसे अमूल्य ग्रंथ का हिंदी अनुवाद आगरे की श्रीविजयधर्मलक्ष्मीज्ञानमंदिर नामक संस्था ने प्रकाशित कर हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने का प्रशनीय उद्योग किया है । मूलग्रंथ के लेखक मुनिराज विद्याविजयजी ने धार्मिकदृष्टि की अपेक्षा ऐतिहासिकदृष्टि की ओर विशेष ध्यान दिया है और अनेक संस्कृत एवं प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों तथा रासों का पता लगाकर स्थल स्थल पर उन ग्रंथों के अवतरण देकर इस ग्रंथ का महत्त्व और भी बढा दिया हैं | अकबर बादशाह के अनेक जीवनचरित्र अंगरेजी, हिन्दी, गुजराती, बँगला आदि भाषाओं में लिखे गये हैं, परन्तु जैन आचार्यों का प्रभाव उस बादशाह पर कहाँ तक पड़ा और उनके उपदेश से जीवहिंसा को रोकने तथा लोकोपकार का कितना प्रयत्न उक्त Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) महान् बादशाह ने किया इसका वास्तविक वृत्तान्त ग्रंथ में नहीं मिलता । अलवत्तह विन्सेंट स्मिथ " में इस विषय पर थोड़ा सा I " अकबर दी ग्रेट मुगल' नामक पुस्तक प्रकाश डाला हैं जो प्रयाप्त नहीं है । जैन आचार्यों की पहले ही से इतिहास की तरफ रुचि है और उन्होंने कई महापुरुषों के जीवनचरित्रों का, जो कुछ उनको मिल सके, अनेक पुस्तकों में संग्रह कर इतिहास प्रेमियों के लिये बड़ी सामग्री रख छोड़ी है । ऐसे ग्रंथों में 'कुमारपालचरित', 'कुमारपालप्रबन्ध ', ' प्रबन्ध चिन्तामणि ' चतुर्विंशतिप्रबंध', ' विचार श्रेणी', 'हंमीरमदमर्दन ', ' द्वयाश्रयकाव्य ', ' वस्तुपालचरित आदि संस्कृत ग्रंथों से मध्ययुगीन इतिहास की कई बातों की रक्षा हुई हैं। ऐसे ही कई 'रास', 'सज्झाय' आदि पुरानी गुजराती अर्थात् अपभ्रंश भाषा के ग्रंथ लिखकर पुराने गुजराती साहित्य की सेवा के साथ उन्होंने अनेक महापुरुषों के चरित्र अंकित किये हैं । इन आचार्यों ने केवल इतिहास और साहित्य की ही सेवा नहीं की किन्तु लोगों को धर्माचरण में प्रवृत्त कर उनको सदाचारी बनाने का निःस्वार्थ बुद्धि से बड़ा ही यत्न किया है । 7 किसी प्रकाशित महाशय ने अपने ऐसे अनेक जैन धर्माचार्यों में हीरविजयसूरि भी एक प्रसिद्ध धर्मप्रचारक हुए। इनकी प्रतिष्ठा अपने समय में ही बहुत बढ़ी और कई राजा महाराजा इनका सम्मान करते रहे और बादशाह अकबर ने भी बड़े आग्रह के साथ इनको गुजरात से अपने दरबार में बुलाकर इनका बड़ा सम्मान किया । जैसे अकबर बादशाह ने मुसलमानों के हिजरी सन् को मिटाकर अपनी गद्दीनशीनी के वर्ष से गिनती लगाकर ' सन् इलाही' नामक नया सन् चलाया और मुसलमानी महीनों के स्थान में ईरानी महीनों और तारीखों के नाम प्रचलित किये वैसे Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही इस्लाम धर्म की जगह दीन-इ-इलाही नाम का नया धर्म चलाना चाहा । उसी विचार से वह हिन्दुओं, पारसियों, ईसाइयों और जैनों आदि के धार्मिक सिद्धान्तों को जानने के लिये उन धर्मों के ज्ञाता उत्तमोत्तम विद्वानों को अपने दरबार में सम्मान पूर्वक बुलाकर उनके सिद्धान्तों को सुनता और उन पर विवाद करता । बादशाह का यह उद्योग अपने विचारे हुए नये धर्म के सिद्धान्तों को स्थिर करने के लिये ही था। जैनधर्म के सिद्धान्तों को सुनने के लिये हीरविजयसूरि, शान्तिचंद्र उपाध्याय, भानुचंद्र उपाध्याय और विनयसेनसूरि आदि जैन तत्वज्ञों को समय समय पर अपने दरबार में बुलाया, इनमें हीरविनयसूरि मुख्य थे। बादशाह अकबरने जैन धर्म के सिद्धान्तों को सुनकर धर्मरक्षा, जीवदया आदि लोकहित के अनेक कार्य किये और इन्हीं धर्मगुरुओं के प्रभाव से वर्ष भर में ६ महीनों तक अलग अलग समय पर अपने राज्यभर में जीवहिंसा को रोक दिया, जिसके लिये कुछ मुसलमान इतिहासलेखकों ने उसको भला बुरा भी सुनाया है। ऐसे ही जैनतीर्थों के संबंध के कई फरमान भी दिये थे जिनमें से कुछ पहले भी प्रसिद्ध हुए और ६ इस पुस्तक के परिशिष्ट में अनुवाद सहित छपे हैं जिनसे अकबर की धर्मनी ते का परिचय मिलता है । अकबर के समय से जैन धर्माचार्यों का बादशाही दरबार में सम्मान होता रहा और जहाँगीर को भी उनपर बड़ी श्रद्धा थी ( देखो नागरीप्रचारिणी पत्रिका, भाग २, पृ. २४७ )। हीरविजयसूरिजी अपने समय में ही अपनी विद्वत्ता, तपस्या और सद्गुणों से बहुत ही लोकप्रिय हो गये थे और उनका चरित्र देवविमलरचित 'हीरसौमाग्य काव्य ' पद्मसागर रचित 'जगद्गुरु काव्य ' आदि संस्कृत ग्रन्थो में तथा श्रावक ऋषभदास रचित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) हीरविजयसूरि रास' आदि कितने ही पुरानी गुजराती भाषाके ग्रंथों में भी अंकित किया गया है । उनकी लोकप्रियता का एक उदाहरण यह भी है कि उनके स्वर्गवास के दूसरे ही वर्ष स्तंमतीर्थ ( खंभात ) के रहने वाले श्रावक पउमा और उसकी स्त्री पाँची ने उनकी पाषाण की मूर्ति भी बनवाई थी जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १६५३ और अकबर के नये चलाये हुए इलाही सन् ४१ में तपागच्छ के विजयसेनसूरि ने की थी ऐसा उस मूर्ति पर के लेखसे पाया जाता है । यह मूर्ति अब काठियावाड के महुवा नामक ग्राम में 1 विद्यमान है । & मुनिराज विद्याविजयजी बड़े भाग्यशाली हैं कि उनको ऐसे प्रसिद्ध आचार्य का जीवनचरित्र लिखने के लिये जैनसाहित्य से बहुत बड़ी सामग्री मिल गई जिसके आधार पर एवं अन्य भाषाओं की अनेक पुस्तकों से इस ग्रंथरत्न को निर्माण किया । इस ग्रंथ कं. सर्वाग सुन्दर बनाने के लिये हीरविजयसूरिजी की उपर्युक्त मूर्तिका, स्वर्गस्थ शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिजी का, जिनको यह ग्रंथ समर्पित किया गया है, बादशाह अकबर का, शेख अबुल फ़ज़ल का तथा ६ फारसी फरमानों के छायाचित्र ( फोटो ) और सूरिजी के गन्धार गाँव (गुजरात में ) से लगाकर फतहपुरसीकरी में बादशाह के दरबार में उपस्थित होने तक के मार्ग का सुन्दर मानचित्र भी दिया है । इस ग्रंथ में केवल हीर विजयसूरिजी का ही वृत्तान्त नहीं है किन्तु बादशाह अकबर तथा हीरविजयसूरिजी के शिष्यसमुदाय संबंधी इसमें अनेक ज्ञातव्य बातों पर बहुत कुछ नया प्रकाश डाला गया है । इस ग्रंथ की रचना में यह एक बड़े महत्त्व की बात है कि इसमें जिन जिन स्थानों या पुरुषों के नाम आये हैं उसका पूरा पता लगाकर टिप्पणों में उनका बहुत कुछ विवरण दिया है । इस ग्रंथरत्न के विषय का विवेचन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) तो पाठकों को मूल ग्रंथ के पठन से ही होगा परन्तु यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इतिहास के ग्रंथ बहुधा नीरस होते हैं, परन्तु यह ग्रंथ पढ़ने वाले को सरस ही प्रतीत होता है और धर्मसंबंधी पक्षपात से भी बहुधा रिक्त है। ऐतिहासिक ग्रंथों के लेखकों को मुनिराज के इस ग्रंथ का अनुकरण करना चाहिये और यदि इसी शैली से सप्रमाण ग्रंथ लिखे जावे तो वे बड़े ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण होंगे। मुनिराज से मेरी यह प्रार्थना है कि वे ऐसे ही और ग्रंथ लिखकर इतिहास की त्रुटि पूर्ण करने में अन्य विद्वानों का हाथ बटावें । हिन्दीसाहित्य में भी यह ग्रंथ बड़े महत्त्व का है अतएव उसके कर्ता और प्रकाशक हिंदी सेवियों के धन्यवाद के पात्र है। अजमेर। ... १७-१२-२३ । गौरीशंकर हीराचंद ओझा। गौरीशंकर हीराचंद ओझा। R ANISA Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ-सूची | ( गुजराती ) १ मीराते अहमदी - पठान निजामखाँ नूरखाँका अनुवाद | २ मीरा सिकंदरी - आत्माराम मोतीराम दीवानजीका अनुवाद | ३ मुसलमानी रियासत - सूर्यराम सोमेश्वर देवाश्रयीका अनुवाद | ४ काठियावाड़ सर्वसंग्रह - ५ मीराते आलमगीरी - ले०, शेख गुलाम महम्मद आबिद मियाँ साहब । ६ अकबर - गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटीका । ७ फार्बस रासमाला - रणछोड़भाई उदयरामका अनुवाद | ( हिन्दी ) ८ सीरोही राज्यका इतिहास — ले०, रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा । ९ अकबर – इण्डिअन प्रेस अलाहाबादका । १० अकबर – गवालियरका । ११ सम्राट् अकबर – पं० गुलज़ारीलास चतुर्वेदीका अनुवाद | १२ भारत भ्रमण - श्रीवेङ्कटेश्वर प्रेसमें मुद्रित । ( बंगाली ) १३ सम्राट् अकबर - श्रीबंकिमचंद्र लाहिडी बी. एल. प्रणीत । १४ समसामायिक भारतेर उनविंश खण्ड – योगेन्द्रनाथ समाद्दार द्वारा संपादित । - १५ भारत वर्ष - - ( मासिक पत्रके कुछ अङ्क ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 80 ) १६ दर्बारे अकबरी-प्रो० आज़ादकृत । ENGLISH 17 Akabar by Vincent A. Smith. 18 The Emperor Akabar translated by A. S. Beveridge Vols. I & II. 19 Akabar by a Graduate of the Bombay University, 20 Akabar translated by M. M. with notes by C. R. Markham. 21 The History of Aryan Rule in India by E. B. Havell. 22 Al-Badaoni Vol. I translated by George S. A. Ranking. & Vol. II translated by W. H. Love. 23 Akabarnama translated by Beveridge Vols. I. II & III. 24 Ain-i-Akabari Vol. I translated by H. Blochmann & Vols. II & III by H. S. Jarrett. 25 The History of Kathiawad by H: W. Bell. 26 Dabistan translated by Shea and Troyer. 27 Travels of Bernier translated by V. A. Smith. 28 The History of India as told by its own Historians by Elliot & Dowson Vols. I-VIII. 29 Local Muhammadan Dynasties by Bayley. 30 Mirati Sikandari translated by F. L. Faridi. 31 The Early History of India by V. A. Smith. 32 The History of fine art in India in Series by V. A. Smith. 33 Storia do Mogor translated by William Irvine 4 Vols. 34 Ancient India by Ptolemy. 35 History of Oxford by Smith, 36 , Gujarat by Edulji Dosabhai. 37 The Mogul Emperors of Hindustan by Holden 38 The Jain Teachers of Akabar by V. A. Smith, (Printed in R. G. Bhandarkar commemoration Volume. ) 39 Catalogue of the Coips in the Punjab Museum, Lahore by R. B. Whitehead Vol. II. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) 40 Catalogue of the Coins in the Indian Museum, Calcutta Vol. III by H. N. Wright. 41 Architecture of Ahmedabad by T. C. Hope and J. Fergusson. 42 The Cities of Gujarashtra by Briggs. 43 Journals of the Punjab Historical Society. 44 The Journal of the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society Vol. XXI. 45 English factories in India by William Foster. ( 1618 1621, 1646-1650 & 1651-1654. ) 46 Description of Asia by Ogilby. 47 Manual of the Musalman Numismatics by Codrington. 48 The Coins of the Mogul Emperors of Hindustan in the British Museum by Stanley Lane-Poole. 49 Collection of voyages & travels Vol. IV. 50 Tavernier's Travels in India Vol. II edited by V. Ball. 51 The History of the Great Moguls by Pringle Kennedy 2 Vols. 52 The History of Gujarat translated by James Bird. 53 Mediaeval India by Stanley Lane-Poole54 The History of India by J. T. Wheeler. Vol. IV part I. 55 Royal Asiatic Society of Great Britain & Ireland ( issues of July and October, 1918. ) B जैनग्रंथ। ( Tatiat) ५६ हीरविजयमूरिरास-लेखक, श्रावक कवि ऋषमदास । वि० H0 $8691 ५७ लाभोदयरास-लेखक, पं० दयाकुशल । वि० सं० १६४९ । ५८ कर्मचंद चौपाई- , पं० गुणविनय । वि०सं० १६५५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) ५९ जैनरासमाला प्रथम भाग-मोहनलाल दलीचंद देसाईद्वारा संपादित । ६० तीर्थमाला-संग्रह-शा० ० श्री विजयधर्मसूरिद्वारा संपादित। ६१ ऐतिहासिक रास-संग्रह तीसरा भाग- , ६२ श्रीविजयतिलकसूरिरास, दो अधिकार-लेखक, पं. दर्शनविजय, सं० क्रमशः १६७९ तथा १६९७ ६३ अमरसेन-वयरसेन आख्यान-ले० श्रीसंघविजयजी वि० ___सं० १६७९ ६४ ऐतिहासिक सज्झायमाला भा. १ ला-मूल लेखक ( विद्याविजनी ) द्वारा संपादित । ६५ मल्लीनाथ रास-लेखक, ऋषमदास कवि । वि० सं० १६०५ ६६ खंभातनी तीर्थमाला- " ६७ खंभातनी तीर्थमाला-ले०, मतिसागर, वि० सं० १७०१ ६८ पदमहोत्सवरास-ले०, पं० दयाकुशल वि० सं० १६८५ ६९ होरविजयसूरि शलोको-ले०, पं. कुँअर विजय । ७० दुर्जनशाल बावनी-ले०, पं० कृष्णदास वि० सं० १६५१ ७१ हीरविजयसूरि कथा प्रबंध । ७२ पट्टावली सज्झाय-ले०, पं० विनयविजय ।। ७३ जैन ऐतिहासिक गुर्जर-काव्य-संचय-श्रीजिनविजयजीद्वारा संपादित (छप रहा है) ७४ शिलालेख-संग्रह-श्रीजिनविजयजी द्वारा संपादित । ७५ प्राचीनलेख-संग्रह....शा० जे० श्रीविनयधर्मसूरि महाराजद्वारा संपादित । अप्रकाशित ७६ प्रश्नोत्तर पुष्पमाला-ले०, श्रीहंसविजयनी महाराज । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) ७७ हीरविजयसूरि सज्झाय — ले०, कविराज हर्षानंद के शिष्य विवेकहर्ष । ७८ परब्रह्म प्रकाश — ले०, विवेकहर्ष । ७९ हीरविजयसूरि - रास (छोटा) - ले०, विवेकहर्ष वि० सं० १६५२ ८० विजयचिन्तामणि स्तोत्र - ले०, पं० परमानंद । विजयसेनसूरिके शिष्य । ८१ महाजन वंश - मुक्तावली - ले०, रामलालजी गणि । ( संस्कृत ) ८२ हीरसौभाग्यकाव्य, संटीक ले० पं० देवविमल । ८३ विजय प्रशस्ति काव्य, सटीक ले०, पं० हेमविजयजी, टीकाकार | पं० गुण विजयजीगणि, टीका सं. १६८८ ८४ जगद्गुरुकाव्य - ले०, पं० पद्मसागर । ८५ कर्मचंद्र चरित्र - ले०, पं० जयसोम । सं० ११५० ८६ गुर्वावली - ले०, मुनिसुंदरसूरि । ८७ कृपारसकोष – ले०, शान्तिचंद्र उपाध्याय । । ८८ सोम - सौभाग्य-काव्य – ले०, पं० प्रतिष्ठासोम सं० १५२४ ८९ तपागच्छपट्टावली - ले०, रविवर्द्धन । ९० तपागच्छपट्टावली - ले०, पं० धर्मसागरजी । ९१ तपागच्छपट्टावली – ले०, उपाध्याय मेघविजयजी । ९२ सूर्यसहस्त्रनाम - ले०, उपाध्याय भानुचंद्रजी । ( विविध ) ९३ जैनशासननो दीवालीनो अंक - ( वि० सं० ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ९४ प्रशस्तिसंग्रह-परमगुरु स्वर्गीय आचार्य महारानद्वारा संग्रहीत । ९५ तपागच्छना आचार्योनी नोटो-स्व० पूज्यपाद आचार्य महाराजद्वारा संग्रहीत । ९६ कॉन्फरन्स हेरल्डनो ऐतिहासिक अंक । - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ सूरीश्वर और सम्राट्। प्रकरण पहिला। परिस्थिति। सार परिवर्तनशील है। इसमें एक भी वस्तु ऐसी दृष्टिगत नहीं होती जो सदैव एक ही स्थितिमें स्थित रही हो । एक समय जिस बालकको हम siness सांसारिक वासनारहित, पालनेमें झूलता देखते हैं, वही कुछ काल बाद, जवानीके मदसे मस्त, सांसारिक मोहक पदार्थोसे परिवेष्टित हमें दिखाई देता है; यह क्या है ? अपने शरीर-बलके मदसे उन्मत्त हो कर जो पृथ्वी पर पैर रखना भी लज्जास्पद समझता है, वही बुढ़ापेमें लकड़ीके सहारे टक टक करता चलता है; यह क्या है ? संसारकी परिवर्तनशीलता या और कुछ ? जिस सूर्यको हम सवेरे ही अपनी प्रखर प्रतापी किरणे फैलाते हुए उदयाचलके सिंहासन पर आरूढ़ होता देखते हैं, वही संध्याके समय निस्तेज हो, क्रोधसे लाल बन अस्ताचलकी गहन गुफामें छिपता हुआ ज्या हमारे दृष्टिगत नहीं होता है ? एक समय हम देखते हैं कि, जगत्को प्रकाशमय बनानेवाला गगन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । मंडल स्वच्छ है; निर्मल है। उसको देखनेसे मनुष्योंकी मानसिक शक्तियोंमें अचानक और ही तरहका विकास और ही तरहकी उस्कान्ति हो जाती है। मगर दूसरे समय में क्या हम नहीं देखते कि, वही गगनमंडल, मेघाच्छन्न हो गया है और मनुष्योंके मन और शरीर उसे देख कर शिथिल तथा प्रमादी बन गये हैं ? जिन नगरों में बडी बड़ी अट्टालिकाओंसे सुशोभित महल मकान थे; गगनचुम्बी मंदिर थे; उत्साही मनुष्य थे; महलों और मंदिरों पर स्वर्णकलश दूरदूरसे दृष्टिगत हो कर, चित्रविचित्र ध्वजाएँ फर्रा कर, वहाँकी प्रजाकी सुख-समृद्धिकी साक्षी दे रहे थे, वे ही आज वन और गुफाएँ दिखाई देते हैं । जहाँ साम्राज्यकी दुंदुभिका नाद सुनाई देता था वहाँ आज सियार रो रहे हैं। जिसके घर ऋद्धि-समृद्धि छलकी पड़ती थी वही आज दरदरका भिखारी बन रहा है । जिस मनुष्य के रूप - लावण्य पर जो लोक मुग्ध हो जाते थे आज वे ही उसीको देख कर घृणासे मुँह फेर लेते हैं । लाखों करोड़ों मनुष्य जिनकी आँखके इशारे पर चलते थे; उन्हीं चक्रवर्तियोंको निर्जन बनोंमें निवास करना पड़ा है। ये सब बातें क्या बताती हैं ? संसारकी परिवर्तनशीलता; उदयके बाद अस्त और अस्तके बाद उदय; सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख । इस तरह संसार, अरघट्टघटीन्याय से, अनादिकाल से चला आरहा है। सुख और दुःख, दूसरे शब्दों में कहें तो उन्नति और अवनतिका प्रवाह अनादि कालसे मनुष्य मात्र पर अपना प्रभाव डालता चला आ रहा है । संसारमें ऐसा कोई देश ऐसी कोई जाति और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है कि, जिस पर संसारकी इस परिवर्तनशीलताने अपना प्रभाव न डाला हो । निदान भारतको भी यदि संसार समुद्रके इस परिवर्तनशीलता - ज्वारभाटेमें चढ़ना उतरना पड़ा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? > Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति। संसारके बहुत बड़े भागको जीतनेवाले बादशाह सिकंदरने इसी भारतमें ऐसे ऐसे खगोलवेत्ता, वैद्य, भविष्यवक्ता, शिल्पी, त्यागी, तत्त्वज्ञानी, खनिजशास्त्री, रसायनविद्, नाट्यकार, कवि, स्पष्टवक्ता, कृषिशास्त्री, नीतिपालक, राजनीतिज्ञ, शूरवीर और व्यापारी देखे थे कि, जिनकी समता करनेवाले किसी देशमें उसको दिखाई नहीं दिये थे। अभिप्राय यह है कि, सब बातोंमें भारतवर्ष अद्वितीय था । भारतवर्षकी समता करनेवाला दूसरा कोई भी देश नहीं था । श्रीयुत बंकिमचंद्र लाहिडी अपनी 'सम्राट अकबर' नामकी बंगला पुस्तकके ८ वें पृष्ठमें लिखते हैं कि, "भारतेर मृत्तिकाय रत्न, स्वर्ण, रौप्य, ताम्र प्रभृति जन्मित । जगतेर सुप्रसिद्ध कहिनूर मारतेइ उत्पन्न हइया छिल । एखानकार वृक्ष लौहर न्याय दृढ़ । एखाने पाहाड़ श्वेत मर्मर, समुद्र मुक्ताफल, वृक्ष चंदनवास ओ वनफूल सौगन्ध प्रदान करे । स्वर्णप्रसू भारते किसेर अमाव छिल ।" ___अभिप्राय इसका यह है कि, भारतकी मिट्टीमें रत्न, स्वर्ण, चाँदी और ताँबा आदि उत्पन्न होते थे। जगत्प्रसिद्ध कोहेनूर ( हीरा) इस भारतहीमें उत्पन्न हुआ था। यहाँके वृक्ष लोहेके समान दृढ़ होते हैं। यहाँके पर्वत संगमरमर, समुद्र मुक्ताफल, वृक्ष चंदन-वास और वनपुष्प सुंगध प्रदान करते हैं । स्वर्णप्रसू भारतमें किस चीजका अभाव था ? इतिहासके पृष्ठ, मथुरा, श्रावस्ति, राजगृही, सोपारक, सारनाथ, तक्षशिला, माध्यमिका, अमरावती और नेपालके कीर्तित्थंभ, शिलालेख और ताम्रपत्र आदि इस समय इस बातकी सप्रमाण साक्षी दे रहे हैं कि, भारतवर्षके भूषण समान चंद्रगुप्त, अशोक, संपति, विक्रमादित्य, श्रोहर्ष, श्रेणिक, कोणिक, चंद्रप्रद्योत, अल्लट, आम (नागावलोक) शिलादित्य, कक्कुक प्रतिहार, वनराज, सिद्धराज और कुमार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। पालके समान हिन्दु और जैन राजाओंने भारतवर्षकी ऋद्धि-समृद्धिको भारतवर्षहीमें सुरक्षित रक्खा था; भारतकी कीर्ति सौरभको दिग्दिगान्तोंमें फैलाया था। इतना ही क्यों, अपनी समस्त प्रजाको निज निज धर्मकी रक्षा करने और प्रचार करनेमें सहायता की थी। यही कारण था कि, भारतीय सरल स्वभावी थे । वे प्रेमके एक ही धागेमें बंधे हुए थे। प्रजाको अपने धन-दौलतकी न कुछ चिन्ता करनी पड़ती थी और न कुछ प्रबंध ही । मदिरा और ऐसे ही दूसरे व्यसनोंसे लोग सदा दूर रहते थे। भारतवर्षका लेन देन प्रायः विश्वास पर ही चलता था । न कोई किसीसे किसी तरहकी जमानत लेता था और न कोई किसीसे किसी प्रकारका इकरारनामा ही लिखाता था। राजा स्वयं जीवहिंसासे दूर रहते थे और प्रनाको भी जीवहिंसासे दूर रखते थे। बहुतसे राजाओंने अपने अपने राज्योंमें शिकार द्वारा, यज्ञ द्वारा या अन्य भाँति, होनेवाली जीवहिंसा बंद कर दी थी। राजा अशोकने अपने राज्यमें इस बातकी घोषणा करवा दी थी कि,-" एक धर्मवाला किसी दूसरे धर्मकी-दूसरे धर्मवालेकी निंदा न करे । " ऐसी उदारवृत्तिवाले राजाके राज्यमें यदि प्रत्येक निर्भीकतासे अपना धर्म पालता था तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्यके समयमें भारत निस उन्नत दशामें था-जैसी इसकी जाहोनलाली थी उससे क्या कोई अनभिज्ञ है ? विद्या, विज्ञान और विविध प्रकारकी कलाओंका विस्तार इसी प्रतापी राजाके राज्यमें हुआ था। आज प्रायः संस्कृतज्ञ विद्वान् सिद्धसेन दिवाकर और कालिदासके समान कवियोंके पवित्र नामोंका बड़े सत्कारके साथ उच्चारण करते हैं । वे भारतके झगमगाते हुए हीरे थे और इसी राजाकी सभाको सुशोभित करते थे। चित्रकला और भुवन-निर्माणकला भी इसी राजाके समयमें बड़े वेगके साथ आगे बढ़ी थी। संगीत, गणित और ज्योतिष विद्याका प्रचार भी विशेषकरके इसी राजाके समयमें हुआ था। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति । राजा श्रीहर्ष के समय में भी भारतीय मनुष्य अखंड शान्ति सागर में स्नान कर रहे थे । यह राजा प्रजाके साथ कैसी सहानुभूति रखता था, कैसी उदारताका वर्ताव करता था, उसका हम यहाँ एक उदाहरण देंगे । प्रत्येक पाँच वर्ष प्रयागमें संगमका मेला होता था । उस मौके पर वह सारी सम्पत्ति--जो पाँच बरसमें एकत्रित होती थी - भिन्न भिन्न धर्मावलम्बियों को दान में दे देता था। जिस समय चीनी यात्री हुयेनसांग ( Huen Tsiang ) भारतमें यात्रा करने आया था उस समय राजा हर्षकी प्रयाग यात्राका छठा उत्सव था । हुयेनसांग भी उसके साथ प्रयाग गया था । उस समय प्रयागमें पाँच लाख मनुष्य जमा हुए थे । उनमें २० राजा भी थे । पाँच बरस में जो सम्पत्ति एकत्रित हुई थी उसको, राजकर्मचारी ७५ दिन तक दानमें देते रहे। वह धन-सम्पत्ति कितने ही कोठारोंमें भरी हुई थी । राजाने अपने रत्नजड़ित हार, कुंडल, माला, मुकुट आदि समस्त आभूषण दानमें दे दिये थे । भारत आर्य राजाकी यह उदारता क्या जगत्को आश्चर्यमें डालनेवाली नहीं है ? इस राजाके समयमें भी संस्कृतकी बहुत ज्यादा उन्नति हुई थी। यह भी जीवहिंसाका कट्टर विरोधी था । इसने अपने समस्त राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया था कि, "जो मनुष्य जीवहिंसा करेगा उसका अपराध अक्षम्य समझा जायगा और उसे मृत्यु दंड दिया जायगा " जिन राजाओंके हमने ऊपर नाम लिखे हैं उनमें से कई जैन थे और कई जैनधर्मके साथ सहानुभूति रखनेवाले । सम्प्रति नामका राजा पक्का जैन था। उसने अनार्य देशों में भी जैनधर्मका प्रचार कराया था। इसमें उसे सफलता भी अच्छी हुई थी। राजा श्रेणिक, कोणिक और चंद्रद्योतने जैनधर्मकी प्रभावना करनेमें कोई कमी नहीं की थी। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mein सूरीश्वर और सम्राट्। इनको महावीरस्वामीके परम भक्त होनेका सम्मान प्राप्त है । राजा आम और शिलादित्यने सम्पूर्णतया जैनधर्मके गौरवकी रक्षा की थी। अन्तिम जैन राजा वनराज, सिद्धराज और कुमारपाल आदिने 'अमारी घोषणा ' कराके अहिंसाधर्मका प्रचार किया था। यह बात किसीसे छिपी हुई नहीं है। इस भाँति हिन्दु और जैनधर्मको पालनेवाले राजा ही क्यों ? शकडाल, विमल, उदयन, वाग्भट्ट और वस्तुपालके समान प्रतापी राजमंत्री भी थोड़े नहीं हुए हैं कि, जिन्होंने अहिंसा- धर्मके फैलानेका प्रशंसनीय उद्योग किया था और जिनका प्रताप समस्त भारतमें फैल रहा था। एक ओर वीरप्रसू भारत माताने ऐसे ऐसे वीर-आर्यधर्मरक्षक राजाओंको उत्पन्न किया था और दूसरी ओर उसने ऐसे ऐसे सच्चरित्र और प्रतापी जैनाचार्योंको जन्म दिया था कि, जिन्होंने अपने अगाध पांडित्यका परिचय दे कर जगतको आश्चर्यमें डाल दिया था। उनकी कृतियाँ आज भी संसारको आश्चर्यमें डाल रही हैं। इतना ही क्यों, उन्होंने ऐसे ऐसे असाधारण कार्य किये हैं कि, जिनका करना सामान्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या है मगर अच्छे अच्छे शक्तिसम्पन्न मनुप्योंके लिए भी दुःसाध्य है । मौर्यवंशीय सम्राट चंद्रगुप्तको प्रतिबोध करनेवाले चौदह पूर्वधारी श्रीभद्रबाहु स्वामी, ५०० ग्रंथोंकी रचना करनेवाले उमास्वाति वाचक, १४४४ ग्रंथोंकी रचना करनेवाले हरिभद्रसूरि, हजारों क्षत्रियोंको जैन ( ओसवाल ) बनानेवाले रत्नप्रभमूरि, अन्याय-लिप्त गर्दभिल्ल राजाको प्रजाके हितार्थ राजगद्दीसे उतार कर उसके स्थानमें शकको राज्यासीन करनेकी शक्ति रखनेवाले कालिकाचार्य, आम राजाके गुरु होनेका सम्मान प्राप्त करनेवाले बप्पट्टि, 'उपमितिभवप्रपंचा कथा ' के समान संस्कृत भाषा अद्वितीय उपन्यास लिखनेवाले महात्मा सिद्धर्षि, महान् चमत्कारिणी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति। MANuuNA विद्याओंके आगार यशोभद्रसूरि, तार्किक शिरोमणि मल्लवादी, ग्रंथोंकी विशेष रूपसे व्याख्याएँ लिखनेमें अपनी असाधारण बुद्धिका परिचय देनेवाले मलधारी हेमचंद्र, सिद्धराज जयसिंहकी सभाके एक रत्न होनेका सम्मान प्राप्त करनेवाले और वादकी अतुल शक्तिके धारक वादिदेवसरि और कुमारपालके समान राजाको उपदेश दे कर, अठारह देशोंमें जीवदयाका एक छत्र राज्य स्थापन करानेवाले कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्यके समान महान् प्रतापी जैनाचार्य रूपी रत्नोंको भी इसी भारत वसुंधराने प्रसव किया था। साथ ही पेथडशा, झांझण, झगडुशा, जगसिंह, भीमाशा, जावड, भावड, सारंग और खेमा हडालियाके समान लक्ष्मीपुत्रोंको भी इसी भारतने अपनी गोदमें खिलाया था। इन्होंने अपनी लाखों ही नहीं, करोड़ों ही नहीं बल्कि अब्जोंकी सम्पत्तिको, भारतके भूषणरूप जिनालय बनानेमें, आर्यावर्तकी शिल्पकलाको सुरक्षित रखनेमें, आर्यबंधुओंका पालन करनेमें, अपनी मान-मर्यादाको सुरक्षित रखनेमें, बड़े बड़े संघ तथा वरघोड़े निकालनेमें और ज्ञानके साधन लुटानेमें व्यय किया था । उन्होंने धर्मकी-आर्यधर्मकी रक्षा करनेमें लक्ष्मीकी तो कौन कहे प्राणोंकी भी कभी परवाह नहीं की थी। ऐसे आस्तिक और अखूट धन-लक्ष्मीके भोक्ताओंको भी इसी आर्यभूमिने पैदा किया था। ये बातें क्या बताती हैं ? भारतका गौरव ! आर्यावर्तकी उत्तमता, दूसरा कुछ नहीं । जिस भारतमें ऐसा शान्तिमय राज्य था, ऐसी अद्वितीय विद्याएँ थीं, ऐसे दानशील थे, ऐसे जीवदया प्रतिपालक थे, ऐसी धन संपत्ति थी, ऐसा आनंद था, ऐसी उदारता थी, ऐसी विशालता थी, ऐसा प्रेम था, ऐसी धर्मशीलता थी, ऐसी वीरता थी और ऐसे अप्राप्य विद्वान् थे, उसी स्वर्ग समान भारतकी आज क्या स्थिति है ? भारतका बहुत कुछ अधःपात हो चुका है तो भी आज Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। गई गुजरी हालतमें भी वह पूर्ण गौरवसे गौरवान्वित है । समस्त संसार एक स्वरसे कह रहा है कि, एक समय था जब भारतका प्रताप अनिर्वचनीय था । भारतकी वीरता झगमगा रही थी। प्रकृतिने उसको वह शक्ति दी थी कि, जिससे यह भारतीय प्रजा 'कर्म' और 'धर्म' दोनोंमें असामान्य पौरुष दिखाती थी। ऐसे अपूर्व शान्तिके गंभीर आनंदसागरमें कल्लोल करती हुई भारतीय प्रनाको संसारकी परिवर्तनशीलताने अपना चमत्कार दिखाया । यानी जिसने कभी दुःखके दिन नहीं देखे थे, जिसको अपने आर्यत्वकी रक्षाके लिये किसी भी तरहके प्रयत्न नहीं करने पड़े थे उस परम श्रद्धालु आर्य प्रजा पर अचानक पठानोंके आक्रमण प्रारंभ हुए। हम जिस समयकी स्थितिका वर्णन करना चाहते हैं, वह समय अभी आया न था तब तक तो पठानोंने भारतकी लक्ष्मी लूटनेके मोहमें पड़ कर, अपनी क्रूरतासे भारतकी समस्त प्रजाको त्रसित करना प्रारंभ कर दिया ! जिन पठानोंने इस सिद्धान्तको ' या तो हिंदु लोगोंको इस्लामधर्म स्वीकार करायँगे या उन्हें मौतका शिकार बनायेंगे' सामने रख कर आक्रमण आरंभ किया था, उन्होंने भारतीय प्रजाको कितना सताया होगा, इसका अनुमान सहजहीमें किया जा सकता है । लाखों निरपराध मनुष्योंको मारना, जीतेजी आर्य राजाओंकी खाल खिचवा लेना, शिकारकी इच्छा होने पर पशुओंकी तरह आर्य प्रजाको घेरना और उसमें आनेवाली स्त्रियोंको, पुरुषोंको और बालकोंको बुरी तरहसे-भिन्न भिन्न तरहसे मारना, देवमूर्तियोंको तोड़ टुकड़े कर, उनके साथ मांसको बोटियाँ बाँध आर्य प्रजाके गले लटकाना आदि नाना प्रकारके दुःखोंसे समस्त भारतमें हाहाकार मच रहा था । पठान राजाओंके त्राससे त्रसित आर्य प्रजा त्राहि त्राहि पुकार उठी थी। बंकिमचंद्र लाहिडी अपनी 'सम्राट-अकबर ' नामकी पुस्तकमें पठानोंने जो कष्ट दिये थे उनका वर्णन करनेके बाद पृष्ठ २४ में लिखते हैं: Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति । " पाठानदिगेर अत्याचारे भारत श्मशानावस्थाये प्राप्त हइल | जे साहित्यकानन नित्य नव नव कुसुमेर सौंदर्य ओ सौगन्धे आमोदित थाकित, ताहाओ विशुष्क हइल । स्वदेशहितैषिता, निःस्वार्थपरता, ज्ञान ओ धर्म, सकलेइ भारत हइते अन्तर्हित हइल । समग्र देश विषाद ओ अनुत्साहेर कृष्ण छायाय आवृत्त हइल | "" भाव इसका यह है कि, - पठानोंके अत्याचार से भारतकी अवस्था श्मशानसी हो गई। जो साहित्योद्यान - साहित्य बगीचा - सदैव नवीन नवीन पुष्पोंके सौंदर्य और सुगंधसे आमोदित रहता था वह भी शुष्क हो गया । स्वदेशहितैषिता, निःस्वार्थपरता और ज्ञान तथा धर्म सब कुछ भारत से अन्तर्धान हो गये । समस्त देश विषाद और अनुत्साहकी काली छायासे ढक गया । भारतवर्ष पठानोंके अत्याचारोंसे पहिले ही त्रस्त हो रहा था उसी समय ईस्वी सन्की चौदहवीं शताब्दिके अन्तर्मे, घटतेमें पूरी भारत पर और एक आफत आ खड़ी हुई । भारतवर्षकी असाधारण कीर्त्तिसे मध्य एशिया के समरकंद प्रदेशमें रहनेवाले तैमूरलंग को ईर्ष्या उत्पन्न हुई । इसलिए वह अपने राज्यसे सन्तुष्ट न हो कर भारतकी लक्ष्मीको भी अधिकृत करनेके लिए लालायित हो उठा। उसने चढाई की, भारतको लूटा, सतियोंको सतीत्वभ्रष्ट किया, गाँवके गाँव जला दिये और लोगोंको पशुओंकी भाँति तलवारके घाट उतारा और इस तरह उसने भारतकी प्रजाके कष्टोंको दुगना कर दिया । इसी लिए तो कहा है कि, - ' लोभाविष्टो नरो हन्ति मातरं पितरं तथा । ' अतः जो लोभवृत्ति मातापिताकी हत्या करा देती है उस लोभवृत्तिने तैमूरलंग से ऐसे क्रूर कर्म कराये, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कहा जाता है कि, तैमूरलंगने सिर्फ दिल्लीहीमें एक लाख 2 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सूरीश्वर और सम्राट् । हिन्दुओंकी हत्या की थी। यद्यपि तैमूरलंगके आक्रमणसे पठानोंके पराक्रममें कुछ न्यूनता आ गई थी और इसलिए उनके अत्याचारोंकी मात्रामें भी कुछ कमी हो गई थी, तथापि उनका जातीय स्वभाव सर्वथा मिट नहीं गया था। सिकंदर लोदीने देवमंदिरों और मूर्तियोंको तोड़नेका कार्य बराबर जारी ही रक्खा था। इसी भाँति अनेक विपत्तियाँ झेलते हुए भारतने ईस्वी सन्की पन्द्रहवीं शताब्दि समाप्त की। अब हम सोलहवीं शताब्दिमें पदार्पण करते हैं। प्रस्तुत पुस्तकमें हम इसी शताब्दिकी स्थितिका दिग्दर्शन कराना चाहते हैं। यद्यपि सोलहवीं शताब्दि प्रारंभ हो गई थी, तथापि भारतवर्षके दुःखके दिन तो दूर नहीं ही हुए थे। मुसलमान बादशाहोंका जुल्म जैसाका तैसा ही कायम था । इतना होने पर भी साभिमान यह कहना पड़ता है कि, भारतमें 'आध्यात्मिक भावनाएँ ' और 'आर्यत्वका अभिमान ' पूर्ववत् ही मौजूद था। भारतकी प्रजाने अपनी जातीयताकी रक्षाके सामने लक्ष्मीकी कोई परवाह नहीं की थी। इतना ही क्यों ? उसने 'धर्मरक्षा ' को अपना ध्येय बना कर प्राणोंको भी तिनकेके समान समझा था । यद्यपि लोभाविष्ट मुसलमान बादशाहोंने कई वार भारतको लूटा था और लूटका धन लेजा कर अपने घरोंमें भरा था, तथापि भारत सर्वथा ऋद्धि-समृद्धिहीन नहीं हो गया था। उदाहरणके लिए इतिहासके पन्ने उलटो। महमूद गजनवी आदिकी लूटके वृत्तान्त उनमें मिलेंगे । कहा जाता है कि, सन् १०१४ ईस्वीमें जब उसने काँगड़ाका (जिसको पहिले नगरकोट अथवा भीमनगर कहते थे) दुर्ग अपने अधिकार किया था, तब वहाँसे उसे अपार संपत्ति मिली थी। उसमें एक 'चाँदीका बँगला' भी था । इस बँगलेकी लंबाई ९० फीट और चौड़ाई ४५ फीट थी। वह इकट्ठा हो सकता था; एक जगहसे दूसरी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति । ११ जगह ले जाया जा सकता था और जिस समय आवश्यकता होती थी, वह पुनः बँगला बन सकता था । यह तो एक उदाहरण है । इसी तरह अनेक बादशाहोंने भारतवर्षको लूट लूट कर खाली कर देनेकी - बरबाद कर देनेकी चेष्टाएँ की थीं; परन्तु भारतवर्षको उन लूटोंसे केवल इतना ही नुकसान हुआ जितना कानखजूरेको उसकी एक टांग टूटनेसे होता है; अथवा समुद्रको एक बूँद कम हो जाने से होता है । अतः यदि यह कहा जाय कि, भारतवर्षकी ऋद्धि–समृद्धिमें कोई कमी नहीं हुई थी तो अत्युक्ति नहीं होगी । यदि स्पष्ट शब्दों में कहें तो यह है कि, इस समयकी अपेक्षा उस समयकी ( सोलहवीं शताब्दिकी ) जाहोजलाली और ही तरहकी थी । सारे भारतवर्षकी बातको छोड़ कर सिर्फ गुजरातहीकीउसके मुख्य नगर खंभात, पाटन, पालनपुर और सूरतहीकी-उन्नतिकाउसकी असाधारण जाहोजलालीका वर्णन करनेका यदि प्रयत्न किया जाय तो वह असंभव न होने पर भी कष्ट - साध्य तो अवश्य है । जो खंभात इस समय निरुद्यमी और निरुत्साही दिखाई देता है, वह उस समयका समृद्धिशाली नगर था । उसकी गगनस्पर्शी ध्वजाओंको देख देख कर ईरान आदि देशोंसे जहाजोंमें आनेवाले लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे। जिस पाटनके निवासी आज दूर देशों में जा कर नौकरी करके या व्यापार-धंधा करके पेट भरनेके लिए मजबूर हुए हैं, उसी पाटनके लोग उस समय अपने घरोंमें बैठे बैठे लाखों ही नहीं बल्कि करोड़ोंकी उथल पायल किया करते थे । मामूलीसा गिना जानेवाला पालनपुर शहर उस समय असाधारण विशाल और समृद्धिशाली था । ऐसे ऐसे अनेक नगर थे जिनके कारण सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष अपने आपको गौरवशाली समझता था । इतना सब कुछ था तो भी हमें कहना पड़ता है कि, उस समय तक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । न केवल गुजरातहीके लिए बल्कि समस्त भारतके लिए सुखसे रोटीका ग्रास खानेका वक्त नहीं आया था । देशकी अशान्ति उस समय तक दूर नहीं हुई थी । भारतकी मनमोहक लक्ष्मी देवी एकके बाद दूसरे मुसलमान बादशाहको ललचाती ही रही थी । जगह जगह अधिकार जमा कर बैठे हुए पठानोंका अत्याचार अभी शान्त भी नहीं हुआ था कि, उसी समय कुछ ही काल पहिले भारतको सता कर गये हुए तैमूरलंगके एक वंशधर बाबरकी इस ओर दृष्टि पड़ी। उसने सहसा काबुलके मार्ग पर अधिकार कर भारतमें प्रवेश किया। इतना ही नहीं उसने और उसके पुत्र हुमायुने बार बार आक्रमण कर भारतीय प्रजाको खूब लूटा, सताया और बरबाद किया । अन्तमें उसने श्रापभूत पठानोंको भी परास्त किया और भारतमें अपना अधिकार पूर्ण रूपसे जमा लिया। बाबरके राज्यकालमें भी भारत तो हतभाग्यका हतभाग्य ही रहा था। देशमें लेशमात्र भी शान्ति नहीं हुई थी। एक तो फतेहपुर-सीकरीकी तरफ मुसलमानों और राजपूतोंमें घोर युद्ध हो रहे थे, दूसरे लगभग सारे देशमें अराजकता होनेसे लूट खसोट होती थी, तीसरे भिन्न भिन्न प्रान्तोंके सूबेदार अपनी अपनी प्रजाओंको बहुत सताते रहते थे, चौथे तीर्थयात्रा करनेके लिए जानेवाले यात्रियोंसे वसूल किया जानेवाला 'कर' और वार्षिक 'जज़िया' प्रजाको बरबाद करनेके लिए पद पद पर अपना भयंकर रूप धारण किये खड़े ही हुए थे और पाँचवे सामान्य अपराधियोंको भी हाथ पैर काट डालनेकी, प्राण ले लेनेकी या इसी प्रकारकी अन्य क्रूर सजाएँ दी जाती थीं। इस प्रकार जिस प्रना पर चहुँ ओरसे भयंकर विपत्ति पड़ रही थी, उस प्रजाके लिए कैसे संभव था कि, वह सन्तोष पूर्वक आहार करती और सुखकी नींद लेती । जब हजारों कोस दूर होनेवाले युद्धका भी यहाँकी प्रजा पर Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति। mura असाधारण प्रभाव पड़ा है-छोटे, बड़े धनी, गरीब; राजा, प्रजा प्रत्येकको उसका परिणाम भोगना पड़ा है-तब जिस समय इसकी आँखोंके सामने युद्ध होते थे रात दिन अत्याचार होते थे उस समय यह यदि कष्टसे दिन निकालती थी, सुखकी नींद न ले सकती थी, रात, दिन इसका हृदय काँपता रहता था तो इसमें आश्चर्यकी बात ही कौनसी है ? लगभग ईस्वी सन्की सोलहवीं शताब्दिके आरंभके ४० बरसों तक बल्कि उसके बाद भी कुछ समय तक भारतवर्षके भिन्न भिन्न भागोंमें लड़ाई और लूट-खसोट होती ही रही थी । इससे लोगोंको अपने जानोमालकी रक्षा करना बहुत ही कठिन हो रहा था। जिस 'जजिया' का उपर नाम लिया गया है, वह कोई साधारण कर नहीं था। कई विद्वानोंका मत है कि, आठवीं शताब्दिमें मुसलमान बादशाह कासिमने भारतीय प्रजा पर यह कर लगाया था । पहिले तो उसने आर्यप्रजाको इसलामधर्म स्वीकार करनेके लिए विवश किया । आर्य प्रजाने अटूट धन दौलत दे कर अपने आर्यधर्मकी रक्षा की। फिर हर साल ही प्रजासे वह रुपया वसूल करने लगा। प्रति वर्ष जो द्रव्य वसूल किया जाता था, उसका नाम 'जज़िया' था। कुछ कालके पश्चात् यहाँ तक हुक्म जारी हो गये थे कि,-" आर्य मजाके पास खानेपीनेके बाद जो कुछ धन माल बचे वह सभी 'जज़िया' के रूपसे खजानेमें दाखिल करवा दिया जाय ।" फरिश्तेके शब्दोंमें कहें तो-" मृत्यु तुल्य दंड देना ही 'जज़िया' का उद्देश्य था।" ऐसा दंड दे कर भी आर्य प्रजाने अपने धर्मकी रक्षा की थी। यह बात भी नहीं थी कि, ऐसा असह्य 'जजिया' थोड़े ही दिन तक चल कर बंद हो गया हो। 'खलीफ़ उम्रने' इसको ( जजियाको ) तीन भागोंमें विभक्त किया था। उसके वक्त प्रति मनुष्य वार्षिक ४८, २४ और १२ दरहाम लिये जाते थे। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । ('दरहामा उस समयकी चलनका एक सिक्का था ) ईस्वी सन्की चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दिमें भी फीरोज़शाह तुगलकने कानून बनाया था कि, गृहस्थोंके घरोंमें जितने बालिग मनुष्य हों उनसे प्रति व्यक्ति धनियोंसे ४०, सामान्य स्थितिवालोंसे २०, और गरीबोंसे १० टाँक 'जज़िया' प्रति वर्ष लिया जाय । आगे भी यानी जिस सोलहवीं शताब्दिकी हम बात कहना चाहते हैं उसमें भी यह 'जज़िया' वर्तमान था। संक्षेपमें यह है कि भारतवर्षकी राष्ट्रीय स्थिति भयंकर थी। उसमें भी जिस प्रान्तके लिए हम खास तरहसे इस ग्रंथम कहना चाहते हैं उस प्रान्तकी स्थिति तो बहुत ही खराब थी। गुजरातके सूबेदारोंकी 'नादिरशाही ' गुजरातकी प्रजाको बहुत ही बुरी तरहसे सताती थी। इच्छानुसार जुर्माना, इच्छानुसार सजा, इच्छानुसार कर, और तुच्छ तुच्छ बातोंमें धरपकड़ होती थी। इनसे प्रजा बहुत व्याकुल हो रही थी। उस समय प्रत्येक व्यक्तिका हृदय, राष्ट्रीय स्थितिको सुधारनेवाले किसी महान् प्रतापी पुरुषके-सम्राट्के आगमनकी प्रतीक्षा कर रहा था। केवल गुजरात ही नहीं बल्कि समस्त भारतवर्ष यही भावना कर रहा था। सारी आर्य प्रजा एक स्वरसे रातदिन, सोते जागते, उठते बैठते अपने अपने इष्ट देवोंसे यही विनय करती थी कि.---'प्रभो ! इन दुःखके दिनोंको दूर करो ! इस भयंकर अत्याचारको भारतसे उठा लो ! हमारे आर्यत्वकी रक्षा करो! देशमें शान्तिका राज्य स्थापन करो ! हम अन्तःकरण पूर्वक चाहते हैं कि, इस वीरप्रसू भारतमाताकी कूखसे, फिरसे, तत्काल ही एक ऐसा महान् वीर पुरुष उत्पन्न हो जो देशमें शीघ्रताके साथ शान्तिका राज्य स्थापन करे और हमारे ऊपर होनेवाले इस जुल्मको जड़से खोद डाले ! ओ भारत माता :. क्या तू शीघ्र ही ऐसा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति। समय न लायगी कि, जिसमें हम अपने दुःखके आँसू पौंछ डालें ?" इस मौके पर एक दूसरी बात कहना भी जरूरी है । जैसे देशहितका आधार देशका राजा है, वैसे ही सच्चरित्र विद्वान् महात्मा भी है। विद्वान् साधु महात्मा जैसे प्रजाके हितके लिए; उसको अनीतिसे दूर रख सन्मार्ग पर चलानेके लिए, प्रयत्न करते हैं, वैसे ही राजाओंको भी वे निर्भीकता पूर्वक उनके धर्म समझाते हैं। घनिष्ठ संबंधियोंका और खुशामदियोंका जितना प्रभाव राजा पर नहीं होता है, उतना प्रभाव शुद्ध चारित्रवाले मुनियोंके एक शब्दका होता है। इतिहासके पृष्ठ उलट कर देखोगे तो मालूम होगा कि, राजाओंको प्रतिबोध देनेमें या प्रजाको उसका धर्म समझानेमें जो सफल मनोर्थ हुए थे वे धर्मगुरु ही थे । उनमें भी यदि निष्पक्ष भावसे कहा जाय तो, कहना पड़ेगा कि, इस कर्तव्यको पूरा करने मुख्यतया जैनाचार्य ही विशेष रूपसे आगे आये थे। उन्हींको पूर्ण सफलता मिली थी। और उसका खास कारण था, उनका सच्चरित्र और उनकी विद्वत्ता । कौन इतिहासज्ञ नहीं जानता है कि, संपति राजाको प्रतिबोध करनेका सम्मान आर्यमुहस्तिने, आमराजाको प्रतिबोध करनेका सम्मान बप्प भट्टीने, हस्तिकुंडीके राजाओंको प्रतिबोध करनेका सम्मान वासुदेवाचार्यने, वनराजको प्रतिबोध करनेका सम्मान शीलगुणसूरिने और सिद्धराज तथा कुमारपालको प्रतिबोध करनेका सम्मान हेमचंद्राचार्यने प्राप्त किया था। ये और ऐसे दूसरे कितने ही जैनाचार्य हो गये हैं कि, जिन्होंने राजा महाराजाओंको प्रतिबोध दे कर देशमें शान्तिका और आर्यधर्मके प्रधान सिद्धान्त-अहिंसाका प्रचार करनेमें सफलता लाथ की थी। इतना ही क्यों ? महम्मद तुगलक, फीरोजशाह, अलाउद्दीन और औरंगजेबके समान क्रूर हृदयी व निष्ठुर Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । मुसलमान बादशाहों पर भी जिनसिंहसरि, जिनदेवमूरि और रत्नशेखरसूरि ( नागपुरी ) के समान जैनाचार्योंने कितने ही अंशोंमें प्रभाव डाल कर धर्म तथा साहित्यकी सेवा की थी। अभिप्राय कहनेका यह है कि, जिस जैनधर्ममें समय समय पर ऐसे महान प्रभावक आचार्य होते आये थे उस जैनधर्म पर भी उस समयकी ( पन्द्रहवीं और सोलहवी शताब्दिकी ) अराजकताने बिजलिकी तरह आश्चर्योत्पादक प्रभाव डाला था। यह बिलकुल ठीक है कि, जहाँ देश भरमें हर तरहकी बगावत-अराजकता-निर्नाथता-अनुचित स्वच्छंदताका पवन चल रहा हो वहाँ किसी भी तरहकी मर्यादा नहीं रहती है । 'शान्तिप्रिय' के आदरणीय पदका उपभोग करनेवाले और एकताके विषयमें सबसे आगे रहनेवाले जैन समाजमें भी उस समयकी अशान्ति देवीने अपना पैर फैला दिया था। न रहा संघका संगठन और न रही ऐसी स्थिति कि, जिसमें कोई किसीको कुछ कह सकता और कोई किसीकी बात मान लेता । संघ छिन्नभिन्न होने लगा। एक एक करके नये नये मत निकलने लगे । जैसे-१४५२ ईस्वीमें लौंका नामके गृहस्थने लौंका मत चलाया और मूर्तिपूजाकी उत्थापना की । १५०६ ईस्वीमें कटुक नामके गृहस्थने कटुकमत निकाला । विजयने १५१४ ईस्वीमें विजयमतकी स्थापना की । पार्श्वचंद्रने १५१६ ईस्वीमें पार्श्वचंद्रमतकी नींव डाली और १५४६ ईस्वीमें सुधर्म मत उत्पन्न हुआ । आदि। इन मतोंको चलानेवालोंने जैनधर्मके सिद्धान्तोंमें कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर किया ! जैनधर्मके एक छत्र साम्राज्यको उन्होंने छिन्नभिन्न कर दिया। इस बातकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि, जिस धर्मके अनुयायियोंमें आपसमें झगड़ा होता है, पारस्परिक विभिन्नता रहती है उस धर्मका भी एक छत्र साम्राज्य रहता है । उस समय जैसे जैसे नवीन मत निकलते गये वैसे ही वैसे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति। परस्परमें नीचा दिखानेका प्रयत्न, आपसी द्वेष और एकका दूसरे पर आक्षेप भी बढ़ता गया । ' अपना सच्चा और दूसरेका मिथ्या ' यह नियम प्रत्येक पंथवालेके साथ कार्य कर रहा था। उसीके वश हो कर मूल परंपराको उच्छेद करनेके लिये वे कुल्हाड़ीका कार्य कर रहे थे। उन्हें इतनेहीसे संतोष नहीं होता था । वे जैनोंके प्राचीन तीर्थों, मंदिरों और उपाश्रयों पर भी अपना अपना अधिकार जमानेके प्रयत्न करते रहते थे। इसी लिए उस समय भिन्न भिन्न गच्छोंके सभी आचार्य एक वार शत्रुजय ( पालीताना ) में एकत्रित हुए और उन्होंने निश्चित किया कि-" शत्रुनयतीर्थ पर जो मूल गढ़ है वह और आदिनाथ भगवान्का मुख्य मंदिर है वह, समस्त श्वेतांबर जैनोंका है और अवशेष देवकुलिकाएँ भिन्न भिन्न गच्छवालोंकी हैं । " आदि । एक तरफ तो भिन्न भिन्न मतों और पंथोंके जोरसे जैनधर्मके अनुयायियोंमें बहुत बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ था; अशान्ति फैल गई थी और दूसरी तरफ शिथिलाचारने साधुओं पर अपना अधिकार जमाना प्रारंभ किया था। इससे साधुओंमें स्वच्छंदताका वायु फैलने लगा, छोटे मोटेकी मर्यादा प्रायः उठने लगी, गृहस्थोंके साथ साधु विशेष व्यवहार रखने लगे। उसका परिणाम 'अतिपरिचयादवज्ञा' के अनुमार, साधुओंको भोगना पड़ा । साधुओंमें ममत्व बढ़ा। वे पुस्तकों और वस्त्रोंका और कई कई तो द्रव्यका भी संग्रह करने लगे। रसनेन्द्रियकी लुब्धताके कारण कई तो शुद्धाशुद्ध आहारका भी विचार छोड़ने लगे । पडिलेहण और इसी तरहकी अन्य जयणाओंमें भी वे उपेक्षा करने लगे। उनकी वचन वर्गणाओंमें भी कठोरताने प्रवेश किया। इन बातोंसे श्रावकोंकी साधुओंपरसे श्रद्धा हटने लगी। राजकीय झगड़ों और मतोंके टंटोंसे कई प्रान्तोंमें तो साधुओंका विहार भी बंद हो गया। साधुओंकी शिथिलतासे नये निकले हुए मत बहुत लाम Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सूरीश्वर और सम्राट् । उठाते थे । वे साधुओंकी शिथिलता और झगड़ोको दिखा कर लोगोंको अपने अनुयायी बनाते थे। उन मत-प्रवर्तकोंमेंसे हम यहाँ पर 'लौका'का उदाहरण देते हैं । उसने इस स्थितिका लाभ उठा कर अपने मतको बड़े जोरोंके साथ आगे बढ़ाया । जिन देशोंमें शुद्ध साधु नहीं जा सकते थे उन देशोंमें उसने जा कर हजारों लोगोंके दिलोंको पलटा, उन्हें मूर्तिपूनासे हटाया और अपने मतका अनुयायी बनाया। इतना ही क्यों? सैकड़ों जगह तो-जहाँ एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहा-उसने मंदिरोंमें कोटे लगवा दिये । यह साधुओंकी शिथिलता और आपसी द्वेषहीका परिणाम था। यद्यपि साधुओं और श्रावकोंकी ऐसी भयंकर स्थिति हो गई थी, तथापि पवित्रताका सर्वथा लोप नहीं हुआ था । उस समयमें भी ऐसे ऐसे त्यागी और आत्मश्रेयमें लीन रहने वाले साधु महात्मा मौजूद थे कि, जो वैसे जहरीले संयोगोंमें भी अपने साधुधर्मकी भली प्रकारसे रक्षा कर सके थे। इतना ही क्यों, कई शासनप्रेमी ऐसे मी थे कि, जिनको वैसी भयंकर स्थिति देख कर दुःख होता था। तीव्र प्रवाहके सामने जानेका साहस करना सर्वथा असंभव नहीं तो भी भयानक जरूर है । मगर उस भयानक दशामें भी एक महात्मा क्रियाका उद्धार करनेके लिए आगे आये थे। उनका नाम था 'आनंदविमलमूरि' । क्रियोद्धार करनेमें उन्होंने बहुत बड़ा पुरुषार्थ किया था। कहा जाता है कि, उन्हें इस महान धर्ममें यद्यपि जितने चाहिए उतने और जैसे चाहिए वैसे सहायक-साधन नहीं मिले थे, तथापि उन्होंने अपने ही पुरुषार्थसे उस समयकी स्थितिमें बहुत बड़ा परिवर्तन कर दिया था । वे समयानुसार साधुधर्मके समस्त नियमोंको उचित रूपसे पालते थे, किसी श्रावक या श्राविकाके प्रति ममता नहीं रखते थे; सबको समान रूपसे उपदेश देते थे; सबको समान दृष्टिसे देखते थे, निःस्पृहताके साथ विचरण करते थे, निःस्वार्थ भावसे उपदेश Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति। देते थे, शुद्धमार्गको प्रकाशित करते थे, और उत्कृष्ट क्रियाएँ पालते थे । इन सब बातोंके अतिरिक्त वे तपस्याएँ भी बहुत ज्यादा किया करते थे। इससे प्रायः श्रावकोंके हृदयोंमें पुनः साधुओंके प्रति भक्तिभावोंका संचार हुआ था । साधुधर्म कैसा होना चाहिए ? साधुओंके लिए किन किन क्रियाओंका करना आवश्यक है ? और साधुओंको किस तरह मोह-मायाका त्याग करना, निःस्पृहताका बक्तर पहिनना और कैसे शुद्ध उपदेश देना चाहिए ? आदि बातोंका ज्ञान उन्होंने अपने आचरणों द्वारा दिया था। यद्यपि उन्होंने अनेक प्रदेशोंमें फिर कर लोगोंको सन्मार्ग पर चलानेका प्रयत्न किया था और उस प्रयत्नमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई थी; और उनके बोये हुए बीजको फलाने फूलानेमें विजयदानमूरिने बहुत कुछ प्रयत्न किया था । तथापि यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि, जिस भाँति समय समय पर राजा महाराजाओं पर प्रभाव डाल कर उन्हें सच्चा उपदेश दे कर राष्ट्रीय स्थितिको सुधारनेवाले एकके बाद दूसरे जैनाचार्य होते आये हैं उसी तरह मुसलमानोंके राज्यकालमें भी एक ऐसे जैनाचार्यकी आवश्यकता थी कि, जो अपने प्रबल पुण्य-प्रतापसे देशके भिन्न भिन्न अधिकारियों पर और खास करके दिल्लीश्वर पर अपना प्रभाव डालते और भारतवर्षमें-मुख्यतया गुजरातमें लगे हुए 'जज़िया' के समान जुल्मी करको नष्ट कराते, अहिंसा प्रधान आर्यावर्त्तमें बढ़ी हुई जीवहिंसाको बंद कराते, जैनोंको अपने पवित्र तीर्थोकी यात्रा करने में जो आपत्तियाँ आती थीं उन्हें दूर कराते, और अपने हक तीर्थोके ऊपरसे खो चुके थे वे उन्हें वापिस दिलाते । इन कार्योंकी महत्तासे यह बात सहज ही समझमें आ जाती है कि, भारतवर्षमें राष्ट्रीय स्थिति सुधारनेके लिए जैसे-अपनी प्रजाको पुत्रवत् पालन करनेवाले एक सुयोग्य सम्राटकी आवश्यकता थी उसी भाँति देशकी हिंसक प्रवृत्तिको दूर करानेका सामर्थ्य रखनेवाले एक महात्मा पुरुषके अवतारकी भी आवश्यकता थी। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दूसरा। सूरि-परिचय। सारमें समय समय पर ऐसे महात्मा पुरुष उत्पन्न होते हैं कि जो 'स्वोपकार' को अपने जीवनका का लक्ष्यबिंदु नहीं बनाते हैं, बल्कि 'परोपकार' । हीमें अपने जीवनकी सार्थकता समझते हैं। ऋषियोंको इसका पूर्ण अनुभव हुआ था, इसीलिए उन्होंने यह कहा है कि,-" परोपकाराय सतां विभूतयः।" सज्जनोंकी-महात्माओंकी समस्त विभूति परोपकारहीके लिए होती है । इस प्रकरणमें हम जिनका परिचय कराना चाहते हैं वे भी उक्त प्रकारके परोपकारी महात्माओंमेंसे एक थे। विक्रम संवत् १९८३ (ई. सं. १५२७) के मार्गशीर्ष शुक्ला ९ सोमवारके दिन 'पालनपुर' के ओसवाल गृहस्थ कूराशाहकी धर्मपत्नी नाथीबाईने एक पुत्रको जन्म दिया । उसका नाम 'हीरजी' रक्खा गया। हीरजीके पहिले नाथीबाईके तीन पुत्र और तीन कन्याएँ हो चुकी थीं। पुत्रोंके नाम थे संघजी, सूरजी और श्रीपाल व पुत्रियोंके नाम थे- रंभा, राणी और विमला ।' होनहार बिरवानके होत चीकने पात ' इस नियमानुसार हीरजी बचपनहीसे तेजस्वी, सुलक्षण युक्त और आनंदी स्वभाववाले थे । इससे उनके कुटुंबियोंहीके नहीं बल्कि हरेकके जो उन्हें देखता था-उसीके-हृदयमें उनसे प्रेम करनेकी कुदरती प्रेरणा होती थी। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरि - परिचय | २१ पहिले यह नियम था कि, गृहस्थ लोग अपनी संतानको व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करानेके लिए जैसे पाठशालाओं में भेजते थे, वैसे ही धार्मिक ज्ञान प्राप्त कराने, अन्तःकरण में धार्मिक संस्कार जमाने और धार्मिक क्रियाओंसे परिचित कराने के लिए धर्मगुरुओंके पास भी नियमित रूपसे भेजा करते थे । वर्तमानके गृहस्थोंकी भाँति वे इस बात का भय नहीं रखते थे कि, साधुओंके पास मेजने से कहीं हमारी सन्तान साधु न हो जाय । साधु होनेमें अथवा अपने पुत्रको यदि वह साधु बनना चाहता तो उसे साधु बनानेमें पहिले के लोग अपना और अपने कुलका गौरव समझते थे । इतना जरूर था कि, जो साधु बनने की इच्छा रखता था, उसको वे लोग पहिले यह समझा देते थे कि, साधुधर्म में कितनी कठिनता है । मगर ऐसा कभी नहीं होता था कि, अपनी संतानको साधु बनने से रोकने के लिए वे लड़ाईझगड़ा करते या कोर्टों में जाते । इतना ही क्यों, कई तो ऐसे भवभीरु और निकष्टभवी भी होते थे जो अपनी सन्तानको, बचपनहीसे साधु के समर्पण करने में अपना सौभाग्य समझते थे । यदि ऐसा नहीं होता तो हेमचंद्राचार्य ९ वर्षकी आयुमें, आनंदविमलसूरि ५ वर्षकी उम्र में, विजयसेनसूरि ९ वर्षकी आयुमें, विजयदेवसूरि ९ वर्षकी आयु में, विजयानंदसूरि ९ वर्षकी आयुमें, विजयप्रभसूरि ९ वर्षकी आयु में, विजयदानसूरि ९ वर्षकी आयु में, मुनिसुंदरसूरि ७ वर्षकी आयु और सोमसुंदरसूरि ७ वर्षकी आयु में - ऐसे छोटी छोटी उम्र में कैसे दीक्षा ले सकते थे ? इससे किसीको यह नहीं समझना चाहिए कि, जो कमाने योग्य नहीं होते थे वे साधु हो जाते थे । अथवा उनके संरक्षक उन्हें साधु बना देते थे । हमें उनके चरित्रोंसे यह बात भली हो जाती है कि, वे लोग प्रायः उच्च और धनी कुटुंबहीकी सन्तान थे । प्रकार मालूम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ सूरीश्वर और सम्राट् । इससे यह स्पष्ट है कि,-"असमर्थों भवेत् साधुः" का सूत्र उनके किसी तरहसे भी लागू नहीं पड़ सकता है। जो 'दीक्षा' को ऐहिक और पारलोकिक सुखका सर्वोत्कृष्ट साधन समझते हैं, जो 'शुद्धचारित्र को ही जगत् पर प्रभाव डालनेका एक चमत्कारिक जादू समझते हैं वे कभी क्षणभंगुर लक्ष्मीके और अन्तमें भयंकर कष्ट पहुँचानेवाली विषयवासनाओंके फंदेमें नहीं फंसते हैं-उनमें मुग्ध नहीं होते हैं। वे तो प्रतिक्षण यही सोचा करते हैं कि,-" हम साधु हो कर अपना और जगत्का कल्याण करेंगे।" ऐसी शुभ भावनाएँ रख कर अच्छे अच्छे खानदानके युवक उस समय दीक्षा लेते थे। उसीका यह परिणाम था कि, 'स्वोपकार' के साथ ही अपनी पूर्णशक्तिके साथ वे परोपकारके सिद्धान्तको भी पालते थे । वे इतने महान हो गये इसका वास्तविक कारण हमें तो उनका बचपनमेंही दीक्षित हो कर उच्च धार्मिक क्रियाओंको व्यवहारमें लाना मालूम होता है। इस समय दीक्षाकी बात तो दूर रही, धार्मिक संस्कारोंका ही अभाव हो रहा है । अच्छे अच्छे व्यवहारज्ञ युवक भी धर्मका तो कक्का भी कठिनतासे जानते हैं। इसका खास कारण यह है कि, वे बचपनहीसे गुरुओं-साधुओं की संगतिसे दूर रहे हैं। यदि प्राचीन प्रथाके अनुसार वे बचपनहीसे अमुक समय तकके लिए नियमित रूपसे साधुओंकी संगतिमें रहते और व्यावहारिक ज्ञानके साथ ही धार्मिक ज्ञान भी प्राप्त करते तो उनकी धर्म-भावनाएँ दृढ होती और आज 'नास्तिकता' का जो दोष उनके सिर रक्खा जाता है सो न रक्खा जाता । अस्तु । ऊपर लिखित रीतिके अनुसार हीरजीको उनके पिता कूरा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरि-परिचय। शाहने जैसे व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिए पाठशालामें भेजा था, वैसे ही धार्मिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिये साधुओंके पास भेजनेमें भी आगापीछा नहीं किया था। परिणाम यह हुआ कि, वे बारह वर्षकी आयुहीमें बहुत होशियार और धर्मपरायण बन गये । उनको देख देख कर लोगोंको आश्चर्य होता था । उनके बचपनके व्यवहारों, और संसारसे उदासीनता दिखानेवाले, भवभीरुतादर्शक मधुर वचनोंने उनके कुटुंबियोंको, विश्वास दिला दिया था कि,-' वे किसी दिन साधु होंगे।' एक वार उन्होंने बातों ही बातोंमें अपने पितासे कहा,-" यदि कोई व्यक्ति अपने कुटुं. बमेंसे साधु हो जाय तो अपना कुटुंब कैसा गौरवान्वित हो ?" कुटुंबी लोगोंकी उक्त प्रकारके मन्तव्यको इस कथनने और भी दृढ़ बना दिया। भावी प्रबल । थोड़े ही दिनोंमें हीरजीके माता पिताका देहान्त हो गया। इस घटनाने हीरजीके संसारविमुख हृदयको और भी स्पष्ट ताके साथ संसारकी अनित्यता समझा दी-उनके हृदयको और भी विशेषरूपसे वैरागी बना दिया । माता पिताका स्वर्गवास सुन कर हीरजीकी दो बड़ी बहिने विमला और राणी-जो पाटन ब्याही गई थीं-आई और हीरजीको पालनपुरसे अपने साथ ले गई। उस समय पाटनमें श्रीविजयदानमूरि विराजते थे। ये क्रियोद्धारक आनंदविमलमूरिके-जिनका पहिले प्रकरणमें उल्लेख है-शिष्य थे । हीरजी नित्यप्रति उनको वंदना करनेके लिए जाने लगे। विजयदानमरिकी धर्मदेशना धीरे धीरे हीरजीके कोमल हृदय पर प्रभाव डालने लगी । हीरजीके हृदयमें दीक्षा लेनेकी भावना दृढ़ हुई। अपनी यह भावमा उन्होंने अपनी बहिनोंको भी सुनाई। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । ~~~rmmmmmmmmmmm. बहिर्ने बुद्धिमान और धर्मपरायणा थीं। वे भली प्रकारसे समझती थीं कि,-दीक्षा मनुष्यके कल्याणमार्गकी अन्तिम सीमा है । इससे उन्होंने यद्यपि भाईकी भावनाका विरोध न किया तथापि, मोहवश स्पष्ट शब्दोंमें, दीक्षा लेनेकी अनुमति भी नहीं दी। इस समय उनका मन 'व्याघ्रतटी' न्यायके समान हो रहा था । अतः उन्होंने मौन धारण की । उनके इस मौनसे हीरजीको पहिले कुछ नहीं सूझा; परन्तु अन्तमें उन्होंने सोचा कि,-' अनिषिद्धिमनुमतम् ' इस न्यायके अनुसार मुझे आज्ञा मिल चुकी है। अन्तमें उन्होंने संवत् १५९६ ( ई० सन् १५४० ) के कार्तिक सुद २ सोमवारके दिन पाटनहीमें श्रीविजयदानसूरिके पाससे 'दीक्षा' ले ली । उस समय उनका दीक्षा-नाम 'हीरहर्ष' रक्खा गया। हीरजीके साथ ही अन्य अमीपाल, अमरसिंह, ( अमीपालके पिता) कपूरा ( अमीपालकी बहिन ) अमीपालकी माता, धर्मशीऋषि, रूडोऋषि, विजयहर्ष और कनकश्री इन आठ मनुष्योंने भी दीक्षा ली थी। अबसे हम हीरजीको मुनि हीरहर्षके नामसे पहिचानेंगे । वर्तमान समयमें जैसे-नवद्वीप (बंगाल) न्यायका और 'काशी' 'व्याकरण का केन्द्र प्रसिद्ध है वैसे ही उस समय न्यायका केन्द्रस्थान दक्षिण समझा जाता था। यानी दक्षिण देशमें न्यायशास्त्रके अद्वितीय विद्वान् रहते थे। जैसे हीरहर्षमुनिकी बुद्धि तीक्ष्ण थी, वैसे ही उनकी विद्याप्राप्त करनेकी इच्छा भी प्रबल थी । इससे विजयदानसूरिने उन्हें न्यायशास्त्रका अध्ययन करनेके लिए दक्षिणमें जानेकी अनुमति दी। वे श्रीधर्मसागरजी और श्रीराजविमल इन दोनोंको साथ ले कर दक्षिणके सुप्रसिद्ध नगर देवगिरि गये थे। वहाँ बहुत दिन १ वर्तमानमें देवगिरिको दौलताबाद कहते हैं । एक समय यहाँ यादव राज्य करते थे । ई० सन् १३३९ में इसका नाम दौलताबाद पड़ा था। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ KAR सूरि-परिचय। तक रह कर उन्होंने न्यायशास्त्रके कठिन कठिन ग्रंथ जैसे 'चिन्तामणि' आदिका अध्ययन किया था । उस समय निजामशाह देवगिरिका राज्यकर्त्ता था। उक्त तीनों मुनियोंके लिए जो कुछ व्यय होता था, वह वहींके रईस देवसीशाह और उनकी स्त्री जसमाबाई देते थे। अभ्यास करके आनेके बाद विजयदानसरिने, हीरहर्षमें जब असाधारण योग्यता देखी तब उनको नाडलाई (मारवाड़) में सं. १६०७ ( ई० स० १५५१ ) में पंडितपद और संवत् १६०८ ( ई० सन् १९५२ ) के माघ सुदी ५ के दिन बड़ी धूमधामके साथ नाडलाईके श्रीनेमिनाथ भगवान्के मंदिर में ' उपाध्याय ' पद दिया। उनके साथ ही धर्मसागरजी और राजविमलजीको भी उपाध्याय पद मिले थे । तत्पश्चात् संवत् १६१० (ई० स० १५५४ ) के पोस सुदी ५ के दिन सीरोही ( मारवाड़) में आचार्य श्रीविजयदानमूरिने उन्हें ' सरिपद ' ( आचार्यपद ) दिया। यह कहना आवश्यक है कि, जिस एक महान व्यक्तिके अवतरणकी आशाका उल्लेख प्रथम प्रकरणमें किया गया था वह महान् व्यक्ति ये ही सूरीश्वर हैं । उनको हम अब हीरविजयसूरिके नामसे पहिचानेंगे । इस पुस्तकके दो नायकोंमेंसे प्रथम ( सूरीश्वर ) नायक यह नगर दक्षिण हैद्राबादके राज्यमें औरंगाबादसे १० माइल पश्चिमोत्तरमें है । ई० स० १२९४ में अलाउद्दीन खिलजीने इस नगरके अभेद्य दुर्गको तोड़ा था । यहाँके आधिपतिका नाम निजामशाह था । उसका पूरा नाम था बुराननिजाम शाह । इस शाहने ई० स० १५०८ से १५५३ तक दौलताबादमें हुकूमत की थी। हीरविजयसूरि इसकी हुकूमतमें ही देवगिरि गये थे । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सूरीश्वर और सम्राट्। ___आचार्य होनेके बाद जब वे पाटन गये थे तब वहाँ उनका 'पाटमहोत्सव' हुआ था। पाट-महोत्सवके समय वहाँके सूबेदार शेरखाँके मंत्री भणसाली समरथने अतुल धन खर्चा था। शट-महोत्सवके समय एक खास जानने योग्य क्रिया होती है । वह यह है कि, जब आचार्य नवीन पाटधरको पाट पर बिठाते हैं जब स्वयं आचार्य पहिले पाटधरको विधिपूर्वक वंदना करते हैं, फिर संघ वंदना करता है। ऐसा करनेमें एक खास महत्त्व है । पाट पर स्थापन करनेवाले आचार्य स्वयं वंदना करके यह बात बता देते हैं कि, नवीन गच्छपतिको-पाटघरको मैं मानता हूँ। तुम सब ( संघ ) भी उन्हें मानना । आचार्यके ऐसा करनेसे पाट पर बैठनेवाले साधुको, जो साधु उससे दीक्षामें बड़े होते हैं उनके मनमें, वंदना करनेमें यदि संकोच होता है तो वह भी मिट जाता है। इमसे किसीको यह नहीं समझना चाहिए कि-नवीन पाटधरको आचार्य हमेशा ही वंदना करते रहते हैं । वे केवल पाट पर बिठाते समय ही वंदना करते हैं । पश्चात् तो नियमानुकूल शिष्य ही आचायको वंदना करते हैं। आचार्यपदवीको प्राप्त होनेके बारह बरस बाद उनके गुरु श्रीविजयदानसूरिका संवत् १६२२ (ई० स० १५६६) के वैशाख सुदी १२ के दिन वड़ावलीमें स्वर्गवास हुआ । इससे उन्हें भट्टारककी पदवी मिली। उन्होंने समस्त संघका भार अच्छी तरह उठा लिया। तत्पश्चात् वे देश भरमें विचरण करने लगे। प्रथम प्रकरणमें हम यह बता चुके हैं कि, विक्रमकी सोलहवीं शताब्दिमें सारे भारतमें और खास करके गुजरातमें अराजकता फैल रही १ यह शेरखा दुसर अहमदशाहके समयमें पाटनका सूबेदार था। जो इसके विषयमें विशेष जानना चाहते हैं वे मीराते-सिकंदरी देखें । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरि-परिचय। Suman थी। इसलिए जिलाधीश प्रजाको तंग करनेमें कोई कसर नहीं रखते थे। किसीके विरुद्ध कोई जा कर यदि शिकायत करता तो उसी समय उसके नाम वारंट जारी कर दिया जाता । यह नहीं दर्याफ्त किया जाता कि, जिसके नाम वारंट जारी किया गया है वह अपराधी है या नहीं; वह साधु है या गृहस्थ । वे तो बस दंड देनेहीको अपनी हुकमतके दबदबेका चिह्न समझते थे। इससे अच्छे २ निःस्पृही और शान्त साधुओंके उपर भी आपत्तियाँ आ पड़ती थीं और उनसे निकलना उनके लिए बहुत ही कठिन हो जाता था। इस अराजकता या सूबेदारोंकी नादिरशाही का अन्त सोलहवीं शताब्दिहीमें नहीं हो गया था। उसका प्रभाव सत्रहवीं शताब्दिमें भी बराबर जारी रहा था। अपने ग्रंथके प्रथम नायक हीरविजयसरिको भी-जब वेआचार्य पद प्राप्त करनेके बाद गुजरात प्रान्तमें विचरण करते थे-उस समयके सूबेदारोंकी नादिरशाहीके कारण कष्ट उठाने पड़े थे। सामान्य कष्ट नहीं, महान् कष्ट उठाने पड़े थे। यह कथन अत्युक्ति पूर्ण नहीं है । उन्होंने जो कष्ट सहे थे उनमेक दो चारका यहाँ उल्लेख कर देना हम उचित समझते हैं। एक वार हीरविजयसूरि विचरण करते हुए खंभात पहुँचे । वहाँ रत्नपाल दोशी नामका एक धनिक रहता था। उसकी स्त्रीका नाम ठकाँ था। उसके एक लड़का भी था। उसकी आयु तीन ही बरसकी थी। उसका नाम था रामजी । वह हमेशा रोगी रहता था। एक वार रत्नपालने सूरिजीको वंदना करके कहा:-" महाराज ! यदि यह छोकरा अच्छा हो जायगा और उसकी मरजी होगी तो मैं उसे आपकी चरण-सेवा करनेके लिए भेट कर दूंगा।" थोड़े दिन बाद आचार्यश्री वहाँसे विहार करके अन्यत्र चले Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ सूरीश्वर और सम्राट् । गये । लड़का दिन बदिन अच्छा होने लगा । कुछ दिनमें तो वह सर्वथा अच्छा हो गया । जब छोकरा आठ वरसका हुआ तब सूरिजी विहार करते हुए पुनः खंभात गये । उन्होंने लड़का माँगा । इससे रत्नपाल और उसका परिवार आचार्य महाराजसे नाराज हो कर झगड़ा करने लगे । सूरिजीने मौन धारण किया, और फिर से उसका जिक्र नहीं किया । रामजीके अजा नामकी एक बहिन थी । उसके सुसरेका नाम हरदास था । हरदासने अपनी पतोहूकी प्रेरणासे उस समयके खंभातके हाकिम शिताबखाँके पास जा कर कहाः " आठ वर्षके बालकको हीरविजयसूरि साधु बना देना चाहता है, इसलिए उसे रोकना चाहिए । " कानके कच्चे सूबेदार ने तत्काल ही हीर विजयसूरि और उनके साथ साधुओंको पकड़ने के लिए वारंट जारी कर दिया । इस खबरको सुन कर सूरिजीको एक एकान्त स्थानमें छिप जाना पड़ा । हीरविजयसूरि तो नहीं मिले मगर रत्नपाल और रामजी शिताबखाँ के पास पहुँचाये गये । छोकरेका रूप देख कर शिताबखाँने रत्नपालसे कहाः-- " क्यों बे 1 तू इसको साधु किस लिए बनाता है ? यह बच्चा फकीरी क्या समझे ? याद रख, अगर तू इसको साधु बनायगा तो मैं तुझको जिंदा नहीं छोडूंगा । " शिताबखाँके कोपयुक्त वचन सुन कर रत्नपाल घबरा गया और बोला:- " मैं न तो इसे साधु बनाता हूँ और न आगे बनाऊँहीगा । १ शिताबखाँका असली नाम सैयद इसहाक है । शिताबखाँ जानने की यह उसका उपनाम या पदवी है इसके संबंध में जिनको विशेष इच्छा हो वे ' अकबरनामा प्रथम भाग अंग्रेजी अनुवादका - जो रिजका किया हुआ है - पु. ३१९ वाँ देखें । बेव 7 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सूरि-परिचय। मैं तो इसका शीघ्र ही ब्याह करनेवाला हूँ। आपको किसीने यह झूठ कहा है।" रत्नपालकी बात सुन कर शिताबखाँने उसे छोड़ दिया । सब तरह शान्ति हो गई । इस झगड़ेंमें हीरविजयसूरिको तेईस दिन तक गुप्त रहना पड़ा था। दूसरा उपद्रव-विक्रम संवत् १६३० ( ई० स० १६७४ ) में हीरविजयसरि जब 'बोरसद' में थे,तब कर्णऋषिके शिष्य जगमालऋषिने आ कर उनसे फर्याद की कि, " मेरे गुरु मुझे पुस्तकें नहीं देते हैं सो दिलाओ।" सूरिजीने उत्तर दियाः-" तेरे गुरु तुझे अयोग्य समझते होंगे इसी लिए वे तुझे पुस्तकें नहीं देते। इसके लिए तू झगड़ा क्यों करता है ? " __ आचार्यश्रीने उसे समझाया तो भी वह न माना । इसलिए वह गच्छके बाहिर निकाल दिया गया । जगमाल अपने शिष्य लहुआऋषिको साथ ले कर 'पेटलाद' गया, वहाँ के हाकिमसे मिला और हीरविजयमूरिके विषयमें कई बनावटी बातें कहीं। हाकिमने नाराज हो कर उसी समय हीरविजयसूरिको पकड़नेके लिए कई पुलिसके सिपाही उसके साथ भेजे । सिपाहियोंको ले कर वह बोरसद गया, मगर वहाँ उसका काम न बना। यानी-हीरविजयसूरिया अन्य कोई साधु वहाँ न मिले। वह लौट कर 'पेटलाद' गया और कुछ घुड़ सवार लेकर पुनः बोरसद गया । इस वार भी हीरविजयसूरि न मिले । श्रावकोंने सोचा कि, इस तरह बार बार उपद्रवोंका होना, और आचार्य महाराजको हैरान करना उचित नहीं है। शाम, दाम, दंड, भेदसे इस उपद्रवको शान्त करना ही उचित है । ऐसा सोच Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। कर उन्होंने 'दामनीति' का उपयोग किया । घुड़सवारोंकी मुट्ठी गरम होते ही वे जगमालके विरुद्ध हो गये और उसे कहने लगेः “तू शिष्य है और वे तेरे गुरु हैं । गुरुके साथ झगड़ा करना उचित नहीं है । गुरुको अधिकार है कि, वे चाहें तो तुझे बाजारमें खड़ा करके बेच दें और चाहें तो तेरे नाकमे नाथ डालें। तुझे सबकुछ सहना होगा।" जो उसके सहायक थे वे ही जब इस तरह विरोधी हो गये तब बेचारा वह क्या करता ? उसकी एक न चली । अन्तमें उन्होंने उसको वहाँसे निकाल दिया । इस तरह उस उपद्रवका अन्त हुआ। हीरविजयसूरि पुनः प्रकट रूपसे विचरण करने लगे। विहार करते हुए वे खंभात आये। तीसरा उत्पात-श्रीसोमविजयजीने दीक्षा ली उसके बाद हीरविजयसूरि विहार करते हुए, 'पाटन' हो कर 'कुणगेर' गये। ( यह कुणगेर पाटनसे ३ कोस दूर है । ) चौमासा वहीं किया । सोमसुंदर नामक एक आचार्य भी उस समय वहीं थे। पर्युषण पर्व बीतनेके बाद, उदयप्रभ नामके आचार्य वहाँ और गये । ( उदयप्रभ सरि उस समयके शिथिल साधओं ( यतियों) मेंसे कोई एक होने चाहिए । कारण-यदि वे शिथिलाचारी न होते तो, निष्प्रयोजन एक गाँवसे दूसरे गाँव चौमासेमें न जाते । कहा जाता है कि, उस समय उनके साथ तीनसौ महात्मा थे। अस्तु ।) उदयप्रभसूरिने हीरविजयसूरिको कहलाया कि, तुम सोमसुंदरसूरिको "खामणा करो-क्षमापना माँगो ।” सुरिजीने कहलायाः--- जब मेरे गुरुजीने नहीं किये तो मैं कैसे कर सकता हूँ ? " इस तरह हीरविजयसूरिने जब उदयप्रभसूरिकी बात न मानी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरि-परिचय । तब वे और उनके साथी सब सुरिजीसे ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सुरिजीको कष्ट देना स्थिर किया। वे पाटण गये। वहाँके सूबेदार कलाखाँसे मिले, और उसे समझाया कि,-'हीरविजयसूरिने बारिश रोक रक्खी है।' क्या बुद्धिवादके कालमें कोई मनुष्य इस बातको मान सकता है ? मगर पाटलके हाकिम कलाखाने तो उस बातको ठीक समझा और हीरविजयसूरिको पाड़नेके लिए सौ घुड़सवार भेज दिये । सवारोंने जा कर ' कुणगेर ' को घेर लिया। हीरविजयसूरि रातको वहाँसे निकल गये। उनकी रक्षाके लिए 'वडावली' के रहनेवाले तोला श्रावकने कई कोलियोंको उनके साथ भेज दिया । हीरविजयसूरि 'वडावली' पहुँचे । जब वे वडावली जानेको निकले थे तब खाईमें उतर कर जाते समय उनके साथके साधु 'लाभविजयजीको सर्पने काट खाया । मगर सूरिजीके हाथ फेरनेसे सर्पका जहर न चढ़ा। उस तरफ कुणगेरमें गये हुए घुड़सवारोंने हीरविजयसूरिको ढूंढा । मगर वे नहीं मिले । इससे पैरोंके निशानोंके सहारे सहारे वे वड़ावली पहुंचे। वड़ावलीमें भी उन्होंने बहुत खोज की मगर सूरिजी उन्हें नहीं मिले । इससे अन्तमें निराश हो कर वे वापिस पाटन चले गये । इस आपत्तिसे बचनेके लिए उन्हें एक भोयरेमें रहना पड़ा था। इस तरह उन्हें तीन महीने तक गुप्त रहना पड़ा था। वि० सं० १ यह उपद्रव वि. सं० १६३४ में हुआ था । यह बात कवि ऋषभदास कहते हैं । मगर यदि यह उपद्रव पाटनके. सूबेदार कलाखाँके ( जिसका पूरा नाम खानेकलाँ मीर महम्मद था ) वक्तमें हुआ हो तो उपर्युक्त संवत् लिखनेमें भूल हुई है । कारण-कलाखाँ तो संवत् १६३१ ( सन् १५७५ ) तक ही पाटनका सूबेदार रहा था । पश्चात् उसकी मृत्यु हो गइ थी । इससे यह समझमें आता है कि, या तो संवत् लिखनेमें भूल हुई है या सूबेदारका नाम लिखनमें भूल हुई है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट । वि० सं० १६३६ में भी ऐसा ही एक उपद्रव हुआ था। जब हीरविजयसूरि अहमदाबाद गये तब वहाँके हाकिम शहाबखाँके पास जा कर किसीने उनके विरुद्ध शिकायत की कि,-" हीरविजयसूरिने बारिश रोक रक्खी है।" शहाबखाँने यह बात सुनते ही हीरविजयसूरिको बुलाया और कहाः-"महाराज! आज कल बारिश क्यों नहीं बरसती है ? क्या आपने बाँध रक्खी है ? " सूरिजीने उत्तर दियाः-" हम वर्षाको क्यों बाँध रखते ? वर्षाके अभाव लोगोंको दुःख हो, उनके हृदय अशान्त रहें और जब लोग ही अशान्त रहें तो फिर हमें शान्ति कैसे मिले ?" इस तरह दोनोंमें वार्तालाप हो रहा था उसी समय अहमदाबादके प्रसिद्ध जैन गृहस्थ श्रीयुत कुँवरजी वहाँ जा पहुंचे। उन्होंने शहाबखाँको जैन साधुओंके पवित्र आचार और उत्कृष्ट, उदार विचार समझाये । सुन कर शहाबखाँ खुश हुआ। उसने सूरिजीको उपाश्रय जानेकी इजाजत दी । सरिजी उपाश्रय पहुँचे । श्रावकोंने बहुतसा दान दिया। जब दान दिया जा रहा था उस समय एक ट्रेकड़ी आया । उसके साथ कुँवरजो जौहरीका झगड़ा हो गया । 'सूरिजीको किसने छुड़ाया ? ' इस विषयमें बात होते होते दोनों तू ताँ पर आ गये । झगड़ा बहुत बढ़ गया । अन्तमें टूकड़ी यह कह कर चला गया कि, देखें अबकी बार तू कैसे अपने गुरुको छुड़ा लाता है। वह कोतवालके पास गया । सूरिजीको पुनः फँसानेके उद्देश्यसे उसने सूरिजीके विरुद्ध कोतवालको बहुत कुछ कहा। कोतवालने खानसे १ शहाबखांका पूरा नाम शहाबुद्दीन अहमदखां था । जो इसके विषय में विशेष बातें जानना चाहते हैं वे 'आइन-इ-अकबरी' के अंग्रेजी अनुवाद-जो ब्लॉकमॅनने किया है-के पहिले भागका ३३२ वा. पृष्ठ देखें । २ टूकड़ी यह सिपाहीका नाम है । यह तुरकीका बिगड़ा हुआ रूप है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरि-परिचय। कहा । खानने सूरिजीको पकड़ लानेके लिए सिपाहियोंको हुक्म दिया। जौहरीबाड़ेमें आ कर सिपाहियोंने सूरिजीको पकड़ा । जब वे सूरिजीको पकड़ कर ले जाने लगे तब राघव नामका गंधर्व और श्रीसोमसागर बीचमें पड़े । अन्तमें उन्होंने सूरिजीको छुड़ाया। इस बैंचाळेचीमें गंधर्व राघवके हाथमें चोट भी लग गई। सूरिनी नंगे शरीर ही वहाँसे भगे । इस आफतसे भागते हुए देवजी नामके लौंकाने उन्हें आश्रय दिया था । और वे उसीके यहाँ रहे थे। उधर पकड़नेवाले नौकर चिलाते हुए कचहरीमें गये और कहने लगे कि,--" हमको मुकों ही मुक्कोंसे मारा और हीरजी भग गया । वह तो कचहरीको भी नहीं मानता है।" यह सुन कर खान विशेष कुपित हुआ। उसने सूरिजीको पकड़नेके लिए बहुतसे सिपाही दौड़ाये। चारों तरफ हा हुल्लड मच गया। घरोंके दर्वाजे बंद हो गये। खोजतेखोजते, सूरिजी तो न मिले मगर धर्मसागरजी और श्रुतसागरजी नामके दो साधु उनके हाथ आ गये। सिपाहियोंने पहिले उन दोनोंकों खूब पीटा और फिर उन्हें हीरविजयसूरि न समझ छोड़ दिया। कोतवाल और सिपाही लोग सूरिजीके न मिलनेसे वापिस निराश हो कर लौट गये । उनको पकड़नेकी गड़बड़ बहुत दिनों तक रही थी । उस गड़बड़के मिट जानेके बाद ही हीरविजयसूरि शान्ति के साथ विहार करने लगे थे। ___ उपर्युक्त उपद्रवोंसे हम सहज ही में समझ सकते हैं कि, उस समयके अधिकारी कहाँ तक न्याय और कानूनका पालन करते थे। जिन बातोंको एक सामान्य बुद्धिका मनुष्य भी न माने उन बातोंको भी सत्य मान कर एक महान् धर्मगुरुको पकड़नेके लिए शिकारी कुत्तोंकी तरह पुलिस और घुड़सवारोंको चारों दिशाओंमें दौड़ा देना, उस समयकी अराजकता या दूसरे शब्दोंमें कहें तो उस समयके हाकिमोंकी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । नादिरशाहीके सिवा और क्या था ? जिस तिस तरहसे प्रनाको बरबाद करनेके सिवा और क्या था ? अस्तु । ऊपर जिन उपद्रवोंका वर्णन किया गया है उनमेंका अन्तिम सं. १६३६ में हुआ था । यह हम ऊपर भी कह चुके हैं। उसके बाद वे शान्तिके साथ विहार करने लगे थे । सं. १६३७ में सूरिजी 'बोरसद' पधारे थे । वहाँ, उनके पधारनेसे बहुतसे उत्सव हुए थे । उस वर्ष उन्होंने खंभातहीमें चौमासा किया था । वहाँके संघवी उदयकरणने सं. १६३८ (ई. स. १५८२ ) के महा सुदी १३ के दिन सूरिजीसे श्रीचंद्रप्रमुकी प्रतिष्ठा भी कराई थी। उसने आबू, चितोड़ आदिकी यात्राके लिए संघ भी निकाला था। तत्पश्चात सूरिजी विहार करके गंधार पधारे। ग्रंथके प्रथम नायक श्रीहिरविजयसूरिके अवशेष वृत्तान्तको आगेके लिए छोड़ कर अब हम ग्रंथके दूसरे नायक सम्राट्के विषयमें लिखेंगे। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तीसरा। सम्राट्-परिचय। थम प्रकरणमें भारतीय प्रजा पर जुल्म करनेवाले कई विदेशी राजाओंका नामोल्लेख हुआ है। उनमें पाठक बाबर और उसके पुत्र हुमायुके नाम भी र पढ़ चुके हैं । बाबरका संबंध हिन्दुस्थानके साथ ई० स० १५०४ में हुआ था। उस समय उसकी आयु बाईस बरसकी थी; उस समय वह काबुलका अमीर हो गया था । यहाँ इस बातका पाठकोंको स्मरण करा देना आवश्यक है कि, यह बाबर उसी तैमूरलंगका वंशज था जिसने भारतमें आ कर लाखों भारतवासियोंको कल किया था और जिसने सतियोंका सतीत्व नष्ट करनेमें कुछ भी कमी नहीं की थी। प्रथम प्रकरणमें यह भी उल्लेख हो चुका है कि, बाबरके आने बाद भारतमें शान्ति नहीं हुई । इसी बाबरने पानीपतके मैदानमें ई० स० १५२६ के अप्रे. लकी २१ वीं तारीखके दिन इब्राहीमलोदीको मारा था। तत्प श्वात ई० स० १५२७ के मार्चकी १६ वीं तारीखको चितोड़के राणा संग्रामसिंहके लश्करको 'कानवा' (भरतपुर) के मैदानमें परास्त किया था। बाबरके संबंधमें विशेष कुछ न लिख कर केवल इतना ही लिख देना काफी है कि, संसारकी सतहसे जैसे हजारों राजा अपयशकी गठड़ियाँ बाँध कर विदा हो गये हैं वैसे ही बाबर मी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । सन् १९३० में ४८ वर्षकी आयुमें अपनी तूफानी जिन्दगीको पूरा कर विदा हो गया था। उसके बाद उसका पुत्र हुमायु २२ वर्षकी उम्रमें दिल्लीकी गद्दी पर बैठा । बिचारी भारतीय प्रजाके दुर्भाग्यसे अब तक भारतमें शान्तिका राज्य स्थापन करनेवाला एक भी राजा नहीं आया। यह सत्य है कि जो राजा राज्य-मदमें मत्त हो कर प्रजाके प्रति उनका जो धर्म होता है उसे भूल जाते हैं अथवा उस धर्मको समझते ही नहीं हैं वे प्रजाको सुख नहीं पहुंचा सकते हैं । हुमायूँ बाबरसे भी दो तिल ज्यादा था । वास्तविक बात तो यह थी कि, उसमें राजाके गुण ही नहीं थे। अफीमके व्यसनने उसको सर्वथा नष्ट कर दिया था। उसकी अयोग्यताके कारण ही शेरशाहने ई० स० १५३९ में उसको चौसा और कन्नौजकी लड़ाई हराया था और आप गद्दीका मालिक बन गया था। इस तरह हुमायु जब पदभ्रष्ट हुआ तब वह पश्चिमकी तरफ भाग गया । और अन्तमें भाईसे आश्रय मिलनेकी आशासे काबुलमें अपने भाई कामरानके पास गया । परन्तु वहाँ भी उसकी इच्छा पूर्ण न हुई । कामरानने उसकी सहायता नहीं की। इससे वह अपने मुट्ठी भर साथियोंको ले कर सिंधके सहरामें भटकने लगा। संसारमें किसके दिन हमेशा एकसे रहे हैं ? सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख इस 'अरघट्टघटी' न्यायके चक्करसे संसारका कौनसा मनुष्य बचा है ? मनुष्य यदि बारिकीसे इस नियमका अवलोकन करे तो संसारमें इतनी अनीति, इतना अन्याय, इतना अधर्म कभी भी न हो। ऐसी खराब हालतमें भी हुमायूँ एक तेरह चौदह बरसकी लड़कीके मोहमें पड़ा था। यह वही लड़की थी कि, जो हुमायुके छोटे भाई हिंडालके शिक्षक शेखअली अकबर जामीकी पुत्री थी और जिसका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAA सम्राट्-परिचय. नाम हमीदाबेगम या मरियममकानी था । वह लड़की यद्यपि किसी राजवंशकी नहीं थी तथापि हुमायुके साथ ब्याह करना उसे पसंद नहीं था । कारण-हुमायुं उस समय राजा नहीं था। इस घटनासे कौन आश्चर्यान्वित नहीं होगा कि, यद्यपि हुमायुं राज्यभ्रष्ट हो गया था; जहाँ तहाँ भटकता फिरता था; कहीं उसे आश्रय नहीं मिलता था; और निस्तेज हो रहा था, तो भी एक तेरह चौदह बरसकी लड़की पर मुग्ध हो कर उससे ब्याह करनेके लिए आतुर बन रहा था! आश्चर्य ! आश्चर्य किसलिए ? मोहराजाकी मायामयी जालसे आज तक कौन बचा है ? कई महीनोंके प्रयत्नके बाद अन्तमें उसकी इच्छा फली । लड़की ब्याह करनेको राजी हुई । ई० स० १५४१ के अन्तमें और १५४२ के प्रारंभमें पश्चिम सिंधके पाटनगरमें उनका ब्याह हो गया। उस समय लड़कीकी उम्र १४ बरसकी थी। इस शादीसे हुमायुंका छोटा भाई हिंडाल भी उससे नाराज हो कर अलग हो गया। हुमायुंके पास उस समय कुछ भी नहीं रहा था । न उसके पास हुकूमत थी, न उसके पास सेना थी और न कोई उसका सहायक ही था । उसके लघु भ्राता हिंडालके साथ बचाबचया जो कुछ स्नेह था वह भी हमीदाबेगमके साथ ब्याह करनेसे नष्ट हो गया। वह निराश्रय और निरावलंब हो कर जहाँ तहाँ भटकता हुआ अपनी स्त्री और कुछ मनुष्यों सहित हिन्दुस्थान और सिंधके बीचके मुख्य रस्ते पर सिंधके मरुस्थलके पूर्व तरफ ' अमरकोट ' ( उमरकोट ) नामका एक कस्बा है उसमें गया। यह एक सामान्य कहावत है कि,-'सभी सहायक सबलके, एक न अबल सहाय ।' परन्तु यह एकान्त नियम नहीं है । यदि यह एकान्त नियम होता तो संसारके दुःखी मनुष्योंके दुःखका कभी अन्त ही न होता । वहाँ पहुँचने पर हुमायुको अपनी महान विपदाका अन्त होनेके चिह्न दिखाई दिये । अमरकोटमें Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફૂટ सूरीश्वर और सम्राट् । प्रवेश करते ही वहाँ के हिन्दु राजा राणाप्रसादको हुमायूँकी हालत पर तरस आया । एक राजवंशी अतिथिकी दुर्दशा देख कर उसका अन्तःकरण दयासे पसीज गया । उसने हुमायूँको आश्रय दिया । इतना ही नहीं वह हुमायूँको कष्टोंसे छुड़ाने के लिए यथासाध्य प्रयत्न भी करने लगा । क्या आर्य मनुष्योंका आर्यत्व कभी सर्वथा नष्ट हुआ है ? ' एक विदेशी मुसलमान राजवंशी पुरुषको किसलिए आश्रय दिया जाय ?' इस बातका कुछ भी विचार न करके अमरकोटके हिन्दु राजाने हुमायूँको आश्रय दिया था। इतना ही नहीं यदि यह कहा जाय कि, हुमायूँको प्राणदान दिया था तो भी अत्युक्ति नहीं होगी । राज्य-भ्रष्ट होने बाद हुमायूँको यहीं आ कर सबसे पहिले शान्ति मिली थी । यहीं आ कर अपने भाग्यकी तेजस्वी किरणोंके फिरसे प्रकाशित होनेकी उसे आशा हुई थी। ई. स. १५४२ के अगस्त महीने से उसकी किस्मत का सितारा चमकने लगा था । अमरकोट के राजाने हुमायूँकी अच्छी आवभगत की, उसको आश्वासन दिया और सलाह दी कि, - मेरे दो हजार घुड़स्वार और मेरे मित्रोंकी ५००० सेना लेकर तुम ठट्ठा और बक्खर प्रान्तों पर चढ़ाई करो । हुमायुंने यह सलाह मान ली । वह २० वीं नवम्बरको दो तीन हजार आदमी ले कर वहाँसे रवाना हुआ । उस समय उसकी स्त्री हमीदाबेगम सगर्भा थी, इसलिए वह उसको वहीं पर छोड़ गया । कुछ दिन बाद अमरकोटमें, हिन्दु राजाके घर हमीदाबेगमने ई. स. १९४२ के नवम्बरकी २३ वीं तारीख गुरुवारको एक पुत्र रत्नको जन्म दिया । उस समय हमीदाबेगमकी आयु केवल पन्द्रह बरसकी थी । पुत्रका नाम बदरुद्दीन महम्मद अकबर रक्खा गया । विद्वान् लोग कहते हैं, - यह नाम इसलिए रक्खा गया था कि, हमीदाबेगम के पिताका नाम अलि अकबर था । भारतवर्ष जिस सम्राट्की प्रतीक्षा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THANT सम्राट अकबर. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्-परिचय. कर रहा था और जिसका हम इस प्रकरणमें परिचय कराना चाहते हैं, वह सम्राट् यही बदरुद्दीन महम्मद अकबर है। यही 'सम्राट अकबर' के नामसे संसारमें प्रसिद्ध हुआ है । हम भी इस सम्राटको 'सम्राट अकबर' के नामहीसे पहिचानेंगे । जिस समय अकबरका जन्म हुआ था उस समय उसका पिता हुमायूँ अमरकोटसे २० माइल दूर एक तालाबके किनारे डेरा डाल कर ठहरा हुआ था । तरादीबेगखाँ नामके एक मनुष्यने उसे पुत्र जन्मकी बधाई दी। बधाई सुन कर हुमायुको अत्यंत आनंद हुआ। व्यावहारिक नियम सबको-चाहे वह राजा हो या रंकअपनी अपनी शक्तिके अनुसार पालने ही पड़ते हैं। पुत्र-प्राप्तिकी प्रसनतामें हर तरहसे उत्सव करना उस समय हुमायूँ अपना कर्तव्य समझता था। मगर कहावत है कि,- वसु विना नर पशु, उस पर भी हुमायुका जंगलमें निवास ! वह क्या कर सकता था ? उसके पास क्या था जिससे वह अपने मनोरथको पूर्ण करता ! पुत्र-प्राप्तिके आनंददायक अवसर पर भी उपर्युक्त कारणोंसे उसके मुख कमल पर कुछ उदासीनताकी रेखा फूट उठी । उसके अंगरक्षक जौहर नामक व्यक्तिने इस रेखाका कारण जाना । उसने तत्काल ही एक कस्तूरीका नाफ-जिसको उसने कई दिनोंसे सँभालके रक्खा थाहुमायुंके सामने ला रक्खा । हुमायुं बड़ा प्रसन्न हुआ । एक मिट्टीके बर्तनमें उसका चूरा किया और फिर वह चूरा सबको बाँटते हुए उसने कहा:-" मुझे खेद है कि, इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है इस लिए मैं पुत्र-जन्मकी खुशीके प्रसंगमें आप लोगोंको, इस कस्तूरीकी खुश्बूके सिवा और कुछ भी भेट नहीं कर सकता हूँ। आशा है आप इसीसे सन्तुष्ट होंगे । मुझे यह भी उम्मीद है कि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । जिस भाँति कस्तूरीकी सुगंधसे यह मंडल सुवासित हुआ है वैसे ही मेरे पुत्रकी यश रूपी सुगंधसे यह पृथ्वी सुवासित - मोअत्तिर होगी । , अकबरकी जन्मतिथिके संबंध में विद्वानोंके दो मत हैं । कई कहते हैं कि, अकबर ई. स. १९४२ में १५ अक्टूबर रविवार को जन्मा था; मगर विन्सेंट. ए. स्मिथ कहता है कि, -- “ यद्यपि अकबर ई. स. १५४२ में २३ नवम्बर गुरुवारहीको जन्मा था, तथापि पीछे से उसका जन्म दिन १५ अक्टूबर रविवार प्रकट किया गया था । इसी तरह उसका नाम भी बदल दिया गया था । यानी ' बदरुद्दीन महम्मद अकबर ' के बजाय उसका नाम ' जलालुद्दीन महम्मद अकबर प्रसिद्ध कर दिया गया था । " इसका प्रमाण वे यह देते हैं कि, जिस समय अकबरका नाम रक्खा गया था उस समय हुमायुंका विश्वस्त सेवक जौहर वहीं मौजूद था । उसने अपनी डायरीमें अकबर के जन्मकी तारीख, बार और पूरा नाम लिखा है। उससे हमारे कथन की पुष्टि होती है। चाहे सो हो, प्रसिद्धि में तो अकबरका पूरा नाम जलालुद्दीन महम्मद अकबर और उसकी जन्म तिथि १९ अक्टूबर रविवार सन् १९४२ ही आये हैं। अस्तु । बड़ोंकी बड़ाईमें कुछ विचित्रता तो होनी ही चाहिए । उपर्युक्त कथनसे यह मालूम हो गया कि अकबर बाबरका पोता था । बावर तैमूरलंग-जो तुर्क था - की पाँचवीं पीढ़ीमें था । इस तरह अकबर पितृपक्ष में तुर्क था और तैमूरलंगकी सातवीं पीढ़ीमें था । अकबर पाँच बरसका हुआ तभीसे हुमायूँने उसकी शिक्षाका प्रबंध किया था। प्रारंभ में अकबरको पढ़ानेके लिए जो मास्टर रक्खा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् - परिचय | ४१ गया था उस मास्टरने अकबरको अक्षरज्ञान न करा कर कबूतरोंको पकड़ने और उड़ानेका ज्ञान दिया । एक एक करके अकबरको पढ़ाने के लिए चार शिक्षक रक्खे गये; परन्तु अकबरने उनसे कुछ भी नहीं सीखा। कहा जाता है कि, अकबरने और तो और अपना नाम लिखने बाँचने जितना भी लिखना पढ़ना नहीं सीखा था । इस संबंध में भी विद्वानोंमें दो मत हैं। कई कहते हैं कि, वह लिख पढ़ सकता था और कई कहते हैं कि, यह अक्षरज्ञान - शून्य था । चाहे उसे लिखना पढ़ना आता था या नहीं, मगर इतना जरूर है कि, वह महान विचक्षण था और पंडितोंके साथ वार्ताविनोद करनेमें बड़ा ही कुशल था । सारे ही विद्वान् इस बातको स्वीकार करते हैं । भारतमें ऐसे पुरुष क्या नहीं हुए हैं कि, जो सर्वथा अक्षर - ज्ञान विहीन होनेपर भी महापुरुष हुए हैं; उन्होंने छोटे बड़े राज्य - तंत्र चलाये हैं। इतना ही क्यों, वे बड़े बड़े वीरता के कार्य भी कर गये हैं । इसी तरह अकबर ने भी अक्षर ज्ञान - शून्य हो कर भी यदि बड़े बड़े महत्व के कार्य किये हों तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । विद्वानोंका मत है कि, यद्यपि अकबर स्वयमेव लिखना पढ़ना नहीं जानता था, तथापि ग्रंथ सुननेका उसे बहुत ही ज्यादा शौक था, इसलिए दूसरोंसे ग्रंथ बँचवा कर आप सुना करता था । कई कविताएँ उसने कंठस्थ कर रक्खी थीं । मुख्यतया हाफिज और जलालुद्दीन रूमीकी कविताएँ उसे ज्यादा पसंद थीं। कहा जाता है कि, यही सबब था जिससे वह अपनी जिन्दगीमें धर्मांध नहीं बना था । बड़ोंको बड़े ही कष्ट होते हैं और बड़ी ही चिन्ताएँ होती हैं । यह एक सामान्य नियम है। अकबरने जैसे अपनी पिछली जिन्दगी अमन चैन और ऐशो - इशरत में बिताई थी, वैसे ही उसे अपने प्रारंभिक जीवनमें बहुत ही ज्यादा कष्टोंका मुकाबिला करना पड़ा था 6 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAA सूरीश्वर और सम्राट्। उसे प्रारंभिक जीवन में कष्ट हुए इसका वास्तविक कारण उसके पिता हुमायुंके भाग्यकी विषमता थी। ... हुमायुको अमरकोटके राजाने महान विपत्तिके समय सहायता दी थी; परन्तु उसके साथ भी उसकी प्रीति बहुत दिनों तक नहीं टिकी । कारण-हुमायुके एक नौकरने अमरकोटके राजाका अपमान किया; परन्तु हुमायूने उसका प्रतीकार नहीं किया। इससे अमरकोटका राजा क्रुद्ध हुआ । उसने हुमायुंके पाससे अपनी सेना वापिस ले ली। इससे हुमायु फिरसे पहिलेहीसा असहाय हो गया । वह अपनी स्त्री और पुत्र ( अकबर ) को ले कर कंधारकी तरफ रवाना हुआ। उस समय वहाँका राजा उसका भाई कामरान था । उसने और उसके भाई अस्करीने हुमायुको पकड़नेका यत्न किया । हुमायुं यह समाचार सुन, पुत्र अकबरको वहीं छोड़, अपनी स्त्रीको ले भाग गया। अकबर बचपनहीमें माता पितासे भिन्न हुआ और शत्रुके हाथों चढ़ गया । अस्करीने बालक अकबरको ले जा कर अपनी स्त्रीके हवाले किया और उसीके सिर उसके लालन-पालनका भार दिया । . हुमायूँ वहाँसे भाग कर ईरानमें गया। वहाँके राजाकी सख्तीसे उसे शीआधर्म ग्रहण करना पड़ा। शीआधर्म ग्रहण करनेसे ईरानका बादशाह हुमायुसे खुश हुआ । हुमायुंने उसकी खुशीका लाभ उठाया। कुछ द्रव्य और सेनाकी सहायता ले कर उसने कंधार और काबुल पर चढ़ाई की। इस लड़ाईमें पहिली वार हुमायुकी जीत हुई । उसने कंधार ओर काबुलको जीत कर अपने प्यारे पुत्रको प्राप्त कर लिया; मगर दूसरीबारके युद्धमें वह हार गया । कामरान जीता । उसने कंधारके साथ ही काबुल और अकबरको उससे वापिस छीन लिया। एक बार हुमायु काबुलके किले पर तोपके गोले छोडनेकी तैयारी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्-परिचय । कर रहा था, उस समय कामरानको किला बचानेका कोई उपाय नहीं सूझा । इसलिए उसने किले पर-जहाँ गोलेकी मार लगती थी-अकबरको ला खड़ा किया । हुमायुको तोप छोड़ना बंद रखना पड़ा । कारणदूसरोंको नष्ट करने जाते उसका प्यारा बेटा ही सबसे पहिले नष्ट हो जाता । इस लडाई में आखिरकार हुमायुं ही जीता । कामरान हार कर भारतमें भाग आया । हुमायुको फिरसे अपना प्यारा पुत्र अकबर और काबुल देश मिले। हुमायुं भी कामरानसे कम निठुर नहीं था। उसके भाईने जो कष्ट दिये थे उनका बदला लेनेमें उसने कोई कसर नहीं की थी। जब उसे फिरसे दिल्लीका राज्य मिला, तब उसने कामरानको कैद किया; उसकी आँखे फोड़ी, उनमें नींबू और नमक डाला । इस तरह दुःख दिया, तत्पश्चात् उसको मक्का भेज दिया। इसी भाँति उसने अस्करीको भी तीन साल तक कैदमें रख कर मक्का भेज दिया । अपसोस ! लोभाविष्ट मनुष्य क्या नहीं करता है ? लाखों आदमी जिनकी आज्ञा मानते थे, जो बुद्धिमान समझे जाते थे वे भी जब ऐसी २ क्रूरता और निर्दयताका व्यवहार करने लग जाते हैं तब यही कहना पड़ता है कि यह सब लोभका ही प्रताप है। ई० स० १५५१ में हुमायुका तीसरा भाई हिंडाल-जो गजनीका राज्य करता था-मर गया । हुमायुंने अकबरको वहाँका हुक्मराँ बनाया । हिंडालकी लड़की हुकैयाबेगमके साथ अकबरका ब्याह हुआ। जिस समय अकबर गजनीमें हुकूमत करता था उस समय कई अच्छे २ व्यक्ति उसकी संभाल रखते थे। कहा जाता है कि, अकबर केवल छः महीने तक ही गजनीमें रहा था। __ अकबर बचपनहीसे महान तेजस्वी और बहादुर था। बड़ीसे बड़ी तोपकी आवाजको भी वह सामान्य पटाखेकी आवाजके समान Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। समझता था। कुदरतने शूरताके और बहादुरीके जो गुण उसे बख्शे थे वे छिपे हुए नहीं रहे थे। जबसे वह थोड़ा होशियार हुआ तभीसे वह युद्धमें जाने और अपने पिताकी सहायता करने लगा था। यहाँ हम उसकी प्रारंभिक बहादुरीका एक उदाहरण देंगे। एक बार हुमायुं बहरामखाँ सहित पाँच हजार घुड़सवारोंको साथ ले कर काबुलसे रवाना हुआ। जब वह पंजाबमें सरहिंदके जंगलोंमें पहुँचा तब सिकंदरसूरकी सेनाके साथ उसकी मुठभेड़ हो गई। हुमायुका सेनापति तो सिकंदरकी सेनाको देखते ही हताश हो गया। उसका मन यह विचार कर एकदम बैठ गया कि, इतनी जबर्दस्त सेनाके साथ युद्ध कैसे किया जायगा ? उस समय हुमायुं और उसके सेनापतिका अकबरकी वीरताहीने साहस बढ़ाया था। अकबरहीने उन्हें बहादुरी भरी बातें कह कर उत्तेजित किया था। इतना ही नहीं उसने खुद ही आगे बढ़ कर सेनापतिका काम करना प्रारंभ किया था। परिणाम यह हुआ कि अकबरकी सहायता और वीरतासे हुमायुंको उस लडाईमें फतेह मिली। पाठकोंको यह जान कर आश्चर्य होगा कि, उस समय अकबरकी आयु केवल बारह वरसहीकी थी। तत्पश्चात् ई० स० १५५५ में हुमायूने क्रमशः दिल्ली और आगराकी हुकूमत भी ले ली। लाखों करोड़ों मनुष्योंको कत्ल कर, खूनकी नदियाँ बहाकर, या हलकेसे हलका नीचता पूर्ण कार्य करके जो राजा बने थे वे क्या कभी हमेशा राना रहे हैं ? विनाशी और शत्रुता पैदा करानेवाली जिस राज्यलक्ष्मीके लिए मनुष्य अन्याय करता है; अनीति करता है। लाखों मनुष्योंके अन्तःकरण दुखाता है वह लक्ष्मी क्या कभी किसीके पास हमेशा रही है ? जो भावीकी बड़ी बड़ी आशाओंके हवाई किले बना, महान अनर्थ कर राज्य प्राप्त करते हैं वे यदि अपने आयुकी विनश्वरताका और क्षणिकताका विचार करते हों तो क्या यह संभव Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट-परिचय। AMAVAJANANAurvarcmro है कि वे आध्यात्मिक संस्कारोंको दूर कर संसारमें इतनी अनीति और अत्याचार करें ? जिस पृथ्वीके लिए, मनुष्य अपना सर्वस्व खो देते हैं वह पृथ्वी क्या कभी किसीके साथ गई है ? गोंडककी महारानी साहिबा 'श्रीमती नंदकोरबा ' अपने 'गोमंडल परिक्रम' नामकी पुस्तकमें लिखते हैं: "लोग पृथ्वीपति बननेके लिए कितने हाथ पैर पछाड़ते हैं ? कितनी खराबियाँ करते हैं ? कितना लोहका पानी करते हैं ? और कितना अन्याय करते हैं ? मगर यह पृथ्वी क्या किसीकी होके रही है ? पृथ्वीके भूखे राजा लोग यदि इसका विचार करें तो संसारसे बहुतसा अनर्थ कम हो जाय।" __ राज्य प्राप्त करनेके लिए हुमायुको कितना कष्ट उठाना पड़ा था ? कितनी भूख, प्यास सहनी पड़ी थी ? दूसरोंका आश्रय लेना पड़ा था। पीछेसे वहाँ भी तिरस्कृत होना पड़ा था। अपने प्यारे पुत्रको छोड़ कर भागनाना पड़ा था। सगे भाइयों और स्नेहियोंके साथ वैर-विरोध करना पड़ा था। और तो क्या अपने सहोदरकी आँखे फोड़ने और उसकी आँखोंमें नींबू और नमक डालनेके समान क्रूर कार्य भी करना पडा था। इतना करने पर भी हुमायुं क्या सदाके लिए दिल्लीके राज्यका उपभोग कर सका ? नहीं। दिल्लीकी गद्दी पुनः प्राप्त करनेके छः ही महीने बाद २४ जनवरी सन् १९९६ ईस्वीके दिन उसे अपनी सारी आशाओंको इस संसारकी सतह पर छोड़ कर चल देना पड़ा; अपने पुस्तकालयके जीनेसे जब वह नीचे उतरता था उसका पैर फिसल गया और उसीसे उसके प्राणपखेरू उड़ गये। उस समय अकबर पंजाबमें था। क्योंकि वह सन् १५५५ ईस्वीके नवम्बर महीने में पंजाबका सूबेदार बना कर वहाँ भेजा गया Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। था । अकबर उस समय बहरामखाँके निरीक्षण सिकंदरसूरके साथ युद्ध करनेमें लगा हुआ था । हुमायुं जब मरा था उस समय दिल्लीका हाकिम तरादीबेगखाँ था। कहा जाता है कि, उसने सत्रह दिन तक तो हुमायुके मृत्यु-समाचार लोगोंको मालूम भी न होने दिये । कारण यह था कि,-अकबरको राज्य मिलनेमें कहीं विघ्न न खड़ा हो जाय । इन्हीं दिनोंमें उसने ये समाचार एक विश्वस्त मनुष्यद्वारा पंजाबमें अकबरके पास भेज दिये थे । पितृ-वत्सल अकबरने जब ये शोकसमाचार सुने तब उसे बहुत दुःख हुआ । उसने अपने पिताकी समाधि पर एक ऐसा उत्तम मंदिर बनवाया कि जो आज भी लोगोंके दिलोंको अपनी ओर खींच लेता है। दिल्लीमें जितनी चीजें देखने लायक हैं उन सबमें यह मंदिर अच्छा समझा जाता है । पिताके मरते ही उसे गद्दी नहीं मिल गई थी। गद्दी प्राप्त करनेके लिए उसे बहुत बड़ी लड़ाई करनी पड़ी । यद्यपि पहिले १४ फर्वरी सन् १९५६ ईस्वीके दिन 'गुरुदासपुर' जिलेके 'कलानौर' गाँवमें उसका राज्याभिषेक हुआ था, तथापि दिल्लीके राज्याभिषेकमें बहुतसा वक्त लग गया । दिल्लीका राज्य उसे शीघ्र ही नहीं मिला। इसका कारण यह था कि,-जिस समय हुमायुं मरा था उस समय मुसलमानोंमें आपसी झगड़े बहुत बढ़ गये थे। इस आपसी कलहसे लाभ उठा कर दिल्लीका राज्य अपने अधिकारमें कर लेनेके लिए हेमू-जो पहिले आदिलशाहका मंत्री था-का जी ललचाया था। उसकी इच्छा थी कि, वह दिल्लीका राजा बन कर विक्रमादित्य हेमूके नामसे प्रसिद्ध हो । वह 'चुनार' और 'बंगाल' के विद्रोहोंको शान्त करता हुआ आगे बढ़ा था। आगरा अनायास ही उसके हाथ आ गया और दिल्ली जीतनेके लिए उसने कदम बढ़ाया था । उस समय दिल्लीकी हुकूमत तरादीबेगखाँके हाथमें थी। वह हेमूसे हारा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्-परिचय। और अपनी बची बचाई फौज ले कर पंजाबमें अकबरके पास भाग गया। दिल्लीकी गद्दी प्राप्त कर हेमको असीम आनंद हुआ। दिल्ली ले कर ही उसका लोभ शान्त नहीं हुआ। पंजाबको लेनेकी इच्छासे वह पंजाबकी ओर रवाना हुआ। उधर अकबरको खबर मिली कि, हेमूने दिल्ली और आगरा ले लिये हैं । इससे उसको बहुत चिन्ता हुई। उसने अपनी 'समरसभा ' के मेम्बरोंको जमा किया और उनसे पूछा कि, अब क्या करना चाहिए ? बहुतसोंने तो यही सलाह दी कि, जब चारों तरफसे हमें दुश्मनोंमे घेर लिया है तब हमें चाहिए कि, इस वक्त हम काबुलका राज्य ले कर चुप हो रहें । मगर बहारामखाँको यह सलाह पसंद न आई । उसने कहा,--" नहीं हमें दिल्ली और आगरा फिरसे अपने अधिकारमें लेना चाहिए । " अन्तमें बहरामखाँकी सलाह ही ठीक रही। अकबरने हेमूको परास्त कर दिल्ली पर अधिकार करनेके लिए दिल्लीकी और प्रस्थान किया । मार्गमें तरादीबेगखाँ अपने कुछ सैनिकों सहित मिला। बहरामखाने उसे धोखा दे कर मार डाला । वहाँसे आगे कुरुक्षेत्रके प्रसिद्ध मैदानमें हेमू और अकबरकी फौजकी लड़ाई हुई । लड़ाईमें बहरामखाँका एक तीर हेमूको लगा। हेमू १ तरादीबेगखाँ ( तार्दिबेग ) को किसने मारा ? इस विषयमें इतिहास लेखकोंके भिन्न २ मत हैं। इन मतीका श्रीयुत बंकिमचंद्र लाहिडीने अपनी 'सम्राट अकबर' नामकी बंगला पुस्तकमें उल्लेख किया है । बदाउनी कहता है कि,-"बहरामखोंने अकबरकी सम्मतिसे उसे मारा था।" फरिश्ताने लिखा है कि,-" बहरामखाने अकबरको कहा,-आप बहुत ही दयाल हैं। यदि आपको कहता तो आप उसे क्षमा कर देते । इसलिए आपकी इजाजत लिए विना ही मैंने उसे मार डाला है। यह बात सुन कर अकबर काँप उठा।" भादि । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सूरीश्वर और सम्राट्। हाथीसे नीचे गिर पड़ा। उसकी फौज भाग गई। अकबरकी जीत हुई । फिर अकबरने जा कर दिल्ली और आगरे पर अधिकार किया और बेखटके वह अपने बापकी गद्दी पर बैठा । . अकबर गद्दी पर बैठा उस समय भारतवर्षकी हालत बहुत ही खराब थी। करीब करीब सब जगह अव्यवस्था और अराजकताके चिह्न दिखाई देते थे । आर्थिक दशा लोगोंकी खराब थी। इसके कई कारण थे । एक कारण तो यह था कि-जिस देशकी राजकीय स्थिति ठीक नहीं होती है-अव्यवस्थित होती है उस देशकी आर्थिक हालतको जरूर धक्का लगता है। दूसरा कारण यह था कि,-सन् १९९५ और ५६ ईसवीमें लगातार दो बरस तक अकाल पड़े थे। तीसरे लड़ाइयाँ हो रही थीं इससे आगरा, दिल्ली तथा इनके आसपासके सब प्रदेश उजड़-वीरानसे हो गये थे। अकबरने, सिंहासनारूढ़ होने पर देशकी हालत सुधारने और अपने पिताके समयमें जो प्रान्त चले गये थे उनको वापिस लेनेकी ओर ध्यान दिया । कारण-उस समय भारतके भिन्न भिन्न प्रान्त स्वतंत्र हो रहे थे। जैसे काबुल । यद्यपि यहाँका राज्य अकबरके भाईके नामसे होता था; परन्तु वास्तवमें तो वह स्वतंत्र ही था । बंगाल । यह अफगान सर्दारोंके अधिकारमें था और दो सौ से भी ज्यादा वर्ष पहिलेसे वह स्वतंत्र हो गया था। राजपूतानाके राज्य । ये जबसे बाबर हारा १ हेमूकी मृत्युके संबंधमें भी भिन्न भिन्न मत हैं। अहमद यादगारने लिखा है कि," अकबरके हुक्मसे बहरामखाँने हेमूके सिरको उसके अपवित्र शरीरसे जुदा किया था ।” अबुलफजलने फैजीसरहिन्दीने ओर बदाउनीने लिखा है कि,-" अकबरने हेमू पर शस्त्र चलानेसे इन्कार किया इसलिए बहरामखाने उसका (हेमूका ) सिर काट डाला ।" Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राद-परिचय। तभीसे अच्छी हालतमें आ गये थे और अपने अपने राज्यमें स्वाधीनतासे राज्य करते थे । मालवा और गुजरात तो बहुत पहिले ही से दिल्लीके अधिकारसे निकल गये थे । गोंडवाणा और मध्यप्रान्तके राज्य अपने उन्हीं सर्दारोंका सम्मान करते थे कि जो अपने ऊपर किसीको भी नहीं समझते थे। ओरिसाके राज्यने तो किसीको स्वामी करके माना ही न था । दक्षिणमे खानदेश, बराड़, बेदर, अहमदनगर, गोलकांडा और बीजापुर आदिमें वहाँके सुल्तान ही राज्य करते थे। वे दिल्ली के बादशाहके नाम तककी परवाह नहीं करते थे । दक्षिणमें वहाँसे आगे बढ़ कर देखेंगे तो मालूम होगा कि, कृष्णा और तुंगभद्रासे ले कर केपकुमारी तकका प्रदेश विजयनगरके राजाके अधिकारमें था। उस समय विजयनगरका राज्य बहुत ही जाहोजलाली पर था। गोवा और ऐसे ही दूसरे कुछ बंदरों पर पोर्तुगीजोंने कब्जा कर रक्खा था । अरबी समुद्रमें उनके जहाज चलते थे। उत्तरमें काश्मीर, सिंध और विलोचिस्तान तथा ऐसे ही कई दूसरे राज्य बिलकुल स्वाधीन थे। उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि अकबर जब गद्दी पर बैठा था उस समय हिन्दुस्थानका बहुत बड़ा भाग स्वाधीन था। अकबरके अधिकारमें बहुत ही कम प्रान्त थे । इससे उसके हृदयमें दूसरे प्रदेशोंको अपने अधिकारमें करनेकी इच्छाका उत्पन्न होना स्वाभाविक था। अकबरने अपनी कचहरीके रिवाज तीन प्रकारके रक्खे थे। १ तुर्की, २ मांगल और ३ ईरानी । ऐसा करनेका सबब यह था कि,-अकबर पितृपक्षमें तैमूरलंगके खानदानका था। तैमूर तुर्की था। इसलिए उसने तुर्की रिवाज रक्खा था । मातृपक्षमें वह चंगेजखाँके वंशका था । चंगेजखाँ मुगल था, इसलिए उसने माँगल रिवाज भी रक्खा था और अकबरकी माता ईरानकी थी इसलिए उसने ईरानी रिवाज भी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APRAANAM RAKAAMANMMMMMMAR सूरीश्वर और सम्राट् । रक्खा था। अकबरके राजत्वके आरंभमें हिन्दुओंके रिवाजोंका प्रभाव बहुत ही कम पड़ा था। उसके रिवाज जैसे तीन भागोंमें विभक्त थे वैसे ही उसके नौकर-हुजूरिए भी दो भागोंमें विभक्त थे। एक भागमें थे तुर्क और मांगल अथवा चगताई और उजबेग व दूसरे विभागमें थे ईरानी । कहा जाता है कि, अकबर अपने समयमें शेरशाहके वक्तके कानूनोंको विशेषकरके व्यवहार में लाया था। और नहीं तो भी उसने आय-विभाग ( Revenue-Department ) में तो जरूर ही सुधार किया था। यह शेरशाह वही है कि, जिसने हुमायुंको सन् १९३९ ईस्वीमें चौसा और कन्नौज के पास परास्त किया था। उसका असल नाम शेरखाँ था मगर गद्दी पर वह शेरशाह नाम धारण करके बैठा था । इस शेरशाहने सन् १९४५ ईस्वी तक दिल्लीमें रह कर कई सुधार किये थे। कइयोंका मत है कि, अकबरने दीवानी और फौजदारीसे संबंध रखनेवाले खास कानून नहीं बनाये थे । न उससे संबंध रखनेवाले रनिस्टर या खतौनिया आदि ही बनाई थीं । करीब करीब सब बातें वह जवानी ही करता था और किसीको यदि कुछ दंड देता था तो वह ' कुरानशरीफ' के नियमानुसार देता था। .. अकबर अठारह बरसका हुआ तब तक उसके संरक्षकका कार्य बहरामखाँ करता था । इतना ही नहीं यदि यह कहें कि, राज्यकी पूरी सत्ता बहरामखाँके हाथमें थी तो अनुचित न होगा। बहरामखाँ पर अकबरका भी पूर्ण विश्वास था। मगर उस विश्वासका बहरामखाँने दुरुपयोग किया था। यद्यपि अकबर पीछेसे यह जान गया था कि, बहरामखाँ महान् क्रूर और अन्यायी है; यह जानते हुए भी वह हरेक बातको उपेक्षाकी दृष्टिसे देखता रहा, तथापि बहरामखाँके अन्यायकी मात्रा प्रति दिन बढ़ती ही रही थी। बहरामखाँ जैसा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्-परिचय अन्यायी था, वैसा ही, उद्धत, कठोरभाषी, निष्ठुर हृदयी और पतित चरित्रवाला भी था । साधारणसे साधारण मनुष्यके लिए भी जब ये दु. गण घातक होते हैं तब जो शासन-कर्ता है उसके लिए तो निःसंदेह होवे ही । अस्तु । अकबर बहरामखाँके साथ वैमनस्य न हो इस बातका पूरा खयाल रखता था। मगर कहावत है कि,-' ज्यादा थोड़ेके लिए होता है।' अथवा ' अति सर्वत्र वर्जयेत् ' अन्तमें अकबरकी इच्छा हुई कि, वह सम्पूर्ण राज्यसत्ता अपने हाथमें ले; परन्तु इस काममें उसने जल्दी करना ठीक न समझा । युक्तिपूर्वक काम लेना ही उसे ठीक जचा । एक वार अकबर कुछ आदमियोंको साथ ले कर शिकारके लिए चला । शिकारगाहहीमें उसे अपनी माताकी बीमारीकी खबर मिली । खबर सुन कर वह दिल्ली गया । वहाँ जा कर उसने अपने सारे राज्यमें यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि,-" मैंने राज्यका सारा कामकाज अपने हाथमें ले लिया है । इसलिए मेरे सिवाय किसी दूसरेकी आज्ञा आजसे न मानी जाय ।” सन् १९६० ईस्वीमें जब यह ढिंढोरा पिटवाया तब उसने बहरामखाँके पास भी एक नम्रतापूर्ण पत्र भेजा । उसमें लिखा--" आज तक मैंने आपकी सज्जनता और विश्वास पर सारा राज्य भार छोड़ कर निर्भयताके साथ आनंदका उपभोग किया । अवसे राज्यका भार मैंने स्वयं उठाया है। आप मक्का जाना चाहते थे; अतः अब आप खुशीके साथ मक्का तशरीफ ले जायँ । आपको भारतवर्षका एक प्रान्त भेट किया जायगा । आप उसके जागीरदार होंगे। उसकी जो आमदनी होगी उसे आपके नौकर आपके पास भेज दिया करेंगे । ” इससे बहरामखाँ अकबरका दुश्मन बन गया । वह मक्काका नाम ले कर आगरेसे रवाना हुआ। मगर मका न जा कर पंजाबमें गया, कारण Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । उसने अकबरके साथ युद्ध करना ठाना था। यह खबर अकबरको पहिलेहीसे मिल गई थी। इसलिए उसने अपनी फौज पंजाबमें भेज दी। लड़ाई हुई। अकबरके सेनापति मुनीमखाँने सन् १९६० ईस्वीमें बहरामखाँको कैद कर लिया । ___इस तरह राज्यकी बागडोर अकबरने अपने हाथमें ले ली थी, तो भी वह खराब सोहबतसे एकदम बच न सका था। कहा जाता है कि, वह तीन बरसके बाद बुरी सोहबतसे निकल कर सर्वथा स्वाधीन हुआ था। जहाँ देखो वहीं राजाओंमें यह दुर्गुण होता ही है। अपनी बुद्धिसे काम करनेवाले और पूरी जाँचके साथ न्याय करनेवाले राजा बहुत ही थोड़े होते हैं । अपने पास रहनेवाले लोगोंकी बातों पर चलनेवाले राजा प्रायः ज्यादा होते हैं । अभी कई देशी राज्योंकी प्रजा अपने रानाओंको उपेक्षाकी दृष्टि से देखती है या उनसे घृणा करती है, इसका कारण यही है कि, वे ( राजा ) जो आज्ञाएँ प्रकाशित करते हैं बेसोचे समझे और किसी बातकी जाँच किये विना करते हैं। उनके पास रहनेवाले खुशामदी दर्बारी राजाको खुश करनेकी गरजसे या अपना कोई मतलब बनानेके लिए राजाको उल्टी सीधी बातें समझा देते हैं और राजा उसीके मुवाफिक हुक्म जारी कर देते हैं । उसीका परिणाम है कि आजकल राजा और प्रजाके बीच मन-मुटाव हो रहा है । वास्तवमै तो राजाको हरेक बातकी जाँच करके ही काम करना चाहिए। उसके कामास किसी पर अन्याय नहीं होना चाहिए । अकबरका प्रारंभिक काल भी करीब करीब ऐसा ही था। यानी खुशामदी दर्बारियोंके भरोसे ही राजकाज चलता था। मगर पीछे से वह ( अकबर ) अपनी बुद्धिसे कार्य करना ही विशेष पसंद करने लगा। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्-परिचय. सन् १९६२ ईस्वीमें, यानी जब वह बीस बरसका हुआ, तब प्रजाकी असली हालत जाननेके लिए उसने फकीरों और साधुसन्तोंका सहवास करना शुरु किया । यह है भी ठीक कि, निष्पक्ष त्यागी फकीरों और साधुओंके जरिए प्रनाकी असली हालत अच्छी तरहसे मालूम हो सकती है। वर्तमानमें तो प्रायः राजा लोग साधु-फकीरोंसे मिलनेमें भी पाप समझते हैं । अस्तु । साधु-फकीरोंसे मिलनेमें अकबरको इतना आनंद होता था कि, वह कई वार तो वेष बदल बदल कर उनसे मिलता था। साधुओंसे मिल कर जैसे वह प्रनाकी असली हालत जाननेकी कोशिश करता था वैसे ही वह आत्माकी उन्नतिके साधनोंका भी अन्वेषण करता था । अकबरने कहा है कि:“On the completion of my twentieth year," he said, " I experienced an internal bitterness, and from the lack of spiritual provision for my last journey my soul was seized with exceeding sorrow. "* भावार्थ----जब मैं बीस बरसका हुआ तब मेरे अंतःकरणमें उग्र शोकका अनुभव हुआ था । और मुझे इस बातका बड़ा दुःख हुआ था कि, मैंने परलोक यात्राके लिए ( धर्मकृत्य नहीं किये ) धार्मिक जीवन नहीं बिताया। अकवरको तब तकके अनुभवसे यह भी मालूम हुआ था कि, जिन जिन पर उसने विश्वास किया था के सभी विश्वास करने लायक नहीं थे। उनमेंके काइयों ने तो अकबरको मार डालने तकका भी प्रयत्न किया था। ___ तब तक अकबरकी आयकी भी अव्यवस्था ही थी। अकबरको जब यह बात मालूम हुई तब उसने सूरवंशीय राज्यके एक वफादार * Aiu i Albari, Vol. IIT, L. 336 by 11. S. Jarrell: Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Abvvv सूरीश्वर और सम्राट् । मनुष्यको नौकर रक्खा । उसे ऐतमादखाँका अल्काब दिया गया था। उसने कई ऐसे नियम बनाये कि, जिनसे आमदनीसे संबंध रखनेवाली सारी गड़बड़ी मिट गई और ठीक तरहसे काम चलने लगा। अकबर उसी साल यानी सन् १९६२ ईस्वीके जनवरी महीनेमें ख्वाजा मुइनुद्दीनकी यात्रा करनेके लिये अजमेर गया था। रास्तैमें दौसा गाँवमें ' अम्बे' (जयपुरकी पुरानी राजधानी ) के राना बिहारीमलने अपनी बड़ी लड़कीको अकबरके साथ व्याह देना स्वीकार किया । अकबर अजमेरसे सीधा आगरे गया और वहाँसे वापिस आ कर साँभरमें उसने हिन्दु-कन्याके साथ व्याह किया । हिन्दु लड़कीके साथ यह उसका पहिला ही ब्याह हुआ था। [ अकबरका लड़का जहाँगीर ( सलीम ) इसी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ था ] (ई. स. १५६९) समस्त भारतमें एक छत्र साम्राज्य स्थापन करनेकी अकबरकी आन्तरिक इच्छा थी । राष्ट्रीय दृष्टि से विचार करेंगे तो मालूम होगा कि, प्रजा उसी समयमें सुखसे रह सकती है कि जब उसे किसी प्रतापी राजाकी छत्र-छायामें रहनेका सौभाग्य मिले । अलग अलग स्वाधीन राजाओंके कारण हर वक्त लड़ाई झगड़े हुआ करते हैं और उनके कारण प्रजाकी बर्बादी होती है। अतः अकबरने यह निश्चय किया कि, 'एक ही राजाके अधिकारमें सारी प्रजाको रखना।" इस लक्ष्यको सामने रख कर ही उसने छोटे बड़े जिलोंको धीरे धीरे अपने अधिकारमें करना प्रारंभ किया था। और इस भाँति भारतके बहुत बड़े भागको अपने अधिकारमें करनेके लिए अकबरने लगातार बारह वर्ष तक युद्ध किया था। उसकी सारी युद्ध-यात्राओंका वर्णन न लिख कर यहाँ सिर्फ इतना ही लिख देते हैं कि, उसे अपने उद्देश्यमें बहुत कुछ सफलता मिली थी। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट-परिचय। अकबरका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिए अब उसके अन्यान्य गुण-अवगुणोंका विचार किया जायगा। यद्यपि अकबर मुसलमान कुलमें जन्मा था तथापि उसके हृदयमें दयाके भाव अधिक थे। दीन-दुःखियोंकी सेवा करना और उनके दुःखोंको दूर करनेका प्रयत्न करना वह अपना कर्तव्य समझता था। अपनी प्रनाको-चाहे वह हिन्दु हो या मुसलमान-दुःख देना, सताना वह पाप समझता था। प्रनाके प्रति राजाके क्या कर्तव्य हैं सो वह भली प्रकार जानता था । मयूर जैसे पाँखोंसे ही शोमता है वैसे ही राजा भी प्रजाहीसे सुशोभित होता है । अर्थात् प्रजाकी शोभाहीसे राजाकी शोभा रहती है । अकबर इस बातको भली प्रकार जानता था। इसी लिए वह ऐसे काम नहीं करता था जिनसे प्रनाको दुःख हो । वह प्रायः ऐसे ही कार्य करता था जिनसे प्रजा प्रसन्न और सुखी रहती थी। अर्थात् जहाँ जैसी आवश्यकता देखता वहाँ वैसे कार्य करा देता था। अकबरने कई कार्य कराये थे। उन्हीं से फतेहपुर सीकरीमें बँधाया हुआ तालाव भी एक है। वहाँ पानीकी तंगी थी। उसे दूर करने हीके लिए वह तालाब बंधवाया गया था । वह छ माइल लंबा और तीन माइल चौड़ा था । अब भी उसके चिन्ह मौजूद हैं जो अकबर की दयालुताकी साक्षी दे रहे है । श्रीदेव विमलगणिने अपने 'हीरसौभाग्य ' काव्यमें इस तालाबका उल्लेख किया है और उसका 'डाबर ' के नामसे परिचय दिया है । * * स श्रीकरीपुरमवासयदात्मशिल्पि सार्थन डाबरसरःसविधे धरेशः । इन्द्रानुजात इव पुण्यजनेश्वरेण श्रीद्वारकां जलधिगाधवसंनिधाने ॥ ६३ ॥ ( १० सर्ग ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meenama सूरीश्वर और सम्राट् । 'यात्रा' के नामसे जो कर वसूल किया जाता था, उसको उसने राज्यकी लगाम अपने हाथमें लेनेके बाद आठवें वर्षमें बंद कर दिया था। यह भी उसकी दयालु वृत्तिका ही परिणाम था । नववे वर्षमें उसने 'जज़िया' के नामसे जो कर वसूल किया जाता था उसे भी बंद कर दिया था । (ई. स. १५६२ ) इन दोनों करोंसे पहिले प्रजाको बहुत ही ज्यादा कष्ट उठाना पड़ा था। इस 'जज़िया' की उत्पत्ति भारतमें कबसे हुई ? इसका यद्यपि निश्चित समय निर्धारित नहीं किया जा सकता है तथापि उसके विषयमें प्रथम प्रकरणमें कुछ प्रकाश डाला जा चुका है । प्रसिद्ध इतिहास लेखक विन्सेंट स्मिथके मतानुसार फीरोजशाहने यह कर लगाया था और अकबरके समय तक चलता रहा था । ऐसा कर जिसकी आमदनी लाखों ही नहीं बल्कि करोड़ों रुपयेकी होती थी उसने केवल अपनी दयापूर्ण वृत्तिसे, प्रजाके हितार्थ बंद कर दिया, इससे हमको सहन ही में यह बात मालूम हो जाती है कि, अकबर मुसलमान बादशाह होकर भी अपनी प्रनाकी भलाईका कितना खयाल रखता था । जिस आर्यप्रजाको मुसलमानी राज्यमें भी ऐसे जुल्मी करोंसे दूर रहने का सौभाग्य प्राप्त था उसीको आज आर्य राजाओंके अधिकारमें रहते हुए भी भिन्न भिन्न प्रकारके अनेक कठोर कर देने पड़ते हैं और अनेक प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते हैं, यह वात क्या किसीसे छिपी हुई है ? इस समय हमें केप्टेंन एलेक्झेण्डर हेमिल्टनका-जो स्काटलेण्डका रहनेवाला था और जो सन् १६८८ से १७२३ ईस्वी तक हिन्दुस्थानमें व्यापार करता रहा था-वचन याद आता है । वह कहता है: "स्वराज्यकी अपेक्षा मुगलोंके राज्यमें रहना हिन्दुलोगोंको ज्यादा अच्छा लगता था । कारण-मुगलोंने लोगों पर करका बोझा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् - परिचय | ज्यादा नहीं डाला था । जो कर देना पड़ता था उसका आधार हाकिमोंकी मरजी पर नहीं था । वह पहिलेहीसे नियत था । लोग पहिलेहीसे जानते थे कि हमें कितने रुपये देने होंगे । मगर हिन्दु राजा अपनी इच्छा के अनुसार कर लगाते थे । उनके मनका द्रव्यलोभ ही लोगों से पैसे वसूल करनेका प्रमाण माना जाता था । वे तुच्छ तुच्छ बातोंके लिए पडोसियों से झगड़ा करते थे; युद्ध करते थे । इससे उनकी महत्वाकांक्षा और मूर्खताका परिणाम सारी प्रजाको भोगना पड़ता था; उनको शारीरिक और आर्थिक बहुतसी यातनाएँ भोगनी पड़ती थीं । " [ मुसलमानी रियासत (गुजराती) भा. १ ला पृष्ठ ४२६ ] 30 आज भी कई देशी रियासतें अपनी प्रजाको उपर्युक्त प्रकारकाकर संबंधी - कष्ट दे रही हैं । कुछ अंगुलियों पर गिनने योग्य राजा ऐसे हैं जो प्रजाकी उन्नति के लिए निरन्तर सचेष्ट रहेते हैं; और इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनकी कृति से प्रजाको कहीं दुःख न हो । उनको छोड़ कर भारतमें अब भी - विज्ञान के इस जमाने में भी ऐसी देशी रियासतें हैं कि जहाँ के हिन्दु राजा - आर्य राजा - ऐसे ऐसे काम करते हैं कि, जो मुसलमानोंके सारे जुल्मी कामों को भुला देते हैं । अफ्सोस ! जो राजा आर्य हो कर भी अपनी आर्य प्रजासे कठोर कर वसूल करते हैं; प्रजाको नाना प्रकार से सताते हैं; अहिंसक प्रजाके सामने हिंसा करते हैं और कराते हैं; प्रजाके हृदयको दुःख होगा, इसका तिल मात्र भी खयाल नहीं करते हैं, वे वास्तवमें राजा नहीं हैं; प्रजाके मालिक नहीं हैं, बल्कि प्रजाके शत्रु हैं । जो राजा प्रजाको सता कर, उसको दुःख दे कर हर तरहसे अपना भंडार ही भरना चाहते हैं वे राजा कैसे कहे जा सकते हैं ? इस पृथ्वी पर भंडार भरनेके लिए कितने राजाओंने कितने अत्याचार किये ? क्या किसीका भंडार 8 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। सदा भरा रहा ? अरे ! केवल तुच्छ लक्ष्मीके लिए जिन्होंने हनारों, लाखों ही नहीं बल्कि करोड़ों मनुष्योंको कत्ल किया; रक्तकी नदियाँ बहाई वे भी क्या उस लक्ष्मीको अपने साथ ले गये? प्रजा पर जोराना इतना जुल्म करते हैं, वे यदि सिर्फ इतना ही सोचते हों कि,-एक मनुष्य थोडासा अपराध करता है उसको तो हम इसी भवमें दंड देकर उसके पापका फल चखा देते हैं, तब हमें, जो हजारों, लाखों मनुष्योंको दुःख देनेका अपराध करते हैं, उसका दंड कैसा मिलेगा ? खेदकी बात है कि बुद्धिमान् और विद्वान् मनुष्य भी स्वार्थसे अंधे हो कर अपने पर्वतके समान अपराधको नहीं देख सकते हैं; वे अपने अधिकारके मदमें मस्त हो कर इस बातको भूल जाते हैं कि,-' भवान्तरमें उन्हें पापका कैसा दंड भोगना पड़ेगा। अकबरने अपने दयापूर्ण अन्तःकरणके कारण ही प्रजा पर लगे हुए कठोर कर बंद कर दिये थे। उसने यह भी कानून बनादिया था कि,-मेरे राज्यमें कोई बैल, भैंस, भैंसे, घोड़े और ऊँट इन पशुओंको न मारे । उसने यह भी आज्ञा की थी कि कोई किसी स्त्रीको उसकी इच्छाके विरुद्ध सती होनेके लिए विवश न करे। उसने यह भी घोषणा करवा दी थी कि अमुक अमुक दिन कोई किसी जीवको न मारे । पिछली जिन्दगीमें तो उसने इससे भी ज्यादा दयापूर्ण कार्य किये थे । उन कार्योंका वर्णन आगे किया जायगा । अकबरकी इस दयापूर्ण वृत्तिको-दया-गुणको प्रकट करनेवाली उसकी उदारवृत्ति थी । अपने आश्रित मनुष्यों के कामोंकी कदर करना वह खूब जानता था । यह बिलकुल ठीक है कि, बड़ोंका महत्त्व वे अपने आश्रितोंकी कदर करते हैं उसीसे होता है। अकबर इतना उदार था कि,-उसके दुश्मनमें भी कोई गुण होता था तो उसकी वह प्रशंसा करता था। इतना ही क्यों ? दुश्मन होने पर भी उसके Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्-परिचय। amannaaaaaaaam गुण पर मुग्ध हो कर वह उसका नाम अमर करनेके लिए यथासाध्य प्रयत्न करता था। उसका यहाँ हम एक उदाहरण देगें। ... __ अकबरने जब चितौड़ पर चढ़ाई की और रानाके साथ तुमुल युद्ध हुआ, तब उसमें रानाके जयमल और पत्ता नामक दो वीरोंने, असाधारण वीरताका परिचय दिया। उनकी वीरतासे अकबरको इतना भय हुआ कि, उसे अपनी जीतमें भी शंका हो गई। अकबरने क्रूरता की। उससे जयमल और पत्ता मारे गये । यद्यपि अकबरने उनके प्राण लिए तथापि वह उनकी असाधारण वीरताके गुणको न भूला । उसने आगरेमें जा कर उन दोनोंकी पत्थरकी मूर्तियाँ आगरेके किलेमें खड़ी करवाई । और अपनी कृतिसे लोगोंको यह बताया कि,वीर पुरुष यद्यपि देह त्याग कर चले जाते हैं। मगर उनका यशःशरीर हमेशा स्थिर रहता है; और साथ ही यह भी बताया कि, शत्रुके गुणोंकी भी इस भाँति कदर की जाती है। अकवरहीके समयके श्रावक कवि ऋषभदासने अकवरकी मृत्युके चौबीस बरस बाद 'हीरविजयसूरि रास' नामका गुजरातीमें एक ग्रंथ लिखा है। उसके ८० वें पृष्ठमें वह लिखता है:-- जयमल पताना गुण मन धरे, बे हाथी पत्थरना करे, जयमल पता बेसार्या त्यांहि, ऐसा शूर नहीं जग मांहि । ___ अकबरने ये दोनों पुतले आगरेके किलेके सिंहद्वारके दोनों तरफ खड़े करवाये थे। मगर पीछेसे उसके लड़के शाहजहाँने, जब दिल्ली बसा कर उसका नाम शाहजहाँबाद रक्खा तब, उन जयमल और पताके पुतलोंको उठवा कर इस शाहजहाँबादके सिंहद्वारके दोनों और खड़े किये । इन दोनों पुतलोंको देख कर फ्रान्सिस बनियरने-जो १६५५ से १६६७ तक भारतमें रहा था-अपने भ्रमणवृत्तान्तमें लिखा है कि, Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । " किलेके सिंहद्वारके दोनों तरफ पत्थरके बड़े बड़े दो हाथी हैं, उन्हें छोड़कर दूसरी कोई चीज़ यहाँ उल्लेख करने योग्य नहीं है । एक हाथी पर चित्तौड़के सुप्रसिद्ध वीर जयमलकी मूर्ति है और दूसरे पर उसके भाई पताकी। इन दोनों वीरोंने तथा इनसे भी विशेष साहस दिखानेवाली इनकी माताओंने विख्यात अकबरको रोक कर अविनाशी कीर्ति उत्पन्न की थी। उन्होंने अकबरसे घेरे हुए नगरकी रक्षा करना और अन्तमें, उद्धतापूर्वक आक्रमण करनेवालोंसे हार कर पीठ देनेकी अपेक्षा शत्रु पर आक्रमण करके प्राण त्याग करना विशेष उचित समझा था। इन्होंने इस तरह आश्चर्यकारक वीरताके साथ जीवन त्याग किया, इससे उनके शत्रुओंने उनकी मूर्तियाँ स्थापन कर उन्हें चिरस्मरणीय बना दिया । ये दोनों हाथियोंकी मूर्तियाँ और उन पर स्थापित दो वीरोंकी मूर्तियाँ अत्यन्त महिमा युक्त, अवर्णनीय सम्मान और भीति उत्पन्न करती हैं। * " इससे यह प्रमाणित होता है कि, अकबरने दोनों वीर पुरुषोंकी मूर्तियाँ हाथी पर बैठाई थीं । वास्तवमें अकबरने अपनी इस कृतिसे'रजब साँचे शूरके वैरी करें बखान ' इस कहावतको चरितार्थ कर दिखाई थी। यद्यपि लोगोंका कथन है कि, अकबरने चित्तौड़की लड़ाईमें इतनी ज्यादा क्रूरता की थी कि उसके कारण वह दूसरा अलाउद्दीन खूनी या दूसरा शाहाबुद्दीन समझा जाने लगा था। इसलिए अपने इस कलंकको मिटानेकी गरजसे अर्थात् लोगोंको सन्तुष्ट करनेके अभिप्रायसे उसने जयमल और पताके पुतले बनवाये थे, तथापि हम इस कथनसे सहमत नहीं हैं। लोगोंको सन्तुष्ट करनेके इससे भी अच्छे दूसरे मार्ग थे । मगर उन पर न चल कर पुतले ही बनवाये * देखो, बनिअरके भ्रमणवृत्तान्तका बँगला अनुवाद सिमसामयिक भारत ११ वाँ खंड पृ० ३०४. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrwww. सम्राट्-परिचय। इसका कारण उसकी गुणानुरागता ही है। कई विद्वान यह भी कहते हैं कि, उसने उक्त पुतले उस समय बनवाये थे जब वह मुसलमानी धर्मको छोड़ कर हिन्दु धर्मको मानने लग गया था। मगर हमें तो इस कथनमें भी कोई तथ्य नहीं दिखता है । अस्तु । - इस तरह अकबर, जिसमें जो गुण होता था उसके लिए उसका, अवश्य सम्मान करता था। इतना ही नहीं वह उसका हौसला भी बढ़ाता था। सुप्रसिद्ध वीरबल एक वार बिलकुल दरिद्र था । उस समय उसका नाम महेशदास था। मगर जब वह अकबरके दर्बारमें आया तब अकबरने उसमें अनेक गुण देख कर उसे 'कविराय' के पदसे विभूषित किया था। इतना ही नहीं, जैसे जैसे अकबरको विशेष रूपसे उसके गुणोंका परिचय होता गया, वैसे ही वैसे वह विशेष रूपसे उस पर महरबानी करता गया । परिणाममें वही दरिद्र महेशदास ब्राह्मण दो हजार सेनाका मालिक, 'राजा बीरबल' हुआ और अन्तमें वह 'नगर कोट' के राज्यका मालिक भी बना। बड़ोंकी महरबानी क्या नहीं कर सकती है ? इसी तरह सम्राट्ने प्रसिद्ध गवैये तानसेनको और अन्य कइयोंको उनके गुणोंसे प्रसन्न हो कर कुबेरभंडारीके रिश्तेदार बना दिये थे । अपने नायक सम्राट्में कई अकृतज्ञ राजाओंके समान उदारता (1) नहीं थी कि वह उन ( राजाओं) की भाँति किसीके गुणोंसे प्रसन्न हो कर उसका नाक कटवाता और फिर उसे सोनेका नाक बना देता । अकवरकी उदारता यहाँ तक बढ़ी हुई थी कि कई वार किसीके हमारों अपराधोंको भूल कर भी उसके भयभीत अन्तःकरणको आश्वासन देता था । इसका हम एक उदाहरण देंगे। .... ऊपर कहा जा चुका है कि, जिस बहरामखाँको अकबर एक वक्त बहुत सम्मान देता था उसी बहरामखाने अकबरके विरुद्ध कई Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। पड्यंत्र रचे थे। इतना ही नहीं उसने अकबरका कट्टर शत्रु बनकर उसका राज्य छीन लेनेका प्रयत्न भी किया था । इसी प्रयत्नमें जब वह पकड़ा गया और कैद करके अकबरके सामने लाया गया तब अकबरकी उदारता अपना कार्य किये विना न रही। अकबरने अपने कई अधिकारियोंको सामने भेज कर उसका सम्मान किया । इतना ही नहीं, उसने जब बहरामखाँको मौतके भयसे थर थर काँपते हुए देखा, तब सिंहासनसे उठ, उसका हाथ पकड़, उसे अपने दाहिनी तरफ सिंहासन पर ला बिठाया । वाह ! अकबर वाह ! तेरी उदारवृत्तिको कोटिशः धन्यवाद है। प्रसिद्धि प्राप्त उच्च श्रेणीके मनुष्योंमें जैसे अच्छे अच्छे गुण होते हैं, वैसे ही उनमें कई ऐसे अपलक्षण या अवगुण भी होते हैं कि, जिनके कारण वे सर्वतोभावसे लोकप्रिय नहीं हो सकते हैं। इतना ही क्यों, उन दुर्गुणोंके कारण वे अपने कार्यों में भी पीछे रह जाते हैं। अकबर जैसा शान्त था वैसा ही क्रोधी भी था; जैसा उदार था वैसा ही लोभी भी था; जैसा कार्यदक्ष था वैसा ही प्रमादी भी था; जैसा दयालु था वैसा ही क्रूर भी था और जैसा गंभीर था वैसा ही खिलाड़ी भी था । प्रकृतिके नियमोंके साथ क्या कोई द्वंद्व कर सकता है ? एक मनुष्यकी जितनी प्रशंसा करनी पड़ती है उतनी ही उसके दुर्गुणोंके लिए घृणा भी दिखानी पड़ती है । अपनी गुणवाली प्रकृतिको सब तरहसे संभाल कर रखनेवाले पुरुष संसारमें बहुत ही कम होते हैं । मनुष्योंमें जो दुर्गुण होते हैं उनमेंसे कई स्वाभाविक होते हैं, कई शौकिया होते हैं और कई संसर्गज होते हैं। सम्राट्में जो दुर्गुण थे वे भिन्न भिन्न प्रकारसे उसमें पड़े थे। जीवनके प्रारंभहीसे उसको कारण भी वैसे ही मिले थे । पाँच बरसकी आयुमें उसको शिक्षा देनेके लिए जो शिक्षक रखा गया था उसने उसे Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट-परिचय. अक्षर ज्ञानके बजाय पक्षी ज्ञान दिया था। यह बात ऊपर कही जा चुकी है । इसीलिए, कहा जाता है कि, अकबरने अपनी बाल्यावस्था २०००० कबूतर रक्खे थे और उनके दस वर्ग किये थे। इस भाँति अकवरके मस्तक पर बाल्यावस्थाहीसे खेलके संस्कार पड़े थे। जैसे जैसे उसकी आयु बढ़ती गई वैसे ही वैसे उस पर कई खराब व्यसन भी अपना प्रभाव जमाते गये थे। सबसे पहिले तो उसमें मदिराका व्यसन असाधारण था । इस शराबके व्यसनसे कई वार वह अपने खास खास कामोंको भी भूल जाता था और जब नशा उतर जाता तब भी बड़ी कठिनतासे उन्हें याद कर सकता था । इस व्यसनके कारण कई बार तो उससे ऐसा भी अविवेक हो जाता था कि, चाहे कैसे ही ऊँची श्रेणीके मनुष्यको उसने बुलाया होता, वह आया होता और उसके (अकबरके) मनमें उस समय मदिरा पीनेकी याद आ जाती तो वह उससे नही मिलता । इस अकेली मदिराहीसे वह सन्तुष्ट नहीं था । अफीम और पोस्त पीनेका भी उसे बहुत ज्यादा व्यसन था। कई वार धर्माचार्योसे बात करता हुआ भी ऊँघने लग जाता था। इसका कारण उसका व्यसन ही था। उसमें एक बहुत ही खराब आदत यह भी थी कि, वह लोगोंको आपसमें लड़ा कर मजा देखता था । अपने मंजेके लिए मनुष्य मनुष्यको पशुओंकी तरह आपसमें लड़ाना, राजाके लिए सद्गुण नहीं है । इसके सिवा निस बहुत बड़े व्यसनसे कई राजा लोग दूषित गिने जाते हैं; यानी जो व्यसन राजा ओंके जातीय जीवन पर एक कलंक रूप समझा जाता है वह शिकारका व्यसन भी उसे बहुत ही ज्यादा था। चीतोंसे हरिणोंका शिकार करानेमें उसे अत्यन्त खुशी होती थी। वह समय समय पर शिकारके लिए बाहिर जाया करता था । अपने शिकारके शौकको पूरा करनेमें उसने लाखों ही नहीं बल्कि करोड़ों प्राणियोंकी जाने ली थीं। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । जब एक तरफ हम राजाओं की उदारता देखते हैं और दूसरी तरफ उनकी ऐसी शिकारी प्रवृत्ति देखते हैं तब हमें बड़ा ही आश्चर्य होता है ६४ ----- मान लो कि, दो राजाओं के आपसमें वर्षो तक युद्ध हुआ हो, लाखों मनुष्य और करोड़ो रुपयोंकी उसमें आहुति हुई हो । उनमें से एक राजा दूसरे के लिए सोचता हो कि, यदि वह पकड़ा जाय तो उसके टुकड़े टुकड़े कर डालूँ । जिस समय उसके हृदयमें ऐसे क्रूर परिणाम हों उसी समय यदि दूसरा राजा मुँहमें तिनका ले कर पहिले राजा के पास चला जाय तो क्या वह उसे मारेगा ? नहीं, कदापि नहीं । वह यह सोच कर उसे छोड़ देगा कि, यह मेरे सामने पशु हो कर आया है इसको मैं क्या मारूँ ? ऐसी उदारता दिखानेवाले राजा जब, घास खा कर अपना जीवन - निर्वाह करनेवाले, अपना दुःख दूसरोंको नहीं कहनेवाले और हमेशा पीठ दिखा कर भागनेवाले पशुओं को मारते हैं तब बड़ा आश्चर्य होता है ? जिस तलवार या बंदूकका उपयोग राजाको अपनी प्रजाकी ( चाहे वे मनुष्य हों या पशु ) रक्षा करनेमें करना चाहिए उसी तलवार या बन्दुकका उपयोग जो राजा अपनी प्रजाका अन्त करनेमें करते हैं वे क्या अपने हथियारों को लज्जित नहीं करते हैं ? शत्रुओंको ललकार कर उनका मुकाबिला करनेकी शक्तिको जलाजली दे कर निर्दोष और घास पर अपना जीवन बितानेवाले पशुओं पर अपनी वीरताकी आजमाइश करनेवाले वीर ( ! ) क्या अपनी वीरताको लज्जित नहीं करते हैं ? अपने एक नायकने - सम्राट्ने तो शिकार की हद ही कर दी थी । उसने समय समय पर जो शिकारें की थीं उनका वर्णन न कर, केवल शिकारके एक ही प्रसंगका यहाँ वर्णन किया जाता है । सन् १९६६ ईस्वीमें अकबर के भाई महम्मद हकीमने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् - परिचय | ६५ , अफगानिस्तान से आ कर हिन्दुस्थान पर आक्रमण किया । उसको परास्त करने के लिए अकबर आगे बढ़ा । अकबरके जानेसे वह भाग गया। इससे अकबरको युद्ध करनेका तो विशेष मौका न मिला, परन्तु उसने लाहोर के पासके एक जंगलमें दस माइलके घेरे में अपने पचास हजार सैनिकोंके द्वारा एक महीने तक जंगली जानवरोंको इकट्ठा करवाया । जब दस माइलके घेरे में जानवर इकट्ठे हो गये तब तलवार, भाले, बंदूक आदिले पाँच दिन तक, बड़ी ही क्रूरता के साथ उनका वध करवाया । यह शिकार ' कम' के नामसे पहिचानी जाती है । कहा जाता है कि, ऐसा शिकार पहिले कभी किसीने नहीं कियाथा । हमारे जानने में भी अबतक ऐसी कोई घटना नहीं आई है । दस माइल में एकत्रित किये हुए जानवरोंका पाँच दिन तक संहार करनेवाले हृदय उस समय कैसे क्रूर हुए होंगे ? क्या कोई इसका अनुमान कर सकता है ? इससे सहज ही में अकबरकी क्रूरताका अंदाजा लगाया जा सकता है । इसीसे कहा जाता है कि, अकबर जैसा दयालु था वैसा ही क्रूर भी था । प्रायः राजाओं में क्षण में रुष्ट और क्षणमें तुष्ट होनेकी आदत ज्यादा होती है । उन्हें प्रसन्न होते भी देर नहीं लगती और नाराज होते भी देर नहीं लगती । जिस समय वह किसी पर नाराज होता उस समय वह मनुष्य यह नहीं सोच सकता था कि, अकबर उसकी क्या दुर्दशा करेगा ? अपराधीको दंड देनेका उसने कोई नियम ही नहीं बनाया था । उसकी इच्छा ही दंड विधान था । एक वार किसीने किसीके जूते चुराये | अकबर के पास शिकायत आई । अकबरने उसके दोनों पैर काट देनेका हुक्म दिया | अकबर का स्वभाव बहुत क्रोधी था, इसी लिए वह कई वार न्याय या अन्याय देखे विना ही, जो अपराधी बना कर सामने लाया जाता था उसे हाथीके पैरों तले कुचलनेकी, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट कीले जड़ कर माग्नेकी, या काटनेकी और फॉमीकी सजा दे देता था। अंग-छेद और कोड़े मारनेका हुक्म तो अकबर वात वामें दे देना था। अकबर स्वयं ही क्या, अकबरन जिन जिन सूबेदारोंको भिन्न भिन्न प्रान्तोंमें नियत किया था वे भी अपराधियोंको बातकी बातमें सली देनेकी, हाथी के पैरोंतले कुचलनेकी, फाँसीकी, दाहिना हाथ कटवा देनेकी और कोड़े मारनेकी सजा दे दिया करते थे। अकबर जब युद्धमें प्रवृत्त होता तब वह उस समय तक निर्दयतापूर्वक लोगोंको कस्ल करता रहता था, जब तक कि उसे अपनी जीतका निश्चय न हो जाता था। अकबरके जीवनमेंसे अकबरकी निर्दयताके ऐसे अनेक उदाहरण मिल सकते हैं । सन् १९६४ ईस्वीमें 'गोंडवाणा' की न्यायशालिनी रानी दुर्गावतीके साथ जब युद्ध हुआ तब उसने युद्धमें बड़ी ही निर्दयता दिखाई थी। राना उदयसिंहके समयमें सन् १५६७ ईस्वीके अक्टोबर महीनेमें उसने ' चित्तौड़ । पर चढाई कर दस माइल तक घेरा डाला था। वह भी इसी प्रकारका युद्ध था । कहा जाता है कि, यह चित्तौड़-दुर्ग ४०० फीट ऊँचा था । कहा जाता है कि इस युद्धमें अकवरने जो निर्दयता दिखाई थी उसके स्मरणसे हृदय आज भी काँप उठता है । 'हारा जुआरी दुगना खेले। इस कहावतके अनुसार, जब उसे अपनी जीतका कोई चिह्न नहीं दिखाई दिया तब उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दे दी कि, चित्तौ का जो मिले उसीको कत्ल कर दो । और तो और एक कुत्ता मिल जाय तो उसे भी मार दो । चित्तौड़की चालीस हजार किसान प्रजा पर उसने इस निर्दयतासे तलवार चलवाई कि, तीस हजार किसान देखते ही देखते खतम हो गये। उनका क्रोध इतना बढ़ गया कि, उसकी शरणमें आनेव ले बड़े बड़े धनियोंको भी वह मरवा देता था । उफ ! निर्दोष बालकों और स्त्रियों तकको उसने पकड़वा पकड़वा कर Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्र-परिचय। जिन्दा ही आगमें जलवा दिये थे। ऐसे भयंकर पापहीके कारण आज भी ऐसी कसमें दिलाई जाती है कि, 'तू अमुक कार्य करे तो तुझे चित्तौड़ मारेकी हत्याका और गऊ मारेका पाप हो । ' कहा जाता है कि, चित्तौड़के युद्ध में जो राजपूत मारे गये थे उनका अंदाजा लगानेके लिए उनकी जनोइयाँ तोली गई थीं। उनका वजन ७४॥ मन हुआ था। आज भी पत्र लिखने में ७४॥का आंक लिखा जाता है। उसका कारण यही बताया जाता है । मगर ऐतिहासिक दृष्टिसे इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता है । कारण-चित्तौड़की इस लड़ाईके पहिले भी ७४॥ का अंक लिखनेका रिवाज प्रचलित था। यह बात सप्रमाण सिद्ध है। अकबरको अजमेरके ख्वाजामुइनुद्दीन चिश्ती पर बहुत श्रद्धा थी। इसी लिए उसने चितौड़ पर चढ़ाई की तब प्रतिज्ञा की थी कि, यदि मैं इस युद्ध में जीतूंगा तो, पैदल आ कर ख्वाजा साहिबकी यात्रा करूँगा । विजय प्राप्त करनेके बाद प्रतिज्ञानुसार वह ता० २८ फर्वरीको यात्राके लिए रवाना हुआ था । गर्मीकी मोसिम थी। कई स्त्रियाँ और अन्यान्य लोग भी उसके साथ पैदल ही चलते थे। उस समय मॉडल में-जो चित्तौड़से ४० माइल है-उसको अजमेरसे आये हुए कई फकीर मिले । उन्होंने अकबरको कहा:-" हमें ख्वाना साहिवने स्वप्नमें कहा है कि, बादशाहको सवारीमें आना चाहिए । ” इसलिए बादशाह यहाँसे सवारीमें रवाना हुआ। जब अजमेर थोड़ी ही दूर रह गया तब सभी सवारीसे उतर गये थे और पैदल चल कर अजमेर पहुँचे थे। उसके कुछ ही काल बाद अर्थात् स० १५६९ में उसने रणथंभोर और कलिजर भी राजाओंके पाससे छीन लिया था। तद्नन्तर स० १५७२-७३ में उसने गुजरातका बहुत बड़ा भाग अपने अधिकारमें किया था। उस समय गुजरातका सुलतान मुजफ्फरशाह Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सूरीश्वर और सम्राट् । था । उसने बिना ही प्रयास अपना राज्य अकबर के अर्पण कर दिया था और आप भी अकबरकी शरण में चला गया था । यद्यपि सूरत, मरौच, बड़ौदा और चाँपानेर लेनेमें उसे कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थीं, तथापि अन्त में उसने उन्हें ले ही लिया था । कहा जाता है कि एक बार गुजरातकी लड़ाई में सरनाल ( यह स्थान ठासरासे पूर्वमें पाँच माइल है) के पास अकबरके प्राण खतरे में आ गिरे थे। वहाँ जयपुरके राजा भगवानदास और मानसिंहने बड़ा शौर्य दिखा कर उसकी रक्षा की थी। सन् १९७५ ईस्वी में उसने बंगाल, बिहार और उडीसा इन तीनों प्रान्तोंको वैसी ही क्रूरता और वीरता के साथ अपने अधिकारमें किया था । इसके बाद तीन चार बरस शान्तिमें बीते थे । अकबर में लोभ प्रकृति कुछ ज्यादा थी । इसलिए वह खर्च कुछ कभ रखता था । वह इतना जबर्दस्त सम्राट् था तो भी नियमित सेना तो केवल २५००० ही रखता था । उसने अपने आधीन राजाओंसे अमुक रकम 'खंडणी' में लेने और आवश्यकता पड़ने पर फौजी मदद करने की शर्त कर रक्खी थी। जब सम्राट्ने सन् १९८१ में काबुल पर चढ़ाई की थी, तब उसकी फौजमें ४५००० घुड़सवार और ५००० हाथी थे । जैनकवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरि रास' में अकबरकी समृद्धिका वर्णन इस तरह किया है । सोलह हजार हाथी, नौ लाख घोड़े, बीस हजार रथ, अठारह लाख पैदल ( जिनके हाथों में ' भाले' और 'गुरज' शस्त्र रहते थे ) सेनाके सिवा चौदह हजार हरिण, बारह हजार चीते, पाँच सौ वाघ, सत्तर हजार शिकरे और बाईस हजार बाज आदि जानवर थे। सात Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट - परिचय | ६९ हजार गवैये और गानेवाली स्त्रियाँ थीं। इनके अलावा उसके दर्बारमें पाँच सौ पंडित, पाँच सौ बड़े प्रधान, बीस हजार अहलकार और दस हजार उमराव थे । उमरावोंमें—-आजमखाँ, खानखाना, टोडरमल, शेख़ अबुल फ़ज़ल, बीरवल, ऐतमादखाँ, कुतुबुद्दीन, शहाबखाँ, खानसाहिब, तलाखान, खानेकिलान, हासिमखाँ, कासिमखाँ, नौरंगखाँ, गुज्जरखाँ, परवेज़खाँ, दौलतखाँ, और निजामुद्दीन अहमद आदि मुख्य थे । अतगवेग और कल्याणराय ये अकबर के खास हुजूरिये थे और हर समय अकबर के पाप्त ही रहते थे । और उसके यहाँ सोलह हजार सुखासन, पन्द्रह हजार पालखियाँ, आठ हजार नक्कारे, पाँच हजार मदनमेर, सात हजार ध्वजाएँ, पाँच सौ विरुदबोलनेवाले - चारण, तीन सौ वैद्य, तीन सौ गंधर्व और सोलह सौ सुतार थे । छियासी मनुष्य अकबरको आभूषण पहिनाने वाले थे, छियासी शरीर पर मालिश करनेवाले थे, तीन सौ शास्त्र बाँचनेवाले पंडित थे और तीन सौ वाजित्र थे । ܙܕ कवि यह भी लिखता है कि, " अकबरकी अर्दली में क्षत्रिय, मुगल, हबशी, रोमी, रोहेला, अंगरेज और फिरंगी भी रहते थे । भोई भी उसके दर में बहुत थे । पाँच हजार भैंसे, बीस हजार कुत्ते और बीस हजार वावरी - चिडीमार भी थे। अकबर ने एक एक कोसके अन्तरसे एक एक हजीरा -छत्री भी बनवाई थी । ऐसे कुल मिला कर एक सौ चौदह हजीरे उसने बनवाये थे । प्रत्येक हजीरे पर पाँच सौ पाँच सींग बनवा कर सजाये थे। दस दस कोस के फासलेसे उसने एक एक धर्मशाला और एक एक कूआ भी बँधवाया था । इतना ही नहीं उन स्थानों में लोगोंके आरामके लिए छायादार दरख्त भी लगवाये थे । एक वार उसने एक एक हरिणकी खाल, दो दो सींग और एक एक महोर भी शेखों के छत्तीस हजार घरों में लहाण-भाजी- की तौर बँढाये थे । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । एक दूसरे जैन कवि पं० दयाकुशलने अम्बरकी मौजूदगीहीमें - यानी अकबरका स्वर्गवास हुआ उसके बारह बरस पहिले 'लाभोदयरास' नामकी एक पुस्तक बनाई है। उसमें अकबर के वर्णन में लिखा है: ७० अकबर बड़ा हठी था । उसका नाम सुनते ही लोग काँपते थे । उसने चित्तौड़, कुंभलमेर ( कुंभलगढ़ ) अजमेर, समाना, जोधपुर, जैसलमैर, जूनागढ़, सूरत, भडोच, मांडवगढ़, रणथंभोर, सियालकोट और रोहितास आदि किले लिये थे । गौड़ आदि कई देश भी उसने अपने अधिकृत किये थे । बड़े बड़े राजा महाराजा उसकी सेवा करते थे । रोमी, फिरंगी, हिन्दु, मुल्ला, काजी और पठान आदि कोई ऐसा नहीं था जो उसकी आज्ञाका उल्लंघन करता । " 1 "" अकबरकी सेनाके संबंध में अबुलफजल लिखता है:" सम्राट्के पास ४४ लाख सैनिक थे । उनमेंका बहुत बड़ा भाग उसे जागीरदारों की ओरहीसे मिला था । "" फिच लिखता है, " कहा जाता है कि, अकबरके पास १०००, हाथी, ३००००, वोड़े, १४०० पालतू हिरण, ८०० रक्खी हुई स्त्रियाँ थीं और इनके अलावा चीते, वाघ, भैंसे, और मुर्गे वगैरा बहुत कुछ थे । " अकबरकी सेना आदिके विषय में भिन्न २ मत हैं । जिनका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । इससे अकबर के पास वास्तवमें कितनी सेना थी सो निश्चित करना यदि असंभव नहीं तो भी कटसाध्य अवश्य है । मगर इतना अनुमान किया ही जा सकता है कि भिन्न भिन्न लेखकोंने भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से उक्त वर्णन लिखा है । अस्तु । इस बातको एक ओर रख दें तो भी इतना तो अवश्यमेव Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट-परिचय। AamnARALAnnawAAAAAndroin कहा जा सकता है कि, अकबर लोभी था। उमीका यह परिणाम है कि, वह मा जब सिर्फ आपके किलेके खजानेमें दो करोड़ पौंड (तीस करोड रूपये ) की कोर के नो सिफ सिके ही निकले थे। अन्य छः तिजोरियोंमें भी में ही सिक्के भरे हुए थे। विन्सेंट स्मिथ कहता है कि, इस सनी स्थितिको देखते हुए तो वह मिल्कियत बीस करोड़ पौंडकी ( तीन अरब रुपयेकी ) कही जा सकती है। अकबरका अन्तःपुर ( जनानखाना ) एक बड़े कस्बेके समान था । उसके अन्तःपुरमें ५००० स्त्रियाँ थीं। प्रत्येकके रहनेके लिए भिन्न भिन्न मकान थे। उन स्त्रियोंको अमुक अमुक संख्या में विभक्त कर प्रत्येक विभाग पर एक एक स्त्री दारोगा नियत की हुई थी। और उनके खर्चका हिसाब रखनेके लिए क्लर्क रक्खे गये थे। अकबरने 'फतेहपुर-सीकरी में एक ऐसा महल बनाया था, कि, जिसकी सारी इमारत केवल एक ही स्तंभ पर खड़ी की गई थी। यह महल 'एक थंभेका महल ' के नामसे मशहूर है । कवि देवविमलगणिने भी अपने 'हीरसौभाग्य' नामक काव्यके १० वें सर्गके ७५ वें श्लोकमें इस एक स्तंभवाले महलका उल्लेख किया है । * ___ अब अकबरके विषयकी सिर्फ एक बात लिख कर उसका परिचय स्थगित करेंगे । इसी प्रकरणमें एक जगह कहा गया है वैसे, अकबरके हृदयमें कुछ धर्मसंस्कारकी मात्रा जरूर थी । उसके हृदयमें बारबार यह सवाल उठा करता था कि, जिसके लिए लोगोंमें इतना आन्दोलन हो रहा है वह धर्म चीज क्या है ? और उसका वास्तविक तत्त्व क्या है ? * " उन्नालनीरजमिव श्रियमापदेक स्तंभं निकेतनमकब्बरभूमिमानोः ।" अर्थात्-जैसे एक नालके ऊपर कमल सुशोभित होता है, वैसे ही एक स्तंभ पर खड़ा हुआ अकबरका महल सुशोभित होता है । www Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨ सूरीश्वर और सम्राट् । उसके हृदयमें यह सवाल उठा उसके पहिले ही; दूसरे शब्दों में कहें तो उसके हृदय में वास्तविक धर्मकी तलाश करनेकी इच्छा पैदा हुई उसके पहिले ही उसके मनमें मुसलमानी धर्म पर अरुचि हो गई थी । इसके साथ ही उसके हृदय में हिन्दु मुसलमानों को एक करनेकी भावना भी उत्पन्न हुई थी । उस इच्छाको पूर्ण करनेही के लिए उसने सन् १९७९ ईस्वी 'ईश्वरका धर्म ? ( दीन-इ-इलाही ) नामके एक नये धर्मकी स्थापना की थी और इस नवीन धर्ममें हिन्दु मुसलमानोंको सम्मिलित करनेका प्रयत्न करता था । इस प्रयत्न उसको बहुत कुछ सफलता भी मिली थी । / कइयों का मत है कि, अकवर मानाभिलाषी ज्यादा था । यहाँ तक कि वह अपना 'ईश्वरीय अंश' की तरह परिचय देता था । इसी इच्छा से उसने इस नवीन धर्मकी स्थापना की थी । लोगों को कुछ न कुछ चमत्कार दिखाना उसे ज्यादा अच्छा लगता था । रोगीका रोग मिटाने के लिए वह अपने पैरका धोया हुआ पानी देता था । उसके चमत्कार के लिए धीरे धीरे उसकी दूकान अच्छी जम गई थी । उसका प्रभाव यहाँ तक बढ़ा कि, बच्चे के लिए कई स्त्रियाँ उसके नामसे मानत भी रखने लगी थीं। जिनकी इच्छा पूर्ण हो जाती थी वह मानत पूर्ण करने आती थी । अकबर भी वे जो कुछ चीजें ले कर आती थी उनका स्वीकार करता था । अकबरके उपर्युक्त बर्ताव से और नवीन धर्मकी स्थापनासे बहुतसे मुसलमान उसका विरोध करने लगे थे । परिणाम यह हुआ कि, सन् १९८२ ईस्वी में अकबर भी प्रकट रूपसे मुसलमान धर्मका विरोधी हो गया था । खुले तोरसे मुसलमान धर्मका विरोधी बना इसके पहिले ही उसने हिन्दु और मुसलमान दोनोंके साथ समान रूपसे वर्ताव करना प्रारंभ कर दिया था । यह वर्ताव उसने उस 1. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् अकबर. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् - परिचय | ७३ समयसे शुरू किया था, जब वह अंध श्रद्धालु मुसलमान जान पड़ता था । बादमें यद्यपि उसके विचारोंमें बहुत कुछ परिवर्तन हो गया था; वह करीब करीब हिन्दुओं के समान ही हो गया था, तथापि उसके लिए कोई निश्चयरूपसे यह नहीं कह सकता था कि, - अकबर अमुक धर्मको माननेवाला है । और तो क्या उसके विचार जानने का भी किसीमें सामर्थ्य नहीं था। इसके लिए ईसाई पादरी बार्टोली (Bartoli) - जो अकबर के समय में मौजूद था - लिखता है : "He never gave anybody the chance to understand rightly his inmost sentiments, or to know what faith or religion he held by......And in all business, this was the characteristic manner of King Akbar-a man apparently free from mystery or guile, as honest and candid as could be imagined; but in reality, so close and self-contained, with twists of words and deeds so divergent one from the other, and most times so contradictory, that even by much seeking one could not find the clue to his thoughts.* अर्थात् - वह अपने आन्तरिक विचारोंको जाननेका या वह किस धर्म या किस मत के अनुसार वर्ताव करता है सो समझनेका कभी किसीको भी मौका नहीं देता था। उसके हरेक काममें यह खूबी थी कि, वह बाह्यतः भेद और प्रपंचसे दूर रहता था; और जितनी कल्पना की जा सकती है उतना प्रामाणिक और बेलाग रहता था; मगर वास्तव में था वह बड़ा ही गहरा और स्वतंत्र उसके वचन इस प्रकारके शब्दों में निकलते थे कि, जिनके दो अर्थ हो जाते थे, कई बार तो उसके कार्य * Akbar The Great Mogul, Page 73. 10 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। वचनोंसे इतने विरुद्ध होते थे कि, बहुत खोज करने पर भी उसके आन्तरिक भाव जाननेकी कुंजी नहीं मिलती थी। इससे मालूम होता है कि, अकबरकी स्थिति धार्मिक विषयमें या तो अधकचरी थी-अव्यवस्थित थी या उसे कोई जान ही नहीं सका था । अस्तु । अकबरकी आगेकी जिन्दगीका वर्णन आगेके लिए छोड़ कर, अभी तो इतने परिचय पर ही सन्तोष करेंगे । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण चौथा। आमंत्रण। त प्रकरणमें यह कहा जा चुका है कि, अकबरने सन् १९७९ ईस्वी में 'दीने-इलाही' नामके एक स्वतंत्र धर्मकी स्थापना की थी। स्वाधीन धर्मकी स्थापना करनेके पहिले उसने सन् १९७६ ईस्वीमें एक 'इबादतखाना' स्थापन किया था। उसको हम 'धर्मसभा के नामसे पहिचानेंगे । इस सभामें उसने प्रारंभमें तो भिन्न भिन्न मुसलमानधर्मके फिकोंके मौलवियोंको-विद्वानोंको ही सम्मिलित किया था । वे आपसमें वाद-विवाद करते थे, और अकबर उसको ध्यानपूर्वक सुनता था । खास तरहसे शुक्रवारके दिन तो इस सभामें वह बहुत ही ज्यादा वक्त गुजारता था। लगभग तीन बरस तक तो केवल मुसलमान ही इसमें शामिल होकर धर्मचर्चा करते रहे; मगर उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ । अकबरके सामने जो मुसलमान वादविवाद करते थे उनके पक्ष बंध गये थे । इसलिये वे एक पक्षवाले दूसरे पक्षवालेको झूठा साबित करनेहीके प्रयत्न करते रहते थे। पक्ष खास तरहसे दो थे । एकका नेता था, 'मख्दमुल्क' और दूसरेका था 'अबदुल्नबी' । इसको 'सदरे सदूर' की पदवी थी। इन दोनोंमे शान्त धर्मवादके बजाय क्लेशकारी वितंडावाद होने लगा। इससे अकबरको-' वादे वादे जायते तत्वबोधः' के बजाय विपरीत ही फल मिलने लगा । आखिरकार झगड़ा बहुत बढ़ गया । इससे अकबर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सूरीश्वर और सम्राट्। दोनोंसे उपराम हो गया । अकबरके दर्बारमें रहनेवाला कट्टर मुसलमान बदाउनी, धर्मसभामें बैठनेवाले मौलवियोंमें जो झगड़ा होता था उसके लिए लिखता है: “There he used to spend much time in IbādatKhānāh in the Company of learned men and Shaikhs. And especially on Friday nights, when he would sit up there the whole night continually occupied in discussing questions of religion, whether fundamental or collateral. The learned men used to draw the sword of the tongue on the battle-field of mutual contradiction and opposition, and the antagonism of the sects reached such a pitch that they would call one another fools and heretics." ( Al-Badaoni, Translated by W. II. Lowe M. A. Vol. II. P. 262.) अर्थात्-बादशाह अपना बहुत ज्यादा वक्त इबादत-खानेमें शेखों और विद्वानोंकी संगतिमें रह कर गुजारता था । खास तरहसे शुक्रवारकी रातमें-जिसमें वह रातभर जागता रहता था-किसी मुख्य तत्त्वकी या किसी अवान्तर विषयकी चर्चा करनेमें निमग्न रहता था। उस समय विद्वान् और शेख, पारस्परिक विरुद्धोक्ति और मुकाबिला करनेकी रण-भूमिमें अपनी जीभरूपी तलवारका उपयोग करते थे। पक्ष समर्थनकारोंमें इतना वितंडावाद खड़ा हो जाता था कि, एक पक्षवाला दूसरे पक्षवालेको बेवकूफ और ढोंगी बताने लग जाता था। मुसलमानोंकी इस लड़ाईके सबबसे ही अकबरने मुसलमानोंके उल्माओं (धर्मगुरुओं ) से एक इकरारनामा लिखवा लिया था। उसमें लिखा था कि,-" जब जब मतभेद हों तब तब उसका फैसला देनेका भौर कुरानेशरीफ़के हुक्मोंके माफिक धर्ममें तबदीली करनेका बाद Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण । mmmmmm शाहको हक है।" शेख मुबारिकने यह इकरारनामा लिखा था और दूसरे उल्माओंने ( मुसलमान धर्मगुरुओंने ) उस पर हस्ताक्षर किये थे । ( सं. १९७९ )। इसके बाद भी बादशाहने उल्माओंके उपर्युक्त प्रधानको और खास न्यायाधीशको नौकरीसे बरतरफ कर दिया था। कहा जाता है कि, जब मुसलमानी धर्म परसे उसकी श्रद्धा हट गई और जब उस पर वह नाराज हुआ था तब साफ साफ़ लफ्जोंमें वह कहने लगा था कि,-"जिस महम्मदने दस बरसकी छोकरी आयेशाके साथ ब्याह किया था और जिसने खास अपने दत्तक पुत्रकी स्त्री जैनाबके साथ-जिसको उसके पतिने तलाक दे दी थीब्याह कर लिया था वही-ऐसा अनाचार करनेवाला महम्मद कैसे 'पैगम्बर '-परमेश्वरका दूत हो सकता है ? " इस तरह जब मुसलमानधर्मसे उसकी रुचि हट गई तब वह हिन्दु, जैन, पारसी और ईसाई धर्मके विद्वानोंको बुला कर अपनी सभामें सम्मिलित करने लगा । और तभीसे वह भिन्न भिन्न धर्मके विद्वान् पुरुषोंकी संगतिमें बैठने और उनमें होनेवाली धर्मचर्चाको सुनने लगा। उसने अपनी सभा हरेक धर्मके विद्वानोंको अपने अपने मन्तव्य प्रकट करनेकी छुट्टी दी थी। इससे विद्वान् लोग बड़ी ही गंभीरता ओर बड़ी ही शान्तिके साथ धर्मचर्चा करते थे । उससे अकबरको बहुत आनन्द होता था । मुसलमानोंके विद्वानों परसे तो उसकी श्रद्धा बिलकुल ही हट गई थी । और तो और उसने मसजिद तकमें जाना छोड़ दिया था । वह तो अपनी धर्मसभामें बैठ कर धर्मचर्चा सुनना और उसमेंसे सार हो उसको ग्रहण करना ही ज्यादा पसंद करने लगा था । अबुलफज़ल लिखता है कि," अकबर अपनी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ NM सूरीश्वर और सम्राट्। धर्मसभामें इतना रस लेने लगा था कि, उसने अपनी कोर्टको तत्त्व शोधकोंका वास्तविक घर बना दिया था ।" “ The Shāhanshūl's court became the home of inquirers of the seven climes, and the assemblage of the wise of every religion and sect.” ( Akbarnämā. Translated by H. Beveridge Vol. III P. 366.) अर्थात् ----शहनशाहा और सातों प्रदेशों (पृथ्वीके भागों) के शोधकोंका और प्रत्येक धर्म तथा संप्रदायके बुद्धिमान् मनुष्योंका घर हो गया था। डॉ. विन्सेंट स्यिय का मत है कि, अकवरकी इस धर्मसभामें सबसे पहिले सन् १९७८ ईस्वी में एक पारसी विद्वान् सम्मिलित हुआ था। वह नवसारी (गुजरात) से आया था। उसका नाम था दस्तूर मेहरजी राणा। पारसी लोग उसे 'मोवेद के नामसे पुकारते हैं। यह विद्वान् सन् १९७९ ईस्ली तक वहाँ रहा था। उसके बाद गोवासे तीन ईसाई पादरी आ कर उसमें शामिल हुए थे। उनके नाम थे१ फादर रिडोल्फो एक्ोत्रीवा (Father Ridolfo Advaviva) २-मॉन्सिराट ( Monserrate ) और ३-एनरीशेज (Enrichez) यहाँ यह बता देना भी आवश्यक है कि, अकबरने अपने इस सभाके मेम्बरोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया था। उनमें कुल मिला कर १४० मेम्बर थे। 'आईन-इ-अकबरी' (अंग्रेजी अनुवाद) के दूसरे भागके तीसरे आईनके अन्तमें इन मेम्बरोंकी सूची दी गई है। उसमें ९३७-५३८ वे पेजमें प्रथम श्रेणीके भेन्जरों के नाम हैं। उनमें सबसे पहिला नाम शेख मुवारिकका है । यह अबुलफजलका पिता था । सबसे अन्तमें ' आदित्य' नामक किसी हिन्दुका नाम है । प्रारंभके बारह नाम Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण | ७९ मुसलमान हैं और बाद के ८ नाम सोलहवीं संख्याको छोड़ कर हिन्दुओंके मालूम होते हैं। सोलहवां नाम है ' हरिजीसूर ' (Hariji Sur ) ये हरिजीसूर ही अपने ग्रंथके नायक हैं । जिनको हम हीरविजयसूरि के नामसे पहिचानते हैं । अब यह बताया जायगा कि, हीरविजयसूरि के साथ अकबर बादशाहका संबंध कैसे हुआ ? एक वार अकबर शाही महलके झरोखे में बैठ कर नगरकी शोभा देख रहा था । उस समय उसको बाजे बजते हुए सुनाई दिये । बाज़ोंकी आवाजको सुनकर उसने अपने नौकर से जो उसके पास ही खड़ा था - पूछा:-" यह धूम धाम क्या है ?" उसने उत्तर दिया:- "चंपा नामकी एक श्राविकाने छः महीने के उपवास किये हैं। * इन उपवा सोंमें पानी के सिवा और कोई चीज नहीं खाई जाती है । पानी भी जब बहुत ज्यादा आवश्यकता होती है तब और वह भी गर्म और दिनके समयमे ही पिया जा सकता है । 'छः महीने के उपवास' इस वाक्यको सुन कर अकबरको आश्चर्य हुआ । उसने सोचा, जब मुसमान लोग सिर्फ एक महीने के * छ: महीनों के उपवाससे यह नहीं समझना चाहिए कि आजकल जैन लोग एक दिन उपवास और एक दिन पारणा करके जैसे छः मासी तप करलेते हैं वैसे ही किया था | चंपाने लगातार छ: महीने तक उपवास किये थेनिराहार रही थी । इसमें अत्युक्तिका लेश भी नहीं है । कारण- इस तरह छः महीने तक लगातार तप करनेके और भी कई उदाहरण मिलते हैं । उदाहरणार्थहम जिस समय की बात करते हैं उससे कुछ ही काळ पहिले यानी विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दिमें, श्री सोमसुंदरसूरि के समय में श्री शान्तिचंद्रगणिने भी छः महीनेके लगातार उपवास किये थे । [ देखो - सोमसौभाग्य काव्य (संस्कृत) के १० वे सर्गका ६१ वाँ श्लोक [] Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सूरीश्वर और सम्राट् । रोजे करते हैं, उनमें वे रात के वक्त जितनी जरूरत होती है उतना खा लेते हैं तो भी उन्हें कितनी ही तकलीफ मालूम देती है तब छः महीने तक लगातार कुछ न खा कर रहना कैसे हो सकता है ? उसको नौकरकी बात पर विश्वास न हुआ । इसलिए उसने निश्चय करने के लिए अपने दो आदमी भेजे । उनके नाम थे मंगलचौधरी और कमरुखाँ । उन्होंने चंपा के पास जा कर सविनय पूछा: " बहिन ! इतने दिन तक भूखा कैसे रहा जा सकता है ? दिनमें एक वक्त भोजन नहीं मिलनेहीसे जब आदमीका शरीर काँपने लग जाता है तब इतने दिन तक विना अन्नके कैसे जीवन टिक सकता है ? " चंपाने उत्तर दिया:-- " बन्धुओ ! यद्यपि ऐसी तपस्या करना मेरी शक्ति के बाहिरका कार्य है तथापि देव - गुरुकी कृपा से यह काम मैं कर सकती हूँ और आनंदपूर्वक धर्मध्यानमें दिन गुजार सकती हूँ । " चंपाके ये परम आस्तिकतापूर्ण वचन सुन कर उनके मनमें जिज्ञासा उत्पन्न हुई | उन्होंने देव - गुरुके विषय में पूछा। चंपाने उत्तर दिया:-- “ मेरे देव ऋषभादि तीर्थंकर हैं । वे समस्त प्रकार के दोषों और जन्म, जरा, मरणसे मुक्त हो चुके हैं। और मेरे गुरु हीरविजयसूरि हैं । वे कंचनकामिनीके त्यागी हो कर ग्रामुनुग्राम विचरते हैं और लोगोंको कल्याणका उपदेश देते हैं । " 1 मंगलचौधरी और कमरुखाने वापिस आ कर बादशाहते उपर्युक्त सब बातें कहीं। सुन कर बादशाहके मनमें ऐसे महान् प्रतापी सूरिके दर्शन करने की इच्छा उत्पन्न हुई। बादशाहको खयाल आया कि, - ऐतमादखाँ गुजरात में बहुत रहा है । इसलिए वह हीरविजयसूरि से अवश्यमेव परिचित होगा । उसने ऐतमादखाँको बुलाया और Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण। पूछा:--" क्या तुम हीरविजयमूरिको जानते हो।" उसने जवाब दियाः- "हाँ हुजूर, जानता हूँ।वे एक सच्चे फ़कीर हैं । वे इक्का, गाड़ी, घोड़ा वगेरा किसी भी सवारीमें नहीं बैठते हैं । वे हमेशा पैदल ही एक गाँवसे दूसरे गाँव जाते हैं । पैसा नहीं रखते । औरतोंसे बिलकुल दूर रहते हैं। और अपना सारा वक्त खुदाकी बंदगी करने और लोगोंको धर्मोपदेश देनेमें गुजारते हैं।" ऐतमादखाँकी बातसे अकबरकी ईच्छा और भी प्रबल हुई। उसने निश्चय किया कि,-ऐसे सच्चे फ़क़ीरको दर्बारमें जरूर बुलाना चाहिए और उनसे धर्मोपदेश सुनना चाहिए । ___एक दिन बादशाहने बहुत बड़ा वरघोड़ा-जुलूस देखा। अनेक प्रकारके बाजे और हजारों मनुष्योंकी भीड़ उसके दृष्टिगत हुई। उसने टोडरमलसे पूछा:--" ये बाजे क्यों बज रहे हैं ? इतनी भीड़ क्यों हुई है ? " टोडरमलने जवाब दिया:-" सरकार ! जिस औरतने छः महीनेके उपवास शुरू किये थे वे आज पूरे हो गये हैं। उसकी खुशीमें श्रावकोंने यह ' वरघोड़ा ' निकाला है।" बादशाहने उत्सुकताके साथ फिर प्रश्न किया:--" क्या वह औरत भी वरघोड़ेमें शामिल है ? " टोडरमलने जवाब दिया:--" हाँ हुजूर, वह भी अच्छे अच्छे कपड़े और जेवर पहिन कर खुशीके साथ एक पालखीमें बैठी हुई है। उसके सामने सुपारियों और फूलोंसे भरे हुए कई थाल रक्खे हुए हैं।" दोनोंमें इस तरह बातें हो रही थी इतनेहीमें वरघोड़ा वादशाही महलके सामने आ पहुँचा। बादशाहने विवेकी मनुष्योंको भेज कर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર सूरीश्वर और सम्राट् । चंपा को बड़े आदर के साथ अपने महल में बुलाया और नम्रतासे पूछा - " माता ! आपने कितने उपवास किये और कैसे किये ? " चंपाने उत्तर दिया:--" पृथ्वीनाथ ! मैंने छः महीने तक अनाज बिलकुल नहीं खाया। सिर्फ जब कभी बहुत ज्यादा प्यास मालूम देती, तब दिनके वक्त थोड़ासा गर्म पानी पी लेती थी । इस तरह आज मेरा छःमासी तप पूरा हुआ है । " बादशाहने साध्धर्य पूछा:- “ तुम इतने उपवास कैसे कर सकीं ? " चंपाने दृढ श्रद्धा के साथ कहा :- "मैं अपने गुरु हीरविजयसूरिके प्रतापहीसे इतने उपवास कर सकी हूँ। " यद्यपि बादशाह मंगल चौधरी और कमरुखाँकी जबानी पहिले ये बातें सुन चुका था तथापि कुदरत के नियमानुसार उसने स्वयमेव चंपासे फिर भी पूछ लिया । प्रकृतिका नियम है कि, किसी आदमीके विषय में दूसरोंके द्वारा जो कुछ सुना जाता है उससे जो आनंद - जो सहानुभूति उत्पन्न होती है वह उस आदमी से जब साक्षात् भेट होती है तब उसकी जवानी उसका हाल सुन कर कई गुनी ज्यादा बढ़ जाती है। इसी लिए बादशाहने उससे फिर भी पूछ लिया | चंपाकी बातें सुन कर बादशाहको सन्तोष हुआ । उसने पूछा:-- “ हीरविजयसूरि इस समय किस जगह हैं ? " चंपाने उत्तर दिया:- " वे इस वक्त गुजरात प्रान्तके गंधार शहर में हैं। " चंपाकी बातों से बादशाहको बहुत खुशी हुई । उसने पूर्व निश्चयानुसार फिरसे निश्चित किया कि, हर तरहसे हीरविजयसूरिको यहाँ बुलाऊँगा । 'हीरविजयसूरि रास ' के लेखक कवि ऋषभ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण | दासने लिखा है कि, अकबरने उस वक्त प्रसन्न हो कर चंपाको एक बहुमूल्य सोनेका चूड़ा पहिनाया था और शाही बाजे भेज कर वरघोड़ेकी शोभाको द्विगुण कर दिया था । 'जगद्गुरु काव्य ' के कर्ता श्रीपद्मसागरगणि अपने काव्य में यह भी लिखते हैं कि, - अकबरने इस बाईकी तपस्याकी परीक्षा करनेके लिए महीने, डेढ़ महीने तक उसे एक मकान में रक्खा था और उसकी संभाळ रखने के लिए अपने आदमी नियत किये थे । इस परीक्षा में अकबरको चंपाकी सद्भावना पर विश्वास हो गया । उसने उसमें कपट नहीं दिखा । फिर उसने यह जान कर कि, हीरविजयसूरि उसके ( चंपाके ) गुरु हैं, थानसिंह नामके एक जैन गृहस्थसे- जो अकबर के दर्वारमें रहता था - उनका पता दर्यापत कर लिया था । मगर 'विजयप्रशस्ति' काव्य के कर्ता श्रीहेमविजयगणि कहते हैं कि, अकबरने होरविजयसूरिको बुलानेका निश्चय ऐतमादखाँसे उनकी प्रशंसा सुन कर ही किया था । चाहे किसी भी तरहसे हो, यह तो निश्चित है कि, अकबरने . हीरविजयसूरि के नामका परिचय पा कर उनसे मिलना स्थिर किया । उसकी मिलने की इच्छा इतनी उत्कट हुई कि उसने तत्काल ही मानुकल्याण और थानसिंह रामजी नामक दो जैन गृहस्थोंको और धर्मसी पंन्यासको बुलाया और उनसे कहाः " तुम श्रीहीरविजयसूरको यहाँ आने के लिए एक विनतिपत्र लिखो । मैं भी एक खत लिख देता हूँ । " पारस्परिक सम्मति से दोनों पत्र लिखे गये । श्रावकोंने सूरिजीको पत्र लिखा और बादशाहने लिखा उस समय के गुजरातके सूबेदार शहाबखाँ (शहाबुद्दीन अहमद खाँ) को । बादशाहने पत्र में साधारण Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट तया यही नहीं लिख दिया था कि,-हीरविजयसूरिको भेज दो। उसने लिखा था कि, उन्हें हाथी घोड़े, रथ, प्यादे आदि ठाटके साथ और इज्जतके साथ यहाँ भेज दो। ये पत्र बादशाहने दो मेवड़ा ओंके साथ अहमदाबाद रवाना किये थे । 'हीरसौभाग्यकाव्य ' में इन मेवड़ाओंके नाम, मौंदी और कलाम बताये गये हैं। यहाँ एक दूसरी बात पर प्रकाश डाल देना भी उचित होगा। ___ अकबर सम्राट् था। उसके पास सब तरहकी सामग्रियाँ थीं। हाथी थे, घोड़े थे, ऊँट थे, लक्ष्मीका अभाव नहीं था और आदमियोंकी भी कमी नहीं थी। उस समयमें जितना जल्दी कार्य हो सकता था उतना जल्दी कार्य संपादन करनेकी सब सामग्रियाँ उसके पास मौजूद थीं। इस लिए यदि वह अपना सोचा कार्य कर लेता था तो इसमें कोई विशेषता नहीं है । यद्यपि इतना था तथापि कहना पड़ता है कि, आज एक दरिद्र जितनी शीघ्रतासे कार्य कर सकता है उतनी शीघ्रतासे उस समयका सम्राट अकबर नहीं कर सकता था। अकबरके पास ऐसा कोई वैज्ञानिक साधन नहीं था, जैसा आज एक गरीबको भी सरलतासे प्राप्त हो सकता है। आगरेमें बैठे हुए अकबरको यदि गुजरातमें कोई आवश्यक समाचार भेजना पड़ता था तो कमसे 1 The Mewrāhs. They are natives of Mewāt, and are famous as runners. They bring from great distances with zeal anything that may be required. They are excellent spies, and will perform the most intricate duties. There are likewise one thousand of them, ready to carry out orders. [The Ain-i-Akbari translated by H. Blochmann 11. A. ___Vol. I p. 252.] अर्थात-वे मेवातके रहनेवाले हैं और दौड़नेवाले ( हल्कारों ) के नामसे प्रसिद्ध हैं। जिस चीजकी जरूरत होती है वे बड़े दूरसे, उत्साह के साथ (शीघ्र ही) ले आते हैं। वे उत्तम जासूस हैं। बड़े बडे जटिल कार्य भी वे कर दिया करते हैं। ऐसे एक हजार हैं जो हर समय आशापालनेके लिए तत्पर रहते हैं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण। m कम १०-१२ दिन पहिले तो वह किसी तरहसे भी नहीं भेज सकता था। इस समय १०-१२ दिनकी बात तो दूर रही मगर १०-१२ घंटोकी भी जरूरत नहीं पड़ती है। अब तो १०-१२ मिनिट ही काफीसे ज्यादा हो जाते हैं। जिन समाचारोंको भेननेके लिए उस समय सैकड़ों रुपये खर्चने पड़ते थे वे समाचार अब केवल बारह आनेमें पहुंचा दिये जाते हैं। अभी जमानेको आगे बढ़ने दो, भारतमें साधनोंके बाहुल्य होने दो, फिर देखना कि, ये ही समाचार सेकंडोमें पहुंचने लगेंगे। पाठक ! कहो अकबर सम्राट् था, सम्राट ही क्यों उस समय चक्रवर्तीके समान था तो भी आजसे साधन उसके भाग्यमें थे ? नहीं, नहीं थे;बिलकुल नहीं थे। कमसे कम कहें तो भी आठ दस दिन तक रस्तेकी धूल फाक फाक कर ऊँट और घोड़ोंके साथ ही मनुष्यों की भी पूरी गति बन जाती तब कहीं जा कर एक समाचार आगरेसे गुजरातमें पहुँचता । अकबरकी प्रबल इच्छा थी कि, उसका आमंत्रण तत्काल ही हीरविजयसूरीके पास पहुँच जाय, मगर उसकी इच्छासे. क्या हो सकता था ? मनुष्य जातिसे जितना हो सकता है उतना ही तो वह कर सकती है ! तो भी अकवर और थानसिंह आदि श्रावकोंके पत्र ले, लंबी लंबी मंजिलें तै कर मेवड़ोंने जितनी शीघ्रता उनसे हो सकती थी उतनी शीघ्रतासे अहमदाबादमें शहाबखाँके पास दोनों पत्र पहुँचाये । शहाबखाँने सम्राट्का पत्र हाथमे ले कर भक्ति पूर्वक सिर पर चढ़ाया और पत्रको पढ़नेसे पहिले सम्राट्की, उसके तीन पुत्रोंकी -शेखूजी, पहाड़ी और दानियालकी-और सारे शाही कबीलेकी सुख-शान्तिका हाल दर्याफ्त कर लिया फिर उसने बादशाहका सुनहरी फर्मान बड़े ध्यानके साथ पढ़ा । उसमें लिखा था, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । "हाथी, घोड़े, पालखी और दूसरी शाही चीजें साथ दे कर शानके साथ, सम्मान पूर्वक श्रीहीरविजयसूरिको यहाँ भेज दो।" ___ शाहवखाँ स्वयं बादशाहके हाथका लिखा हुआ यह पत्र देख कर निस्तब्ध रह गया। उसे अपना पूर्वकृत स्मरण हो आया,-बादशाहने उन्हीं हीरविजयसूरिको आमंत्रण दिया है कि, जिनको मैंने थोड़े ही दिन पहिले सताया था जिन पर मैंने अत्याचार किया था; जो मेरे सिपाहियोंके डरके मारे नंगे बदन अपनी जान ले कर भागे थे। इन विचारोंने उसके हृदयको हिला दिया। महात्माको कष्ट दिया इसके लिए उसके हृदयमें असाधारण पश्चात्ताप होने लगा । मगर अब क्या हो सकता था । उसने 'गतं न शोचामि कृतं न मन्ये ' सूत्र का अवलंबन कर अपने मालिकके हुक्मको जल्दी बजा लानेकी तरफ़ मन लगाया । उसने अहमदाबादके प्रसिद्ध प्रसिद्ध नेता जैन गृहस्थोंको बुलाया । सब आये। उन्हें बादशाहका पत्र दिया । अपना पत्र भी पढ़ कर सुनाया और कहाः "शाहन्शाह जब इतनी इज्जतके साथ श्रीहीरविजयसूरिको बुला रहा है तब उन्हें जरूर जाना चाहिए ! तुम्हें भी खास तरहसे उन्हें आगरे जानेके लिए अर्ज करना चाहिए । यह ऐसी इज्जत है कि, जैसी आन तक बादशाहकी तरफसे किसीको भी नहीं मिली है। सूरीश्वरजीके बहाँ जानेसे तुम्हारे धर्मका गौरव बढ़ेगा और तुम्हारे यशमें भी अभिवृद्धि होगी। इतना ही नहीं, हीरविजयसूरिकी शिष्य परंपराके लिए भी उनका यह प्राथमिक प्रवेश बहुत ही लाभदायक होगा । इसलिए किसी तरहकी 'हाँ' 'ना' किये विना हीरविजयसूरिको बादशाहके पास जानेके लिए आग्रहके साथ विनति करो। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण। ८७ - मुझे आशा है कि, वे जा कर बादशाह पर अपना प्रभाव डालेंगे और बादशाहसे अच्छे अच्छे काम करवायँगे।" खानने साथ ही यह भी कहाकि,-"सूरिजीको रस्तेमें हाथी, घोड़े, पालखी, धन-दौलत वगैरा जो कुछ उनके आरामके लिए चाहिए, मैं दूंगा। बादशाहने मुझे आज्ञा दी है । तुम्हें इसके लिए किसी तरहकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए।" ___ यद्यपि बादशाहका पत्र पढ़ कर पहिले अहमदाबादके श्रावकोंको प्रसन्नता होनेके बजाय कुछ चिन्ता हुई थी, तथापि शहावखाँकी उत्तेजनादायक बात सुन कर पीछेसे उस चिन्तामें कमी हो गई । उनके चहरों पर कुछ प्रसन्नताकी रेखाएँ भी फूट उठी । अन्तमें वे शहावखाँको यह कह कर वहाँसे चले गये कि, सूरिजी महाराज इस समय गंधारमें हैं। उनको हम विनति करके अभी तो यहाँ ले आते हैं। श्रावकोंने एकत्रित हो कर बच्छराज पारेख, मूला सेठ, नाना वीपू शेठ और कुंवरजी जौहरी आदिको भेजा । वे अपनी बैल गाड़ियाँ जोड़ जोड़ कर सीधे गंधारको गये । अहमदाबादके संघने खंभातके श्रीसंघको भी सूचना दी । वहाँके संघने भी अपनी तरफसे उदयकरण संघवी, बजिया पारेख, राजिया पारेख और राजा श्रीमल ओसवाल आदिको सीधे गंधार भेजा। यद्यपि अहमदाबाद और खंभातके नेताओंके आनेसे सुरिजीको आनंद हुआ, तथापि उनके हृदयमें यह शंका उपस्थित हुए बगेर न रही कि ये लोग सहसा क्यों आये हैं ? दोनों नगरोंके संघोंने सरिजीको और मुनिमंडलको वंदना की । सूरिजीका व्याख्यान सुना । सूरिजीने आहार-पानी किया। श्रावक भी सेवा पूजा और भोजनादि कार्योंसे Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सूरीश्वर और सम्राट् । निवृत्त हुए | तत्पश्चात् खंभातके, अहमदाबाद के और गंधारके मुख्य मुख्य श्रावक तथा सूरीश्वरजी, विमलहर्ष उपाध्याय और अन्यान्य प्रधान प्रधान मुनि विचार करने के लिए एकान्त स्थानमें बैठे । उस समय अहमदाबाद के संघने अकबर बादशाहका पत्र - जो शहाबखाँके नाम आया था और आगरेके जैन श्रीसंघका पत्र, सूरिजीको दिये । सूरिजीने अपने नामका विनति पत्र जो आगरेके संघका था पढ़ा । तत्पश्चात् दोनों पत्र इस मंडलमें बाँचे गये । अहमदाबाद के संघ शहाबखाँकी कही हुई बातें भी वहाँ कहीं। ' जाना या नहीं ' इस बात की चर्चा तो अभी प्रारंभ न हुई मगर बादशाहने सहसा सूरिजी महाराजको कैसे आमंत्रण दिया, इसी बातकी थोड़ी देर आश्चर्यकारक बातकी तरह चर्चा होती रही । फिर मुख्य चर्चा प्रारंभ हुई । अहमदाबादका श्रीसंघ, जत्र जो कुछ कहना था, कह चुका तब प्रत्येक अपनी अपनी राय प्रकट करने लगा । किसी प्रसंग पर सब लोगोंकी सम्मति एक ही हो यह बात न कभी हुई है, न कभी होती है और न कभी होवेहीगी । हरेक मौके पर विचारोंकी विभिन्नता रहती ही है । अमुक विषयमें किसीके विचार कैसे होते हैं और किसीके कैसे । जिस समयकी हम बात लिख रहे हैं वह समय भी इस अटल नियमसे नहीं बचा था । उस समय भी जैसे कई उदार विचारवाले थे वैसे ही संकुचित विचार वाले भी थे । इसी लिए ' बादशाहका आमंत्रण स्वीकार करके सूरिजीको जाना चाहिए या नहीं ? इस विषय में बहुतसे मतभेद हो गये थे । कइयोंने कहाः " सूरिजी महाराज किस लिए वहाँ जायँ ? बादशाहको यदि सूरिजी महाराजका धर्मोपदेश सुनना होगा या महाराजके दर्शन करने होंगे तो वह आप ही यहाँ आ जायगा । " Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण। ApARNARA AAAAAAAA RAUNMUNAL naamanamanna कइयोंने कहा:-" सूरिजी महाराजको हम लोग क्या वहाँ भेज सकते हैं ? वह तो महा म्लेच्छ है, न जाने क्या करे ? वहाँ जा कर लेना क्या है ? " किसीने कहा:-" अकबर ऐसा वैसा आदमी नहीं है। लोगोंको जब उसके नामसे ही दस्त लग जाते हैं तब उसके पास तो जा ही कौन सकता है ? " किसीने कहा:-" वह तो खासा राक्षसका अवतार है। मनुष्योंको मार डालना तो उसके लिए एक एकन एक ' के समान है। ऐसे दुष्ट बादशाहके पास जानेसे मतलब ?" इस तरह विवाद करते हुए कई उसकी ऋद्धि समृद्धि का हिसाब करने लगे और कई उसकी लड़ाइयोंकी गिनती करने बैठे। सूरिजी चुपचाप मौन धारण कर इनकी बातें सुन रहे थे । कइयोंने यह भी कहा कि" यद्यपि बादशाह बहुत क्रूर है तथापि उसमें यह गुण बड़ा भारी है कि, वह गुणियोंका आदर करता है। यह यदि किसीमें महत्त्वका गुण देखता है तो उस पर प्रसन्न हो जाता है । इस लिए वह तो सूरिजीके समान महात्माको देखते ही ल हो जायगा । " कइयोंने कहा:---" हमें ऐसे संकुचित विचार नहीं रखने चाहिए, जब राजा उन्हें ऐसे सम्मानके साथ बुला रहा है तो महारानको अवश्य जाना ही चाहिए। सूरीश्वर महारानके पधारनेसे शासनकी बहुत प्रभावना होगी।" किसीने कहा:-"डरनेका कोई सबब नहीं है। अकबरके सोलह सौ तो स्त्रियाँ हैं । वह तो उन्हीं में अपना दिन बिताता है । वह स्त्रि-सहवास और एशोइशरतसे छुटी पायगा तब तो सूरिजी महाराजसे मिलेगा न ?” इतनेमें एक बोल उठा:-"जव बादशाह मिलेहीगा नहीं तो फिर जानेकी जरूरत ही क्या है ?" इस तरह श्रावकोंके आपसमें जो विवाद हुआ उसको सूरीश्वरजीने शान्तिके साथ सुना और फिर शासनसेवाकी भावनापूर्ण हृदयके साथ गंभीर स्वरमें कहा: Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राद। ___ " महानुभावो ! मैंने अब तक आप सबके विचार सुने । जहाँ तक मैं समझता हूँ अपने विचार प्रकट करनेमें किसीका आशय खराब नहीं है। सबने लाभके ध्येयको सामने रख कर ही अपने विचार प्रकट किये हैं । अब मैं अपना विचार प्रकट करता हूँ। इस बातके विस्तृत विवेचनकी तो इस समय मैं कोई आवश्यकता नहीं देखता कि, अपने पूर्वाचार्योंने मान-अपमानकी कुछ भी परवाह न कर राज-दर्बारमें अपना पैर जमाया था और राजाओंको प्रतिबोध दिया था। इतना ही क्यों, उनसे शासनहितके बड़े बड़े कार्य भी करवाये थे। इस बातको हरेक जानता है कि, आर्य-महागिरिने सम्पति राजाको, बप्पभट्टीने आमराजको, सिद्धसेनदिवाकरने विक्रमादित्यको और कलिकाल सर्वज्ञ प्रभु श्रीहेमचंद्राचार्यने कुमारपाल राजाको -इस तरह अनेक पूर्वाचार्योंने अनेक राजाओंको-प्रतिबोध दिया था। उसीका परिणाम है कि, इस समय भी हम जैन-धर्मकी जाहो-जलाली देखते हैं । भाइयो ! यद्यपि मुझमें उन महान आचार्योंके समान शक्ति नहीं है; मैं तो केवल उन पूज्य पुरुषोंकी पद-धूलिके समान हूँ; तथापि उन पूज्य पुरुषोंके पुण्य-प्रतापसे यावद् बुद्धिबलोदयम् । इस नियमके अनुसार शासनसेवाके लिए जितना हो सके उतना प्रयत्न करनेको मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। अपने पूज्य पुरुषोंको तो राज-दर्बार में प्रवेश करते बहुतसी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थीं; परन्तु हमें तो सम्राट् स्वयमेव बुला रहा है । इस लिए उसके आमंत्रणको अस्वीकार करना मुझे अनुचित जान पड़ता है। तुम इस बातको भली प्रकार समझते हो कि, हजारों बल्कि लाखों मनुष्योंको उपदेश देनेमें जो लाभ है उसकी अपेक्षा कई गुना लाभ एक राजाको -सम्राट्को उपदेश देनेमें है । कारण-गुरुकी कृपासे सम्राट्के हृदयमें यदि एक बात भी बैठ जाती है तो हजारों ही नहीं बरिक लाखों Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण । मनुष्य उसका अनुसरण करने लगजाते हैं। यह खयाल भी ठीक नहीं है कि, जिसको गर्ज होगी वह हमारे यहाँ आयगा ।' यह विचार शासनके लिए हितकर नहीं है । संसारमें ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो अपने आप धर्म करते हैं-उत्तमोत्तम कार्य करते हैं । धर्म इस समय लँगड़ा है। लोगोंको समझा समझा कर-युक्तियोंसे धर्मसाधनकी उपयोगिता उनके हृदयोंमें जमा जमा कर यदि उनसे धर्म-कार्य कराये जाते हैं तो वे करते हैं । इसलिए हमें शासन-सेवाकी भावनाको सामने रख कर प्रत्येक कार्य करना चाहिए । शासनसेवाके लिए हमें जहाँ जाना पड़े वहीं निःसंकोच हो कर जाना चाहिए । परमात्मा महावीरके अकाट्य सिद्धान्तोंका घर घर जा कर प्रचार किया जायगा तभी वास्तविक शासनसेवा होगी । ' सवी जीव करूं शासनरसी' (संसारके समस्त जीवोंको शासनके रसिक बनाऊँ ) इस भावनाका मूल उद्देश्य क्या है ? हर तरहसे मनुष्योंको धर्मका-अहिंसा धर्मका अनुरागी बनानेका प्रयत्न करना । इसलिए तुम लोग अन्यान्य प्रकारके विचार छोड़ कर मुझे अकबर के पास जानेकी सम्मति दो । यही मेरी इच्छा है।" इस गंभीर उपदेशका प्रत्येक पर बिजलीकासा असर हुआ । पहिली बार अकबरके पास जानेमें जो हानि देखते थे वे ही अब अकबरके पास जानेमें लाभ देखने लगे । 'सूरिजी महाराजके उपदेशसे बादशाह मांसाहार छोड़ देगा तो कितना अच्छा होगा ? ' सूरिजी महाराजके उपदेशसे बादशाह पशुवध बंद कर देगा तो कितना उत्तम होगा ? ' ' सूरिजी महाराजके उपदेशसे यदि बादशाह जैन हो नायगा तो कितनी शासन-प्रभावना होगी?' इस तरह कल्पनादेवीके घोड़े प्रत्येकके हृदय में दौड़ने लगे। सबने प्रसन्नताके साथ कहा:-- Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । "महाराज ! आप आनंदपूर्वक जाइए। हम सभी राजी हैं। आप महान् प्रतापी है; पुण्यशाली हैं। आपके तप - तेजसे बादशाह धर्म प्रेमी होगा । इससे शासनोन्नतिके अनेक कार्य होंगे। हम आशा करते हैं कि, आप भी प्रभु श्रीहेमचंद्राचार्य के समान ही अकबर पर प्रभाव डाल कर जीवदयाकी विजयपताका फर्रावेंगे । शासनदेव हमारी इस आशाको अवश्यमेव सफल करेंगे। हमारी आत्मा इस बातकी साक्षी दे रही है । " तत्पश्चात् सूरिजी महाराजके विहारका निश्चय होने पर एकत्रित संघने हर्षावेशसे वीर परमात्मा और हीरविजयसूरिके जयघोष से उपाश्रयको गुँजा दिया | आज मार्गशीर्ष कृष्णा ७ का दिन है। गंधारके उपाश्रयके बाहिर हजारों आदमियोंकी भीड़ हो रही है । साधु - मुनिराज कमर कसने की तैयारी कर रहे हैं । श्रावक हर्ष - शोकमिश्रित स्थिति में बैठे हुए सूरिजी महाराजसे उपदेश सुन रहे हैं। दूसरी तरफ स्त्रियोंका समूह है। उनमें कई गुरुविरहसे आँसू बहा रही हैं; कई अकबर बादशाहको उपदेश देने जानेकी बात कह रही हैं । कई यह सोच कर निस्तब्ध भावसे महाराजकी तरफ देख रही हैं कि, अब कब उनके दर्शन होंगे ! उनमें कई स्त्रियाँ - जो गायनमें होशियार हैं- गुरु विरहकी गुहुलियाँ गा रही हैं । मुनिराज कमर बाँध कर तैयार हुए । सूरिजी भी तर्पनी और डंडा ले कर तैयार हो गये । हजारों स्त्री पुरुष सूरिजीकी मुख-मुद्राको देखते ही रहे । आगे आगे सूरिजी चले । पीछे पीछे मुनिराजोंका समुदाय अपनी अपनी उपधियाँ और पात्रे कंधों पर रख कर चलने लगे। उनके पीछे श्रावक लोग थे और सबसे पीछे स्त्रियोंका समुदाय था । गुरुजीसे होनेवाले लंबे बिछोहेका 1 1 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण, विचार जैसे जैसे लोगोंके हृदयोमें उठने लगा वैसे ही वैसे उनके हृदय भर आने लगे और उनके बहुत रोकने पर भी-बहुत धैर्य धारण करने पर भी आँखोंसे आँसू गिरे बिना न रहे । गुरुने हजारों लोगोंकी इस उदासीनताकी तरफ ध्यान नहीं दिया । वे समभावमें लीन हो, पंच परमेष्ठीका ध्यान करते हुए आगेकी ओर ही बढ़ते गये । नगरसे बाहिर थोड़ी दूर आ मूरिजीने तमाम संघको वैराग्यमय उपदेश दिया । उन्होंने कहा: धर्मस्नेह यह संसारमें अनोखा स्नेह है। गुरु और शिष्यका जो स्नेह है वह धर्मका स्नेह है । तुम्हारा और हमारा धर्म-स्नेह है और उसी स्नेहके कारण इस समय तुम्हारे मुखकमल मुझी गये हैं। मगर तुम यह जानते हो कि, परमात्माने हमें ऐसा मार्ग बताया है कि, जिस मार्ग पर चले विना हमारा चारित्र किसी तरह भी सुरक्षित नहीं रह सकता है । चौमासेके अंदर चार महीने तक ही हम एक स्थान पर रहते हैं। मगर इस थोड़ी अवधिमें भी तुम्हें इतना स्नेह हो जाता है कि, मुनिराज जब विहार करते हैं, तब तुम्हें अत्यंत दुःख होता है । यद्यपि यह धर्मस्नेह लाम-दायी है; भव्य पुरुष इससे अपना उद्धार कर सकते हैं; तथापि यह स्नेह भी आखिर एक प्रकारका मोह ही है। किसी समय यह भी बंधनका कारण हो जाता है। इसलिए इस स्नेहसे भी हमें मुक्त ही रहना चाहिए। महानुभावो ! तुम जानते हो कि, मुनिराजोंके धर्मानुसार यह समय हमारे विहारहीका है। उसमें भी एक विशेषता है। मुझे अपने देशके सम्राट अकबर बादशाह का आमंत्रण मिला है। इस आमंत्रणको स्वीकारनेसे शासनकी प्रभावना होगी इसी लिए मैं जा रहा हूँ। तुमने अब तक बहुत भक्ति की है । वह याद आया करेगी। अब भी मैं आप लोगोंसे-चतुर्विध संघसे एक सहायता चाहता हूँ। वह यह है,-आप लोग शासनदेवोंसे Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। प्रार्थना करें कि वे मुझे वीर-प्रभुके शासनकी सेवाका सामर्थ्य दें और मुझे निर्विघ्नता पूर्वक फतेहपुर-सीकरी पहुँचा कर मेरे कार्यमें सहायता करें । अब मैं आप लोगोंको केवल एक ही बात कहना चाहता हूँ। कि, सभी धर्मध्यान करते रहना, झगड़े-टंटोंसे जुदा रहना; विषय-वासनासे निवृत्त होना; और इस मनुष्यजन्मकी सार्थकता करनेके लिए दान, शील, तप और भावरूपी धर्मकी आराधना करनेमें दत्तचित्त रहना, ॐ शान्तिः !" ___ॐ शान्तिः' के उच्चारणकी समाप्तिके साथ ही सूरिजीने किसीकी और दृष्टिपात न कर आगे कदम बढ़ाया। श्रावक और श्राविकाएँ अपनी अपनी भावनाओं के अनुसार पीछे पीछे चले। थोड़ी दूर जा कर सब खडे रहे । मूरिजी आगे चले । जहाँ तक वे दिखते रहे वहाँ तक लोग टकटकी लगा कर उन्हें देखते रहे। जब वे आंखोकी ओट हो गये तब लोग उदासमुख वापिस अपने अपने घर चले गये। सरिजीने गंधारसे रवाना हो कर पहिला मुकाम चाँचोलमें किया था। फिर वहाँसे रवाना हो कर जंबूसर होते हुए धूआरणके पासकी महीनदीको पार कर वटादरे पहुँचे । यहाँ सूरिजीको वंदना करनेके लिए खंभातका संघ आया था। मूरिजीको उस गाँवमें एक आश्चर्योत्पादक बात मालूम हुई। रातमें जब वे सो रहे थे । कुछ नींद थी कुछ जागृत अवस्था थी। उस समय उन्होंने देखा कि,-एक दिव्याकृतिवाली स्त्री उनके आगे खड़ी हुई है । उसके हाथमें मोती और कुंकुम है। उसने मरिनीको मोतियोंसे बधाये और कहाः-" पूर्व दिशामें रह कर लगभग सारे भारत पर राज्य करनेवाला अकबर बादशाह आपको बहुत चाहता है। इसलिए आप निःशंक भावसे अकबरके पास जावें और वीर Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण. शासनकी शोभाको बढ़ावें । आपके वहाँ जानेसे द्वितीयाके चंद्रकी भाँति आपकी कीर्ति बढ़ेगी।" इतना कह कर वह दिव्याकृतिवाली स्त्री अन्तर्धान हो गई। वह कहाँ लुप्त हो गई इसका सूरिजीको कुछ भी पता नहीं चला। इससे मूरिजी उससे विशेष बातें न पूछ सके । मगर इतना जरूर हुआ कि उक्त शब्दध्वनिसे उनके हृदयमे अपूर्व उत्साहका संचार हो गया। सरिजी वहाँसे आगे बढ़े। सोजित्रा, मातर और बारेजा आदि गाँवोंमें होते हुए अहमदाबाद पहुँचे। अहमदाबादके श्रावकोंने बड़ी धूम धामके साथ सूरिजीका नगर-प्रवेशोत्सव किया, वहाँके सूबेदार शहाबखाने पहिले सूरिजीको कष्ट दिया था इसलिये उनसे मिलने उसे बड़ी शर्म मालूम देती थी मगर क्या करता ? बादशाहाका हुक्म था। वह मन-मार कर अपने रिसाले सहित सूरिजीकी अगवानीके लिए गया । उसने सूरिजीके चरणोंमें नमस्कार किया । सूरिजीके नगरमें आ जाने बाद उसने एक बार उनकी दरिमें पधरामणीकी; उनके आगे हीरा, मोती आदि जवाहरात रक्खे और कहाः "महाराज ! ये चीजें अपने साथ ही लेते जाइए । आपको मार्गमें किसी तरहका कष्ट न हो इसके लिए मैं हाथी, घोड़े, रथ, पालकी आदिका प्रबंध कर देता हूँ। आप तत्काल उन्हें ले कर दिल्लीश्वरके पास पहुँच जाइए। इन सबके साथ रहनेसे आपको मार्गमें किसी तरहके कष्टका मुकाबिला नहीं करना पड़ेगा । मुसाफिरी बहुत लंबी है । आपकी अवस्था बहुत ढल चुकी है। इस लिए इन सब साध. नोंका आपके साथ रहना जरूरी है। "महारज ! आपसे मैं एक बातकी क्षमा माँगता हूँ । वह यह है कि, मैंने आपके समान महास्मा पुरुषको तकलीफ पहुँचाई पी। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ सूरीश्वर और सम्राट् । मैं ऐसा तुच्छ हूँ कि आपके व्यक्तित्वको जाने बिना ही नौकरोंके कहने से आपको कष्ट दिया । आप महात्मा हैं । मेरे इस अक्षम्य अपराधको क्षमा कीजिए और मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि, जिससे मेरे समान दुष्ट मनुष्य भी उस महान पापसे बच जाय । "3 सूरिजीने सहास्य वदन उत्तर दिया:- “ खाँसाहिब ! हमारा धर्म भन्न ही प्रकारका है । हमारे लिए परमात्मा महावीरकी आज्ञा है कि, कोई चाहे कितना ही कष्ट तुम्हें दे तो भी तुम तो उस पर क्षमाभाव ही रक्खो । यद्यपि हमारे लिए यह आज्ञा है तथापि ससंकोच मुझे यह कहना पड़ता है कि, मैं अभी तक उस स्थिति में नहीं पहुँचा हूँ । जिस दिन मेरी ऐसी अवस्था हो जायगी उस दिन मैं स्वयं ही अपने आत्माको धन्य मानूँगा । इतना होने पर भी यह बात स्पष्टतया कह देना चाहता हूँ कि, मुझे आप पर लेशमात्र भी द्वेष नहीं है । अब आपको अपने मनमें गत घटनाके लिए किचिन्मात्र भी दुःख न करना चाहिए। मैं मानता हूँ कि, संसार में मेरा कोई भी व्यक्ति भला या बुरा नहीं कर सकता है । मुझे जो कुछ भले बुरेका या सुखदुःखका कारण मेरे कर्म ही हैं । दूसरा कोई नहीं है कर्म करते हैं वैसे ही वैसे फल हमें मिलते अनुभव होता है उसका I । संसारमें हम जैसे जैसे हैं । इसलिए आप उसके लिए लेशमात्र भी विचार न करें । " 1 उसके बाद सूरिजीने अपने आचारसे संबंध रखनेवाली बातें कहीं । और antaraat समझाया कि, " हम लोग कंचन और कामिनीसे सदा दूर रहते हैं । हीरा मोती आदि जवाहरात और पैसा का हम नहीं रख सकते हैं । हमारा धर्म है कि हम गाँव गाँव पैदल ही फिरें और जन समाजको अहिंसामय धर्मका उपदेश दें | इसलिए आप मेरे सुभीते के लिए घोड़े हाथी आदि मेरे साथ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण। AwaJWAawana भेजना चाहते हैं या मुझे देना चाहते हैं, उन्हें मैं स्वीकार नहीं कर सकता । कारण ये मेरे लिए भूषण न हो कर दूपण हैं। इसलिए मैं पैदल ही चल कर, जैसे बनेगा वैसे, शीघ्र ही सम्राट्के पास पहुँचनेका प्रयत्न करूँगा।" सूरीश्वरजीके इस वक्तव्यने शहाबखाँके हृदय पर गहरा प्रभाव डाला। जैनसाधुओंकी त्यागवृत्ति और सच्ची फकीरी पर वह मुग्ध हो गया। उसने उपर्युक्त बातोंको लक्षमें रखते हुए बादशाहको एक पत्र लिखा । उसमें उसने यह भी लिखा कि, "हीरविजयसरि गंधारसे पैदल चल कर यहाँ आये हैं। उनको आपकी आज्ञाके अनुसार मैं सब चीजें देने लगा, मगर उन्होंने अपने धर्मके विरुद्ध होनेसे कोई चीज स्वीकार नहीं की। सरकार ! मैं आपसे क्या निवेदन करूँ ? हीरविजयमूरि एक ऐसे फकीर हैं कि, इनकी जितनी तारीफ़ की जाय उतनी ही थोड़ी है । वे पैसेको तो छू भी नहीं सकते । पैदल चलते हैं। किसी भी सवारी पर नहीं चढ़ते और स्त्रियोंके संतर्गसे सर्वथा दूर रहते हैं । इनके आचार ऐसे कठिन हैं कि, लिखनेसे एक बार उन पर विश्वास नहीं होता । इनसे जब आप मिलेंगे तभी आपको यकीन होगा।" अहमदाबादमें थोड़े दिन रह कर मूरिजी आगे चले। मौंदी और कमाल नामके दो मेवड़े-जो अकवरके पाससे आमंत्रण लेकर आये थे और अब तक अहमदाबादहीमें ठहरे हुए थे-भी मूरिजीके साथ रवाना हुए। अहमदाबादसे चल कर सूरिजी उसमानपुर, सोहला, हाजीपुर, बोरीसाना, कड़ी, वीसनगर, और महसाना आदि होते हुए पाटन पहुँचे । यहाँ सात दिन तक रहे । इसीके बीचमें उन्होंने कई प्रतिष्ठाएँ भी कराई । यहाँसे श्रीविमलहर्ष उपाध्यायने पैंतीस साधुओं सहित पहिले विहार किया । सूरिजी पीछेसे रवाना हुए। सूरिजी 18 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। वडली में अपने गुरु श्रीविजयदानसूरिके स्तूप ( पादुका ) की वंदना कर सिद्धपुर गये। श्रीविजयसेनसूरि यहाँसे वापिस पाटन गये । कारण-संवकी-पाधुओंकी संभाल रखनेके लिए उनका गुजरातहीमें रहना स्थिर हुआ था । सिद्धपुरसे आबूकी यात्राके लिए विहार करते हुए सूरिजी सरोत्तर ( सरोत्रा ) हो कर रोह पधारे । यहाँ सहस्रा. र्जुन नामक भीलोंका सर्दार रहता था । उसने और उसकी आठ स्त्रियोंने सूरिजीकी साधुवृत्तिसे प्रसन्न हो कर इनका उपदेश सुना । उपदेश सुन कर उसने किसी भी निरपराध जीवको नहीं मारनेका नियम ग्रहण किया । फिर वहाँसे सूरिजी आबूकी यात्राके लिए आबू गये । आबूके मंदिरोंकी कारीगरी देख कर आपको बड़ी भारी प्रसनता हुई । वहाँसे सीरोही पधारे । सीरोहीके राजा सुरत्राण (देवड़ा सुल्तान ) ने सूरिजीका अच्छा सत्कार किया । इतना ही नहीं उसने सृरिजीके उपदेशसे चार बातोंका-शिकार, मांसाहार, मदिरापान और परस्त्री सेक्नका-त्याग कर दिया । सरिजी वहाँसे सादड़ी होकर राणकपुरकी यात्राके लिए गये । वहाँके मंदिरकी विशालता कोजो भूमंडल पर अद्वितीयताका उपभोग कर रही है-देख कर सूरिजीको बहुत आनंद हुआ । यहाँसे वे वापिस सादड़ी आये । सूरिजीके दर्शनार्थ वाडसे चल कर आये हुए श्रीकल्याणविजयजी उपाध्याय भी सूरजीको रहीं मिले । वे आउआ तक साथ रह कर वापिस लौटे । आउआके स्वामी वणिक् गृहस्थ ताल्हाने सूरिजीके आगमनकी खुशीमें उत्सव किया। और · पिरोजिका ' नामका सिक्का भेटस्वरूप हरेक मनुष्यको दिया । सरिजी वहाँसे मेडता गये। मेडतामें दो दिन तक रहे । यहाँके राजा सादिय सुल्तानने भी आपकी अच्छी खातिरदारी की। सास्त भारत पर जिसका एकछत्र साम्राज्य था उस अकवरने ही जब सूरिजीको बड़े सत्कारके साथ बुलाया था तो फिर ऐसे महत्वशाली Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A आमंत्रण । पुरुषको छोटे छोटे राजाओंने आदर दिया इसमें तो आश्चर्यकी कोई बात ही नहीं है। हाँ सूरिजीके उपदेशमें जो विद्युत्-शक्ति थी वह वास्तवमें आश्चर्योत्पादक ही थी । सबसे पहिले तो उनकी शान्त और गंभीर मुखमुद्रा ही सबको अपनी तरफ खींच लेती थी। फिर शुद्ध चारित्रके रंगसे रंगा हुआ उनका उपदेश ऐसा होता था कि, वह कैसे ही कठोर हृदयी पर भी अपना असर डाले विना नहीं रहता था। मेडतासे सूरिजी विहार कर 'फलौधीपार्श्वनाथ की यात्राके लिए फलौधी भी पधारे और वहाँसे विहार कर सांगानेर पधारे। श्रीविमलहर्ष उपाध्याय उसी समय-जब कि, सूरिजी साँगानेर पधारे-फतेहपुर-सीकरी पहुँचे । उनके साथ श्रीसिंहविमल आदि विद्वान् मुनि रत्न भी थे। उन्होंने उपाश्रयमें मुकाम करनेके बाद तत्काल ही थानसिंह, मानुकल्याण और अमीपाल आदि नेताओंसे कहाः--" चलो बादशाहसे मिलेंगे।" उपाध्यायनीकी यह उत्सुकता पाठकोंको जरा खटकेगी। उपाश्रयमें आकर अपने उपकरण उतारते ही, तत्काल ही अम्बरके समान बादशाहसे मिलनेके लिए तत्पर होना, कुछ असभ्यतापूर्ण नहीं तो भी अनुचित जरूर मालूम होगा। उपाध्यायजीकी बात सुन कर थानसिंह और मानुकल्याणने कहा:-" वादशाह विचित्र प्रकृतिका मनुष्य है । सहसा उसके सामने जा खड़ा होना हमारे लिए अनुचित है । इस लिए अभी सब कीजिए । हम जा कर शेख अबुल्फ़ज़लसे मिलते हैं । वह जैसी सलाह देगा वैसा ही किया जायगा।" __ थानसिंह, मानुकल्याण और अमीपाल आदि कई नेता श्रावक अबुल्फज़लके पास गये और बोले:---- श्रीहीरविजय Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। मूरिके कई शिष्य यहाँ आ पहुंचे हैं। वे बादशाहसे मिलना चाहते हैं।" अबुलफज़लने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया:--" अच्छी बात है। उन्हें ले आओ। हम उन्हें बादशाहके पास ले जायेंगे।" यहाँ इतना कह देना आवश्यक है कि, सूरीश्वरजीके आनेसे पहिले ही, विमलहर्ष उपाध्याय बहुत जल्दी बादशाहसे मिलना चाहते थे, इसका खास सबब यह था कि, बादशाहके संबंधमें नाना प्रकारकी अफवाहें सुनी जाती थीं। कई उसको बिलकुल असभ्य बताते थे; कई उसको क्रोधी बताते थे, कई उसको प्रपंची ठहराते थे और कई धर्माभिलाषी भी कहते थे। इससे उपाध्यायजी आदि पहिले आये हुए मुनियोंने सोचा कि, हमें पहिले ही बादशाहसे मिलना चाहिए और देखना चाहिए कि, वह कैसी प्रकृतिका मनुष्य है। यदि वह असभ्य होगा और हमारा अपमान करेगा तो कोई दुःखकी बात नहीं है; परन्तु यदि वह सूरीजी महाराजका अपमान करेगा तो वह हमारे लिए महान् असह्य दुःखदायी होगा । शायद हमें किसी विपत्तिमें फँस जाना पड़े तो भी गुरुभक्ति या शासन-सेवाके लिए हमारे लिए तो वह श्रेयस्कर ही होगा । उससे सरिजी महाराजको सचेत होनेका समय मिलेगा । इन्हीं विचारोंसे प्रेरित होकर उन्होंने बादशाहसे पहिले मिलना उचित समझा था । श्रावक बुलाने आये । उपाध्यायनी सिंहविमलपन्यास, धर्मसी ऋषि और गुणसागरको साथ लेकर पहिले अवुल्फ़ज़लके यहाँ गये । अबुल्फजल के पास पहुँच कर उपाध्यायजीने कहा:" हम फकीर हैं , भिक्षावृत्तिसे जीवन-नियोह करते हैं । एक कौड़ी भी अपने पास नहीं रखते हैं । हमारे पास गाँव, खेत, कूए, घरबार Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RANVAAAAAA आमंत्रण । आदि कुछ भी नहीं है। पैदल ही चलकर गाँव गाँव फिरते हैं। मंत्र, तंत्रादि भी हम नहीं करते । फिर बादशाहने किस हेतुसे हमें (हमारे गुरु श्रीहीरविजयसूरिको ) बुलाया है !" अबुल्फज़लने कहा:--" बाहशाहको आपसे दूसरा कोई काम नहीं है । वह केवल धर्म सुनना चाहता है।" उसके बाद अबुल्फ़ज़ल उन चारों महात्माओंको अकबरके पास ले गया और उनका परिचय कराते हुए बोला: "ये महात्मा उन्हीं हीरविजयसूरिके शिष्य हैं जिनको यहाँ आनेका आपने निमंत्रण दिया है।" "हाँ ! ये हीरविजयसूरिके शिष्य हैं ! " इतने शब्दोच्चारणके साथ ही बादशाह सिंहासनसे उठा और उपाध्यायजी आदिके-जहाँ वे गालीचेके नीचे खड़े थे-सामने गया। उपाध्यायजीने धर्मलाभ दिया और कहा-" मूरिजीने आपको धर्मलाभ कहलाया है। 7 बादशाहने आतुरताके साथ पूछा:-"मुझे उन परम कृपालु सूरीश्वरजीके दर्शन कब होंगे ? " उपाध्यायनीने उत्तर दिया:-- अभी वे साँगानेरमें हैं। जहाँतक होगा शीघ्र ही यहाँ पहुँचेंगे।" ___उस समय बादशाहने अपने एक आदमीसे उन चारों महात्माओंके नाम, पूर्वावस्थाके नाम, उनके माता पिताके नाम और गाँवोंके नाम लिखवा लिये और तब-चाहे उनकी परीक्षा करनेके लिए पूछा हो या और किसी अभिप्रायसे पूछा हो-पूछा:-आप फकीर क्यों हुए हैं ? " उपाध्यायजीने उत्तर दिया:--" इस संसारमें असाधारण दुःखके कारण तीन हैं । उनके नाम हैं जन्म, जरा और मृत्यु । जब तक मनुष्य इन तीन कारणोंसे मुक्त नहीं होता है तब तक उसे Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सूरीश्वर और सम्राट् । परम सुख या परम आनंद नहीं मिलता है। इस सुख या आनंदकी प्राप्तिहीके लिए हम साधु-फकीर हुए हैं । क्योंकि गृहस्थावस्थामें यह जीव अनेक प्रकारकी उपाधियोंसे घिरा रहता है । इस लिए वह अपनी आत्मिक उन्नतिके लिए जिन कायाको करनेकी आवश्यकता है उनको नहीं कर सकता है । इसलिए वैसे कारणोंसे दूर रहना ही उत्तम है । यह समझ कर ही हमने गृहस्थावस्थाका त्याग किया है। आत्मोद्धार करनेका यदि कोई असाधारण कारण संसारमें है तो वह धर्म ही है और इस धर्मका संग्रह साधु अवस्थामेंफकीरीहीमें भली प्रकारसे हो सकता है। इसके उपरांत हम पर मृत्युका डर भी इतना रहता है कि, जिसका कुछ ठिकाना नहीं। कोई नहीं जानता है कि, वह कब आ वायगी। इस लिए हरेकको उचित है कि, वह महात्माके इस वचनको कि-- अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ १॥ स्मरणमें रखे और धर्म-संचय करनेमें तत्पर रहे। “राजन् आपके प्रश्नका उत्तर इतने ही शब्दोंमें आ जाता है। यदि इससे भी संक्षेपमें कहूँ तो इतना ही है कि, गृहस्थावस्था रह कर लोग चाहिए उस तरह धर्मका साधन नहीं कर सकते हैं और धर्मका साधन करना बहुत जरूरी है। इसी लिए हम साधुफकीर हुए हैं।" उपाध्यायजीके इस विवेचनसे अकररको बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी निर्भीकता और अस्खलित वचनधारासे बादशाहके हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई और वह मनमें सोचने लगा:-निसके शिष्य ऐसे त्यागी, विद्वान् और होशियार हैं उनके Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण NAANANAM गुरु कैसे होंगे ? उसने अपनी प्रसन्नता शब्दों द्वारा भी प्रकट की। इसके वाद उपाध्यायनी आदि वापिस उपाश्रय आये। बादशाहके साथकी इस प्राथमिक भेटसे उपाध्यायनी और दूसरे मुनियोंको यह निश्चय हो गया कि, बादशाहके संबंध जो किंवदन्तियाँ सुनी जाती थीं वे मिथ्या थीं। बादशाह विनयी, विवेकी और सभ्य है । वह विद्वानोंकी कदर करता है। उसके हृदयमें धर्मकी भी वास्तविक जिज्ञासा है। बादशाहके साथ उपाध्यायजीकी मुलाकात हुई। उसके बाद फतेहपुर सीकरीके बहुतसे श्रावक श्रीहीरविजयसूरि महाराजकी अगवानीके लिए साँगानेर तक गये। उन्होंने बाहशाह और उपाध्यायजीकी भेटका सारा वृत्तान्त सुनाया और यह भी कहा कि, बादशाह आपके दर्शनों के लिए बहुत आतुर है । सूरिजीको इन बातोंसे बड़ा आनंद हुआ । उनके हृदयमें किसी कोनेमें बादशाहके विषयमें यदि शंका रही होगी तो वह भी नष्ट हो गई। उनके हृदयमें बार बार यह विचार उत्पन्न होने लगे कि,-कब बादशाहसे मिलूं और उसको धर्मोपदेश दूं। अस्तु ।" साँगानेरसे विहार कर सूरिजी नवलीग्राम, चाटसू, हिंडवण, सिकंदरपुर और बयाना आदि होते हुए अभिरामाबाद पधारे। * यहां संघमें कुछ झगडा था, वह भी सुरिजीके उपदेशसे मिट गया। उपाध्यायजी भी फतेहपुरसीकरीसे यहाँ तक सामने आये । * अभिरामाबादको कई लेखक अलाहाबादका पुराना नाम बताते हैं । मगर वह ठीक नहीं है । क्योंकि, सूरिजी जिस मार्गसे सीकरी गये थे उस मार्गमें अलाहाबाद नहीं आता है। अलाहाबाद तो पूर्व दिशामें बहुत दूर रह Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। अब फतेहपुरसीकरी केवल छःकोस ही रही है । सूरिनी अभिरामाबाद पहुंच गये हैं । इस तरहकी खबर फतेपुरमें बहुत जल्दी जाता है । यह बात साथमें हीरविजयसूरिके विहारका जो नक्शा दिया गया है उससे स्पष्टतया मालूम हो जायगी । दूसरी बात यह है कि, हीरविजयसूरिने फतेहपुर जाते आखिर मुकाम अभिरामाबादहीमें किया था। हीरसौभाग्य काव्यके तेरहवें सर्गमें भी लिखा है कि,पवित्रयस्तीर्थ इवाध्वजन्तून्पुरेऽभिरामादिमवादनानि । यावत्समेतः प्रभुरेत्य तावद् द्राग्वाचकेन्द्रेण नतः स तावत्॥४॥ ___इससे मालूम होता है कि, विमलहर्ष उपाध्याय फतेहपुरसीकरीसे यहाँ तक सामने आये थे । और यहाँ आकर उन्होंने यह बतलाया था कि, बादशाह आपका समागम चाहता है । यह दात इस श्लोकसे मालूम होती है,मघो पिकीकान्त इवैष युष्मत्समागम काझक्षति भूमिकान्तः। तद्वाचकेनेत्युदितो व्रतीन्द्रः फतेपुरोपान्तभुवं बभाज ॥४५॥ इस श्लोकसे यह भी मालूम होता है कि, जहाँ विमलहर्ष उपाध्यायने उपर्युक्त समाचार कहे थे वह स्थान फतेहपुरसे थोडी ही दूर होना चाहिए । ऋषभदास कवि 'हीरविजयसूरि रास'में लिखते हैंबयाना नइ अभिरामाबाद गुरु आवंतां गयो विषवाद फतेपुर भणी आवइ जस्यि अनेक पंडित पूठिं तस्यइ "॥५॥ (पृष्ठ १०८) इससे भी यह विदित होता है कि, अभिरामबाद सूरिजीका अन्तिम मुकाम था । यहाँसे रवाना होकर वे फतेहपुर हो ठहरे थे। इसके उपरान्त एक प्रथल प्रमाण दुसराभी मिलता है । ' जगदगुरु काव्य ' में लिखा है,आयाता इह नाथहीरविजयाचार्याः सुशिष्यान्विता इत्थं स्थानकसिंहवाचिकमसौ श्रुत्या नृपोऽकब्बरः । स्वं सैन्यं सकलं फतेपुरपुराद्गव्यूतषटकान्तरा यातानामभि सम्मुखं यतिपतीनां प्राहिणोत् स्फीतियुक्॥ इससे जान पड़ता है कि,-सरिजी छ: कोस दूर हैं यह जानकर उनका Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमंत्रण। फैलगई । लोगोंका आना जाना शुरू हो गया। दूसरी ओर सुरिजीके सामैये-अगवानी के लिये थानसिंह, मानुकल्याण और अमीपाल आदि गृहस्थोंने बादशाहसे मिलकर शाही बाजे, हाथी, घोड़े आदि जो जो चीजें जरूरी थीं उन उन सब चीजोंका प्रबंध कर लिया। आज ज्येष्ठ सुदी १२ (वि. सं. १६३९) का दिन है। सवेरे हीसे तमाम शहरमें नवीनताके चिहन दिखाई दे रहे हैं। कई अपने बालबच्चों को उत्तमोत्तम आभूषण और वस्त्र पहिनाने लग गये हैं। कई अपने हाथीघोड़ोंका शंगार करनेमें लग रहे हैं । कई रथोंकी तैयारी कर रहे हैं । कई तो सूर्य उगनेके पहिले अँधेरे अँधेरे ही, यथासंभव, जितनी हो सके उतनी दूर सूरिजीके सामने जानेके लिए, घरसे रवाना हो चुके हैं । इस तरह नौ बजते बजते नगरके बाहिर हाथी, घोड़े, ऊँट, रथ और निशान आदि खास लवाजमे सहित-जो खास बादशाहकी तरफसे मिले थे-लोग सूरिजीकी अगवानीके लिए जमा हो गये । थोड़ी ही देरमें साधुओंका एक झुंड लोगोंको दिखाई दिया । लोग हर्षोल्लाससे सूरिजीके सामने जाने लगे। उस समय सूरिजीके साथ, विमलहर्ष उपाध्याय, शान्तिचंद्र गणि, पंडित सोमविजय, पंडित सहजसागर गणि, पंडित सिंहविमल गणि, पं. गुणविजय, पं. गुणसागर, पं. कनकविजय, पं. धर्मसीत्रषि, पं. मानसागर, पं. रत्नचंद्र, काहर्षि, पं. हेमविजय, ऋषि जगमाल, पं. रत्नकुशल, जानकर उनका सत्कार करनेके लिए उसने अपनी सेना भेजी थी । सुतरां अभिरामाबाद फतेहपुर सीकरीसे छः कोस ( बारह माइल) दूर था । यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है । कारण- वह अन्तिम मुकाम था । जैसा कि ऊपर बताया गया ह । ओर इसी हेतुसे, इसवक्त इस नामका कोई गाँव न होने, और 'ट्रिग्नो मेटिकलसर्वे' में भी इस नामके किसी गाँवका उल्लेख न होने पर भी उस समय उपर्युक्त नामका गाँव होनेसे सूरिजीके विहारके नकशेमें यह नाम दिया गया है । 14 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । पं. रामविजय, पं. भानविजय, पं. कीर्तिविजय, पं. हंसविजय, पं. जसविजय, पं. जयविजय, पं.लाभविजय, पं. मुनिविजय, पं. धनविजय, पं. मुनिविमल और मुनि जसविजय आदि ६७ साधु थे। इन साधुओंमें कई वैयाकरणथे और कई नैयायिक, कई वादी थे और कई व्याख्यानी, कई अध्यात्मी थे और कई शतावधानी, कई कवि थे और कई ध्यानी । इस भाँति भिन्न भिन्न विषयोंमें असाधारण योग्यता रखने वाले थे । सूरिजी दर्वाजेके पास आये । तमाम संघने उन्हें सविधि वंदना की । कुमारिकाओंने उन्हें सोनेचाँदीके फूलोंसे बधाया ।कई सौभागवतियोंने मोतियोंके चौक पूरे। इस भाँति शुभ शकुनों महित सूरिजी जिप्स वक्त फतेहपुर-सीकरीके एक महल्लेमें हो कर गुजर रहे थे, उसी समय उस महल्लेमें रहनेवाला एक सामन्त-जिसका नाम जगन्मल्ल कछवाह था-आ कर सूरिजीके चरणोंमें गिरा और अपने महलको, मूरिजीके चरणस्पर्शसे पवित्र करनेके शुभ उद्देश्यसे, उन्हें अपने महसमें ले गया। इतना ही नहीं उसने उन्हें एक रात और दिन अपने यहाँ रक्खा और उनके मुखार्विदसे उपदेश सुना। सूरिजीने अपने विहारकी जो सीमा निर्धारितकी थी यहीं पर उसका अन्त होता है। सूरिजी गंधारसे विहार करके जिस मार्ग फतेपुर-सीकरी पधारे थे उस रस्तेका निर्णय, हीरविजयसूरिरास, हीरसौभाग्य काव्य, विनयप्रशस्ति और लाभोदय राससे किया गया है । और उसीका ट्रिग्नोमॅटिकल सर्वेके नकशोंके साथ मीलान करके सूरिजीके विहारका नकशा तैयार कराया गया है। जो इसीके साथ लगा दिया गया है। १ यह वही जगन्मल्ल कछवाह है जो जयपुरके राजा बिहारीमलका छोटाभाई था । जिनको इसके संबन्धमें विशेष हाल जानना हो वे 'आईन-इ -अकबरी ' के प्रथम भागका, ब्लॉकमॅनके अंग्रेजी अनुवादका ४३१ वाँ पेज देखें। को इसके संबन्धमा जयपुरके राजा -अकबरी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण पाँचवाँ। प्रतिबोध । 00000000 . MORE न ज्येष्ठ सुद १३ का दिन है। प्रातःकाल होते ही थानसिंह आदि श्रावक सूरिजी महाराजके पास आये । सूरिनीके HD हृदयमें स्वाभाविक आनंदका संचार हो रहा है । सूरिजी जिस कार्यके लिए अनेक कष्ट उठा कर, सैकड़ों कोसोंकी मुसाफिरी कर यहाँ आये हैं उस कार्यका आज ही मंगलाचरण करना चाहते हैं । शुभ कार्यको प्रारंभ करनेके पहिले मंगलनिमित्तकार्य निर्विघ्न समाप्त हो इस हेतुसे-अमुक संयम-तप करनेका संकल्प किया जाता है; इसलिए आज उन्हों ने आँबिल करनेका संकल्प किया है। उन्होंने यह भी निश्चित किया है कि, वे कार्यप्रारंभ करनेके बाद ही उपाश्रयमें जावेंगे। पाठकोंसे यह छिपा हुआ नहीं है कि, सूरिजीको अभी कौनसे महत्त्वका कार्य करना है। अकबरको प्रतिबोध करना ही सुरिजीका साध्यबिंदु है। सवेरे ही सूरिजीने यह व्यवस्था कर ली कि, जिन विद्वान् साधुओंको अपने साथ राजसमामें लेजाना था उन्हें अपने पास रक्खा, दूसरोंको उपाश्रय भेज दिया। १ 'आंबिल' जैनियोंकी एक तपस्या विशेषका नाम है । इस तपस्याके दिन केवल एक ही वक्त नीरस घी, दूध, दही, गुड़ आदि वस्तुओंसे रहित भोजन किया जाता है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। जगमालकच्छवाहे के यहाँसे रवाना हो कर पहिले अबुल्फ़ज़ल के घर की तरफ चले । जब वे सिंहद्वार नामक मुख्य दर्वाजे पर पहुंचे तब थानसिंह आदि श्रावकोंने अबुल्फजलके पास जाकर कहा कि सूरिजी 'सिंहद्वार ' पर आये हैं। साथही उन्होंने यह भी जतलादिया कि वे इसी समय बादशाहसे मिलना चाहते हैं। अबुल्फजलने कोई उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप बादशाहके पास चला गया और बोला:---." हीरविजयमूरिजी सिंहद्वार तक आगये हैं। यदि आज्ञा हो तो उन्हें आपके पास ले आऊँ। वे इसी समय आपसे मिलना चाहते हैं।" बादशाहने उत्तर दिया:-" जिनको मिलनेके लिए मैं आतुर हो रहा था उनके पधारनेके समाचार सुन कर मुझे बहुत ज्यादा आनंद हो रहा है। मगर खेद है कि, मैं उनसे इसी समय नहीं मिल सकता । मेरा मन इस समय किसी दूसरे कार्यमें लग रहा है। मैं महलमें जाता हूँ । वहाँसे वापिस आऊँ तब तुम सूरिजीको ले आना । इस समय सूरिजीको अपने यहाँ लेजाओ और उनके चरणकमलसे अपना घर पवित्र करो।" बादशाहका यह उत्तर हरेक सहृदयको बुरा लगेगा। जिनको सैकड़ों कोसोंकी मुसाफिरी कराकर अपने पास बुलाया था, जिनसे मिलनेके लिए चातककी तरह व्याकुल हो रहा था वे ही जब फतेहपुरमें आ जाते हैं, फतेहपुर ही क्यों, मिलनेके लिए सिंहद्वार तक आ पहुँचते हैं और मिलनेके लिए पुछवाते हैं तो उत्तर मिलता है कि, 'मैं अभी कार्यमें व्यग्र हूँ; थोड़ी देरके बाद मिलूंगा। इसका अर्थ क्या होता है ? ऐसा उत्तर बादशाहके किस दुर्गुणका परिणाम था सो खोज निकालना असंभव नहीं तो भी कष्टसाध्य अवश्य है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । श्री हीरसौभाग्यकाव्य ' के कर्ता १३ वे सर्गके १३६ वे श्लोककी टीकामे, इस विषयका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि," एतत्कथनं त्वप्रतिबुद्धत्वेन अज्ञाततत्त्वभावेन म्लेच्छत्वेन वा। यद्यास्तिकः स्याचदा तु सर्वमपि त्यक्त्वा वन्दत एव " मगर हमको तो उसके मदिराके व्यसनका ही यह परिणाम मालूम होता है। जैसा कि, हम तीसरे प्रकरणमें बता चुके हैं । उससे इसी व्यसनके कारण अनेक अविवेकी व्यवहार हो जाते थे। जब उसके हृदयमें मदिरा-पानकी इच्छा उत्पन्न होती थी तब वह बड़े बड़े महत्त्वके कार्योंको भी छोड़ कर-और क्यों, चाहे किसी ऊँची श्रेणीके मनुष्यको मिलनेके लिए बुलाया होता तो भी-उससे भी न मिल कर अपनी शराब पीनेकी इच्छाको पूर्ण करता था। क्या यह कहना अनुचित है कि उसने अपनी शराबकी बुरी आदतके कारण ही वैसा उत्तर दिया था ? अस्तु । वास्तविक बात तो यह है कि, सूरिजीके हृदयमें बादशाहसे मिलनेकी जितनी तीव्र इच्छा हुई थी, उससे हजार गुनी तीव्र इच्छा बादशाहको तत्काल ही होनी चाहिए थी। कहावत है कि,-'जो कुछ होता है वह भलेहीके लिए होता है। यह एक सामान्य नियम है। इसीके अनुसार अब दूसरी तरहसे इस बातका विचार किया जायगा। एक तरहसे तो बादशाह तत्काल ही सरिजीसे नहीं मिला, इससे लाभ ही हुआ। कारण-बादशाहसे मिलनेके पहिले सूरिजीको-बादशाहका सर्वस्व गिने जाने वाले-विद्वान् शेख अबुल्फजलसे बहुत देर तक बातचीत करनेका मौका मिला। उससे बादशाहको मिलनेसे पहिले, बादशाहके खास मानीले एकाध पुरुषके अन्तःकरणमें सूरिजीकी विद्वत्ता और पवित्रताके विषयमें पूज्यभाव उत्पन्न करानेकी जो आवश्यकता प्रतीत होती थी वह भी पूर्ण हो गई। अर्थात्-अक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सूरीश्वर और सम्राट् । बरसे मिलने के पहिले, जो अवकाश मिला उसमें सूरिजी शेख अबुल्फ़ज़ल के यहाँ गये और बहुत समय तक उसके साथ धर्म - चर्चा करते रहे । विन्सेंट स्मिथ भी लिखता है कि, " बादशाह को उनसे ( हीरविजयसूरिसे) वार्तालाप करनेका अवकाश मिला तब तक वे अबुल्फ़ज़ल के पास बिठाये गये थे । " "The weary traveller was made over to the care of Abul Fazal until the sovereign found leisure to converse with him. " [ Akbar p. 167 J अबुल्फज़ल के साथ उनकी यह प्राथमिक भेट और प्राथमिक धर्मचर्चा थी । इसमें अबुल्फ़ज़लने कुरानेशरीफ़की कई आज्ञाओंका प्रतिपादन किया था। जिन बातोंका अबुल्फ़ज़लने प्रतिपादन किया उन्हीं बातोंको सूरिजीने उसे युक्तिपूर्वक समझाया; ईश्वरका वास्तविक स्वरूप बताया और कहा कि दुःखसुखका देनेवाला ईश्वर नहीं है, बल्कि जीवके कर्म हैं। उसके साथ ही उन्होंने दयाधर्मका प्रतिपादन भी किया । शेख अबुल्फज़लको सूरिजीकी विद्वत्तापूर्ण वाणीसे और युक्तियोंसे बहुत ज्यादा आनंद हुआ । अवुल्फज़ल के यहाँ चर्चा करनेहीमें लगभग मध्याहून काल बीत गया । यह तो हम पहिले ही कह चुके हैं कि उस दिन सूरिजीने आंबिलकी तपस्या की थी । अब वहाँसे उपाश्रय जाना और आहार करके वापिस आना करीब करीब अशक्य हो गया था । कारण वैसा करने में बहुत ज्यादा समय बीत जाता । इसीलिए सूरिजी उपाश्रय न गये । अबुल्फजुलके महलके पास ही Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध। कर्णराज नामके एक हिन्दु गृहस्थका मकान था। उन्होंने गोचरी लाकर उसीके एक एकान्त स्थलमें आंबिल कर लिया। इधर सूरिजी आहार-पानी करके निवृत्त हुए। उधर बादशाह भी अपने कामसे छुट्टी पाकर दर्वारमें आया । उसने दर्बारमें आते ही सूरिजी महाराजको बुलानेके लिए एक आदमी भेजा । समाचार मिलते ही सूरिजी अपने कई विद्वान् शिष्यों थानसिंह और मानुकल्याण आदि गृहस्थ श्रावकों और अबुल्फ़ज़ल सहित दर्वारमें पधारे। कहा जाता है कि, उस समय सूरिजीके साथ सैद्धान्तिक शिरोमणि उपाध्याय श्रीविमलहर्षगणि, शतावधानी श्रीशान्तिचंद्रगणि, पंडित सहजसागरगणि, पंडित सिंहविमलगणि, ('हीरसौभाग्य काव्य के कर्ताके गुरु ) वक्तृत्व और कवित्व शक्तिमें सुनिपुण पंडित हेमविजयगणि, ('विजयप्रशस्ति आदि काव्योंके कर्ता' ) वैयाकरण चूडामणि पंडित लाभविजयगणि, और सूरिजीके प्रधान (दीवान ) गिने जानेवाले श्रीधनविजयगणि आदि तेरह साधु गये थे । आश्वर्यकी बात तो यह है, कि वह दिन भी तेरसका था और साधुओंकी संख्या भी तेरह ही थी। बादशाहने दूरहीसे इस साधुमंडलको आते देखा। देखते ही वह अपना सिंहासन छोड़कर उठ खड़ा हुआ और अपने तीन पुत्रों-शेखूजी, पहाड़ी (मुराद ) और दानियाल-सहित उनके सम्मानार्थ उनके सामने गया । बड़े आदरके साथ सूरिजीको अपनी बठक तक ले गया। उस समय, एक तरफ अकबर, अपने तीन पुत्रों और अबुल्फजल, १ करणराजका खास नाम रामदास कछवाह था। राजा करण उसका विरुद था। यह करणराज ५०० सेनाका स्वामी था। जो इसके विषयमें विशेष जानना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि, वे आईन-इ-अकबरीके प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका-जो ब्लोकमनका किया हुआ है-४८३ वाँ पृष्ट देखें । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूरीश्वर और सम्राट् । बीरबल आदि राज्यके बड़े बड़े कर्मचारियों सहित हाथ जोड़े सामने खड़ा था और दूसरी तरफ़ जिनके मुखमंडलसे तपस्तेज-ज्योति चमक रही थी, ऐसे सूरिजी अपने विद्वान् मुनियों सहित खड़े थे। वह दृश्य कैसा था ? इसकी कल्पना पाठक स्वयमेव करलें। इस तरह बाहशाहके बाहिरकी बैठकके बाहिरवाले दालानमें जो संगमरमरका बना हुआ था-दोनों मंडल खड़े रहे। बादशाहने सविनय सूरिजीसे कुशल-मंगल पूछा और कहा:--- " महाराज! आपने मेरे समान मुसलमान कुलोत्पन्न एक तुच्छ मनुष्य पर उपकार करनेकी इच्छासे जो कष्ट उठाया है उसके लिए मैं अहसान मानता हूँ। और कष्ट दिया उसके लिए क्षमा चाहता हूँ। मगर कृपा करके यह तो बताइए कि, मेरे अहमदाबाद के सूबेदारने क्या आपको हाथी, घोड़े आदि साधन नहीं दिये थे जिससे आपको इतनी लंबी सफर पैदल ही चल कर पूरी करनी पड़ी।" सरिजीने उत्तर दियाः-" नहीं राजन् ! आपकी आज्ञाके अनुसार आपके सूबेदारने तो सारे साधन मेरे सामने उपस्थित किये थे; परन्तु साधुधर्मके आधीन होकर मैं उन साधनोंको ग्रहण न कर सका । आपने, यहाँ आनेसे मुझे तकलीफ हुई है, यह कहकर क्षमा माँगी है, यह आपकी सजनता है । मगर मुझे तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं दिखती जिसके लिए आप क्षमा माँगते या उपकार मानते । कारण,हमारे साधु जीवनका तो मुख्य कर्तव्य ही 'धर्मोपदेश देना है।' हमें इस कर्तव्यको पूरा करने के लिए यदि कहीं दूर देशों में जाना पड़ता है तो जाते हैं और धर्माचारको सुरक्षित रखने के लिए शारीरिक कष्ट झेलने पड़ते हैं तो उन्हें भी झेलते हैं। इस ऋतिसे हम यह सोच कर संतुष्ट होते हैं कि, हमने अपना कर्तव्य किया है। इसलिए आपको इस विषयमें लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए।" Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध। सरिजीके इस उत्तरसे बादशाहके अन्तःकरण पर सूरिजीकी कर्तव्यनिष्ठताका असाधारण प्रभाव पड़ा। इस विषयमें फिरसे बादशाह सूरिजीको कुछ न कह सका । मगर उसने थानसिंहको कहाः "थानसिंह ! तुझे चाहिए था कि तू मुझे सूरिजीके इस कठोर आचारके संबंधों पहिलेहीसे परिचित कर देता । यदि मुझे पहिले मालूम हो जाता तो मैं सूरिजीको इतना कष्ट न देता ।" थानसिंह टगर टगर बादशाहकी ओर देखता रहा । उसे न सूझा कि, वह क्या उत्तर दे ? उसको मौन देखकर बादशाहने स्वयंही कहाः “ठीक ठीक ! थानसिंह ! मैं तेरी बनियाबुद्धि समझ गया। तूने अपना मतलब साधनेहीके लिए मुझको सब बातोंसे अज्ञात रक्खा था । सूरिजी महाराज पहिले कभी इस देशमें आये न थे, इसी लिए उनकी सेवा-भक्तिका लाभ उठानेके लिए तू मेरी बातोंको पुष्ट करता रहा । मुझे यह न समझाया की सूरिजी को यहाँ बुलाने में कितनी कठिनता है। ठीक है ऐसे महा पुरुषकी भक्तिका लाभ मुझे और तेरे जातिभाइयोंको मिले तो इससे बढ़कर और क्या सौभाग्यकी बात हो सकती है ! " ___ बादशाहकी इस मधुर और हास्ययुक्त वाणीसे दोनों मंडलमुनिमंडल और राजमंडल-आनंदित हुए। उसी समय बादशाहने उन दोनों मनुष्योंकों-मुइनुद्दीन ( मौंदी ) और कमालुद्दीन (कमाल) को बुलाया, जो कि बादशाहका आमंत्रण पत्र लेकर सूरिजीके पास गये थे। उनसे अकबरने, ' सूरिनीको रस्तेमें कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई थी ? ' ' वे मार्ग में कैसे चलते थे' आदि बातें पूछी और इनका उत्तर सुनकर बादशाहको बहुत आनंद हुआ। उसने सूरिजीके उत्कृष्ट आचारकी अन्तःकरणपूर्वक प्रशंसा की और उसके बाद पूछा: 15 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । महाराज ! आप कृपा करके यह बताइये कि आपके धर्म में बड़े तीर्थ कौनर से माने गये हैं । " ११४ ८८ सूरिजीने शत्रुंजय, गिरिनार, आबू, सम्मेतशिखर और अष्टापद आदि कई मुख्य मुख्य तीर्थोंके नाम बताये और साथ ही थोड़ा थोड़ा उन सबका परिचय भी दिया । इस तरह खड़े हुए बातें करते बहुतसा वक्त बीत गया । सूरिजी के साथ वार्तालाप करके अकबरको बहुत आनंद हुआ । उसके चित्तमें एक स्थान में निश्चिन्तभावसे बैठकर सूरिजी के मुखकमलसे धर्मोपदेश सुननेकी अभिलापा उत्पन्न हुई । इसी लिए उसने अपनी चित्रशाला के एक मनोहर कमरे में पधारनेकी नम्रताके साथ सूरिजी से विनति की । सूरिजीने भी उपदेशका उचित अवसर जान उसकी विनति स्वीकार की । फिर बादशाह आदि सभी चित्रशाला के पास गये । चित्रशाला के दर्वाजे पर एक सुंदर गालीचा बिछा हुआ था । उस पर पैर रख कर चित्रशाला में प्रवेश करना होता था । सूरिजीने उस गालीचेको देखा । वे दवजेके पास जाकर खड़े हो रहे । बादशाह विचार करने लगा कि, सूरिजी ! किस सबसे अंदर आते रुक गये हैं ? बादशाह कुछ पूछना ही चाहता था, इतने में सूरिजी स्वयं बोले: (6 राजन् ! इस गालीचे पर होकर हम अंदर नहीं जा सकते, कारण- गालीचे पर पैर रखनेका हमको अधिकार नहीं है । " बादशाहने आश्चर्य के साथ पूछा: "महाराज ! ऐसा क्यों ! गालीचा बिल्कुल स्वच्छ है । कोई जीव-जन्तु इस पर नहीं है । फिर इस पर चलने में आपका हर्ज क्या है ? " Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । A सूरिजीने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया:-" राजन् केवल जैनसाधुओंके लिए ही नहीं बल्के तमाम धर्मोंके साधुओंके लिये यह नियम है कि, ' दृष्टिपूतं न्यसेत् पादम् [ मनुस्मृति, अ० ६ ठा श्लोक ४६ वा ] अर्थात् जहाँ चलना या बैठना हो वहाँ पहिले देख लेना चाहिए । इस जगह गालीचा बिछा हुआ है इसलिए हम नहीं देख सकते हैं कि, इसके नीचे क्या है ? इसीलिए हम इस गालीचे पर नहीं चल सकते हैं। इस उत्तरसे बादशाह मनही मन हँसा,-ऐसे मनोहर गालीचेके नीचे जीव कहाँसे चुप्त गये होंगे ? फिर उसने सरिजीको अंदर ले जानेके लिए अपने हाथसे गालीचेका एक पल्ला हटाया । गालीचा हटाते ही बादशाहके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । उसने देखा कि, वहाँ हजारों कीड़ियाँ फिर रही हैं। उसे अपनी भूल मालूम हुई । सूरिजीके प्रति उसकी जो श्रद्धा थी उसमें सौगुनी वृद्धि हो गई । वह बोल उठा:-" बेशक, सच्चे फकीर ऐसे ही होते हैं !" फिर उसने गालीचा वहाँसे उठवा दिया और रेशमके एक कपड़ेसे यहाँसे कीड़ीयाँ स्वयं हटा दीं । तदनन्तर सूरिनीने उस कमरेमें प्रवेश किया। बादशाह और सरिजी अपने अपने उपयुक्त आसन पर बैठे । बादशाहने नम्रतापूर्वक धर्मोपदेश सुननेकी जिज्ञासा प्रकट की। सूरिजीने पहिले कुछ सामान्य उपदेश दिया । और संक्षेपमें देव, गुरु और धर्मका उपदेश देते हुए कहाः___"जब कोई मकान बनवाता है तब वह तीन चीजोंको-नींव, दीवार और धरनको मजबूत करवाता है। उससे मकान बनवाने वालेको १ दृष्टिसे पवित्र धनी हुई जगह पर पैर रखना चाहिए । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। सहसा मकानके गिरनेकी आशंका नहीं रहती । इसी तरहसे मनुष्य-जीवनकी निर्भयताके लिए मनुष्य मात्रको चाहिए कि वह देव, गुरु और धर्मको-उनकी परीक्षा करके-स्वीकार करे । कारण-प्रकृतिका नियम है कि, मनुष्य यदि गुणीकी सेवासहवास करता है तो वह गुणी बनता है और यदि निर्गुणीका सेवासहवास करता है तो वह निर्गुणी बनता है । इसलिए देव, गुरु और धर्मकी जाँच करके ही उन्हें ग्रहण करना हितावह होता है। "संसार में आज जितने मतमतान्तरों और दर्शनों के झगड़ें दिखाई दे रहे हैं, वे सारे ईश्वरको लेकरही हो रहे हैं । यद्यपि ईश्वरको माननेसे कोई इन्कार नहीं करता है तथापि नाम-भेदसे और उसके स्वरूपको भिन्न भिन्न प्रकारसे माननेके कारण, झगड़े खड़े हुए हैं । देव, महादेव, शंकर, शिव, विश्वनाथ, हरि, ब्रह्मा, क्षीणाष्टकर्मा, परमेष्ठी, स्वयंभू, .जिन, पारगत, त्रिकालविद्, अधीश्वर, शंमु, भगवान, जगत्प्रभु, तीर्थकर, जिनेश्वर, स्याद्वादी, अभयद, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, पुरुषोत्तम, अशरीरी और वीतराग आदि अनेक ईश्वरके नाम हैं। ये सारे ही .नाम गुणनिष्पन्न हैं । इन नामोंके अर्थमें किसी को विवाद नहीं है। मगर सिर्फ नाममें विवाद है। देव-महादेव-ईश्वरका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है। ___ " जिसमें क्लेश उत्पन्न करनेवाला ' राग ' नहीं है; शान्तिरूपी काष्ठको जलानेवाली अग्निके समान ' द्वेष ' नहीं है; शुद्ध-सम्यग्ज्ञानको नाश करनेवाला और अशुभ आचरणोंको बढ़ानेवाला ' मोह' नहीं है और तीनलोकमें जो महिमामय है वही महादेव है; जो सर्वज्ञ है, शाश्वत सुखका भोक्ता है और जिसने सब तरहके ' कर्मों , को क्षय करके मुक्ति पाई है तथा परमात्मपदको प्राप्त किया है वही Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ animanumanmanimumania प्रतिबोध । महादेव अथवा ईश्वर है । दूसरे शब्दोंमें कहें तो ईश्वर वह होता है जो जन्म, जरा और मृत्युसे रहित होता है; जिसके रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं होते हैं और जो अनंत सुखका उपभोग करता है। ईश्वरका जो स्वरूप ऊपर बताया गया है उससे यह बात सहनही समझमें आजाती है कि, ईश्वरके लिए कोई कारण ऐसा बाकी नहीं रह जाता है जिससे उसको फिरसे जन्म धारण कर संसारमें आना पड़े। क्योंकि उसके सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। यह नियम है कि,'कोई भी आत्मा कर्मोंको नष्ट किये विना संसारसे मुक्त नहीं हो सकता है और जब वह मुक्त हो जाता है तो फिर संसारमें नहीं आ सकता है । ' यह जैनधर्मका अटल सिद्धान्त है । ' संसार । शब्दसे देव, मनुष्य, तिथंच और नरक ये चार गतियाँ समझनी चाहिए।" ___ इस तरह देवका संक्षेपमें स्वरूप वर्णन करनेके बाद सूरिनीने गुरुका स्वरूप बताते हुए कहा: गुरु वे ही होते हैं जो पाँच महाव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन करते हैं, भिक्षावृत्तिसे अपना जीवननिर्वाह करते हैं, जो स्वभावरूप सामायिकमें हमेशा स्थिर रहते हैं और जो लोगोंको धर्मका उपदेश देते हैं । गुरुके इन संक्षिप्त लक्षणोंका जितना विस्तृत अर्थ करना हो, हो सकता है । अर्थात् साधुके आचार-विचारों और व्यवहारोंका समावेश उपर्युक्त पाँच बातोंमें हो जाता है। गुरुमें दो बाते-जो सबसे बड़ी हैं-तो होनी ही चाहिए । वे हैं ( १) स्त्रीसंसर्गका अभाव और (२) मूर्छाका त्याग। जिसमें ये दो बातें न हो वह गुरु होने या मानने योग्य नहीं होता है। इन दो बातोंकी रक्षा करते हुए गुरुको अपने आचार-व्यवहार पालने चाहिए । गुरुके लिये और भी बातें कही गई हैं। वह अच्छे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सूरीश्वर और सम्राट् । स्वादु और गरिष्ठ भोजनका बारबार उपयोग न करे, दुस्सह कष्टको भी शान्तिके साथ सहे, इक्का, गाड़ी, घोड़ा, ऊँट, हाथी और रथ आदि किसी भी तरहके वाहनकी सवारी न करे, मन, वचन और कायसे किसी जीवको कष्ट न दे, पाँचों इन्द्रियाँ वशमें रखे, मान-अपमानकी परवाह न करे, स्त्री, पशु और नपुंसकके सहवाससे दूर रहे, एकान्त स्थानमें स्त्रीके साथ वार्तालाप न करे, शरीर सजानेकी ओर प्रवृत्त न हो, यथाशक्ति सदैव तपस्या करता रहे, चलते फिरते, उठते बैठते और खाते पीते, प्रत्येक क्रियामें उपयोग रक्खे, रातमें भोजन न करे, मंत्रयंत्रादिसे दूर रहे और अफीम वगेरहके व्यसनोंसे दूर रहे । ये और इसी तरह अनेक दूसरे आचार साधुको-गुरुको पालने चाहिए । थोड़े शब्दोंमें कहें तो,-" गृहस्थानां यद्भूपणं तत् साधूनां दुषणम् ।" (गृहस्थोंके लिये जो भूषण है साधुओंके लिए वही दूषण रूप है । )" मूरिजीने इस मौके पर यह बात भी स्पष्ट शब्दोंमें कह दी थी कि,-मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि गुरुके आचरण बतलाये गये हैं वे सभी हम पालते हैं तो भी इतना जरूर है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार यथासाध्य उन्हें पालनेका प्रयत्न हम अवश्यमेव करते हैं। फिर सूरिजी धर्मका लक्षण बतलाते हुए बोलेः " संसारमें अज्ञानी मनुष्य जिस धर्मका नाम लेकर क्लेश करते हैं, वास्तवमें वह धर्म नहीं है । जिस धर्मके द्वारा मनुष्य मुक्त बनना और सुखलाभ करना चाहते हैं उस धर्ममें क्लेश नहीं हो सकता है। वास्तवमें धर्म वह है जिससे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है। [अन्त:करणशुद्धित्वं धर्मत्वम् ] यह शुद्धि चाहे किन्हीं कारणोंसे हो। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध। दूसरे शब्दोमें कहें तो धर्म वह है जिससे विषयवासनासे निवृत्ति होती है । [ विषयनिवृत्तित्वं धर्मत्वम् । ] यह धर्मका लक्षण है। इसमें क्लेशको कहाँ अवकाश है ? इन लक्षणोंवाले धर्मको माननेसे क्या कोइ इन्कार कर सकता है ? कदापि नहीं । संसारमें असली धर्म यही है और इसीसे इच्छित सुख-मुक्तिसुख प्राप्त हो सकता है।" सूरिजीके इस उपदेशका अकबरके हृदयपर गहरा प्रभाव हुआ । उसने मुक्त कंठसे स्वीकार किया कि,-"यह पहिला ही मौका है जो देव और धर्मका सच्चास्वरूप मेरी समझमें आया है। आजसे पहिले मुझे किसीने इस तरह वास्तविक स्वरूप नहीं समझाया था। आज तक जो आये उन्होंने अपना ही कहा । आजका दिन मुबारिक है कि आप आये और मैं देव, गुरु और धर्मके असली स्वरूपका जानकार हुआ।" __ इस तरह अनेक प्रकारसे बादशाहने सरिजीकी प्रशंसा की। उनके उत्तम पाण्डित्य और चारित्रके लिए उसके हृदयमें आदरके भाव स्थापित हुए । उसको निश्चय हो गया कि ये असाधारण महा. पुरुष हैं। उसके बाद बाहशाहने सूरिजीसे पूछा:--" महाराज ! मेरी मीन राशिमें शनिश्चरजीको दशा बैठी है। लोग कहते हैं कि, यह दशा दुर्जन और यमराजके समान हानि पहुँचानेवाली है । मुझे इसका बहुत ज्यादा डर है । इससे आप महरबानी करके कोई ऐसा उपाय कीजीए जिससे यह दशा टल जाय । " सूरिजीने स्पष्ट शब्दोंमें कहा:--"सम्राट् ! मेरा विषय धर्म है, ज्योतिष नहीं । इस बातका संबंध ज्यौतिषसे है। इसलिए मैं इस विषयमें कुछ कहने या करनेमें असमर्थ हूँ। आप किसी ज्योतिषीसे पूछिए । वह योग्य उपाय बतायगा और करेगा।" Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । बादशाह जो बात चाहता था वह न हुई । वह चाहता था कि, सूरिजी उसको कोई ऐसा मंत्र या तावीज देते जिससे उस पर शनिकी दशाका असर न होता । मगर सूरिजीने जब यह उत्तर दिया कि, यह मेरा विषय नहीं है तब बादशाहने अपनी इच्छा शब्दोंद्वारा व्यक्त की: १२० wwww महाराज ! मुझे ज्योतिषशास्त्री से कोई मतलब नहीं है । आप मुझे कोई ऐसा तावीज बना दीजिए जिससे शनिकी खराब दशा मुझ पर असर न करे । " "" 1 सूरिजीने उत्तर दिया :- " यंत्र-मंत्र करना हमारा काम नहीं है । हाँ हम यह कह सकते हैं कि, यदि आप जीवों पर महरबानी करेंगे, उन्हें अभय बनायेंगे तो आपका भला ही होगा । कारणप्रकृतिका नियम है कि, जो दूसरोंकी भलाई करता है उसका हमेशा भला ही होता है । " 1 बादशाह बहुत कुछ कहने सुनने और आग्रह करने पर भी जब सूरिजी अपने आचारके विपरीत कार्य करने को तत्पर नहीं हुए तब अकबर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने अबुल्फज़ल के सामने आचार्य महाराकी भूरि भूरि प्रशंसा की । बादशाहने सूरिजी के संबंधकी और भी कई बातें - जैसे सूरिजी के शिष्य कितने हैं ? इनके गुरुका क्या नाम है ? आदि - साधुओं से दर्याफ्त कर लीं । तत्पश्चात् अकबर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र शेखूजीके द्वारा अपने सारे ग्रंथ वहाँ मँगवाये । शेखूजीने ग्रंथ संदूक मेंसे निकाल निकाल कर खानखान के साथ बादशाहके पास भेज दिये । सूरिजी और १ खानखानाका पूरा नाम ' खानखानान मिर्ज़ा अब्दुर्रहीम' था । उसके पिताका नाम बेहरामख़ाँ था । जब उसने गुजरातको जीता था तब Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ निपुणवान साधु उनके प्रतिबोध। विमलहर्ष उपाध्याय आदि साधुमंडलको ये ग्रंथ देखकर बड़ा आनंद हुआ। कहा जाता है कि, उसके भंडारमें जैन और दूसरे दर्शनोंके भी अनेक प्राचीन ग्रंथ थे । सूरिजीने पूछा:-" आपके पास ऐसे उत्तम ग्रंथोंका भंडार कैसे आया ?" __बाहशाहने उत्तर दिया:--" हमारे यहाँ पद्मसुंदर नामके नागपुरीय तपागच्छके एक विद्वान् साधु थे। वे ज्योतिष, वैद्यक और सिद्धांतमें अच्छे निपुण थे। उनका स्वर्गवास हो गया तभीसे मैंने उनके ग्रंथ सँभालकर रक्खे हैं । आप अनुग्रह करके अब इन ग्रंथोंका स्वीकार करें।" बादशाहकी इस उदारवृत्तिके लिये मूरिजीको बहुत आनंद हुआ। मगर पुस्तकें लेनेसे उन्होंने इन्कार कर दिया; क्योंकि अपनी पुस्तकें करके रखनेसे मोह-ममत्व हो जानेका भय रहता है । उन्होंने कहा:-" हम जितने ग्रंथ उठा सकते हैं उतने ही अपने पास रखते हैं । विशेष नहीं । हमको प्रायः जिन ग्रंथोंकी आवश्यकता पड़ती है वे हमें विहारस्थलके भंडारोंमेंसे मिलनाते हैं। एक बात और भी है। इतनी पुस्तकें यदि हम अपनी करके रखें तो संभव है कि, उन पर हमारा ममत्व होजाय, इसलिए यही श्रेष्ठ है कि, हम ऐसे कारणोंसे दूर रहें।" ग्रंथोंके लिए झगड़ा करनेवाले आजकलके महात्माओंको उसपर प्रसन्न होकर बादशाहने उसे 'खानखाना' का खिताब दिया था और पाँच हजार फोजका सेनापति भी बनाया था। इसके लिए जो विशेष जानना चाहते हैं वे 'आईन-इ-अकबरी' के ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवादके प्रथम भागका ३३४ वाँ पृष्ठ और ' मोराते अहमदी ' के गुजराती अनुवादका १५१-१५४ पृष्ठ देखें। 16 - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सूरीश्वर और सम्राट् । श्रीहीर विजयसूरिजी के उपर्युक्त शब्दोंपर ध्यान देना चाहिए । समय अपना कार्य किये ही जाता है। उस कालमें न तो वर्तमान जितने पुस्तकालय थे और न साधन ही; तो भी उस कालके साधु मोहमायाके भयसे पुस्तक - संग्रहसे कितने दूर रहते थे सो सूरिजीके उपर्युक्त वचनोंसे स्पष्ट होता है । सूरिजी की इस नि:स्पृहता से यद्यपि बादशाह बहुत खुश हुआ तथापि वह बारबार यही प्रार्थना करता रहा कि, " आप हर सूरतसे मेरी इस छोटीसी भेटको मंजूर करही लीजिए । " 1 अबुल्फ़ज़लने भी कहाः " यद्यपि आपको पुस्तककी आवश्यकता नहीं है तथापि पुण्यकार्य समझकर आप इनको ग्रहण करें । यदि आप ये ग्रंथ ग्रहण करेंगे तो बादशाहको बहुत खुशी होगी । " सूरिजीने विशेष वाक्य - व्यय न कर ग्रंथ स्वीकार किये और कहा :- “ इतने ग्रंथ हम कहाँ कहाँ लिए फिरेंगे ? इन ग्रंथोंको रखनेके लिए एक भंडार बना दिया जाय तो उत्तम हो । हमें जब किसी ग्रंथकी आवश्यकता होगी, पढ़ने के लिए मँगा लेंगे । " बादशाहने भी यह बात पसंद की । सबकी सलाहसे एक भंडार बनाया गया और उसका कार्य थानसिंहको सोंपा गया । ' विजयप्रशस्तिकाव्य ' के लेखकके कथनानुसार यह भंडार आगरेमें अकबर के नामहीसे खोला गया था । I बादशाह के साथकी पहिली मुलाकात इस तरह समाप्त हुई । सूरिजी बड़ी धूमधाम के साथ उपाश्रय गये । श्रावकों में आनंद और उत्साह फैल गया । थानसिंह आदि कई श्रावकोंने इस शुभ प्रसंगकी खुशीमें दान-पुण्य किया । थोड़े दिन फतेहपुर - सीकरीमें रहनेके बाद सूरिजी आगरे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । १२३ पधारे । फतेहपुर और आगरे के बीच में चौबीस माइलका अन्तर है । सूरिजीने वह चातुर्मास आगरेहीमें किया था । पर्युषण के दिन जब निकट आये तब आगरेके श्रावकोंने मिलकर विचार किया कि, बादशाहकी सूरिजी महाराज पर बहुत भक्ति है, इसलिए महाराजकी ओरसे यदि पर्युषणोंमें जीवहिंसा बंद करनेके लिए बादशाहको कहा जायगा तो बादशाह जरूर बंद करा देगा | श्रावकोंने सूरिजी से भी इस विषय में सम्मति ली । सूरिजीकी सम्मति मिलने पर अमीपाल दोसी आदि कई मुखिया श्रावक बादशाहके पास गये और श्रीफल आदि भेट कर बोले :- " सूरिजी महाराजने आपको धर्मलाभ कहलाया है । " सूरिजीका आशीर्वाद सुन कर बादशाह प्रसन्न हुआ और उत्सुकता के साथ पूछने लगा :- " सूरिजी महाराज सकुशल हैं न ? उन्होंने मेरे लिए कोई आज्ञा तो नहीं की है ? " अमीपाल दोसीने उत्तर दिया:- " महाराज बड़े आनंदमें हैं । उन्होंने अनुरोध किया है कि, हमारे पर्युषणोंके पवित्र दिन निकट आ रहे हैं, उनमें कोई मनुष्य किसी जीवकी हिंसा न बातकी मुनादि करा देगें तो अनेक मूक जीव और मुझे बड़ा आनंद होगा । " 1 pang करे। यदि आप इस आपको आशीर्वाद देंगे बादशाहने आठ दिन हिंसा न हो इस बातका फर्मान लिख दिया | आगरे में यह ढिंढोरा पिटवा दिया कि, आठ दिन तक कोई आदमी किसी भी जीवको न मारे । संवत् १६३९ के पर्युषण के आठ दिन तक के लिए यह अमारी घोषणा हुई थी । 'हीरसौभाग्यकाव्य' और ' जगद्गुरु काव्य ' में इसका उल्लेख नहीं है । मगर 'विजय' प्रशस्ति महाकाव्य में इसका वर्णन है। 'हीरविजयसूरिराम' में ऋषभदास कवि लिखते हैं कि, केवल पाँच ही दिन तक जीवहिंसा नहीं करनेकी घोषणा हुई थी। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । चातुर्मास पूर्ण होने पर सूरिजी ' सौरीपुर ' की यात्रा करके पुनः आगरे आये । वहाँ कई प्रतिष्ठादि कार्य कराकर कुछ दिन बाद फतेहपुर सीकरी ' गये । इसबार सूरिजी बादशाह के साथ कई वार मिले थे । " १२४ यह तो कहनेकी अब आवश्यकता नहीं है कि, अबुल्फ़ज़ल एक विद्वान् मनुष्य था । इसको तत्त्वचर्चा करनेमें जितना आनंद आता था उतना दूसरी किसी भी बातमें नहीं आता था । और तो और धर्मचर्चा छोड़ कर खानेपीनेके लिए जाना भी उसे बुरा लगता था । वह धर्मचर्चा जिज्ञासुकी तरह करता था । अपनी मान्यता दूसरेको मनानेके लिए वितंडावादी बनकर नहीं । इसीलिए समय समय पर वह हीरविजयसूरि के साथ धर्मचर्चा करता था । सूरिजीको भी उसके साथ बातचीत करनेमें बड़ी प्रसन्नता होती थी । क्योंकि अबुल्फज़ल जैसे जिज्ञासु था वैसे ही बुद्धिमान् भी था । इसकी बुद्धि तत्काल ही बातकी तेह तक पहुँच जाती थी । कठिन से कठिन विषयको भी वह सहनही में समझ जाता था । सचमुच ही विद्वानको विद्वान् के साथ वार्तालाप करनेमें बड़ा आनंद होता है । एकबार अबुल्फ़ज़लके महलमें वह और सूरिजी तत्त्वचर्चा कर रहे थे । अकस्मात् बादशाह वहाँ चला गया । अबुल्फज़लने उठ कर बादशाहको अभिवादन किया । बादशाह उचित आसन पर बैठा । अबुल्फ़ज़लने सूरिजीकी विद्वत्ताकी भूरि भूरि प्रशंसा की । प्रशंसा सुनकर बादशाहके अन्तःकरणमें अज्ञात प्रेरणा हुई कि, जो कुछ सूरिजी माँगें वह उन्हें प्रसन्न करनेके लिए देना चाहिए । उसने सूरिजी से प्रार्थनाकी, "महाराज ! आप अपना अमूल्य समय खर्च कर हमको उपदेश करनेका जो उपकार करते हैं उसका कोई बदला नहीं हो सकता है । तो भी मेरे कल्याणार्थ आप जो कुछ काम मुझे Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । १२५ बतायेंगे वह मैं सानंद करूंगा । फर्माइए मैं कौनसी ऐसी सेवा करूं जिससे आप खुश हों ? १५ अकबर के समान सम्राट्की इतनी भक्ति, इतनी उत्सुक प्रार्थना देखकर भी सूरिजीको अपने निजी स्वार्थका खयाल नहीं आया । उस समय यदि वे चाहते तो अपने लिए, अपने गच्छके लिए या अपने अनुयायियोंके लिए, बादशाहसे बहुत कुछ कार्य करवा लेते; परन्तु सुरिजीने तो ऐसी कोई बात न की । वे संसारमें सर्वोत्कृष्ट कार्य जीवोंको अभय बनानेका समझते थे। इसलिए जब जब बादशाहने सूरिजी से कोई सेवाकी इच्छा प्रकट की तभी तब उन्होंने बादशाहसे जीवको अमय बनानेका - जीवोंको आराम पहुँचानेका ही कार्य कराया । इस समय बादशाहने जब सेवा करनेकी इच्छा प्रकट की तब सूरिजीने कहा:- " तुम्हारे यहाँ हजारो पक्षी दरवोंमें बंद हैं। उन बेचारोंको मुक्त कर दो । ” बादशाहने सूरिजीके इस अनुरोधका - उपदेशका पालन किया । ' फतेहपुर सीकरी में एक 'डावर नामका बहुत बड़ा तालाब है। उसके लिए उसने हुक्म दिया कि, कोई व्यक्ति उसमें से मछलियाँ न पकड़े। इस आज्ञाको तत्काल ही व्यवहार में लाने के लिए श्रीधनविजयजी कुछ सिपाहियोंको साथ लेकर तालाब पर गये और उन लोगोंको-जो उस समय वहाँ मछलियाँ पकड़ रहे थे - हटा दिया । 'हीरसौभाग्यकाव्य' के कर्ता लिखते हैं कि, डाबर तालाब में होनेवाली हिंसा बादशाहने श्रीशान्तिचंद्रजी के उपदेश से बंद की थी । उस समय शेख अबुल्फ़ज़लके मकानमें सूरिजी और बादशाहके आपस में बहुत देर तक धर्मचर्चा होती रही । एकान्त होनेसे जैसे अकबर ने खुले दिलसे अपनी शंकाएँ पूछी, उसी तरह सूरि ܕ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। जीने भी यथोचित शब्दोंमें उसका समाधान किया और उसको उपदेश दिया। उस समय वार्तालापके बीचमें सूरिजीने प्रसंग देखकर पर्युषण के आठ दिनों तक सारे राज्यमें, जीवहिंसा बंद करनेका फर्मान निकालनेका बादशाहको उपदेश दिया । बादशाहने सूरिजीके उपदेशानुसार पर्युषणके आठ दिन ही नहीं बल्कि, अपने कल्याणार्थ चार दिन और जोड़कर १२ दिनका फर्मान निकालनेकी स्वीकारता दी ( भादवा वदी १० से भादवा सुदी ६ तकके बारह दिन)। उस समय अबुल्फ़ज़लने बादशाहसे नम्रता पूर्वक कहा:" हुजूर यह हुक्म इस तरहका होना चाहिए जो आगे हमेशाके लिए काम आवे।" बादशाहने कहाः-अच्छी बात है, यह फर्मान तुम्ही लिखो।" अबुल्फ़ज़लने फर्मान लिखा । उसके बाद वह शाही महोर और बादशाहके हस्ताक्षरके साथ सारे सूबों में भेजा गया। उस फर्मानमें महोरदस्तखत हो गये, उसके बाद वह राज्यसभामें पढ़ा गया । फिर बादशाहने अपने हाथोंसे उसे थानसिंह को सोंपा। थानसिंहने सम्मानपूर्वक उसे मस्तकपर चढ़ाया और बादशाहको फूलों और मोतियोंसे बधाया । बादशाहके इस फर्मानसे लोगोंमें अनेक प्रकारकी चर्चाएं होने लगीं । कई कहते थे,-सूरिजी कितने प्रतापी हैं कि, बादशाहको भी अपना पूरा भक्त बना लिया; कई कहते थे,-मूरिजीने बादशाहको आकाशमें उसकी सात पीढीके पुरुषाओंको बताया; कई कहते थे,-मूरिजीने बादशाहको सोनेकी खार्ने बताई और कई यह भी कहते थे कि, सूरिजीने एक फकीरकी टोपी उड़ाकर बादशाहको चमस्कार दिखाया, इसीलिए वह इनका अनुयायी हो गया है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । जनतामें ऐसी अनेक बातें फैल गई थीं। पीछेके कई जैनलेखकोंने भी पर परागत उपर्युक्त किंवदन्तियोंको सत्य मानकर, हीरविजयसूरिक विषयमें लिखते हुए, किसी न किसी, इसी प्रकारके, चमत्कारका उल्लेख किया है । मगर ये बातें ऐतिहासिकसत्यसे विरुद्ध हैं। हीरविजयसूरिने मंत्र-यंत्र या इसी तरहकी अन्य किसी विद्याद्वारा बादशाहको कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाया था। उन्होंने तो कईबार बादशाहके अनुरोधके उत्तरमें कहा था कि, "यंत्र-मंत्र करना हमारा धर्म नहीं है । वे एक पवित्र चारित्रवाले आचार्य थे। वे अपने चारित्रके प्रभावहीसे हरेक मनुष्यके हृदयमें सद्भाव उत्पन्न कर सकते थे। उनके मुखारविंद पर ऐसी शान्ति विराजती थी कि, क्रोधीसे क्रोधी मनुष्य भी उसको देख कर शान्त हो जाता था। इस बातको हरेक जानता है कि,मनुष्योंके अन्तःकरणोंमें जैसा उत्तम प्रभाव एक पवित्र चारित्र डाल सकता है वैसा प्रभाव सैकड़ों मनुष्योंके उपदेश भी नहीं डाल सकते हैं । शुद्ध आचरण-पवित्र चारित्र-के विना जो मनुष्य उपदेश देता है उसके उपदेशको लोग हँसीमें उड़ा दिया करते हैं । सूरिजीके चारित्रबलसे हरेक तरहके आदमी उनके आगे सिर झुका देते थे; चारित्रका ही यह प्रभाव था कि, बादशाह सूरिजीके वचनोंका ब्रह्मवचनके तुल्य सत्कार करता था। यह तो प्रसिद्ध ही है कि, हीरविजयसूरि सर्वथा त्यागी और निःस्पृह महात्मा थे। इसलिए बादशाह उनकी भक्ति करने लग गया था, तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि अकबरमें यह एक खास गुण था कि, वह उस मनुष्यका बहुत ज्यादा सम्मान करता था जो निःस्पृही, निर्लोभी और जगत्के सारे प्राणियोंको अपने समान देखनेवाला होता था। अपने इस गुणके कारण ही अकबर हीरविजय सूरिका सम्मान करता था और उनके उपदेशानुसार कार्य करता था। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M सूरीश्वर और सम्राट् । अकबरके समान मुसलमान बादशाहको ऐसा उपदेश-किसी तरहके स्वार्थ विना केवल जगत्के कल्याणहीका-दूसरोंकी भलाईके कार्योहीका उपदेश जैन साधुके समान त्यागी-निःस्पृही पुरुषके सिवा दूसरा कौन दे सकता था ?" बादशाहने हीरविजयसूरिके उपदेशसे पर्युषणके आठ दिन और दूसरे चार दिन ऐसे बारह दिन ( भादवा वदी १० से भादवा सुदी ६) तक अपने समस्त राज्यमें, कोई मनुष्य किसी भी जीवकी हिंसा न करे, इस बातकी जो आज्ञा प्रकाशित की थी उसकी छः नकलें करवाई गई । उनका इस तरह उपयोग हुआ-१ गुनरात और सौराष्ट्र के सूबेमें, २ दिल्ली, फतेहपुर आदिमें, ३ अजमेर, नागोर आदिमें, ४ मालवा और दक्षिणमें ५ लाहोर, मुलतानमें भेजी गई और ६ खास सूरिजी महाराजको सौंपी गई। ऊपर कहा जा चुका है कि, अबुल्फज़लक मकान पर बादशाह और सूरिजीके बीचमें बहुत ही खुले दिलेसे धर्मचर्चा और वार्तालाप हुआ था । उस समय सूरिजीने उपदेश देते हुए कहा था कि, “ मनुष्य मात्रको सत्यका स्वीकार करनेकी तरफ रुचि रखनी चाहिए । अज्ञानावस्थामें मनुष्य अनेक दुष्कर्म करता है; परन्तु ज्ञान होने पर उसे अपने कृत दुष्कर्मोंका पश्चात्ताप और सत्यका स्वीकार करना ही चाहिए । उसे यह दुराग्रह न करना चाहिए कि, मैं चिरकालसे अमुक मार्ग पर चलता आया हूँ, मेरे बापदादे इसी मार्गपर चले आ रहे हैं इसलिए मैं इस बातका त्याग नहीं कर सकता हूँ।" सूरिजीकी इसी बातको पुष्ट करनेवाली एक बात बादशाहने भी कही थी। वह मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद होनेसे यहाँ लिखी जाती है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । उसने कहाः-" महाराज ! मेरे जितने सेवक हैं वे सारे मांसाहारी हैं । इसलिए उन्हें आपका बताया हुआ जीवदयामार्ग अच्छा नहीं लगता । वे कहते हैं कि,-अपने पुरुषा जिस कामको करते आये हैं उसे छोड़ना अनुचित है । एकवार सारे सर्दार, उमराव इकट्ठे हुए थे उन्होंने मुझसे कहा,-' अपने बापका सच्चा बेटा वही होता है जो पहिले से जो मार्ग चला आता है उसको नहीं छोड़ता है।' उन्होंने एक उदाहरण भी दिया था । वह यह है, किसी देशकी राजधानीके पाटनगरके पास एक पहाड़ था। वहाँके बादशाहने हुक्म दिया कि, यह पहाड़ हवा रोकता है इसलिये इसको नष्ट कर दो । लोगोंने सुरंगें लगालगा कर उस पहाड़को खोद डाला । उस जगह खुला मैदान हो गया। वहाँसे थोड़ी ही दूरी पर समुद्र था । एक वार समुद्र चढ़ा । पहिले उसका पानी पहाड़से रुका रहता मगर इस समय पहाड़के अभाव पानीका प्रबल चढ़ाव शहरमें फिर गया । लोग बह गये, नगर नष्ट हो गया। तात्पर्य कहनेका यह है कि, प्राचीनकालसे स्थित पहाड़को बादशाहने तुड़वाडाला उसका परिणाम सिर्फ बादशाहहीको नहीं बल्कि सारे नगरको भोगना पड़ा।" ___ मुझे उमरावोंने जब यह किस्सा सुनाया तब मैंने भी उनकी बातका खंडन और अपनी बातका मंडन करनेके लिए एक कथा सुनाई । मैंने कहाः "सुनो, एक बादशाह था वह अंधा था। उसके एक लड़का हुआ । वह भी अंधा ही हुआ। मगर उसके पोता जन्मा वह सूझतादोनों आँखोंवाला था । अब बताओ कि, तुम्हारे कथनानुसार उसको अंधा होना चाहिए या नहीं ! क्योंकि उसके बाप और दादा तो अंधे थे।" 17 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAN सूरीश्वर और सम्राट् । एक दूसरी बात और भी है,-"मेरी सातवीं पीढ़ीके महापुरुष तैमूर थे। वे पहिले पशुओंको चराया करते थे । एकवार एक फकीर यह आवाज देता हुआ आया कि,-'नो मुझे रोटी दे मैं उसे वादशाहत हूँ।' तैमूरने रोटी दी । फकीरने उनके सिरपर मुकुट धरकर कहा:-" जा, मैंने तुझे बादशाह बनाया । " . "एकवार एक चरवाहेने किसी दुबले घोड़के चाबुक मारा । उसका तिरस्कार करनेके लिए हजारों चरवाहे जमा हो गये । तैमूर भी उन्हींमें था। वे जिस जंगलमें जमा हुए थे उसीमेंसे एक काफिला ऊँटों पर माल लाद कर गुजरा । तैमूरने चरवाहोंको उकसाकर सारा माल लूट लिया । वहाँ के बादशाहके पास फर्याद पहुंची। बादशाहने फौज भेजी । तैमुरकी सर्दारीमें चरवाहोंने फौजका मुकाबिला किया और फौजको भगा दिया। बादशाह स्वयं इन चरवाहे डाकूओंका दमन करने आया । मगर बादशाह वहीं काम आया और तैमूर वहाँका बादशाह बन बैठा । " "बताओ हमें भी तैमूरकी प्रारंभिक अवस्थाके माफिक गुलामी करनी चाहिए या बादशाही ? "उमराव, खान, वजीर, सर्दार वगेरा नितने वहाँ बैठे थे सभीने यही उत्तर दिया कि,-अमुक रीति पुरानी हो तो भी यदी वह खराब हो तो त्याज्य है।" " महाराज ! वास्तविक बात तो यह है कि लोग मांसाहार केवल अपनी रसना इन्द्रियको तृप्त करनेके लिए करते हैं । वे यह नहीं देखते कि, हमारी तुच्छ तृप्ति के लिए बिचारे कितने निर्दोष जीवोंका संहार हो जाता है।" " महाराम ! मैं दूसरोंकी क्या कहूँ, मैंने खुदने भी ऐसे ऐसे पाप किये हैं कि, जैसे पाप संसारमें शायद ही किसी दूसरेने किये Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । होंगे। जब मैंने चितोड़गढ़ फतेह किया था तब मैंने जो पाप किये थे वे बयानसे बाहिर हैं । उस समय राणाके मनुष्यों और हाथी घोड़ोंकी तो बात ही क्या थी ? मैंने चितोड़के एक कुत्ते तककोभी मारे विना नहीं छोड़ा था। चितोड़में रहनेवाला कोई भी जीव मेरी फोनकी दृष्टिम आता तो वह कत्ल ही होता। महाराज ! ऐसे ही ऐसे पाप करके मैंने कितने ही किले जीते हैं। अलावा इसके शिकारमें भी मैंने कोई कसर नहीं की । गुरुजी ! मेड़ताके रस्ते आते हुए आपने मेरे बनवाये हुए उन हनीरोंको * देखे होंगे, जिनकी संख्या ११४ है । हरेक हजीरे पर हरिणोंके पाँच पाँच सौ सींग लगाये गये हैं । मैंने छत्तीस हजार शेखोंके घरमें भाजी बँटाई थी। उसमें हरेक घरमें एक हिरणका चमड़ा, दो सींग और एक महोर दी थी। * हजीरोंके संबंधों 'श्रीहीरविजयसूरिरासमें '. कवि ऋषभदासने अकबरके मुखसे निम्नलिखित शब्द कहलाये हैं,-- " देखे हजीरे हमारे तुम्ह, एकसोचउद कीए वे हम्म; अकेके सिंग पंचसे पंच पातिग करता नहि खलखंच ॥७॥" बदाउनीके कथनसे इस बातको पुष्टि मिलती है। वह लिखता है: “ His Majesty's extreme devotion induced him every year to go on a pilgrimage to that city, and so he ordered a palace to be built at every stage between Agrah and that place, and a pillar to be erected and a well sunk at every coss. " ( Vol. II by W. H. Lowe, M. A. P. 176.) भावार्थ-प्रतिवर्ष बादशाह अपनी अत्यन्त भक्तिके कारण उस नगर ( अजमेर ) जाता था आर इसीलिए उसने आगरे और अजमेरके बीचमें स्थान स्थान पर जहाँ जहाँ मुकाम होते थे-महल और एक एक कोसकी दूरीपर एक कूवा व एक स्तंभ ( हजीरा) बनवाया था। आगरे और अजमेरके बीचमें २२८ माइलका अंतर है। इस हिसाबसे भी ११४ हजीरे बमवानेका कवि ऋषभदासका कथन सत्य प्रमाणित होता है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सूरीश्वर और सम्राट् । इसीसे आप समझ सकते हैं कि मैंने कितनी शिकारें की हैं और उनमें कितने जीवोंको मारा है। महाराज ! मैं अपने पापोंका क्या वर्णन करूँ ? मैं हमेशा पाँच पाँच सौ चिड़ियोंकी जीमें खाता था; परन्तु आपके दर्शनके और आपके उपदेशामृतपान करनेके बाद मैंने वह पापकार्य करना छोड़ दिया है । आपने महती कृपाकरके मुझे जो उत्तम मार्ग दिखाया है उसके लिए मैं आपका अत्यंत कृतज्ञ हूँ । महाराज ! शुद्ध अन्तःकरणके साथ कहता हूँ कि, मैंने वर्षभर में से छः मास तक मांसाहार नहीं करनेकी प्रतिज्ञा ली है। और इस बातका प्रयत्न कररहा हूँ कि, हमेशा के लिए मांसाहार करना छोड़ दूँ। मैं सच कहता हूँ कि, मांसाहारसे मुझे अब बहुत नफरत होगई है । " बादशाहकी उपयुक्त बातें सुनकर सूरिजीको अत्यन्त आनंद हुआ । उन्होंने उसको उसकी सरलता और सत्यप्रियता के लिए पुनः पुनः धन्यवाद दिया । सूरिजी के उपदेशका बादशाह के हृदयपर कितना प्रभाव पड़ा सो, बादशाह के उपर्युक्त हार्दिक कथनसे स्पष्टतया समझमें आजाता है । बादशाह के दिल मांसाहार के लिए नफरत पैदा करानेके काम में यदि कोई सफल हुआ था तो वे हीर विजयसूरिही थे । इस तरह हीरविजयसूरिजी के समागमके बाद ही बादशाह के आचार-विचार और वर्तावमें बहुत बड़ा परिवर्तन होना प्रारंभ होने लगा था । शनैः शनैः इस परिवर्तनका प्रभाव कहाँतक हुआ सो हम अगले प्रकरण में बतायेंगे । यहाँ तो हम अबुल्फ़ज़लके मकान में सूरिजी और बादशाह आपस में जो ज्ञानगोष्टी हुई थी उसीका आस्वादन लेंगे । 1 बादशाहने प्रसंगवश कहाः "महाराज ! कई लोग कहते हैं Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध | १३३ कि, - ' हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमंदिरम् ' ( हाथी मार डाले तो भी जैनमंदिरमें नहीं जाना चाहिए ।) इसका सबब क्या है ? " " बादशाहकी बात सुनकर सूरिजी जरा हँसे और बोले:— " राजन् ! मैं क्या उत्तर दूँ? आप बुद्धिमान हैं, इसलिए स्वयमेव समझ सकते हैं। तो भी मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि - उक्त वाक्य कौनसी प्राचीन श्रुति, स्मृतिका है ? किसी शास्त्रमें यह बात नहीं है। किसी द्वेषी मनुष्यकी यह एक कल्पना मात्र है । इसका सीधा उत्तर देनेके लिए जैनलोग भी कह सकते हैं कि, 'सिंहेनाss। ताड्यमानोऽपि न गच्छेच्छेवमंदिरम् । ( सिंहने घेर लिया हो तो भी शिवमंदिरमें नहीं जाना चाहिए ) मगर इसका परिणाम क्या है ? केवल लट्ठबाजी और झगड़ा । राजन् ! भारतवर्षकी अवनतिका कारण यदि कुछ है तो सिर्फ यही है। जैनियोंको हिन्दुओंने नास्तिक बताया । हिन्दुओंको जैनियोंने मिथ्यादृष्टि कहा । मुसलमानोंने हिन्दुओंको काफिर कहा । हिन्दुओंने उन्हें म्लेच्छ बताया । इस तरह हरेक मजहबवाला दूसरेको झूठा - नास्तिक बताता है। मगर ऐसे विचार रखनेवाले लोग बहुत ही कम होंगे कि, - 'बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम् ।' ( एक बालकका भी श्रेष्ठ वचन ग्रहण करना चाहिए | ) मनुष्य मात्रको जहाँसे अच्छी बात मिलती हो वहींसे ले लेनी चाहिए। जो ऐसा करता है वही अपने जीवन में उत्तमोत्तम गुण संग्रह कर सकता है । मगर विपरीत इसके यदि सभी एक दूसरेको नास्तिक या झूठा ठहराने के ही प्रयत्न में लगे रहेंगे तो फिर संसारमें सच्चा या आस्तिक कौन रहेगा? इसलिए एक दूसरेको झूठा या नास्तिक बतानेकी भ्रान्तिर्मे न पड़ यदि सत्य वस्तुका ही प्रकाश किया जाय तो कितना लाभ हो ? वास्तव तो नास्तिक मनुष्य वही होता है जो आत्मा, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट । पुण्य, पाप, ईश्वर आदि पदार्थोंको नहीं मानता है। जो इन पदार्थोंको मानते हैं वे नास्तिक नहीं कहला सकते हैं।" सूरिजीका यह उत्तर सुनकर बादशाहको बहुत आनंद हुआ। उसको विश्वास हुआ और उसने अबुल्फ़ज़लको कहा:--" अबतक मैं जितने विद्वानोंसे मिला उन सबने यही कहा था कि,-'जो हमारा है वही सत्य है। मगर सूरिजीके शब्दोंसे स्पष्ट हो रहा है कि ये अपनी बातको ही सत्य नहीं मानते हैं बल्कि जो सत्य है उसीको अपना मानते हैं । यही वास्तविक सिद्धान्त है । इनके पवित्र हृदयमें दुराग्रहका नाम भी नहीं है । धन्य है ऐसे महात्माको ! " सूरिनी और बादशाहके आपसमें उपर्युक्त बातें हो रही थीं उस वक्त देवीमिश्र* नामके एक ब्राह्मण पंडित भी वहाँ ही आगये थे। उनको संबोधनकर बादशाहने पूछा:-" क्यों पंडितजी! हीरविजयसूरिजी जो कुछ कहते हैं वह ठीक है या नहीं ? " पंडितजीने कहा:-" नहीं हुजूर ! मूरिनी जो कुछ कह रहे हैं वह बिलकुल वेदवाक्यके समान है । इसमें विरुद्धताका लेश भी नहीं है। मैने आजतक इनके समान स्वच्छ हृदयी, तटस्थ और अपूर्व विद्वान मुनि नहीं देखे । यह बात निःसंशय है कि ये एक जबर्दस्त पंडित-यति हैं।" ___ एक विद्वान् ब्राह्मणके निकाले हुए उपर्युक्त शब्द बादशाहकी श्रद्धाको यदि वज्रलेपवत् बना दें तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। * ये अकबर के दबारके एक विद्वान् थे। महाभारतादि ग्रंथोंके अनुवादमें दुभाषिएका काम करते थे। बादशाहकी उनपर अच्छी कृपा थी। इनके संबंध जिन्हें विशेष जानना हो वे ' बदाउनी' २ रे भागके, डबल्यु. एच. लो. एम. ए. कृत भंप्रेजी अनुवादके २६५ वें पृष्ठमें देखें। . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । वक्त बहुत होनेसे बादशाह अबुल्फजलके मकानसे अपने महलोंमें गया और सूरिजी जबतक 'फतेहपुर सीकरी । में रहे तबतक अनेक बार बादशाहसे मिले और धर्मचर्चा की । भिन्नभिन्न मुलाकातोंमें सूरिजीने बादशाहको भिन्नभिन्न विषय समझाये । इससे बादशाहको यह निश्चय हो गया कि, सूरिनी एक असाधारण विद्वान् साधु हैं । उनको जैन तो मानते और पूजते ही हैं, परंतु अपनी विद्वत्ता और पवित्र चारित्र के गुणके लिए वे समस्त संसारके वन्द्य और पूज्य हैं। अतः उन्हें जैनगुरु न कहकर 'जगद्गुरु' कहना ही उनका उचित सत्कार करना है । बादशाहने अपनी इस धारणाको मनहींमें नहीं रक्खा । एक दिन उसने अपनी राजसभामें मूरिजीको 'जगद्गुरु ' के पदसे विभूषित किया । इस पदप्रदानकी प्रसन्नतामें बादशाहने अनेक पशुपक्षियोंको बंधनसे मुक्त किया। ___ एकबार बादशाह अबुल्फ़ज़ल और बीरबल आदि दर्वारियोंके साथ बैठा था । उसी समय शान्तिचंद्रजी आदि कई विद्वान् मुनियोंके साथ सूरिजी महाराज भी वहाँ पहुँच गये। उस समय सूरिजीने बादशाह को उपदेश दिया । कुछ देरके बाद बादशाहने विनम्र स्वरम कहाः-"महाराज ! मेरे लायक जो कुछ काम हो वह निःसंकोच भावसे बताइए । क्योंकि में आपहीका हूँ। और जब मैं ही आपका हूँ तब यह कहनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती है कि, यह राज्यऋद्धि समृद्धि और सारा राज्य आपहीका है। सूरिजीने कहा:--"आपके यहाँ कैदी बहुत हैं । उनको यदि मुक्तकर दें तो अच्छा हो ।' बादशाहको अपराधियोंसे विशेष चिढ़ थी। इसलिए उसने सूरिजीकी इस बातको नहीं माना । ऋषभदास कविने बादशाहके उत्तरका इन शब्दोंमें वर्णन किया हैः Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RamRAANAARAN सूरीश्वर और सम्राट्। " कहइ अकबर ये मोटा चोर, मुलकर्मि बहुत पड़ावई सोर । एक खराब हजारकुं करइ, इहा भले ये जब लगि मरइ ॥" (हीरविजयसूरिरास, पृष्ठ १३४ ) जैनकविकी यह सत्यता प्रशंसनीय है कि, जो काम अकबरने सूरिजीके अनुरोधसे नहीं किया उसके लिए भी लिख दिया कि,' नहीं किया । अकबरने उसके बाद पूछा:--" इसके सिवा आप और कोई बात कहिए । " सूरिजी सोच रहे थे कि, अब बादशाहको कौनसा दूसरा कार्य करनेके लिए कहना चाहिए । इतनेहीमें शान्तिचंद्रनीने मूरिजीके कानमें कहा:-" महाराज सोच क्या रहे हैं ? ऐसा परवाना लिखवाइए कि, जिससे सारे गच्छके लोग आपको माने और आपकी चरणवंदना करें ।" ___पाठक ! सूरिनीकी उदार प्रकृतिको जानते हुए भी क्या आप उनसे ऐसे कथनकी आशा कर सकते हैं ? सूरिजीके मुखकमलसे क्या ऐसी स्वार्थमिश्रित वाणी-सौरभ निकल सकती है ? क्या सूरिनी इस बातको नहीं जानते थे कि लोभ सर्वनाशकी जड़ है ? ऐसी लोभवृत्तिके वशमे होकर अपना सम्मान बढ़ानेकी बात कहनेसे क्या परिणाम होगा सो मूरिजी सोचने लगे । सूरिनी शान्तिचंद्रकी सलाहकी उपेक्षा कर कुछ कहना चाहते थे, इतनेहीमें बादशाह बोला:-" गुरुजी ! शान्तिचंद्रजीने आपसे क्या कहा ? " सूरिजीने जो बात थी वह कह दी और कहा:-" मैं हरगिन यह बात नहीं चाहता । शिष्य गुरुभक्तिके कारण जो इच्छा हो सो कहें । मेरा कोई मान करे या अपमान करे, मुझे कोई माने या न माने । मेरे लिए सब समान हैं। मेरा धर्म तो यह है कि, समस्त जीवोंको समानभावसे देखना और उनको कल्याणकारी मार्गका उपदेश देना।" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ newmmmmmmmonwermummmmwwwmmmmmmmmmmmmmmmm wrammam प्रतिबोध । __सूरिनीकी इस उदारता और निःस्पृहताके लिए बादशाहको अत्यधिक आनंद हुआ। इतना ही नहीं, उसने अपने समस्त दुर्वारियोंको उद्देश करके कहा:---" मैंने ऐसी निःस्पृहता रखनेवाला, सिवा हीरविजयसूरिजीके और किसीको नहीं देखा । जो अपने स्वार्थकी कोई बात नहीं करते । जब बोलते हैं तब परोपकारहीकी बात । संसारमें 'साधु, संन्यासी' 'योगी' या ' महात्मा' आदिका पद धारण करनेवाले आदमियों की कमी नहीं है । मगर वे सभी प्रायः किसी न किसी फंदमें फँसे ही रहते हैं। कई तो बड़े बड़े मठाधीश हैं । लाखोंकी उनके पास सम्पत्ति है, जिससे आनंद करते हैं। कई सूफी, शेख और कंथाधारी होते हुए भी द्रव्य और दो दो स्त्रीयोंके स्वामी होते हैं। कई ' महर '-दया रखनेकी बड़ी बड़ी बातें करते हुए भी जानवरोंको मारकर खाते नहीं हिचकिचाते हैं। कई मंत्र-तंत्रका ढोंग करके भोले लोगोंको ठगते फिरते हैं। कई ' दंडधारी । और ' दरवेश ' का रूप धारण कर अनेक प्रकारके छल कपटका विस्तार करते फिरते हैं और कई 'तापस ' नामधारी घरघरसे मांगकर अपने भोगविलासका सामान जुटाते हैं। क्या मठवासी और क्या संन्यासी,क्या गोदड़िया और क्या गिरि-पुरी, क्या नाथ और क्या नागे, प्रायः सभी क्रोधादि कषायोंको नहीं दवा सके हैं और ज्ञानहीन होनेसे अनेक प्रकारके झगड़े फिसाद फैलाते फिरते हैं। ऐसे लोग दुनिया के गुरु-धर्मगुरु कैसे माने जा सकते हैं ? जो क्रोध, मान, माया और लोभादि कषायोंसे लिप्त हों, जिनका चारित्र विषयवासनाके उपभोगसे हीन बना हुआ हो वे कैसे पूज्य हो सकते हैं ? इस संसारमें रहते हुए भी कंचन और कामिनीसे इस तरह सर्वथा दूर रहना तथा मनमें किसीभी तरहकी तृष्णा न रखना सचमुच ही महान कठिन कार्य है।" 18 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । बादशाहके इस कथनने दर्वारियोंके दिलोंपर गहरा प्रभाव डाला । उनके हृदयोंमें सुरिजीके प्रति जो भक्तिभाव थे वे और भी कई गुने ज्यादा बढ़ गये। . उस समय बीरबल के हृदयमें सूरिजीसे कुछ पूछनेकी अभि. लाषा हुई । इसलिए उसने बादशाहसे आज्ञा माँगी। बादशाहने मंजूरी दी । तब बीरबलने सूरिजीसे पूछना प्रारंभ कियाः बीरबल:-महाराज ! क्या शंकर सगुण हैं ? सूरिजीः-हाँ, शंकर सगुण हैं। बी०-मैं तो मानता हूँ कि शंकर निर्गुण ही हैं। सरि०-ऐसा नहीं है । अच्छा, क्या तुम शंकर को ईश्वर मानते हो? बी०-हाँ। सूरि०-ईश्वर ज्ञानी है या अज्ञानी ? बी०-ईश्वर ज्ञानी है। सूरि०-ज्ञानी अर्थात् ? बी०-ज्ञानवाला। सूरि-ज्ञान गुण है या नहीं ? बी०-महाराज ! ज्ञान तो गुण ही है । सूरि०-ज्ञानको गुण बताते हो ? बी०-~-जी हाँ, ज्ञानको गुण ही मानता हूँ। सूरि०-यदि तुम ज्ञानको गुण मानते हो तो फिर तुम्हारी ही मान्यतानुसार यह सिद्ध है कि शंकर-ईश्वर सगुण ' है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध | १३९ बीरबलने भक्तिविनम्र स्वर में कहाः " महाराज ! मुझे विश्वास हो गया है कि, शंकर 'सगुण 3 हरेक समझ सके ऐसी युक्तियोंसे होते देख सभीको बड़ा आनंद हुआ। ही हैं।" शंकरकी 'सगुणता सिद्ध " इस मुलाकात के बाद बहुत समय तक सूरिजी बादशाहसे न मिल सके, इसलिए एक दिन बादशाहने बड़ी ही आतुरता के साथ सूरिजीके दर्शन करनेकी अभिलाषा प्रकट की । सूरिजी बादशाहके पास गये । उसे प्रभावोत्पादक उपदेश दिया । सूरिजी का उपदेश सुनने से बादशाह के हृदय में एक और ही तरहकी शीतलताका संचार हुआ । सूरिजीके वचनों में सचमुच ही बड़ा माधुर्य था कि, उनको सुननेसे सुननेवालेके अन्तःकरण में शान्ति और आनंदका प्रसार हो जाता था । यही कारण था कि, उनका उपदेश सुननेकी बादशाहको बारवार इच्छा हुआ करती थी । यहाँ एक बातका उल्लेख करना आवश्यक है कि, आजकलके राजा-महाराजा बहुत समय तक उपदेश सुनकर 'उपकार' माननेका जो फल उपदेष्टाको देते हैं, उतना ही फल देकर वह नहीं रह जाता था । वह समझता था कि, जगत्को तृणवत् समझनेवाले महात्मा लोग अपना अमूल्य समय व्यय कर हमको उपदेश देनेका जो कष्ट उठाते हैं, वह किसलिए ? ' आपका उपकार मानता शब्द सुननेहीके लिए नहीं, जगत्के और मेरे महात्माका उपदेश सुनकर तदनुसार या उसमेंसे अमल न किया जाय तो दोनोंके जो समय और शक्ति व्यय होते हूँ।' सिर्फ ये कल्याण के लिए । एक बात पर भी हैं उनसे लाभ ही क्या है ? अकबर अपनी इस उदार भावनाही के कारण हरवार उपदेश Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सूरीश्वर और सम्राट् । सुनने के बाद सुरिजीसे निवेदन करता था कि, मेरे लायक काम हो सो बताइए | इसवार भी उसने ऐसा ही किया । सूरिजीने इस बार एक महत्त्वका कार्य बताया । वे बोले :- " आपने आज तक मेरे कथनानुसार कई अच्छे अच्छे काम किये हैं । इसलिए बार बार कुछ कहना अच्छा नहीं लगता है । तो भी लोककल्याणकी भावना कहलाये विना नहीं रहती । इसलिए मेरा अनुरोध है कि, आप अपने राज्यसे ' जज़िया * - कर उठा दीजिए और तीर्थोंमें यात्रियोंसे प्रतिमनुष्य जो ' कर लिया जाता है उसे बंद कर दीजिए । क्योंकि इन दोनों बातोंसे लोगोंको बहुत ज्यादा दुःख उठाना पड़ता है । " सूरिजी के कथनको मानकर बादशाहने उसी समय दोनों करोंको उठा देनेके फर्मान लिख दिये । हीर विजयसूरिरासके कर्ता कविऋषभदासने उस मुलाकातका वर्णन करते हुए यह भी लिखा है कि, बादशाह और सूरिजी में उक्त प्रकारका जो वार्तालाप हुआ था उस समय अनेक दर्बारी मौजूद थे । * यद्यपि अकबरने गद्दी बैठनेके नौ बरस बाद अपने राज्यसे ' जजिया उठा दिया था, इसका तीसरे प्रकरणमें उल्लेख हो चुका है, तथापि गुजरात में से , ( , यह जज़िया ' नहीं हटा था । कारण उस समय गुजरात अकबर के अधिकारमें नहीं आया था । इससे यह सिद्ध होता है कि सूरिजी के उपदेश से उसने ' जज़िया' बंद करनेका जो फर्मान दिया था वह गुजरात के लिए था । 'हीरसौभाग्यकाव्य' की टीकासे भी यह बात सिद्ध होती है । हीरसौभाग्यकाव्य के १४ वें सर्गके २७१ वें श्लोककी टीकामें लिखा है कि'जेजीयकाख्यो गौर्जरकर विशेष: ' [ जजिया ( यहाँ ) गुजरातके 'कर' विशेषका नाम है । ] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । उसके बाद दोनोंमें बहुत देरतक एकान्तमें वार्तालाप हुआ। उसका विषय क्या था सो कोई न जान सका।" कहाजाता है कि, जब सूरिजी और बादशाह एकान्तमें वार्तालाप कर रहे थे तब मीठागप्पी नामका व्यक्ति-जिसको हर समय बादशाहके पास जानेकी आज्ञा थी-नंगे सिर ' नमो नारायणाय' पुकारता हुआ बादशाहके पास पहुँच गया । इतना ही नहीं अपने स्वभावानुसार वह कई हास्यजनक चेष्टाएँ भी करने लगा। बादशाहने उसकी इस आदतको मिटानेके लिए 'शाल । देकर निकाल दिया।" एकान्तमें वार्तालाप जब समाप्त हुआ तब सूरिजी उपाश्रय गये। x x x x इस प्रसंग पर एक दूसरी बातका स्पष्टीकरण करना भी जुरूरी मालूम होता है कि सरिजीने बादशाहसे इतनी मुलाकाते की,तबतक वे एक ही स्थानमें नहीं रहे थे। बीचमें वे मथुराकी यात्रा करनेके लिए भी गये थे । वहाँ उन्होंने पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथके दर्शन किये थे । इसी तरह जंबूस्वामी, प्रभवस्वामी आदि महापुरुषोंके ५२७ स्तूपोंकी भी उन्होंने वंदना की थी। वहाँसे गवालियर जाकर बावन गज प्रमाणकी ऋषभदेवकी मूर्तिको वासक्षेप पूर्वक नमस्कार किया था। उसके बाद वहाँसे वापिस आगरे गये थे । उस समय मेडताके रहनेपाले सदारंगने उत्साहपूर्वक हाथी, घोड़े और अन्यान्य कई पदार्थोंका दान किया था और बड़े आडंबरके साथ सूरिजीका नगरप्रवेश कराया था। वह अर्थात् संवत १६४१ का चौमासा सूरिजीने आगरेमें किया था और चातुर्मासके समाप्त होनेपर पुनः फतेपुरसीकरी गये थे। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર सुरीश्वर और सम्राट् । वक्त अनुमानसे भी ज्यादा गुजर गया था । फल प्राप्ति भी कल्पनातीत हो गई थी । गुजरात से भी विजयसेनसूरिके पत्र बार बार आते थे कि, आप गुजरात में बहुत जल्दी आइए। ऐसे ही अनेक कारणोंसे ' सूरिजी की इच्छा गुजरातकी तरफ जानेकी हुई । तभी ठीक ही है कि, साधुओंको ज्यादा समय तक एकही स्थानमें नहीं रहना चाहिए | ज्यादा रहनेसे लाभके बजाय हानि ही होती है । कवि ऋषभदासके शब्दों में: ', ---- " स्त्री पीहरि नर सासरइ, संयमियां सहिवास; ए त्रिणे अलषांमणां जो मंडइ थिरवास | " एक कविने कहा है :-- (( बहता पानी निर्मला, बँधा सो गंदा होय; साधू तो रमता भला, दाग न लागे कोय । अतः सूरिजीकी विहार करनेकी इच्छा अयोग्य न थी । एक वार अवसर देखकर सूरिजीने अपनी यह इच्छा बादशाहके सामने प्रकट की । बादशाहने बड़े ही आग्रहातुर शब्दोंमें कहाः " आप जो कुछ आज्ञा दें वह करनेको मैं तैयार हूँ । आपको गुजरात में जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है । आप यहीं रहिए और मुझे धर्मोपदेश दीजिए । " सुरिजीने कहा :- " मैं समझता हूँ कि, आपके समागमसे मैं अनेक धार्मिक लाभ उठा सकता हूँ । अर्थात् आपसे अनेक धार्मिक कार्य करा सकता हूँ। मगर कई अनिवार्य कारणोंसे श्रीविजयसेनसूरि मुझको बहुत ही जल्द गुजरातमें बुलाते हैं। इसलिए मेरा गुजरात जाना जरूरी है । वहाँ जाकर मैं यथासाध्य शीघ्रही विजयसेनसूरिको आपके पास भेजूँगा । " Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध । १४३ अन्तमें सूरिजीका निश्चय देखकर बादशाहने उन्हें गुजरात जानेकी अनुमति दी । मगर इतनी याचना जरूर की कि, विजयसेनसूरि यहाँ पहुँचे तबतक समय समय पर मुझे उपदेश देनेके लिये आप अपने एक उत्तम विद्वान् शिष्यको अवश्यमेव छोड जाइए । बादशाहके इस आग्रहसे सुरिजीने श्रोशान्तिचंद्रजीको बादशाह के पास छोड़ा और आपने ' जेताशाह ' को दीक्षा देकर वहाँ से विहार किया और वि. सं. १६४२ का चौमासा अभिरायाबाद में किया । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण छठा। विशेष कार्यसिद्धि । थे प्रकरणमें यह उल्लेख हो चुका है कि, अकबरने अपनी धर्मसभाके १४० मेम्बरोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया था । अर्थात् एकसौ चालीस मेम्बअारोंकी पाँच श्रेणियाँ बनादी थीं। उनमें प्रथम श्रेणीमें जैसे हीरविजयसूरिका नाम है वैसे ही पाँचवीं श्रेणीमें भी विजयसेनसूरि और भानुचंद्र नामक दो महात्माओंके नाम हैं। अबुल्फजलने 'आईन-इ-अकबरी ' के दूसरे भागके तीसवें आईनके अन्तमें इन एकसौ चालीस सभासदोंके नाम दिये हैं। उनमें ५४७ वें पेजमें इन दोनों महात्माओंके नाम हैं। --139 Bijaisen sur,, 140 Bhanchand ये 'विजयसेनसूर ' और 'भानचंद' ही विजयसेनसूरि और भानुचंद्र हैं । इन दोनों महात्माओंने भी अकबरकी सभामें जैनोपदेशकका कार्य किया था। इसलिए इनके संबंधमें भी यहाँ कुछ लिखना आवश्यक है। इन दोनों महात्माओंके विषयमें कुछ लिखनेके पहिले हम शान्तिचंद्रजीके लिए, जिनका पाँचवें प्रकरणमें नामोल्लेख हो चुका है और जिनको मूरिजी बादशाहके आग्रहसे आमरेहीमें छोड़ आये थे, कुछ लिखना आवश्यक समझते हैं। अर्थात् इस बातका उल्लेख करेंगे कि उन्होंने अकबरके पास रहकर क्या क्या कार्य किये थे? यह बात तो निःसंदेह है कि शान्तिचंद्रजी महान् विद्वान थे। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विशेष कार्य सिद्धि। उनकी वाणीमें प्रभाव था; प्रत्येक सुननेवालेके हृदयपर आपका उपदेश असर करता था । इसपर भी आपमें एकसौ आठ अवधान करनेकी जो शक्ति थी वह तो अद्वितीयही थी। उन्होंने अकबरसे मिलनेके पहिले अनेक राजा महाराजाओंको अपनी विद्वत्ता और आश्चर्योत्पादक शक्तिसे अपना सन्मान कर्ता बनाया था; तथा अनेक विद्वानोंसे शास्त्रार्थ करके अपना विजय-डंका बनाया था। अकबरको भी उन्होंने बहुत प्रसन्न किया था। वे प्रायः बादशाहसे मिलते थे और उपदेश एवं अवधान करके बादशाहको चमत्कृत करते थे । उन्होंने 'कृपारसकोश' नामका एक सुंदर संस्कृत काव्य भी रचा था। उसमें १२८ श्लोक हैं। श्लोक बादशाहने जो दयाके कार्य किये थे उनके वर्णनसे परिपूर्ण हैं । यह काव्य वे अकबर बादशाहको सुनाते थे। बादशाह बड़ी उत्सुकता और प्रसन्नता के साथ, अपनी प्रशंसाके इस काव्यको सुनता था । हीरविजयसूरिकी तरह शान्तिचंद्रजीको भी बादशाह बहुत मानता था । इसीलिए इनके आग्रहसे उसने एक ऐसा फर्मान निकाला था, जिसकी रूहसे, बादशाहका जन्म जिस महीनेमें हुआ उस सारे महीनेमें, रविवार के दिनोंमें, संक्रान्तिके दिनोंमे, और नवरोजके दीनोंमें कोई भी व्यक्ति जीवहिंता नहीं करसकती थी। ___कहा जाता है कि, बादशाह जब लाहोरमें था तब शांतिचंद्रजी भी वहां थे । ईदके पहिले दिन वे बादशाह के पास गये । अवसर देखकर उन्होंने बादशाहको कहा:--" मैं यहाँसे विहार करना चाहता हूँ।" बादशाहने सविस्मय पूछा:-" सहसा यह विचार कैसे हो गया ? " उन्होंने उत्तर दिया:-" मैंने सुना है कि, कल ईद है । सैकड़ों नहीं, हनारों नहीं, बल्कि लाखों जीवोंका कल वध होने वाला है । उन पशुओंका मृत्यु-आर्तकंदन मैं न सुन सकूँगा । मेरा 19 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सूरीश्वर और सम्राट् । हृदय इस हत्या के नामसे ही काँप रहा है । यही कारण है कि, मैं आपही यहाँ से चला जाना चाहता हूँ । " शान्तिचंद्रजीने उस समय ' कुरानेशरीफ़ की कई आयतें बताई, जिनका यह अभिप्राय था कि, रोजे सिर्फ शाक और रोटी खानेहीसे दर्गाह -इलाही में कुबूल हो जाते हैं । हरेक रूह - जीव पर महरबानी रखना चाहिए । यद्यपि बादशाह इस बात से अपरिचित नहीं था । वह भली प्रकारसे जानता था - मुख्यतया हीरविजयसूरिजीसे मिलने बाद उसको निश्चय हो गया था कि, जीवों को मारने में बहुत बड़ा पाप है । 'कुरानेशरीफ' में भी जीव-हिंसाकी आज्ञा नहीं है। उसमें भी महेर - दया करनेकी ही आज्ञा दी गई है; तथापि विशेषरूपसे निश्चय करने के लिए, अथवा अपने सर्दार- उमरावोंको निश्चय करादेनेके लिए उसने अबुल्फ़जुलको, अन्यान्य मौलवियोंको और सर्दार- उमरावोंको बुलाया और मुसलमानोंके माननीय धर्मग्रंथोंको पढ़वाया । तत्पश्चात् उसने लाहोर में ढिंढोरा पिटवाया कि, -कल - ईदके दिन कोई भी आदमी किसी जीवको न मारे । बादशाह के इस फर्मान से करोड़ों जीवोंके प्राण बचे | श्रावकोंने स्वयं शहरमें फिरकर इस बातकी निगहबानी की कि, कोई मनुष्य गुप्त रूपसे किसी जीवको न मार डाले । इसके बाद उन्होंने बादशाहको उपदेश दे कर मुहर्रमके महीनेमें और सूफी लोगोंके दिनों में जीवहिंसा बंद कराई । 'हीरसौभाग्य' काव्य के कर्त्ताका कथन है कि बादशाहने अपने तीन लड़कों-सलीम, ( जहाँगीर ) मुराद और दानिआलका जन्म जिन महीनोंमें हुआ था उन महीनोंके लिए भी जीवहिंसा - निषेधका फर्मान निकाला था । इस Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्यसिद्धि । १४७ तरह सब मिलाकर एक वर्षमें छः महीने और छः दिनके लिए अकबर ने अपने सारे राज्यमें, जीवहिंसा नहीं होने के फर्मान निकाले थे । इस कथन के सत्यासत्यका निर्णय करना आगेके लिए छोड़ कर, यह बताना आवश्यक है कि, शान्तिचंद्रजीने अकबर के पाससे जीवहिंसा के इतने कार्य कैसे कराये ? कहा जाता है कि, खास कारण ' कृपारसकोश ' नामक काव्य है । अस्तु । शान्तिचंद्रजीने उपर्युक्त फर्मानोंके अलावा ' जज़िया बंद करानेका फर्मान भी प्राप्त किया था । इन फर्मानोंको प्राप्त करनेके बाद बादशाहकी सम्मति लेकर गुजरातमें आये और सिद्धपुर में श्रीहीरविजयसूरिसे मिले | गुजरातमें आये तब वे नत्थु मेवाड़ाको साथ लाये थे । शान्तिचंद्रजीके पश्चात् भानुचंद्रजी बादशाहके पास रहे थे । ये ही भानुचंद्रजी हैं कि जो बादशाह के धर्मसभा के १४० वें नंबर के ( पाँचवी श्रेणी ) सभासद थे । भानुचंद्र और सिद्धिचंद्र- इन दोनों गुरु शिष्योंनेअकबर के पास रहकर अच्छी ख्याति प्राप्त की । ख्याति ही नहीं प्राप्त की, बल्कि वे अपनी विद्वत्ता और चमत्कारिणी विद्याके प्रभावसे बादशाह के आदरास्पद भी हुए । बादशाह जब कभी फतेहपुर या आगरा छोड़ कर बाहिर जाता था तब वह भानुचंद्रजीको भी अपने साथ ले जाता था । बादशाह सवारी पर जाता था । तब भानुचंद्रजी तो अपने आचारके अनुसार पैदल ही जाते थे । भानुचंद्रजी पर बादशाहकी दृढ श्रद्धा थी । उसको निश्चय हो गया था कि इन महात्माके वचनोंमें सिद्धि है | ऐसी श्रद्धा होनेके कई कारण भी थे । एक वार बादशाह के सिर में अत्यंत पीड़ा हुई। वैद्यों और हकीमोंने अनेक उपचार - इलाज किये मगर किसीसे कोई लाभ नहीं हुआ । अन्तमें उसने भानुचंद्रजीको बुलाया और अपनी शिरः पीडाका हाल Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRA १५८ सूरीश्वर और समाद। सुनाया, उनका हाथ लेकर अपने शिरपर रक्खा । भानुचंद्रजीने मधुर शब्दोंमें कहा:-"आप चिन्ता न करें। पीडा शीघ्र ही मिट जायगी।" थोड़ी ही देर में बादशाहका दर्द मिट गया । यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि, इसमें किसी यंत्र-मंत्रकी करामत न थी। इसका कारण था, बादशाहका भानुचंद्रजीके वचनोंपर अटल विश्वास और भानुचंद्रजीका निर्मल चारित्र ! श्रद्धा और शुद्ध चारित्रका संयोग कौनसा कार्य सिद्ध नहीं करसकता है ? __ बादशाहकी शिरःपीड़ा मिटी, इसकी खुशी मनानेके लिए उमरावोंने पाँच सौ गउएँ एकत्रित की। बादशाहको जब यह बात मालूम हुई तब उसने उमरावोंसे पूछा:--" तुमने इतनी गउएँ क्यों जमा की हैं ? " उन्होंने उत्तर दिया:--" हुजूरका सिरदर्द मिट गया इसकी खुशीमें ये गायें कुर्बान की जायेगी। " बादशाह क्रुद्ध होकर बोला:- अफ्सोस ! मेरे आराम होनेकी खुशीमें दूसरोंकी कुर्बानी ! दूसरोंको खुश करनेके बजाय उनको बिलकुल ही दुनियासे उठा देना ! ! इनको फौरन् छोड़ दो और बेखोफ फिरने दो।" तत्काल ही सारी गायें छोड़ दी गई। भानुचंद्रजी इस बातको सुनकर प्रसन्न हुए। उन्होंने बादशाहके पास जा कर उसको आशीर्वाद दिया। बादशाह जब काश्मीर गया था, तब भानुचंद्रजी भी उसके साथ गये थे। कहा जाता है कि राजा बीरबलने एकवार अकवरसे कहा:" मनुष्यके काममें आनेवाले फल-मूल घास पात आदि सब पदार्थ सूर्यहीके प्रतापसे उत्पन्न होते हैं । अंधकारको दूर कर जगत्में प्रकाश फैलानेवाला भी सूर्य ही है। इसलिए आपको सूर्यकी आराधना करनी चाहिए।" Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि। बीरबलके इस अनुरोधसे बादशाह सूर्यकी उपासना करने लगा था । बदाउनी लिखता है कि: "A second order was given that the sun should be worshipped four times a day, in the morning and evening, and at noon and midnight. His Majesty had also one thousand and one Sanskrit names for the sun collected, and read them daily, devoutly turning towards the sun." (Al-Badaoni, translated by W. H. Lowe M. A. Vol. II p. 332.) अर्थात्-दूसरा यह हुक्म दिया गया था कि, सवेरे, शाम, दुपरह और मध्यरात्रिमें-इस प्रकार दिनमें चार बार सूर्यकी पूजा होनी चाहिए । बादशाहने भी सूर्यके एक हजार एक नाम जाने थे और सूर्याभिमुख होकर भक्तिपूर्वक उन नामोंको बोलता था । . इस तरह हरेक लेखक लिखता है कि-अकबर सूर्यकी पूजा करता था । मगर किसीने यह नहीं बताया कि, उसने सूर्यके एक हजार एक नाम किसके द्वारा प्राप्त किये थे अथवा उसको सूर्यके नाम किसने सिखाये थे ? जैनग्रंथों में इसके संबंधमें बहुतसी बातें लिखी गई हैं। ऋषभदास कवि तो 'हीरविजयसूरिरास' में यहाँतक लिखता है कि, "पातशाह काश्मीरें जाय, भाणचंद पुंठे पणि थाय; पूछइ पातशा ऋषिने जोइ, खुदा नजीक कोने वळी होइ ॥१९॥ 'माणचंद बोल्या ततखेव, निजीक तरणी जागतो देवा ते समर्यो करि बहु सार, तस नामि ऋद्धि अपार ॥ २० ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । हुओ हकम ते तेणीवार, संभलावे नाम हजार; आदित्य ने अरक अनेक, आदिदेवमां घणो विवेक ॥ २१ ॥ इससे मालूम होता है कि, बादशाह जब काश्मीर गया था, तब उसने भानुचंद्रजीसे आराधनाके लिए पूछा और उनके बताने पर वह सूर्यकी आराधना करने लगा । भानुचंद्रजीने उसको सूर्यके एक हजार नामोंका स्तोत्र भी सुनाया और सिखलाया था । कवि आगे चलकर यह भी लिखता है कि, बादशाह भानुचंद्रजीको प्रति रविवार स्वर्णके रत्नजडित सिंहासन पर बिठलाकर उनके मुखसे सूर्यके एक हजार आठ नामोंका स्तोत्र सुनता था । इसके सिवा एक प्रबल प्रमाण और भी है। वह यह है कि,भानुचंद्रजीने बादशाहको सुनाने और सिखानेके लिए एक हजार एक नामोंका जो स्तोत्र बनाया था उसकी एक हस्त लिखित प्रति पूज्यपाद गुरुवर्य शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजके पुस्तकभंडारमें है। उसका आरंभिक श्लोक यह है: " नमः श्रीसूर्यदेवाय सहस्रनामधारिणे । कारिणे सर्वसौख्यानां प्रतापाद्भुततेजसे ॥ अन्तका भाग उसका इस प्रकार है: " यस्त्विदं शृणुयान्नित्यं पठेद्वा प्रयतो नरः । प्रतापी पूर्णमायुश्च करस्थास्तस्य संपदः ॥ नृपाग्नितस्करभय व्याधिभ्यो न भयं भवेत् । विजयी च भवेन्नित्यं स श्रेयः समवाप्नुयात् ॥ कीर्तिमान् सुभगो विद्वान् स सुखी प्रियदर्शनः । भवेद्वर्षशतायुश्च सर्वबाधाविवर्जितः !! Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPAMAVAAAAAAAA विशेष कार्य सिदि। १५१ नाम्नां सहस्रमिदमंशुमतः पठेद्यः प्रातः शुचिनियमवान् सुसमाधियुक्तः। दूरेण तं परिहरन्ति सदैव रोगा ___ भीताः सुपर्णमिव सर्वमहोरगेन्द्राः ।। इति श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्ण ॥ अमुं श्रीसूर्यसहस्रनामस्तोत्रं प्रत्यहं प्रणमत्पृथ्वीपतिकोटीरकोटिसंघट्टितपदकमलत्रिखंडाधिपतिदिल्लीपतिपातिसाहिश्रीअकबरसाहिजलालदीनः प्रत्यहं शृणोति सोऽपि प्रतापवान् भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥ ___इससे स्पष्ट मालूम होता है कि, बादशाह सूर्यके हजार नाम ज़रूर सुनता था और सुनाते थे भानुचंद्रजी। कादम्बरीकी टीका, विवेकविलासकी टीका और भक्तामरकी टीका आदि अनेक ग्रंथों में भानुचंद्रजीके नामके पहिले 'सूर्यसहस्रनामाध्यापकः' विशेषणका प्रयोग आया है । अतएव यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि, भानुचंद्रजी ही बादशाहको सूर्यके हजार नाम सिखलानेवाले थे । अस्तु । ___ काश्मीर पहुँचकर बादशाहने एक ऐसे तालाबके किनारे मुकाम किया जो चालीस कोसके घेरेमें था। तालाव पूरा मरा हुआ था। हीरसौभाग्यकाव्य ' के कर्ता लिखते हैं कि इस तालाब* को 'जयनल ' नामके राजाने बँधवाया था। उसका नाम 'झैनलंका' * आईन-ई-अकबरीके दूसरे भागके, जैरिरकृत अंग्रेजी अनुवादके पृ. ३६४ में, तथा बदाउनी के दूसरे भागके लवकृत अंग्रेजी अनुवादके पृ. ३९८ में लिखा है कि- इस तालाबको बंधवानेवाला काश्मीर का बादशाह 'झैन-उलआबिदीन', जो कि- इ. स. १४१७ से १४६७ तक हुआ है, वह था। और इस तालाबको झैनलंका ( Zainlanka) कहते थे। बंकिमचंद्रलाहिडी कृत ' सम्राट अकबर' नामक बंगाली ग्रंथके १८४ वें पेजमें भी इसका वर्णन आया है। 'हीरसौभाग्यकाव्य ' के कर्त्ताने जो 'जयनल' नाम दिया है, सो ठीक नहीं है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सूरीश्वर और सम्राट् । था । वहाँकी भयकंर सर्दी भानुचंद्रजीको सहन करनी पड़ती थी । बादशाह वहाँ भी निरंतर प्रति रविवार सूर्यके हजार नाम सुनता था । एक बार उसने भानुचंद्रजीसे पूछा: " भानुचंद्रजी । आपको ! यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है ?" भानुचंद्रजीने मुसकुराते हुए उत्तर दिया – “ सम्राट् ! हम साधु हैं । हमें कैसी ही तकलीफ हो सहनी पड़ती है; शान्तिसे तकलीफ बर्दाश्त करना ही हमारा धर्म है ।" बादशाहने कहा: " यह तो ठीक है, मगर आपको किसी चीजकी आवश्यकता हो तो बतलाइए । " भानुचंद्रजी बोले :- " आजकल सर्दी बहुत ज्यादा पड़ती है, इसलिए यदि शरीर में थोड़ी उष्णता रहे तो सरदीका असर कम हो । ” बादशाहने कहा :- "यह तो कोई बड़ी बात नहीं है । दर्बारमें दुशाले वगेरा गरम कपड़े हैं । आप जितने आवश्यक हों ले सकते हैं । " भानुचंद्र जीने कहा :- "मैं दुशाकोसे शरीरमें उष्णता लाना नहीं चाहता । मेरे शरीरको सर्दी से बचानेवाली उष्णता है धर्म कार्य । ” बादशाह बोला :चाहते हैं ? " भानुचंद्रजीने कहाः " मैं यह चाहता हूँ कि, हमारे पवित्र तीर्थ सिद्धाचल ( पालीताना ) की यात्रा करनेके लिए जानेवालोंसे जो ' कर ' वहाँ पर लिया जाता है वह बंद हो जाय ।" / " ---- -" तब आप क्या बादशाहने यह बात मंजूर की। उसने बादमें फर्मानपत्र लिखकर हीर विजयसूरिके पास भेज दिया । 'हीरसौभाग्य काव्य ' के कर्ताका कथन है कि, सिद्धाचलजीकी यात्रा के लिए जानेवाले से पहिले ' दीनार ' ( सोनेका सिक्का ), फिर पाँच महमुदका और फिर तीन महमुंदिका लिये जाते थे । अन्तमें बादशाहने यह ' कर ' बंद कर दिया था । कहा जाता है कि, बादशाह जब काश्मीरसे लौटा तब वह हिमालयके विषम मार्ग ' पीरपंजालकी घाटी में हो कर आया था । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ am विशेष कार्य सिद्धि। इस भयानक घाटीमें होकर पैदल गुजरते भानुचंद्रनी और उनके साथके अन्य साधुओंको बहुत कष्ट उठाना पड़ा । घाटीके तीखे कंकरों और पत्थरोंसे उनके पैर फटने लगे, इससे चलना बड़ा ही कष्ट साध्य हो गया । यह स्थिति देखकर बादशाहने उनको सवारीमें चढ़नेके लिए आग्रह किया। उन्होंने साधुधर्मके विरुद्ध होनेसे सवारीमें चढ़ने से इन्कार कर दिया । बादशाहने भी उनको ऐसी अवस्थामें छोड़कर आगे जाना मुनासिब नहीं समझा । वहीं पड़ाव डाला । तीन दिनके बाद भानुचंद्रजी व अन्य साधुओंके पैर ठीक हुए तब बादशाहने वहाँसे कूच किया। जब इस मुसाफरीसे लौट कर आये, तब लाहोरमें बड़ा मारी उत्सव हुआ। वहाँ के श्रावकोंने भी भानुचंद्रजी के उपदेशसे बीस हजार रुपये खर्च कर एक बड़ा उपाश्रय बनवाया । इसी तरह बादशाह जब 'हनिपुर ' गया था, तब भी भानुचंद्रजी को अपने साथ ले गया था। कहा जाता है कि, यहाँ नगरको लूटनेसे बचाने में भानुचंद्रजी का उपदेश ही काम आया था। इससे वहाँके निवासी इनसे बहुत प्रसन्न हुए थे। वहाँसे वापिस आगरे आने पर भी उन्होंने बादशाहसे अनेक मीवदयाके कार्य कराये थे । एक वार बाहशाहके सामने किसी विद्वान् ब्राह्मणसे शास्त्रार्थ हुआ । पंडित पराजित हुआ । इससे बादशाह बहुत ही खुश हुआ। भानुचंद्रनोको ' उपाध्याय ' की जो पदवी थी, वह भी बादशाहकी ही प्रसन्नताका परिणाम था । कवि ऋषभदासने 'हीरविजयरिरास' में इस विषयमें जो कुछ लिखा है उसे हम यहाँ उद्धत करते हैं। 20 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । तब उन्होंने कहा आवश्यकता नहीं एक बार मूल नक्षत्र में बादशाहके पुत्र शेखूजीके घर पुत्री पैदा हुई । ज्योतिषियोंने कहा कि, यदि यह लड़की जिंदा रहेगी तो बहुत बड़ा उत्पात होगा । इसलिए इसको पानी में बहा दो । जब शेखूने भानुचंद्रजी से इस विषय में सलाह ली कि, ऐसा करके बाल - हत्याका पाप करनेकी कोई है । ग्रह - शान्तिके लिए अष्टोत्तरीस्नात्र पढ़ाना चाहिए । बादशाह और शेखू दोनों को यह बात पसंद आई। उन्होंने ज्योतिषियोंके कथनानुसार न कर भानुचंद्रजीके कथनानुसार अष्टोत्तरीस्नात्र पढ़ानेका कर्मचंद्रजीको हुक्म दिया । बड़े उत्सव के साथ सुपार्श्वनाथका अष्टो तरीस्नात्र पढ़ाया गया । लगभग एक लाख रुपये खर्च हुए । श्रीमानसिंहजीने ( खरतर गच्छीय श्रीजिनसिंहरिने ) यह स्नान पढ़ाया था। इस अपूर्व उत्सवमें बादशाह और शेखूने भी भाग लिया । इस स्नानवाले दिन तमाम श्रावकश्राविकाओंने आंबिलकी तपस्या की थी । ऐसे पवित्र मांगलिक कार्यसे बादशाह और शेखूका विघ्न दूर हुआ । जिनशासनकी भी खूब प्रभावना हुई । १५४ ऐसे उत्तम कार्य से भानुचंद्रजीकी चारों तरफ खूब प्रशंसा हुई । एक बार बादशाहने श्रावकोंसे पूछा:- " भानुचंद्रजीको कोई पदवी है या नहीं ? है तो कौन सी है ? " श्रावकोंने उत्तर दिया:“ ‘पंन्यास' की पदवी है । " तब बादशाहने हीरविजयसूरिको पत्र लिखा और उसमें भानुचंद्रजीको ' उपाध्याय ' की पदवी देनेके लिए अनुरोध किया । सूरिजीने वासक्षेप मंत्र कर बादशाह के पास भेजा । वासक्षेप आनेपर बड़ी धूमधाम के साथ भानुचंद्रजीको ' उपा ध्याय ' की पदवी दी गई। उस समय शेख अबुल्फज़लने पचीस घोड़े और दशहजार रुपयेका दान किया था । तदुपरान्त संघने मी बहुतसा दान किया था । " 1 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्यसिद्धि। 'हीरसौभाग्यकाव्य ' के रचयिताका कथन है कि,-" जब बादशाह लाहोरमें था, तब उसने होरविजयसूरिजीको लिखकर उनके प्रधानशिष्य-पट्टधर विजयसेनसूरिको बुलाया था। उन्होंने लाहोरमें जाकर नदिमहोत्सव करा कर भानुचंद्रजीको ' उपाध्याय ' की पदवी दी थी। शेख अबुल्फ़ज़लने उस वक्त छःसौ रुपये और कई घोड़ों आदिका दान किया था ।” अस्तु । बात दोनोंमेंसे कोईसी भी सत्य हो, मगर यह तो निर्विवाद है कि भानुचंद्रनीको' उपाध्याय ' पदवी लाहोरमें बादशाहके सामने उसीके अनुरोधसे हुई थी। कहा जाता है कि, भानुचंद्रजीने अकबरके पुत्र जहाँगीर और दानीआलको भी जैनशास्त्र सिखलाये थे। ऊपर हमने दो नवीन, कर्मचंद्र और मानसिंहके, नामोंका उल्लेख किया है । अतः इन दोनों महानुभावोंका संक्षिप्त परिचय यहाँ करा देना आवश्यक है। कर्मचंद्र एक वार बीकानेरके महाराज कल्याणमलके मंत्री थे। धीरे धीरे उन्नत होते हुए अपने बुद्धिबल और कार्यचातुर्यसे उसने अकबरका मंत्रीपद प्राप्त किया था। मंत्री कर्मचंद्र, खरतरगच्छका अनुयायी, जैन था । इसलिए वह जैनधर्मकी उन्नतिके कार्यमें बड़े उत्साहके साथ योग देता था । बादशाह भी उससे बहुत स्नेह करता था । कर्मचंद्रहीके कारण खरतरगच्छके आचार्य श्रीजिनचंदररि अकबरके दर्वारमें गये थे । 'कर्मचंद्र चरित्रादि । कई ग्रंथोंसे मालूम होता है कि, जिनचंद्रमूरिने भी बादशाह पर अच्छा प्रभाव डाला था। उनके उपदेशसे उसने आषाढ़ सुदी ९ से १५ तक सात दिन तक कोई जीव हिंसा न करे, इस बातका फर्मान निकाला था और उसकी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । एक एक नकल अपने ग्यारह प्रान्तोंमें भेज दी थी* । यह उस समयकी बात है कि, जब बादशाह लाहोरमें रहता था। और भानुचंद्रजी आदि भी वहीं रहते थे। दूसरा नाम मानसिंहका है । ये वे ही मानसिंह हैं जो जिनचंद्रसूरिके शिष्य थे और जिनका प्रसिद्ध नाम जिनसिंहसूरि था। बादशाह जब काश्मीर गया था, तब वह भानुचंद्रजीकी तरह मानसिंह (जिनसिंहमूरिजी) को भी साथ ले गया था। जिनचंद्रसूरि लाहोरहीमें रहे थे । काश्मीरकी मुसाफिरीसे लौटकर आने पर मानसिंहको बड़ी घूमधामसे सूरि पद दिया गया था और उसी समय उनका नाम जिनसिंहसूरि क्खा गया था । मानसिंहजीको आचार्य पदवी दी, इसकी खुशीमें बादशाहने खंभातके बंदरोंमें जो हिंसा होती थी उसको बंद कराई थी। लाहोरमें भी एक दिनके लिए कोई जीवहिंसा न करे इस बातका प्रबंध किया था। मंत्री कर्मचंद्रने इस अवसर पर बड़े उत्साहके साथ बहुतसा धन उत्सवार्थ खर्च किया था। यह उपर कहा जाचुका है कि, जब शान्तिचंद्रजी बादशाहके पाससे रवाना हुए थे तब भानुचंद्रजीके साथ उनके सुयोग्य शिष्य सिद्धिचंद्रजी भी रक्खे गये थे। उनके सिवा उदयचंद्रजी आदि कई विद्वान् शिष्य भी वहाँ रहे थे । बादशाह सिद्धिचंद्रजीका भी बहुत __* यह असली फर्मानपत्र, सबसे पहिले परमगुरु शास्त्र-विशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजको वि० सं० १९६८ के सालमें लखनौके खरतरगच्छका पुस्तक भंडार देखते हुए मिला था और उसकी एक नकल सरस्वतीके विद्वान् संपादक श्रीयुत महावीरप्रसादजी द्विवेदीको दी गई थी। उसको उन्होंने सं० १९१२ के जूनके 'सरस्वती' के अंकमें प्रकाशित किया था। इस फर्मानपत्रमें बादशाहने हीरविजयसुरिको, उनके उपदेशसे, पर्युषणके आठ और दूसरे चार ऐसे बारह दिनतक जीवरक्षाका जो फर्मान दिया था उसका भी उमेख है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARRA विशेष कार्य सिद्धि । आदर करता था। इससे सरदार उमराव भी उन्हें बहुत मानते थे। कहा जाता है कि, एक वार बुरहानपुरमें बत्तीस चौर मारे जाते थे; उस समय दयाभावसे प्रेरित होकर वे बादशाहकी आज्ञा ले, स्वयं वहाँ गये थे और उन चोरोंको छुड़ाया था । 'जयदास जपो' नामका एक लाड बनिया हाथी तले कुचल कर मारा जाता था उसको भी उन्होंने छुड़ाया था। सिद्धिचंद्रजी जैसे विद्वान् थे वैसे ही शतावधानी भी थे। इससे बादशाह उन पर प्रसन्न रहता था। उनके चमस्कारसे चमत्कृत होकर ही उसने उन्हें 'खुशफहम' की मानप्रद पदवी दी थी। उन्होंने फारसी भाषा पर भी अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था इससे कई उमरावोंके साथ भी उनकी अच्छी मुलाकात हो गई थी। भिन्न भिन्न भाषाओंका ज्ञान, भिन्न भिन्न देशके मनुष्योंको उपदेश देनेमें अच्छी मदद देता है । कोई कितना ही विद्वान् हो, मगर यदि उसको भिन्न भिन्न भाषाओंका ज्ञान नहीं होता है तो वह अपने मनका भाव चाहिए उस तरहसे अन्यान्य भाषाएँ जाननेवालोंको नहीं समझा सकता है । केवल हिन्दी भाषाको जाननेवाला विद्वान अपनी विद्यासे बंगालियोंको लाभ नहीं पहुंचा सकता है और बंगाली भाषा ही जाननेवाले विद्वान्की विद्या हिन्दी या गुजराती भाषियोंके लिए निरुपयोगी है। इसीलिए तो प्राचीनकालमें जिसको आचार्य पदवी दी जाती थी उसकी पहिले यह जाँच करली जाती थी कि, वह विद्वान् होनेके साथ बहुतसी भाषाओंका जानकार भी है या नहीं ? अर्थात् आचार्यको भिन्न भिन्न देशोंकी भाषाएँ भी सीखनी पड़ती थीं। जो लोग उपदेशक हैं उन्हें इस बातका पूरा खयाल रखना चाहिए । ऋषभदास कविका कहना है कि, बादशाहने, सिदिचंद्रजी Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरीवर और लबाद। के साधुधर्मकी परीक्षा करनेके लिए उन्हें पहिले तो बहुत धनसम्पत्तिका लोभ दिखाया; जब वे लुब्ध न हुए तब उन्हें कत्ल करादेने की धमकी दी, परंतु सिद्धिचंद्रजी अपने धर्ममें दृढ रहे । उन्होंने लोम और धमकीका उत्तर इन शब्दोंमें दियाथा:--" इस तुच्छ लक्ष्मीका और सुख सामग्रियोंका मुझे क्या लोभ दिखाते हैं। अगर आप सारा राज्य देनेको तैयार होंगे तो मी मैं लेनेको तैयार न होऊँगा । जिसको तुच्छ, हेय समझकर छोड़ दिया है उसे पुनः ग्रहण करना थूकेको निगलना है । इन्सान ऐसा नहीं कर सकता । और मौत ? मौतका डर मुझे अपने चारित्रसे नहीं डिगा सकता । आज या दश दिन बाद नष्ट होनेवाला यह शरीर मुझे धर्मसे बढ़ कर प्यारा नहीं है।" सिद्धिंचद्रजीके कथनसे बादशाहको बहुत आनंद हुआ। उसने भक्तिपूर्वक उनकी चरणवंदना की। भानुचंद्रजी और सिद्धिचंद्रजी प्रायः बादशाहके सामने विजयसेनसूरिकी प्रशंसा करते रहते थे। बादशाहको भी यह बात याद थी कि हीरविजयसरिने अपने प्रधान शिष्य विजयसेनसूरिको भेजनेका वचन दिया है। एक वार बादशाह जब लाहोरमें था, तब उसके हृदयमें हीरविजयसूरिको बुलानेकी इच्छा हुई । उसने अबुल्फ़ज़लके सामने अपनी इच्छा प्रकट की। अधुल्फ़ज़लने कहा:--" हीरविजयसूरि वृद्ध हो गये हैं इस लिए उनको इस समय यहाँ तक बुलाना उचित नहीं है।" तत्पश्चात् उसने एक आमंत्रण पत्र विनयसेनसूरीको बुलानेके लिये भेजा, उसमें लिखा: "यद्यपि आप विरागी हैं परन्तु मैं रागी हूँ। आपने संसारके सारे पदार्थोंका मोह छोड़ दिया है इसलिए संभव है कि, आपने मेरा भी मोह छोड़ दिया हो और मुझे भुला दिया हो; परन्तु महाराज ! Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्यसिद्धि । १५९ मैं आपको नहीं भूला । समय समय पर आप मुझे कोई न कोई सेवाकार्य अवश्यमेव बताते रहें। इससे मैं समझँगा कि, मुझ पर गुरुजीकी कृपा अब भी वैसी ही है; और यह समझ मुझे बहुत आनंददायक होगी। आपको स्मरण होगा कि, रवाना होते समय आपने मुझे विजयसेनसुरिको यहाँ भेजनेका वचन दिया था । आशा है आप उन्हें यहाँ भेजकर मुझे विशेष उपकृत करेंगे । " उस समय सूरिजी राधनपुर में थे । बादशाहका पत्र पढ़कर सूरिजी बड़े विचारमें पड़े । अपनी वृद्धावस्थामें विजयसेनसूरिको अपनेसे जुदा करना - लंबी मुसाफिरीके लिए रवाना करनाउन्हें अच्छा नहीं लगता था, साथ ही बादशाहको जो वचन दिया था उसको तोड़ने का भी साहस नहीं होता था । अन्तमें उन्होंने विजयसेनरिको भेजना ही स्थिर किया। उन्होंने भी गुरुकी आज्ञाको मस्तक पर चढ़ाकर वि० सं० १६४९ मिगसर सुदी के दिन प्रयाण किया । वे पाटन, सिद्धपुर, मालवण, सरोत्तर, रोह, झुंडयला, कासदा, आबू, सीरोही, सादड़ी, राणपुर, नाडलाई, बांता, बगड़ी, जयतारण, मेडता, भरूंदा, नारायणा, झाक, सांगानेर, वैराट, बेरोन, रेवाड़ी, विक्रमपुर, झझर, महिमनगर और समाना होते हुए, लाहोर पहुँचे । लाहौर पहुँचनेके पहिले जब वे लुधियाने के पास पहुँचे, तब फैजी उनकी अगवानी के लिए आया था । नंदिविजयजीने अष्टावधान सिद्ध करके बताया। फैजी इससे प्रसन्न हुआ । उसने बादशाह के पास जाकर उनकी बहुत प्रशंसा की । विजयसेन सूरि जब लाहोरसे पाँच कोश दूर रहे तब भानुचंद्रजी आदि उनके सामने आये । लाहोर में प्रवेश करने के पहिले उन्होंने Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दूरीश्वर और सम्राट। खानपुरनामक स्थानमें मुकाम किया। विजयसनसूरिके प्रवेशोत्सवके मौके पर बादशाहने हाथी, घोड़े, बाजा आदि बादशाही सामान दे कर प्रवेशोत्सवकी शोभाको द्विगुण कर दिया । इस तरह के उत्सव सहित विजयसेनसूरीने लाहोरमें वि० सं० १६४९ (ई. सं० १९९४ ) के ज्येष्ठ सुदि १२ के दिन प्रवेश किया। विजयसेनसूरि भी अकबरके पास बहुत दिन तक रहे । उन्होंने अपनी विद्वत्तासे बादशाहको चमत्कृत करनेमें कोई कसर नहीं की । कहा जाता है कि, विजयसेनसूरि पहिले पहिल बादशाहसे लाहोरके 'काश्मीरीमहल' में मिले थे। हम पहिले यह बता चुके है कि नंदिविजयजी अष्टावधान साधते थे । ये विजयसेनसूरिके शिष्य थे । उन्होंने एक वार बादशाहकी सभामें भी अष्टावधान साधा, उस समय बादशाहक सिवा मारवाडके राजा मालदेवका पुत्र + उदयसिंह, जयपुरके राजा मानसिंह* कच्छवाह, खानखाना, अबुल्फ़ज़ल, आजमखाँ, जालौरका राजा ग़ज़नीखाँt और अन्यान्य राजामहाराजा एवं राजपुरुष वहाँ मौजूद थे। इन सबके बीचमें उन्होंने अष्टावधान साधा था । नंदिविजयजीका इस प्रकारका बुद्धिकौशल्य देखकर बादशाहने उनको 'खुशफहम ' की पदवीसे विभूषित किया था। ___ + यह उदयसिंह पन्द्रहसो सेनाका स्वामी था और मोटाराजा' के नामसे ख्यात था । विशेष जानने के लिए ब्लॉकमन कृत भाईन-इ-अकन. रीके प्रथम भागके अनुवादका ४१९ वाँ पृष्ठ देखना चाहिए । ____* यह मानसिंह जयपुरके राजा भगवानदासका पुत्र था । विशेष जानकारी के लिए ब्लॉकमॅन कृत आईन-इ-अकबरीके प्रथम भागके अंग्रेजी अनु. बादका ३३९ वा पृष्ठ देखना चाहिए । - यह चारसौ सेनाका नायक था। विशेष जाननेके लिए ब्लाकमेन कृत भाईन-इ-अकबरीके प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका ४९३ वाँ पृष्ठ देखो, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि। विजयसेनसूरिने थोड़े ही समयमें बादशाह पर अच्छा प्रभाव डाला था। इससे उनके लिए बादशाहके हृदयमें पूज्यभाव बढ़ गया। मगर जैनधर्मके कुछ द्वेषी मनुष्योंके लिए यह बात, असह्य हो गई। भारतवर्षकी अवनतिका कारण द्वेषभाव बताया जाता है । वह मिथ्या नहीं है । जबसे इस ईर्ष्यावृत्तिने भारतमें प्रवेश किया है तभीसे देश प्रतिदिन नीचे गिरता जा रहा है। कइयोंके तो आपसमें नित्यवरही हो गया है। ऐसे लोगोंमें ' यतियों' (साधुओं) 'ब्राह्मणों की गिनती पहिले की जाती है । इसी लिए वैयाकरणोंने 'नित्यवरस्य ' इस समास सूत्रमें 'अहिनकुलम् ' (सर्प और नकुल ) आदि नित्य वैरवालोंके उदाहरणोंके साथ ' यतिब्राह्मणम् । उदाहरण भी दिया है । यद्यपि यह प्रसन्नताकी बात है कि, आज इस जीतेजागते वैज्ञानिक युगमें धीरे धीरे इस वैरका नाश होता जारहा है और समयको पहिचाननेवाले यति ( साधु ) और ब्राह्मण आपसमें प्रेमसे रहने लगे हैं । मगर हम जिस समयकी बात कह रहे हैं उस समय ' यतिब्राह्मणम् ' का उदाहरण विशेष रूपसे चरितार्थ होता था, इतिहासकी कई घटनाएँ इस बातको प्रमाणित करती हैं। विजयसेनसूरि लाहोरमें जब अकबरके पास थे उस समय भी एक ऐसी ही बात हो गई थी। कहा जाता है कि, जब अकबर विजयसेनसृरिका बहुत ज्यादा सम्मान करने लगा और बार बार उनका उपदेश सुनने लगा। वहाँके जैन बड़े बड़े उत्सव करते उनमें भी बादशाह सहायता देने लगा, तब कई असहनशील ब्राह्मणोंने मौका देखकर बादशाहके हृदयमें यह बात जमा दी कि, जैनलोग जब परमकृपालु परमात्माहीको नहीं मानते हैं तब उनका मत फिर किस कार्यका है ? जो लोग ईश्वरको नहीं मानते हैं उनकी सारी क्रियाएँ निकम्मी हैं।" 21 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । कहावत है कि – ' राजालोग कानोंके कच्चे और दूसरोंकी आँखोंसे देखनेवाले होते हैं । यह कहावत सर्वथा नहीं तो भी कुछ अंशो में सत्य जरूर है । प्रायः राजा लोग अपने पास रहनेवाले लोगोके कथनानुसार वर्ताव करनेवाले ही होते हैं। किसी बातकी पूरी तरहसे जाँच करके अपनी बुद्धिके अनुसार फैसला करनेवाले बहुत ही कम होते हैं । यही सबब है कि, भारतवर्ष में अब भी कई देशीराज्योंकी प्रजा इतनी दुःखी है कि, जिसका वर्णन नहीं हो सकता । पार्श्ववर्ती मनुष्योंके हाथका खिलौना बना हुआ राजा यदि राजधर्मको भूल जाय तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । जब आजके जैसे आगे बढ़े हुए जमाने में भी ऐसी दशा है तो सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दिमें अकबर बादशाह यदि विद्वान् गिने जाने वाले पंडितों के बहकाने से बहक गया तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ફર ब्राह्मणोंके उक्त कथनसे बादशाह के दिलमें चोट लगी । उसने विजयसेनसुरिको बुलाया और अपने हार्दिकभावको प्रकट न होने देकर उनसे ब्राह्मणोंने जो कुछ कहा था उसकी सत्यासत्यता के लिए पूछा । विजयसेनसूरिने कहा:" यदि इसका निर्णय करना । हो तो आपकी अध्यक्षा में एक सभा हो और उसमें इस बातका उहापोह किया जाय ! ” बादशाहने स्वीकार किया । दिन मुकर्रर करके सभा बुलाई गई । उसमें अनेक विद्वान् ब्राह्मण अपना मत समर्थन करनेके लिए जमा हुए। जैनियोंकी तरफसे केवल विजयसेनमूरि नंदिविजयजी और दो चार अन्यान्य मुनि थे । वास्तविक रूपसे तो बाद करने में एक विजयसेनसूरि ही थे । इस सभा में दोनों पक्षोंने अपने अपने मतका प्रतिपादन किया । अर्थात् ब्राह्मणोंने यह पक्ष प्रतिपादन किया कि जैन ईश्वरको नहीं Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि । मानते हैं । विजयसेनसरिने बताया कि, जैन ईश्वरको किस तरह मानते हैं ? उसका स्वरूप कैसा है ? कर्ममुक्त और सांसारिक बंधनोंसे छूटे हुए ईश्वरको जगत्का कर्ता माननेसे-उसको जगत् रचनाके प्रपंचमें गिरने वाला माननेसे-उसके स्वरूपमें कैसे कैसे विकार हो जाते हैं; उसके ईश्वरत्वमें कैसी कैसी बाधाएँ आजाती हैं, सो बताया और साथ ही हिन्दुधर्मग्रंथोंसे यह भी सिद्ध कर दिखाया कि, जैनलोग वास्तवमें ईश्वरको माननेवाले हैं। जिस स्वरूपमें वे ईश्वरको मानते हैं वह स्वरूपही वास्तवमें सत्य है । बादशाह विजयसेनसूरिकी अकाट्य युक्तियों और शास्त्रप्रमाणोंसे बहुत प्रसन्न हुआ उसने अध्यक्षकी हैसियतसे कहा:" जो लोग कहते हैं कि जैन ईश्वरको नहीं मानते हैं वे सर्वथा जूठे हैं । जैन लोग ईश्वरको उसी तरह मानते हैं जिस तरहसे कि, उसे मानना चाहिए। ____ इसके सिवा ब्राह्मण पंडितोंने यह भी कहा था कि, जैन लोग सूर्य और गंगाको नहीं मानते हैं। इसका उत्तर भी विजयसेनमृरिने बहुत ही संक्षेपमें, मगर उत्तमताके साथ दिया। उन्होंने कहा:--" जिस तरह हम जैनलोग सूर्यको और गंगाको मानते हैं उस तरह दूसरा कोई भी नहीं मानता है। यह बात मैं दावेके साथ कह सकता हूँ। हम सूर्यको यहाँ तक मानते हैं, यहाँ तक उसका सम्मान करते हैं कि उसकी उपस्थितिक विना जल भी ग्रहण नहीं करते हैं । यह कितना सम्मान है ? यह कितनी दृढ मान्यता है ? जरा सोचनेकी बात है कि, जब कोई जैनोंने जो ईश्वरका स्वरूप माना है वह संक्षेपमें पाँचवें प्रकरणमें लिखा जा चुका है । इसलिये यहाँ उसकी पुनरावृत्ति नहीं की गई है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L सूरीश्वर और सम्राट् । मरजाता है तब उसके संबंधी मनुष्य, और यदि राजा मरजाता है तो उसकी प्रजा उस समय तक अन्न नहीं ग्रहण करते हैं जब तक कि, उस व्यक्तिका या उस राजाका अग्निसंस्कार नहीं हो जाता है । तब, दिवानाथ - सूर्यकी अस्तदशामें ( रात में ) भोजन करनेवाले यदि सूर्यको माननेका दावा करते हैं तो वह दावा कहाँ तक सही हो सकता है ? इस बातको हरेक बुद्धिमान समझ सकता है। इस लिए वास्तविक रूपसे सूर्यको माननेवाले तो हम जैन ही हैं। " गंगाजीको माननेका उनका दावा भी इसी तरहका है । गंगाजीको माता - पवित्र माता मानते हुए भी उसके अंदर गिर कर न्हाते हैं, उसमें कुरले करते हैं । और तो क्या, विष्ठा और पेशाब भी उसके अंदर डालते हैं । गतप्राण मनुष्यके मुर्देको - जिसको छूने से भी हम अभड़ाते है-और उसकी हड्डियोंको पवित्र गंगामाताके समर्पण करते हैं । यह है उनकी गंगा माताकी मान्यता ! यह है उनका गंगा माताका सम्मान ! पवित्र और पूज्य गंगा माताकी भेटमें ऐसी वस्तुएँ रखनेवाले भक्तोंकी भक्ति के लिए क्या कहा जाय ? मगर हमारे यहाँ तो गंगाके पवित्र जलका उपयोग बिंबप्रतिष्ठादि शुभ कार्यों में ही किया जाता है । इस व्यवहारसे बुद्धिमान लोग समझ सकते हैं कि, गंगाजीका सच्चा सत्कार हम जैन लोग करते हैं या मेरे सामने बाद करने के लिए खड़े हुए ये पंडित लोग ? " सूरिजीकी इन अकाट्य और प्रभावोत्पादक युक्तियोंसे सारी सभा चकित हुई । पंडित निरुत्तर हुए और बादशाहने प्रसन्न हो कर विजयसेनसूरको 'सूरसवाई' की पदवी दी । अब बार बार यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि, श्रीविजयसेनसूरिने भी बादशाहको हीरविजयसूरिकी भाँति ही आकर्षित Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AHAJAN विशेष कार्य सिद्धि। किया था। उन्होंने बादशाहसे उपदेश देकर अनेक कार्य करवाये थे। उनमेंसे मुख्य ये हैं,-गाय, भैंस, बैल और भैंसेकी हिंसाका निषेध, मृत मनुष्यका कर लेनेका निषेध, आदि । उनके उपदेशसे बादशाहने जो कार्य किये थे उनका पूरा वर्णन 'विनयप्रशास्ति काव्य में है। पं. दयाकुशल गणिने भी 'लाभोदय रास' नामके ग्रंथमें, विजयसेनसूरिके उपदेशसे बादशाहने जो कार्य किये थे उनका वर्णन किया है। उसका भाव यह है: " अकबर बादशाहने गुरुको जो बख्शिशें दीं, उनको सुनकर हृदय प्रसन्न होता है और इस तरहकी माँग करनेवाले गुरुके लिए जबान धन्य धन्य कह उठती है। बादशाहने गुरुकी (विनयसेनसूरिकी) इच्छानुसार सिंधु नदीमें और कच्छके जलाशयोंमें-जिनमें मच्छियाँ मारी जाती थीं-चार महीने तक जाल डालना बंद करके, वहाँकी मछलियोंके प्राण बचाये । गाय, भैंस, बैल और भैंसोंका मारना बंद किया, (युद्ध में ) किसीको कैद नहीं करना स्थिर किया और मृतक मनुष्यका 'कर' लेना रोक दिया।" ___ अब तक जो बातें लिखी गई हैं उनसे यह स्पष्ट हो चुका है कि, आचार्य श्रीहीरविजयसूरि, श्रीशान्तिचंद्र उपाध्याय, श्रीभानुचंद्र उपाध्याय और श्रीविजयसेनसूरिने अकबर बादशाह पर प्रभाव डाल कर जनहितके, धर्मरक्षाके और जीवदयाके अनेक कार्य करवाये थे । गुजरातमें से 'जज़िया' उठवाया था। सिद्धाचल, गिरिनार, तारंगा, आबू, ऋषभदेव, राजगृहीके पहाड और सम्मेतशिखर आदि तीर्थ श्वेतांबरोंके हैं । इसका एक * परवाना लिया था। सिद्धाचलजीमें जो 'कर' . *यह असल परवाना अहमदाबादके सेठ आनंदजी कल्याणजीकी पेढीमें मौजूद है। उसका अंग्रेजी अनुवाद राजकोटके राजकुमार कॉलेजके मुम्शी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । LAVANAMA प्रत्येक यात्रीसे लिया जाता था, बंद कराया; मृत मनुष्यका धन ग्रहण करनेका और युद्धमें बंदी-कैदी बनानेका निषेध कराया। इनके अलावा पक्षियोंको पिंजरे से छुड़ाना; तालाबमेंसे जीवोंको छुड़ाना; गाय, भैंस, बैल, मैंसे आदिकी हिंसा रोकना आदि अनेक कार्य कराये थे। समय समयपर हिंसाके समय, बादशाहको उपदेश देकर हिंसा रोकी थी। सबसे महत्त्वका जो कार्य बादशाहसे उन्होंने कराया वह समस्त मुगल राज्यमें एक वर्षमें छः महीने और छः दिन तक कोई भी व्यक्ति हिंसा न करे इसका ढेढेरा था। इन दिनोंकी ठीक ठीक गिनती करना कठिन है । कारण, यद्यपि हीरसौभाग्यकाव्य, हीरविजयसूरिरास, धर्मसागरकी पट्टावली, पालीतानेका वि० सं० १६५० का शिलालेख और जगद्गुरुकाव्य आदि जुदे जुदे अनेक जैनग्रंथोंमें अकबरने जीवदया पालनेके जो महीने और दिन नियत किये थे उनका उल्लेख है, तथापि उनमें कई महीने मुसलमानी त्योहारों के होनेसे यह निर्णय होना कठिन है कि- उन महीनोंके कितने कितने दिन गिनने चाहिए अथवा उनमें किन किनका समावेश हो जाता है ? महम्मद अब्दुल्लाहने किया है । इस परवानेसे स्पष्टतया मालूम होता है कि वह हीरविजयसूरिके उपदेशसे दिया गया था । कई लोग कहते हैं कि उपर्युक्त तीर्थ श्वेतांबरोंके नहीं हैं मगर उनका यह कथन मिथ्या है। कारण-प्रथम उपर्युक्त परवाना है; दूसरे परवाना देनेके अमुक समय बाद अकबरने मंत्री कर्मचंद्रको-जो खरतरगच्छीय श्वेताम्बर जैन था; जो अकबरका मंत्री थाउक्त तीर्थ दिये हैं । इसका उल्लेख बादशाहके समकालीन पं० जयसोमने भी अपने बनाये हुए 'कर्मचंद्रचरित्र' नामके ग्रंथमें इस तरह किया है: "नाथेनाथ प्रसन्नेन जैनास्तीस्सिमेऽपि हि । मंत्रिसाद्विहिता नूनं पुंडरीकाचलादयः ॥” ३९६ ॥ अर्थात्-बादशाहने प्रसन्न होकर पुंडरीक (सिद्धाचल ) आदि समस्त जैनतीर्थ मंत्रीको दे दिये । इसी प्रकार - लाभोदयरास' में भी कहा है Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि। ऐसा होने पर भी यह तो स्थिर है कि, पहिले गिनाये गये हैं उनमें व उनमेंके अमुक अमुक दिनोंमें बादशाहने अपने समस्त राज्यमें जीवहिंसाका निषेध किया था । उन दिनोंमें स्वयं बादशाह भी मांसा. हार नहीं करता था। इस बातको अन्यान्य जैनेतर लेखकोंने भी माना है । बंकिमचंद्र लाहिडीने अपने ' सम्राट् अकबर' नामक बंगाली ग्रंथमें लिखा है: ___“सम्राट् रविवारे, चंद्र ओ सूर्यग्रहणदिने एवं आर ओ अन्यान्य अनेक समये कोन मांसाहार करितेन ना। रविवार ओ आर ओ कतिपय दिने पशुहत्या करिते सर्व साधारणके निषेध करिया छिलेन ।” अर्थात् -सम्राट् रविवारके दिन, चंद्र और सूर्यग्रहणके दिन और अन्य भी कई अन्यान्य दिनोंमें मांसाहार नहीं करता था । रविवार और अन्यान्य कई दिनोंमें उसने सर्वसाधारणमें पशुहत्यानिषेधकी मुनादी करवा दी थी। इसी तरह अकबरका सर्वस्व गिना जानेवाला; अकबरके साथ रातदिन रहनेवाला शेख अबुल्फ़ज़ल अपनी पुस्तक 'आईन-इ-अकबरी' में लिखता है: ___“ Now, it is his intention to quit it by degrees, conforming, however, a little to the spirit of the age. His Majesty abstained from meat for some time on fridays, and then on Sundays; now on the first day of every solar month, on Sundays, on solar and lunar eclipses, on days between two fasts, on the Mondays of the months of Rajab, on the feastday of the every solar month, during the whole month of Farwardin and during the month, in which His Majesty was born, viz, the month of Aban. [The Ain-i-Akbari translated by H. Blochmann M. A. Vol. I p. p. 61-62.] Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सूरीश्वर और सम्राट्। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm अर्थात्-वह ( अकबर ) आयुकी लागणियोंका कुछ अंशोमें पालन करता हुआ भी शनैः शनैः मांसाहार छोड़नेका इरादा रखता है । वह बहुत दिन तक प्रत्येक शुक्रवार और पश्चात् रविवारके दिन मांसाहार का परहेज करता रहा था । अब प्रत्येक सौर महीनेकी प्रतिपदाको, रविवारको, सूर्य और चंद्र ग्रहणके दिनोंमें दो उपवासोंके बीचके दिनोंमें, रजब महीनेके सोमवारोंमें, सौर मासके प्रत्येक त्योहारमें, फरवरदीनके महीनेमें और बादशाह जन्माथा उस सारे महीनेमें-यानी सारे अबान महीनेमें मांसाहार नहीं करता है। जैन लेखकोंके कथनकी सत्यता अबुल्फनलके उपर्युक्त कथन से दृढ होती है । कारण-जैनलेखकोंने जो दिन गिनाये हैं, लगभग वे ही दिन अवुल्फ़ज़लने भी गिनाये हैं। अलावा इसके जैनलेखकोंने बादशाहके छ: महीने तक मांसाहार त्यागकी और छः महीने और छः दिन तक समस्त देशमें जीवहिंसा निषेधकी जो बात लिखी है वह बात बादशाहकी समाके सदस्य, कट्टर मुसलमान बदाउनीके निम्नलिखित कथनसे भी पुष्ट होती है। « At this time His Majesty promulgated some of his new-faugled decrees. The Killing of animals on the first day of the week was strictly prohibited, (P. 322 ) because this day is secred to the Sun, also during the first eighteen days, of the month of Farwardin; the whole of the month of Aban ( the month in which His Majesty was born ); and on several other days, to please the Hindus. This order was extended over the whole realm and punishment was inflicted on every one, who acted against the Command, Many a family was ruined, and his pro. perty was confiscated. During the time of those fasts Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि । the Emperor abstained altogether from meat as a religious penance, gradually extending the several fasts during a year over six months and even more, with a view to eventually discontinuing the use of meat altogether.” [Al-Badaoni, Translated by W. H. Lowe, M. A., Vol. II, p. 331.] ___अर्थात्-इस समय बादशाहने अपने कुछ नवीन प्रिय सिद्धान्तोंका प्रचार किया था । सप्ताहके पहिले दिनमें प्राणीवध निषेधकी कठोर आज्ञा थी; कारण यह सूर्यपूजाका दिन है। फरबरदीन महीनेके पहिले अठारह दिनोंमें, आवानके पूरे महीनेमें ( जिसमें बादशाह का जन्म हुआ था ) और हिन्दुओंको प्रसन्न करनेके लिए और भी कई दिनोंमें प्राणी-वधका निषेध किया था। यह हुक्म सारे राज्यमें जारी किया गया था। इस हुक्मके विरुद्ध चलनेवालेको सजा दी जाती थी। इससे अनेक कुटुंब बर्बाद हो गये थे और उनकी मिल्कते जब्त कर ली गई थी। इन उपवासोंके दिनोंमें, बादशाहने धार्मिक तपश्चरणकी भाँति मांसाहारका सर्वथा त्याग किया था। शनैः शनैः वर्षमें छः महीने और उससे भी ज्यादा दिन तक उपवास करनेका अभ्यास वह इसलिए करता गया कि, अन्तमें मांसाहारका वह सर्वथा त्याग कर सके। बदाउनीने ऊपर ' हिन्दु ' शब्दका उपयोग किया है। उससे जैन ही समझना चाहिए । कारण-पशुवधका निषेध करने और जीवदया संबंधी रानामहाराजाओंको उपदेश देनेमें यदि कोई प्रयत्नशील रहा हो तो वे जैन ही हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ भी अपने अकबर नामक पुस्तकके ३३५ वे पेजमें स्पष्टतया लिखता 22 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । “ He cared little for flesh food, and gavo up the use of it almost entirely in the later years of his life, when he came under Jain influence." अर्थात्-मांसाहार पर बादशाहकी बिलकुल रुचि नहीं थी। और अपनी पिछली जिन्दगीमें तो जबसे वह जैनोंके समागममें आया तभीसे, उसने इसका सर्वथाही त्याग कर दिया । इससे सिद्ध होता है कि, बादशाहसे मांसाहार छुड़ानेमें और जीववध बंद करानेमें श्रीहीरविजयसूरि आदि जैनउपदेशकोंका उपदेशही कारगर हुआ था। डॉ. स्मिथ यह भी लिखते हैं कि, “ But the Jain holy men undoubtedly gave Akbar prolonged instruction for years, which-largely influenced his actions ; and they secured his assent to their doctrines so far that he was reputed to have been converted to Jainism. " [Jain Teachers of Akber by Vincent A. Smith.] ___ अर्थात्-मगर जैनसाधुओंने वर्षों तक अकबरको उपदेश दिया था। बादशाहके कार्यों पर उस उपदेशका बहुत प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपने सिद्धान्त उससे यहाँ तक मनवा दिये थे कि, लोग उसे जैनी समझने लग गये थे । लोगोंकी यह समझ केवल समझ ही नहीं थी, बल्कि उसमें वास्तविकता भी थी। कई विदेशी मुसाफिरोंको भी अकबरके व्यवहारोंसे यह निश्चय हो गया था कि, अकबर जैनसिद्धान्तोंका अनुयायी था। इसके संबंध डॉ. स्मिथने अपने 'अकबर' नामक ग्रंथमें एक मार्केकी बात प्रकट की है। उसने उक्त पुस्तकके २६२ वें पृष्ठमें पिनहरो ( Pinheiro ) नामके एक पोटुगीज़ पादरीके पत्रके उस Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्यसिद्धि। अंशको उद्धृत किया है जो उपर्युक्त कथनको प्रमाणित करता है। यह पत्र उसने लाहौरसे ता. ३ सितंबर सं. १५९५ के दिन लिखा था । उसमें उसने लिखा था,___" He follows the sect of the Jains ( Vertei ). __ अर्थात-अकबर जैनसिद्धान्तोंका अनुयायी है। उसने कई जनसिद्धान्त भी उस पत्रमें लिखे हैं । इस पत्रके लिखनेका वही समय है जिस समय विजयसेनसूरि लाहोरमें अकबरके पास थे । ___ इस प्रकार विदेशियोंको भी नत्र अकबरके वर्तावसे यह कहना पड़ा था कि, अकबर जैनसिद्धान्तोंका अनुयायी है, तब यह बात सहज ही समझमें आजाती है कि, अकबरकी वृत्ति बहुत ही दयालु थी। और उस वृत्तिको उत्पन्न करनेवाले जैनाचार्य-जैनउपदेशक ही थे। इसके लिए अब विशेष प्रमाण देनेकी आवश्यकता नहीं है। यह ऊपर कहा जाचुका है कि, बादशाहने अपने राज्यमें एक घरसमें छः महीनेसे भी ज्यादा दिनके लिए जीववधका निषेध कराया था, और उन दिनोंमें वह मांसाहार भी नहीं करता था। यह कार्य उसकी दयालुताका पूर्ण परिचायक है। पाँच पाँचसौ चिड़ियोंकी जीमें मो नित्य प्रति खाता था, मृगादि पशुओंकी जो नित्य शिकार करता था वही मुसलमान बादशाह हीरविजयमूरि आदि उपदेशकोंके उपदेशसे इतना दयालु बन गया, यह बात क्या उपदेशकोंके लिए कम महत्त्वकी है ? जैनसाधुओंके ( जैनश्रमणों) के उपदेशके इस महत्त्वको बदाउनी भी स्वीकार करता है । वह लिखता है: " And Samanas and Brahmans ( who as far as the matter of private interviews is concerned (p. 257) gained the advantage over every one in attaining the honour of interviews with His Majesty, and in Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सूरीश्वर और सम्राट् । associating with him, and were in every way superior in reputation to all learned and trained men for their treatises on morals, and on physical and religious sciences, and in religious ecstacies, and stages of spiritual progress and human perfections.) brought forward proofs, based on reason and traditional testimony, for the truth of their own, and the fallacy of our religion, and inculcated their doctrine with such firmness and assurance, that they affirmed mere imagination as though they were selfevident facts, the truth of which the doubts of the sceptic could no more shake. [Al-Badaoni Translated by W. H. Lowe. M. A. Vol. II. p. 264.] अर्थात् सम्राट् अन्य संप्रदायोंकी अपेक्षा श्रमणों * (जनसाधुओं) और ब्राह्मणोंसे एकान्तमें विशेषरूपसे मिलता था । उनके सहवासमें विशेष समय बिताता था । वे नैतिक, शारीरिक, धार्मिक और आध्यास्मिक शास्त्रोंमें, धर्मोन्नतिकी प्रगतिर्मे और मनुष्यजीवनकी सम्पूर्णता प्राप्त करनेमें दूसरे समस्त ( सम्प्रदायों ) विद्वानों और पंडित पुरुषोंकी अपेक्षा हरतरहसे उन्नत थे । वे अपने मतकी सत्यता और हमारे * " क्योंकि उस समय में " समय भी पंजाब । दूसरी बात मूल फारसी पुस्तक के ' सेवड़ा : शब्दको अनुवादक ने 'Samanas ' ( श्रमण ) लिखा है, किन्तु यहाँ चाहिये ' सेवड़ा अनसाधु सेवड़ा ' के नामसे पहचाने जाते थे । इस आदि कई देशों में जैन साधुओं को ' सेवडा ' कहते हैं कि-इंस अंग्रेजी अनुवादक डबल्यु. एच. लॉ, एम. ए. फुटनोटमें 'श्रमण का अर्थ ' बौद्धश्रमण ' किया है । ठीक नहीं है । बादशाह के दरबार में बौद्धश्रमण तो कोई गया इस विषय में इसी प्रकरण में आगे चल कर विशेष प्रकाश डाला जायगा । यहाँ सेवड़ाका अर्थ जैनसाधु ही समझना चाहिए । ने > मगर यह भी भां नहीं था । यह है अपने अनुवाद के Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्यसिद्धि। ( मुसलमान ) धर्मके दोष बतानेके लिए बुद्धिपूर्वक, परंपरागत प्रमाण देते थे। वे ऐसी दृढता और युक्तिसे अपने मतका समर्थन करते थे कि, उनका कल्पना तुल्य मत स्वतः सिद्ध प्रतीत होता था। उसकी सत्यता के विरुद्ध नास्तिक भी कोई शंका नहीं उठा सकता था।" इतना सामर्थ्य रखनेवाले जैनसाधु अकबर पर इतना प्रभाव डाले, यह बात क्या होने योग्य नहीं है ? अस्तु ।। अकबरने अपने वर्तावमें जब इतना परिवर्तन कर दिया था, तब इससे यह परिणाम निकालना क्या बुरा है कि अकबरके दया संबंधी विचार बहुत ही उच्च कोटि पर पहुँच गये थे। इस बातको दृढ करने वाले अनेक प्रमाण भी मिलते हैं। बादशाहने राजाओंके जो धर्म प्रकाशित किये थे उनमें एक यह धर्म भी था, " x संसार दयासे जितना वशमें होता है उतना दूसरी किसी भी चीनसे नहीं होता। दया और परोपकार, ये सुख दीर्घायुके कारण हैं।" अबुल्फज़ल लिखता है,-"अकबर कहा करता था कि, यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि, मांसाहारी जीव सिर्फ मेरे शरीरको खाकर ही तृप्त हो जाते और दूसरे जीवोंके भक्षणसे दूर रहते तो मेरे लिए यह बात बड़े सुखकी होती । या मैं अपने शरीरका एक अंश काटकर मांसाहारियोंको खिला देता और फिरसे वह अंश प्राप्त हो जाता तो मैं बड़ा प्रसन्न होता । मैं अपने एक शरीरद्वारा मांसाहारियोंको तृप्त कर सकता । "+ __दया संबंधी कैसे सुंदर विचार हैं ! मांसाहारियोंको अपना शरीर खिलाकर तृप्त करने और दूसरे जीवोंको बचानेकी भावना _* आईन-इ-अकबरी, खंड तीसरा, जेरिटकृत अंग्रेजी अनुवाद. पे० ३८३ + आईन-इ-अकबरी, खंड ३ रा, पृ. ३९५. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । उच्च कोटिकी दयालुवृत्ति रखनेवाले व्यक्तिके सिवा अन्य कौन कर सकता है ? अबुल्फ़ज़ल आईन-इ-अकबरीके पहिले भागमें एक स्थान पर लिखता है: __“ His Majesty cares very little for meat, and often expresses himself to that effect. It is indeed from ignorance and cruelty that, although various Kinds of food are obtainable, men are bent upon injuring living creatures, and lending a ready hand in killing and eating them; none seems to have an øye for the beauty inherent in the prevention of cruelty, but makes himself a tomb for animals. If His Majesty had not the burden of the world on his shoulders, he would at once totally abstain from meat. [Ain-i-Akbari by H. Blochmann Vol. I. p. 61]. भावार्थ:-सम्राट् मांसकी बहुत ही कम परवाह करते हैं। और प्रायः इसके संबन्धमें अपनी सम्मति भी प्रकट किया करते हैं कि, यद्यपि अनेक प्रकारके खाद्य पदार्थ मिलते हैं, तथापि मनुष्य जीवित प्राणियोंको दुःख देने, मारने और भक्षण करनेकी ओर प्रवृत्त रहते हैं । इसका कारण उनकी अज्ञानता तथा निर्दयता है । कोई भी आदमी निर्दयताको रोकनेमें जो आन्तरिक सौन्दर्य है उसको नहीं देखता । प्रायः लोग अपने शरीरको पशुओंकी कब्र बनाया करते हैं । अगर बादशाहके कंधोंपर संसारका ( राजकारोबारका ) बोझा न होता सो, वह मांसाहारसे सर्वथा दूर ही रहता ।" इसी तरह डा० विन्सेंट स्मिथने भी अकबरके विचारोंका उल्लेख किया है । वह लिखता है: Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्यसिद्धि । " Men are so accustomed to eating meat that, were it not for the pain, they would undoubtedly fall on to themselves. "" "From my earliest years, whenever I ordered animal food to be cooked for me, I found it rather tasteless and cared little for it. I took this feeling to indicate the necessity for protecting animals, and I refrained from animal food. " "Men should annually refrain from eating meat on the anniversary of the month of my accession as a thanks-giving to the Almighty, in order that the year may pass in prosperity. "" Butchers, fishermen and the like who have no other occupation but taking life should have a separate quarter and their association with others should be prohibited by fine. 66 "3 [Akbar The Great Mogal, pp. 335-336.1 अर्थात् — “ मनुष्योंको मांसाहारकी ऐसी खराब आदत पड़ जाती है कि, यदि उन्हें दुःख न हो तो वे अपने शरीरको भी खा जायँ । ” " मुझे अपनी छोटी उम्रहीसे मांसाहार नीरस लगता है । जब कभी मैं आज्ञा देकर मांस बनवाता था तब भी उसको खानेकी बहुत ही कम परवाह करता था । इसी स्वभावसे मेरी दृष्टि पशुरक्षाकी ओर गई और मैंने पीछेसे मांसाहारका सर्वथा त्याग कर दिया । " " मेरे राज्याभिषेककी तारीखके दिन प्रतिवर्ष, ईश्वरका उपकार माननेके लिए किसी भी मनुष्यको मांस नहीं खाना चाहिए, जिससे सारा वर्ष आनंदके साथ निकले । " Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। " कसाई मच्छीमार और ऐसे ही दूसरे मनुष्योंक-जिनका रोजगार हिंसा करना ही है-निवासस्थान बसतीसे अलग होने चाहिए।" ___ जीवदयाके ये कितने अच्छे विचार हैं ! जीवदयाहीके क्यों अपनी उस प्रनाके-जो जीवहिंसा और मांसाहारसे घृणा करती थी-अन्त:करण दुःखी न हों इसका भी पूरा खयाल रखता था । मुसलमान सम्राट अकबरके उपर्युक्त विचारों और कार्यों पर आर्यावर्तके उन देशी राजाओंको ध्यान देना चाहिए कि, जो अपनी प्रजाके सुखदुःखका कुछ भी खयाल नहीं रखते हैं । अस्तु । . ऊपरके वृत्तान्तसे हमें यह तो निश्चय हो चुका है कि, अकबरकी जीवनमूर्तिको सुशोभित-देदीप्यमान करनेके लिए जैसी चाहिए वैसी चतुराई यदि किसीने दिखाई हो तो वे हीरविजयसूरि आदि जैनसाधु ही थे। दूसरे शब्दोंमें कहें तो अकबर बादशाहकी जीवनयात्राको सफल बनानेमें सबसे ज्यादा प्रयत्न हीरविजयसूरि आदि जैनसाधुओंने ही किया था । इतना होने पर भी आश्चर्य इस बातका है कि अकबरका जीवन लिखनेवाले जैनेतर लेखकोंने, इस बातका उल्लेख नहीं किया है कि, अकबर पर जैनसाधुओंका कितना प्रभाव था । इसका मूलकारण क्या है ? इसका विचार करना यहाँ उचित होगा। . यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि,-अकबरके दर्बारमें रहने वाले शेख अबुल्फजल और बदाउनी अकबरके समयका खास इतिहास लिखनेवाले हैं। अकबरके विषयमें आजतक जो कुछ लिखा गया है उन्हींके ग्रंथोंके आधारसे लिखा गया है। वे ( अबुल्फ़ज़ल और बदाउनी) अकबरके ऊपर प्रभाव डालनेवालोंमें 'जैनसाधुओं का नाम देना भूले नहीं है. इतना जरूर है कि उन्होंने : जैनसाधु' शब्द न लिखकर Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि। उनका परिचय, 'श्रमण'' सेवड़ा ' या ' यति ' के नामसे कराया है । वे यह लिखना नहीं भूले हैं कि अकबरके दर्बारमें जैनसाधु गये थे और उस पर इनका खूब प्रभाव पड़ा था। मगर पीछेसे जितने इतिहासलेखक और अनुवादक हुए हैं उन्हींने असली बातको छिपाया है । यह बात उनके ग्रंथोंको ध्यानपूर्वक देखनेसे तत्काल ही मालुम हो जाती है । विशेष आश्चर्यकी बात तो यह है कि, अबुरफ़ज़लने आईन-इ-अकबरीके दूसरे भागके तीसवे आईनमें अकबरकी धर्मसभाके १४० मेम्बरोंको पाँच श्रेणियों में विभक्त करके उनकी जो लिस्ट दी है उसमें प्रथम श्रेणीमें हरिजीसूर ( हीरविजयसूरि ) और पाँचवीं श्रेणीमें विजयसेनसूर और भानचंद (विजयसेनसूरि और भानुचंद्र)नाम दिये हैं। उनके होते हुए भी ये कौन थे ? किस धर्मके अनुयायी थे ? यह जाननेका प्रयत्न अनुवादकों और लेखकोंने नहीं किया। यदि वे प्रयत्न करते और जैनधर्मसे परिचय करते तो उन्हें तत्काल ही मालूम हो जाता कि, जिन तीन नामोंका उल्लेख अबुल्फज़लने किया है वे बौद्ध श्रमणों या अन्य धर्मवालोंके नहीं हैं; परन्तु जैनसाधुओंके ही हैं। ऐसा होने पर इतिहासमें आज जो छिपानेका कार्य हो रहा है वह न होता । इस छुपानेके कार्यसे अलग रह कर इतिहास क्षेत्रमें सत्यमूर्यका प्रकाश डालनेका सौभाग्य आज तक अजैन विद्वानोंमेंसे यदि किसीने प्राप्त किया है तो वह ' अकबर दी ग्रेट मुगल , ( Akbar the Great Mogul ) नामक ग्रंथका लेखक डॉ० विन्सेंट. स्मिथ ही है । वह बहुत खोज करनेके बाद लिखता है कि, "अबुल्फज़ल और बदाउनीके ग्रंथों के अनुवादकोंने अपनी अनभिज्ञताके कारण ही 'जैन ' शब्दके बनाय · बौद्ध ' शब्दका प्रयोग किया है। कारण अबुल्फज़लने तो अपने ग्रंथमें स्पष्ट लिखा है कि,-सूफी, दाशनिक, तार्किक, स्मार्त, सुन्नी, शिया, ब्राह्मण, यति, सेवड़ा, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूरीश्वर और सम्राट्। चार्वाक, नाजरीन, यहूदी, साबी और पारसी आदि प्रत्येक वहाँके धर्मानुशीलनका अपूर्व आनंद लेते थे।" इस स्थानमें ' यति ' और 'सेवड़ा' शब्द हैं वे जैनसाधुओंके लिए आये हैं। बौद्धसाधुओंके लिए नहीं । तो भी जैसा कि डॉक्टर स्मिथ कहते है कि,-मि० चैलमर्सने अकबरनामाके अंग्रेजी अनुवादमें भूलसे उनका अर्थ 'जैन और बौद्ध , किया था। उनके बाद मुसलमानी इतिहासके संग्रहकर्ता इलियट और डाउसनने भी वही भूल की । इन तीनोंकी भूलने वाननोअरको भी भूल करनेके लिए वाध्य किया । इस तरह हरेक लेखक, एकके बाद दूसरा, भूल करता गया और उसका परिणाम यहाँ तक पहुँचा कि, जैनेतर लेखकोंने 'जैन' शब्को सर्वथा उड़ा ही दिया । अब जहाँ देखो वहीं 'बौद्ध शब्द ही दिखाई देता है । आधुनिक हिन्दी, बंगाली या गुजराती लेखकोंने भी ऐसी ही भूलकी है । मगर किसीने यह जाननेकी कोशिश नहीं की कि, वास्तवमें अकबरके दरबारमें कोई बौद्धसाधु था या नहीं ? या अकबरने कभी बौद्धसाधुओंका उपदेश सुना भी था या नहीं ? . वस्तुतः खोजनेसे यह पता चल चुका है और निर्विवाद यह बात मान ली गई है कि, अकबरको कभी किसी बौद्ध विद्वान्के साथ समागम करनेका अवसर नहीं मिला था। इसके लिए अनेक प्रमाण देकर पुस्तकके कलेवरको बढ़ानेकी कोई आवश्यकता नहीं दिखती । सिर्फ अबुल्फ़ज़लके कथनको उद्धृत कर देना ही काफी होगा । वह आईन-इ-अकबरीमें लिखता है कि, " चिरकालसे बौद्ध साधुओंका कहीं पता नहीं है। बेशक x-देखो-'अकबरनामा' बेवरिज कृत अंग्रेजी अनुवाद खंड ३, अध्याय ४५, १३ ३६५. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष कार्य सिद्धि। पेगू , तनासिरम और तिब्बतमें ये लोग कुछ हैं। बादशाहके साथ तीसरी बार रमणीय काश्मीरकी मुसाफरीमें जाते वक्त इस मतके ( बौद्धमतके ) दो चार वृद्ध मनुष्योंसे मुलाकात हुई थी। मगर किसी विद्वान्से भेट नहीं हुई।" इससे साफ जाहिर है कि, अकबर न कभी किसी बौद्ध विद्वानसे मिला था और न कभी कोई बौद्ध विद्वान् फतेपुरसीकरी की धर्मसभामें संमिलित हुआ था। उपर्युक्त और अन्यान्य अनेक प्रमाणोंसे डॉ. विन्सेंट स्मिथ भी यही लिखता है कि, To sum up. Akbar never came under Buddhist influence in any degree whatsoever. No Buddhists took part in the debates on religion held at Fatehpur -Sikri, and Abu-l Fazl never met any learned Buddhist. Consequently his knowledge of Buddhism was extremely slight. Certain persons who took part in the debates and have been supposed erroneously to have been Buddhists were really Jains from Gujarat. " [ Jain Teachers of Akbar by V. A. Smith. ] भावार्थ-अकबरकी बौद्धोंके साथ न कभी भेट हुई थी और न उस पर उनका प्रभाव ही पड़ा था। न बौद्धोंने कभी फतेहपुरसीकरीकी धर्मसभामें भाग लिया था और न कभी अबुल्फजलके साथ ही किसी बौद्ध विद्वान् साधुकी मुलाकात हुई थी। इससे बौद्ध धर्मके विषयमें उसका ( अकबरका ) ज्ञान बहुत ही कम था । धार्मिक *--देखो-आईन-इ-अकबरी ३ रा खंड, ऑस्टिकृत अंग्रेजी अनुवाद का २१२ वा पृष्ठ. - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRIMAR HA सूरीश्वर और सम्राट्। परामर्श सभामें भाग लेनेवाले जिन दो चार लोगोंके लिए बौद्ध होनेका अनुमान किया जाता है वह भ्रम है । वास्तवमें वे गुजरातसे आये हुए जैनसाधु थे।" __इससे यह बात अच्छी तरह साबित हो गई है कि, अबतक जिनलेखकोंने अकबर पर प्रभाव डालनेवालोंमें बौद्धोंकी गिनती की है यह उनकी भूल है । उस भूलको सुधार कर सब स्थानों में बौद्ध' के स्थानमें जैन ' समझना चाहिए । इस तरह वि० सं० १६३९ से वि० सं० १६५१ तक अकबरके साथ जैनसाधुओंका संबंध लगातार रहा था, उसके बाद अकबर जीवित रहा तब तक उसको और उसके बाद उसके लड़के जहाँगीरको भी जैनसाधु मिलते और धर्मोपदेश देते रहे थे। " Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण सातवाँ ! सूबेदारों पर प्रभाव । रविजयसूरि प्रभाव के विषय में गत प्रकरणों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। तो भी यह कहना अनुचित न होगा कि, उन्होंने केवल अकबर के ऊपर ही प्रभाव नहीं डाला था बल्कि अन्यान्य सुबेदारों और राजा महाराजाओं पर भी उन्होंने प्रभाव डाला था। जो कोई राजा या सूबेदार उनसे एक बार मिलता था वह सूरिजी के पवित्र चारित्र और निर्मल उपदेशसे मुग्ध एवं चमत्कृत हुए बिना न रहता था । यद्यपि सामान्यतया विचार करने वालेको, अक बरके समान महान् सम्राट् पर प्रभाव डालनेवालेका मामूली सूबेदारों पर या राजा महाराजों पर प्रभाव डालना, कोई महत्वकी बात नहीं मालूम होगी; तथापि दीर्घदृष्टिसे विचार करनेवाला यह जरूर समझेगा कि, ज्ञानपिपासु अकबर पर प्रभाव डालनेकी अपेक्षा सामान्य सूबेदारों या राजामहाराजाओं पर प्रभाव डालना बहुत ही कठिन था । अधिकारके मदमस्त उस समयकी अराजकताका लाभ उठाकर अपने आपको अहमिंद्र समझनेवाले सूबेदार या राजा क्या किसीकी सुननेवाले थे ? वे स्वच्छंदी - जिनकी स्वच्छंदताका हम दूसरे प्रकरण में उल्लेख कर चुके हैं; जो सत्यासत्यकी या मनुष्यके दर्जेकी कुछ भी परवाह किये विना मोरो, पकड़ो की आज्ञा दे देते थे- क्या किसीके उपदेश पर Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ सूरीश्वर और सम्राट् । ध्यान दे सकते थे ! कदापि नहीं। तो भी अपने चरित्रके प्रथम नायक श्रीमान् हीरविजयसूरिने समय समय पर उनपर अपने निष्कलंक चारित्र और उपदेश का प्रभाव डाल कर उनसे कई महत्वके कार्य कराये हैं । यद्यपि उनको किसी राजामहाराजा, सेठ साहूकार या फौजदार सूबेदार से कोई मतलब न था - 'निःस्पृहस्य तृणं जगत् ' के समान उनको किसीकी परवाह न थी, तथापि जीवोंके कल्याणकी कामना उनके अन्तःकरण में स्थापित थी । उसी कामनाके वश होकर वे जीवोंका कल्याण कराने के लिए, सूबेदारों या राजामहाराजाओंके निमंत्रणोंको स्वीकार करते थे और अनेक प्रकार के कष्ट उठाकर भी उनके दर्बारमें आते जाते थे । अनेक राजामहाराजाओं और सूबेदारों पर सूरिजीने प्रभाव डाला था; उनको सन्मार्ग पर चलाया था, मगर हम उन सबका उल्लेख न कर उनमें से कुछ का संक्षिप्त वृत्तान्त यहाँ लिखेंगे । X कला ख़ाँ । वि० सं० १६३० ई० सं० १९७४ के लगभग जब सूरिजी * कलाख़ाँका खास नाम खानेकलानमीरमहम्मद था | वह अघखाँका बड़ा भाई था । हुमायूँ और कामरानका यह सेवक धीरे धीरे अकबर के समय में बहुत ऊँचे दर्जे तक पहुँचा था । बहादुरी के अनेक काम करके अच्छा नाम कमाया था । बादशाहने सं० १५७२ ई० में गुजरातको फिर से जीतने के लिए कलाखाँको पहिले भेजा था । मार्ग में सीरोही के पास एक राजपूतने किसी स्पष्ट कारणके विना ही उसे घायल कर दिया था । मगर कई दिनके बाद उसने अच्छा होकर गुजरातको जीता। इससे वह पाटनका सूबेदार नियत हुआ । ई० स० १५७४ में पाटनहीमें उसकी मृत्यु हुई थी । विशेष जानने के लिए वॉकमॅन कृत आईन-इ-अकबरी के अंग्रेजी अनुवादके प्र० भा० का ३१५ वा पृष्ठ देखो । 24 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव । १८३ पाटनमें पधारे थे, तब वहाँके हेमराज नामके जैनमंत्रीने, विजयसेनसूरिके पाटमहोत्सवके अवसर पर, बहुतसा धन खर्च करके अनेक शुभ कार्य किये थे । उस समय कलाखाँ पाटनका सूबेदार था। उसके जुल्मसे प्रना बहुत व्याकुल हो रही थी। प्रजा उससे इतनी नाराज थी कि, एक भी मनुष्यकी जुबान पर उसकी भलाईका शब्द न आता था। उस नगरमें पहुँच कर सूरिजीने अनेक व्याख्यान दिये। उनसे शनैः शनैः समस्त नगरमें उनकी विद्वत्ताकी प्रशंसा फैल गई। कलाखाँके कानों तक भी सूरिजीकी प्रशंसा पहुँची । इससे उसके हृदयमें सरिजीसे मिलनेकी इच्छा उत्पन्न हुई। उसने उन्हें मनुष्य भेजकर अपने पास बुलाया । यद्यपि इससे सूरिजीके अनुयायिकोंकोश्रावकोंको बहुत ही ज्यादा भय मालूम हुआ था, तथापि सूरिजीके निर्भीक हृदयमें कोई आशंका उत्पन्न नहीं हुई थी। वे समझते थे कि, सत्ये नास्ति भयं कचित् । बहुत देर तक अनेक तरहकी बातें होती रहीं। फिर कलावाने पूछा:-" महाराज ! सूर्य ऊँचा है या चंद्रमा ? सूरिजीने उत्तर दियाः-" चंद्रमा ऊँचा है। सूर्य उससे कुछ नीचा है।" __ यह उत्तर सुन कर कलाखाँको कुछ आश्चर्य हुआ। उसने कहा:-" क्या ? सूर्य से चंद्रमा ऊँचा है ? " सूरिजीने गंभीरतापूर्वक उत्तर दियाः--" हाँ सुर्यसे चंद्र ऊंना है।" कलाखा बोला:---"हमारे यहाँ तो सूर्यसे चंद्रमा नीचे बताया गया है, तुम चंद्रमाको ऊँचा कैसे बताते हो?" सूरिजीने कहा:-" न तो मैं सर्वज्ञ हूँ और न मैं वहाँ ना कर देख ही आया हूँ। मैंने जो बात अपने गुरुकी जबानसे सुनी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । है और धर्मशास्त्रों में पढ़ी है, वही मैं कह रहा हूँ। तुम्हारे शास्त्रोंमें यदि तुम कहते हो वैसे लिखा हो तो तुम भले वैसे ही मानो।" आचार्यश्रीकी बात सुन कर कलाखा कुछ विचारमें पड़ा। उसने सोचा कि, जो वस्तु अगम्य है, परोक्ष है उसके लिए शास्त्रीय मोहसे हठ करके अपनी बातको सत्य मनानेका प्रयत्न करना व्यर्थ है। उसने कहा: "महाराज ! आपका कहना ठीक है । जिस बातको हमने देखा ही नहीं है, उसके लिए हठ करना,-हम मानते हैं वही ठीक हैं ऐसा आग्रह करना-फिजूल है । मैं आपकी सरलतासे बहुत प्रसन्न हुआ हूँ। मेरे लायक कुछ कार्य हो तो आज्ञा कीजिए।" मूरिजीने अनुकंपादृष्टि से उन कैदियोंको छोड़ देनेकी सूचना दी कि जिनको प्राणदंडकी आज्ञा दी गई थी । तदनुसार उसने कैदियोंको छोड़ दिया और शहरमें इस बातका ढिंढोरा पिटवानेका हुकम दिया कि, समस्त नगरमें एक मास तक कोई भी मनुष्य किसी भी जीवको न मारे। उसके बाद उसने सत्कार पर्वक सूरिनीको उपाश्रय पहुँचा दिया । यह उस समयकी बात है कि, जिस समय मूरिजी और अकबर बादशाहका कोई संबंध नहीं था। ____xखानखाना। अकबरके पाससे सूरिजी रवाना हो कर गुजरातकी ओर जा रहे थे, तब वे मेडते भी गये थे। उस समय खानखाना जो सूरिनीकी पवित्रता और विद्वत्तासे परिचित था-मेडतेहीमें था । उसने सूरिनीको, उन्हें नगरमें आये जान अपने पास बुलाया। और अच्छा सम्मान किया । उसने ईश्वरका स्वरूप जाननेके अभिप्रायसे प्रश्न किया, * इसी पुस्तकक १२० वें पेजका नोट देखो । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव। . १८५ " महाराज ! ईश्वर रूपी है या अरूपी ?" " ईश्वर अरूपी है।" " ईश्वर यदि अरूपी है तो उसकी मूर्ति क्यों बनाई जाती " मूर्ति ईश्वरका स्मरण करानेमें कारण होती है । अर्थात् मूर्तिको देखनेसे जिसकी वह मूर्ति होती है वह व्यक्ति याद आती है । जैसे कि किसीकी तसबीर देखनेसे वह व्यक्ति याद आता है। अथवा, जैसे नाम नामवाले की याद दिलाता है, वैसे ही मूर्ति मूर्तिवालेका-जिसकी वह मूर्ति होती है उसका-स्मरण करा देती है। जो मनुष्य कहते हैं कि, हम मूर्तिको नहीं मानते हैं, वे सचमुच ही बहुत बड़ी भूल करते हैं । संसारमें ध्याता, ध्यान और ध्येय इस त्रिपुटीको माने विना किसी भी आदमीका कार्य नहीं चलता । कारण ध्यान तब तक नहीं होता है जबतक मन किसी एक पदार्थ पर नहीं लगाया जाता है । दुनियामें अमूर्तक पदार्थों का ज्ञान हमें मूर्तिहीसे होता है । आप मुझको साधु मानते हैं । कैसे ? सिर्फ मेरे वेषसे । अर्थात् मैं साधु हूँ इसबातका ज्ञान करानेमें यदि कोई बात कारणभूत है तो वह मेरा वेष ही है । ' यह हिन्दु है । ' 'यह मुसलमान है।' ऐसा ज्ञान हमें कैसे होता है ? सिर्फ वेषसे । इस वेषहीका नाम मूर्ति है । आप और हम सभी अपने शास्त्रोंको देखकर ही कहते हैं कि, यह खुदाका कलाम है, यह भगवानकी वाणी है । खुदाके वचन तो जब वे जबानसे निकले थे तभी आकाशमें उड़ गये थे, फिर भी हम कहते हैं कि ये खुदाके शब्द हैं । सो कैसे ? सिर्फ यही जवाब देना पड़ेगा कि यह खुदाके शब्दोंकी मति है । अभिप्राय यह है कि, मूर्तिके विना किसीका भी काम नहीं चलता । जो मूर्तिको नहीं मानने का दावा करते हैं वे भी प्रकारान्सरसे मूर्तिको मानते तो हैं हीं।" 24 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । इसके सिवाय भी सूरिजीने कई ऐसे उदाहरण दिये जिनसे यह प्रमाणित होता था कि, प्रत्येक मनुष्य मूर्त्तिको मानता ही है । उसके बाद खानखानाने पूछा: - १८६ " यह ठीक हैं कि, मूर्तिको माननेकी आवश्यकता है, लोगमानते भी हैं; मगर यह बताइए कि, मूर्त्तिकी पूजा किस लिए करनी चाहिए और वह मूर्ति हमें क्या फायदा पहुँचा सकती है ? सूरिजीने उत्तर दिया:- " महानुभाव ! जो मनुष्य मूर्त्तिकी पूजा करते हैं, वे वस्तुतः उस मूर्तिको नहीं पूजते हैं; वे तो उस मूर्त्तिके द्वारा ईश्वरकी पूजा करते हैं। पूजा करते समय पूजकका यह भाव नहीं होता है कि मैं इस पत्थरको पूज रहा हूँ। वह तो यही सोचता है कि- मैं परमात्माकी पूजा कर रहा हूँ। मुसलमान लोग मसजिदमें, या नहीं कहीं वे नमाज पढ़ते हैं वहाँ, पश्चिम दिशाकी ओर मुख रखते हैं । उस समय वे यह नहीं समझते हैं कि, हम दीवार के सामने जो उनके सामने होती है - नमाज़ पढ़ते हैं, मगर वे यह समझते हैं कि पश्चिम दिशामें मक्का है, उसीके सामने हम नमाज़ पढ़ रहे हैं । जिस लक्कड़को घड़ -' कर चौकी बना ली जाती है, वह लक्कड़ चौकीहीके नामसे पुकारा जाता | उसे कोई लक्कड़ नहीं कहता । संसारमें स्त्रियाँ सत्र एकसी हैं; परंतु पुरुष अपनी सहधर्मिणी उसीको मानता है जिसके साथ उसका पाणिग्रहण हुआ है । अर्थात् उस स्त्रीमें अपनी पत्नी माननेकी भावना स्थापित करता है । इसी भाँति पत्थर वास्तव में तो पत्थर ही है; मगर जो पत्थर घड़कर मूर्ति बनाया जाता है और मंत्रादि विधि से जो स्थापित होता है, उसमें परमात्माहीका आरोप किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि, मूर्तिकी पूजा करने वाले पत्थरकी पूजा नहीं करते हैं, बल्कि मूर्त्तिद्वारा परमात्माकी पूना करते हैं । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव। १८५ " मूर्तिकी पूजासे लाभ यह है कि, उसकी पूजासे उसके दर्शनसे मनुष्य अपने हृदयको पवित्र बना सकता है। मूर्ति के दर्शनसे उस व्यक्तिके-परमात्माके-जिसकी वह मूर्ति होती है-गुणयाद आते हैं। उन गुणोंका स्मरण करना या उसके अनुसार आचरण करनेका प्रयत्न करना सबसे बड़ा धर्म है । मनुष्योंका हृदय वैसा ही बनता है, जैसे उन्हें संयोग मिलते हैं। वेश्याके पास आनेसे पाप लगता है । इसका कारण क्या है ? क्या वेश्या उसको पाप दे देती है ? वेश्याको तो पापका ज्ञान भी नहीं होता है। कारण यह है कि, वेश्यापाप नहीं देती मगर उसके पास जानेसे पुरुषका हृदय मलिनअपवित्र हो जाता है। अन्तःकरणका मलिन होना ही पाप है। इसी भाँति यद्यपि परमात्माकी मूर्ति हम को कुछ देती लेती नहीं है; तथापि उसके दर्शन-पूजनसे मनुष्यका अन्तःकरण निर्मल-शुद्ध होता है। अन्तःकरणका शुद्ध होना ही धर्म है।" यह और इसी तरहकी दूसरी अनेक युक्तियोंसे मूरिजीने मूर्तिपूजाका प्रतिपादन किया। खानखाना बहुत प्रसन्न हुआ । उसने मुक्तकंठसे सूरिजीकी प्रशंसा करते हुए कहा:-" सचमुच आप ऐसी ही इज्जतके काबिल हैं जैसि कि आपको अकबर बादशाहने बख्शी है। मैं आपके मुणोंकी दाद दिये विना नहीं रह सकता ।" . तत्पश्चात् उसने कई मूल्यवान पदार्थ सूरिजीके समक्ष रख कर उन्हें ग्रहण करनेका आग्रह किया । सूरिजीने उन्हें साधुधर्भके लिए अग्राह्य बताकर साधुओंके पालने योग्य १८ ४ बातोंका विवेचन किया। ___x जैनसाधुओंको निम्नलिखित १८ बातें पालनी चाहिए। (१) हिंसा (२) झूठ (३) चोरी ( ४ ) अब्रह्म . ५) परिग्रह; इन पाँचोंसे दूर रहना । (६) रात्रिभोजन न करना (७) पृथ्वी (0) जल (९) अनि Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वरे और समाद इस प्रकार खानखाना पर भी सूरिजीने अपना प्रभाव डाला था। महाराव सुरतान। सूरिजी विहार करते हुए जब सीरोही गये थे तब वहांके प्रतापी राजा महाराव सुरतान पर भी उन्होंने अच्छा प्रभाव डाला था। रावसुरतानका समागम करके मूरिजीने उसको अच्छा प्रबोध दिया था। कई 'कर'-जो प्रजा पर केवल जुल्म थे-भी उन्होंने बंद (१०) वायु (११) वनस्पति (१२) त्रस; इन छः प्रकारके जीवोंको कष्ट न पहुँचाना, (१३) राजपिंड ग्रहण न करना-अर्थात् राजाके वहाँसे भोजन ग्रहण न करना । (१४) सोना चाँदी, काँसा, पीतल आदि धातुओंके निर्मित बर्तनोंमें भोजन न करना । ( १५) पलंग व सुखदायी बिस्तरोपर शयन नहीं करना । (१६) गृहस्थके घरमें नहीं बैठना (१७) स्नान नहीं करना और ( १८) शंगार नहीं करना । ___* यह वि० सं० १६२८ में सीरोहीकी गद्दी पर बैठा था । उस समय उसकी आयु सिर्फ १२ वर्षेकी थी । इसको अनेक बार राजपूतों और बादशाहकी फौओंके साथ युद्ध करना पड़ा था । उनमें कई वार उसे हारना भी पड़ा था । राज्य गद्दी भी छोड़नी पड़ी थी । परन्तु अन्तमें उसने अपनी वीरतासे राज्य वापिस ले लिया था । वह प्रकृतवीर था। स्वाधीनता, महाराणा प्रतापसिंहकी भाँति उसे भी बहुत प्यारी थी । इसलिए अपने जीवनका बहुत बड़ा अंश उसे युद्धोंमें ही बिताना पड़ा था । कहा जाता हे कि, उसने सब मिलाकर ५१ युद्ध किये थे। जब वह आबू पहाड का आश्रय ले कर युद्ध करता था तब बड़ीसे बड़ी सेनाको भी वह तुच्छ सम. झता था । जैसा वह उदार था वैसा ही बहादुर भी था । उसने अनेक गाँव दानमें दिये थे । उसके मिलनसार स्वभावके कारण अनेक राजाओंसे उसकी मित्रता थी इसके संबंध जो विशेष जानना चाहते हैं वे ५० गौरीशंकर हीराचंद ओझाकृत ' सीरोहो राज्यका इतिहास ' के २१७ से २४४ तकके पृष्ठ देखें। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAVALARINA सूबेदारों पर प्रभाव। करवा दिये थे । सुरतानने सूरिजीके उपदेशसे अन्याय नहीं करनेका भी निश्चय कर लिया था । इनके अलावा सूरिजीके तपोबलसे एक महत्त्वकी बात और भी हुई थी। वह यह थी उसने विना ही कारण निर्दोष सौ श्रावकोंको अपराधी ठहरा कर कैद कर दिये थे। इससे समस्त संघमें हाहाकार मच गया था । संघके मुखियोंने अनेक प्रयत्न किये मगर मुरतानने श्रावकोंको नहीं छोड़ा। एक वार सूरिजीके साथके साधु बाहिर दिशाजंगल गये और बापिस आकर 'इर्यावहिया'+ किये बिना ही अपने अपने कामोंमें लंग गये । सूरिजीने उनकी उस भूलको देखा और संध्याको सबसे कहा कि,-" कल तुम सबको 'आंबिल'x करना होगा, क्योंकि आज तुमने, दिशा जाकर 'इर्यावहिया' नहीं की है।" सारे साधुओंने इस प्रायश्चित्तको स्वीकारा । दूसरे दिन समस्त साधुओंने ' आंबिल ' की तपस्या की । मूरिजी के साथ जब साधु आहार करनेके लिए बैठे तब उन्हें मालूम हुआ कि, आज सूरिजीने भी 'आंबिल ' की ही तपस्या की है। उन्होंने पूछा:--" आज आपको आंबिल किस बातका है ?" सूरिजीने उत्तर दिया:-" आज मेरा *मातरा पडिलेहण किये बिना परठा था। उस दिन सब मिला कर अस्सी आंबिल हुए। इस +-जैन साधु जब पेशाब या पाखाने जाकर आते हैं, उस समय, जाते आते मार्गमें जितना चाहिये उतना उपयोग नहीं रहने के कारण,-उपयोग स्खलनाके लिए-गुरुके पास प्रायश्चित्त रूप जो क्रिया करते है उसको इरियावहिया कहते हैं। ___x आंबिल के लिए पेज १०७ का फुटनोट देखो । * साधुलोग पेशाबको मातरा, कहते हैं। जनसाधु गटर--मोरी आदि स्थानों में पेशाव नहीं करते । वे खुली जगहमें-जहाँ जीव-जन्तु नहीं होते हैं-पेशाव करते हैं । या किसी कुंडीमें Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राद। प्रकार आंबिल करने और करानेका सरिनीका आन्तरिक हेतु जुदा था। सूरिजीकी इच्छा थी,-जो श्रावक आफतमें पड़े हैं उनको किसी भी तरहसे छुड़ाना । सूरिजीको आंबिलकी तपस्या पर बहुत श्रद्धा थी । जब जब वे कोई महत्त्वका कार्य करना चाहते थे तब तब वे प्रारंभमें आंबिल ही किया करते थे । एक तरफ़ सूरिजीने इस तरह आंबिलकी तपस्या की और दूसरी तरफ सीरोहीके महाराव सुरतानसे मिल कर उसे, निर्दोष कैदी श्रावकों को छोड़ देनेका उपदेश दिया । सूरिजीके उपदेशका सुरतानके हृदयमें असर हुआ और उसी दिन उसने शामके वक्त सबको मुक्त कर दिया। सुल्तान हबीबुल्लाह । विहार करते हुए सूरिजी एक बार खंभात गये। वहाँ हबीबुल्लाह नामका एक खोजा रहता था। उसकी एक वक्तकी खूराक लगभग एक मन थी। उसका शरीर खूब मोटा ताजा था। उसने धनका बहाना करके सूरिजीका बहुत अपमान किया। सरिजीका द्वेषी महिआ नामका एक व्यक्ति भी उससे मिल गया । इससे वह सूरिनीको ज्यादा सताने लगा । परिणाम यह हुआ कि, उसने सूरिनीको शहरके बाहिर निकलवा दिया । इससे समस्त जैनसमाजमें खलबली मच गई। मूरिजीके इस अपमानको सब गच्छके साधुओंने अपना अपमान समझा । वे भी गाँवके बाहिर चले गये और सूरिजीके पास जाकर रहे । सूरिनीके अपमानका कृत्य वास्तवमें अक्षम्य था । इसका प्रतीकार करना जुरूरी था । स्वच्छंदी और निरंकुश मनुष्योंका मद यदि उतार करके निदोष जमीनमें छिड़क देते हैं जिससे वह जल्दी सूख जाता है । दुर्गध नहीं फैलती है और जीवोत्पत्ति भी नहीं होती है। ऐसा करनेको 'मातरा परठना' कहते हैं । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव । नहीं दिया जाता है तो वे जब तब, भलेसे भले आदमीका मी अपमान करते नहीं अचकाते हैं । इसलिए भविष्यमें ऐसी बात न हो इसका प्रबंध करनेके लिए, धनविजय नामके साधु हीरविजयसूरिके पाससे रवाना होकर अकबरके पास चले । शान्तिचंद्रजी उपाध्याय-जिनके विषयमें छठे प्रकरणमें लिखा जा चुका है-उस समय अकबरके पास ही थे । धनविजयजी जाकर उनसे मिले । शान्तिचंद्रजीने जाकर सारी बातें बादशाहसे कहीं। बादशाह क्रुद्ध होकर बोला:-"उसको बाँध कर जूते मारते हुए यहाँ लानेका, मैं इसी वक्त हुक्म देता हूँ।" उस समय हबीबुल्लाहका हीरानंद नामका एक अनुचर भी वहाँ विद्यमान था। उसने बादशाहसे नम्रतापूर्वक प्रार्थनाकी कि, " खुदावन्द ! माफ करें । मैं पत्र लिखकर सब ठीक ठाक कर देता हूँ।" मगर बादशाहने उसकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया और हुक्म दिया कि,-" जिसने हीरविजयसूरिका अपमान किया है वह मारा जाय ।" यह आज्ञापत्र लेकर धनविजयजी गुजरातमें सूरिजीके पास पहुँचे । श्रावक बहुत प्रसन्न हुए। यह हाल जब हबीबुल्लाहको मालूम हुआ; श्रावकोंके पास जब उसने आज्ञापत्र पढ़ा, तब उसके होश उड़ गये । वह घबराहटके साथ विचारने लगा,-अब क्या होगा ? मेरे प्राण कैसे बचेंगे ? मुझे यह कैसी दुर्बुद्धि सूझी कि जिस पुरुषका सम्राट अकबर भी मान करता है उसका अपमान किया ।" अनेक प्रकारके विचारोंके बाद उसने अपने कई आदमी सूरिजीको सादर खंभातमें लानेके लिए भेजे । सूरिनी उस समय किसी अन्य गाँवमें थे। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सूरीश्वर और सम्राट् । सूरिजीको तो अपने मानापमानका कुछ ख्याल था ही नहीं । भविष्य में साधुओंका अपमान न हो इसी लिए उन्होंने इतना किया था, इसलिए वे आनंदपूर्वक खंभातकी ओर चले । जब वे शहरसे थोड़ी दूर रहे तब हबीबुल्लाह अपनी चतुरंगिनी सेना सहित उनका स्वागत करने के लिए गया और उनको देखते ही उनके पैरोंमें जा गिरा व उनके गुणगान करने लगा । सूरिजी जत्र नगर में उपाश्रयमें गये तब हबीबुल्लाह उनके पास गया और क्षमा याचना करता हुआ बोला :-- " महाराज ! आप दयालु हैं। मैंने आपका जो अपमान किया है उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए । मैं खुदाको साक्षी रखकर कसम खाता हूँ कि भावीमें फिर कभी किसी महात्माका अपमान नहीं करूँगा । " सूरिजी बोले :- "सुल्तान साहब ! मैंने तो आपको पहिलेहीसे क्षमा कर दिया है । मेरे हृदयमें आपके लिए कोई दुर्भाव नहीं है । इसीका यह प्रमाण है कि, आपने मुझे अपने गाँवमें बुलानेको मनुष्य भेजे और मैं तत्काल ही आ गया। यदि मेरे दिल में आपके लिए कोई बुरा खयाल होता तो मैं हरगिज यहाँ न आता । हबीबुल्लाह इससे बहुत प्रसन्न हुआ। सरिजीकी मुखमुद्रा और असल फकीरीका निरीक्षण करते ही उसके अन्तःकरण में किसी और ही तरह भाव उत्पन्न हुए । उसको विश्वास हुआ कि ऐसे गुणी महात्माका यदि अकबर बादशाह और अन्यान्य लोग सत्कार करते हैं तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । उसके बाद भी हबीबुल्लाह प्रायः सूरिजीका उपदेश सुननेके लिये उपाश्रय में आया करता था । एक वार सूरिजी व्याख्यान बाँच रहे थे तब आया । उस समय सूरिजीके मुखपर वह Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाष । 'मुँहपत्ती x 7 बंधी हुई थी। उसे देखकर उसने पूछा:- महाराज ! आपने मुँह पर कपड़ा किस लिए बाँध रक्खा है." सूरिजीने उत्तर दिया:--" इस समय शास्त्र मेरे हाथमें है। बोलते हुए कहीं इस पर थूकका छींटा न पड़ जाय, इस लिए यह कपड़ा बाँधा गया है।" हबीबुल्लाहने फिर पूछा:-थूक क्या नापाक है ? " सूरिजीने उत्तर दिया-" बेशक, जबतक वह मुंहमें रहता है पाक होता है । मुँहसे निकलते ही नापाक हो जाता है।" मूरिजीके उत्तरसे वह प्रसन्न हुआ । उसने निवेदन किया:" महाराज ! मेरे लायक कोई कार्य हो तो बताइए।" सूरिजीने कई कैदियोंको छोड़ देनेकी और जीवरक्षा करानेकी सूचना की । तदनुसार उसने कई बंदियोंको छोड़ दिया और शहरमें x मुँहपत्तीका संस्कृत नाम 'मुखवत्रिका' है। इसको जैनसाधु हमेशा अपने हाथमें रखते हैं । जब वे बोलते हैं तब मुँहके भागे धर लेते हैं। प्राचीन कालमें जब कागजोंका प्रचार नहीं हुआ था और ग्रंथ लंबे लंबे ताडपत्रों पर लिखे हुए थे तब, उन ग्रंथोंके पृष्ठोंको दोनों हाथोंमें पकडकर व्याख्यान बाँचना पड़ता था। इससे दोनों हाथ बँधजानेके कारण साधुओंको • मुँहपत्ती ' मुखपर बाँधनी पड़ती थी । हेतु यह था कि, थूक उड़कर शान पर न पड़े । मगर अब लंबे लंबे पृष्ठ हाथमे लेकर शास्त्र नहीं बाँचना पड़ता है। अब तो मजेदार ऐसे कागजों पर शास्त्र छप गये हैं कि जिन्हें दोनों हाथों में लेनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती । इसलिए वर्तमान कालमें ' मुंहपत्ती' मुखपर बाँधकर व्याख्यान बाँचनेको कोई आवश्यकता हमें नहीं दिखती । एक हाथमें पृष्ठ और दूसरे हाथमें मुंहपत्ती रखनेसे काम चल सकता है । तो भी पुराना रिवाज अब भी कहीं कहीं दिखाई देता है । मगर व्याख्यानके समय मुँहपर ' मुखवत्रिका ' बाँधनेका जो खास कारण था वह मिट गया है, इसलिए उस पुराने रिवाजको पकड़े रहनेकी कोई भावश्यकता अब नहीं है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सूरीश्वर और सम्राट् । अमारी घोषणा करादी- कोई किसी जीवको न मारे ऐसा ढिंढोरा पिटवा दिया । आज़मखां * । वि० सं० १६४८ में हीरविजयसूरि अहमदाबाद गये थे । उस समय आज़मखाँ वहाँका सूबेदार था। वह दूसरी वार इस सूबेमें आया था । उसकी सूरिजी पर बहुत श्रद्धा थी। एक वार वह सोरठ पर चढ़ाई करने की तैयारी कर रहा था, उस समय धनविजयजी साधुने उससे मिल कर कहा :"मुझे सूरिजी महाराजने आपके पास भेजा है।" उसने उत्सुकता के साथ पूछा:- " महाराजने मेरे लायक कोई कार्य बताया है ?" धनविजयजीने उत्तर दिया:-“हाँ, आप जानते हैं कि, हमारे पवित्र तीर्थगिरिनार, शत्रुंजय आदि बादशाहकी तरफसे हमारे सिपुर्द हुए हैं। उनके परवाने भी हमें दिये गये हैं, मगर अफ्सोस है कि, अबतक उनपर पूरा अमल नहीं हुआ। कई विघ्न बीच बीचमें आजाया करते हैं, इस लिए आप पूरा बंदोबस्त कर दीजिए । " - उसने उत्तर दिया – “सूरिजी महाराजसे मेरा सलाम कहना और कहना कि, इस वक्तमें युद्धमें जारहा हूँ । वापिस आने पर आपकी आज्ञा का पालन करूँगा । " धनविजयजी सूरिजी के पास लौट आये । आजमखाने सोरठ पर चढ़ई की। सबसे पहिले उसने जामनगर पर हमला किया। एक तरफ थी आज़म ख़ाँकी फौज और दूसरी तरफ थे हाला, झाला * यह वही आज़मखाँ है जो खानेआज़म या मिर्ज़ा अज़ीज़कोका के नामसे पहिचाना जाता है । यह ई० स० १५८७ से १५९२ तक अहमदाबादका सूबेदार था । विशेष जाननेके लिए मीराते सिकंदरी में (गुजराती अनुवाद ) १० १७२ से १८५ तक देखो । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव | १९५ 1 और काठी । घमसान युद्ध हुआ । आज़मखाँको सूरिजी पर बहुत श्रद्धा थी । उसको विश्वास था कि, लड़ाईके लिए तैयार होते वक्त ही मुझे सूरिजी महाराजके प्रतिनिधि श्रीधनविजयजीके दर्शन हुए थे इसलिए अवश्यमेव मेरी जीत होगी । आज़मखाँ इसी विश्वासके साथ युद्ध कर रहा था । उसकी सेना धीरता और वीरताके साथ आगे बढ़ी जा रही थी । अचानक जामनगरके जाम सताजामका घोड़ा चमका । इससे दूसरे सवारोंमें भी गड़बड़ी मच गई । आज़म खाँका दाव चल गया । उसकी फौजने आगे बढ़कर शत्रुको परास्त किया । यद्यपि जामके जसा वजीरने बहुत वीरता दिखाई परन्तु अन्तमें वह मारा गया और सताजामको युद्धस्थल छोड़कर भाग जाना पड़ा । नयानगर ( जामनगर ) को जीतकर आज़मखाने जूनागढ़पर चढ़ाई की। वहाँ भी विजय प्राप्त कर वापिस अहमदावाद आया १ सताजामका खास नाम सतरलसाल ( शत्रुशल्य ) था । वह जाम विभोजीके चार पुत्रोंमें सबसे बड़ा था । वह जामसता के नामसे प्रसिद्ध हुआ था । जब वह सिंहासन पर बैठा तब गुजरातमें बहुत बड़ी अव्यवस्था थी । ई० स० १५६९ में उसके पिता के स्वर्गवासी होने पर वह राज्य - गद्दी पर बैठा था । जाम सताजी के समयहीसे सुल्तान मुजफ्फरकी आज्ञा से जामनगर के जाम कोरी ( जामनगर राज्यका चलनी सिक्का ) पाड़ने लगे थे । इस जामके वजीरका नाम जसा वजीर कहा जाता है । उसका पूरा नाम वजीर जसा लाधक था । उसने और जामके पुत्र कुंवर अजाजीने बहादुरी के साथ आज़मखाँ से लड़ाई की थी । मगर अन्तमें दोनों ही युद्धमें काम आये | आज़मख़ाँ और जाम सताजीके इस युद्धका विशेष वृत्तान्त जिनको जानना हो वे ' अकबरनामा के तीसरे भाग के ( बेवरिजकृत अंग्रेजी अनुवाद ) पृ० ९०२ में; ' काठियावाड़ सर्व संग्रह ' ( गुजराती अनुवाद ) के पृ. ४५४-४५५ में; • मीरा अहेमदी ( गुजराती अनुवाद ) के ५० १७७ में एवं मीराते सिकंदरी ( गुजराती अनुवाद ) पे. ४६९ आदिमें , देखें 1 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सूरीश्वर और सम्राट् । अमदाबाद आते ही उसने सूरिजीको बुलाया । वे सोमविजयजी और धनविजयजीको साथ लेकर आजम खाँ के बँगले गये । राजवाड़ा में प्रवेश करते ही आज़मखाँने सूरिजीका सत्कार किया । थोड़ा वार्तालाप होने पर आजम खाँने कहा : -- महाराज ! आपके पवित्र नामसे मैं मुद्दतसे परिचित हूँ । आपके शुभ नामका स्मरण करनेहीसे मुझे अपने कार्य में पूर्णतया सफलता हुई है । मैं चिरकालसे आपके दर्शनोंके लिए उत्सुक था । सच तो यह है कि, जबसे बादशाह अकबर आपका मुरीद बना तभी से मैं आपसे भेट करने की इच्छा कर रहा था । आज मेरी इच्छा पूरी हुई। इससे मैं अपने आपको भाग्यशाली समझता हूँ । " 66 इस तरह विवेक बतानेके बाद उसने कहाः " महाराज ! आप किस पैगंबर के चलाये हुए धर्मको मानते हैं ? " सूरि० - महावीरस्वामीके | आज ० -- उनको गुजरे कितने बरस हुए हैं ? सूरि० - करीब दो हजार बरस । आज ० - तब तो आपका धर्म बहुत पुराना नहीं है । सूरि० - मैं जिन महावीरस्वामीका नाम लेता हूँ वे तो हमारे चौबीसवें तीर्थकर पैग़म्बर हैं । उनके पहिले भी तेईस पैग़म्बर हो गये हैं । हम महावीरस्वामीके साधु कहलाते हैं । क्योंकि उन्होंने जो मार्ग बताया है उसी पर हम चलते हैं । आज ० - आपके पहिले और आखिरी पैगम्बरमैं क्या कोई फर्क है ? सूरि०-- पहिले पैग़म्बरका नाम ऋषभदेव है । उनका शरीर Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभावी पाँचसौ धनुषका था। उनके बाद दूसरे, तीसरे पैगम्बर जैसे जैसे होते गये वैसे ही वैसे उनका शरीरप्रमाण भी कम होता गया। उनके वस्त्रों और लक्षणोंमें भी फरक है । ऋषभदेव भगवानने सफेद वस्त्र बताये हैं। वे भी नापके । महाव्रत पाँच बताये-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । पहले और आखिरी तीर्थकरोंके साधुओंके आचार तो करीब करीब एकसे ही हैं, परन्तु बीचके बाईस तीर्थंकरोंके साधुओंके आचारमें कुछ फर्क है। बाईस तीर्थंकरोंने पाँच वर्णके वस्त्र बताये हैं। उनका कोई प्रमाण भी नहीं बताया। उन्होंने महाव्रत भी चारही बताये । अर्थात् उन्होंने ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह दोनोंका एकहीमें समावेश कर दिया । इस तरह भेद होनेका और कोई कारण नहीं है कारण सिर्फ एक है। वह यह कि,बाईस तीर्थंकरोंके समयके मनुष्य सरल और बुद्धिमान थे, इसलिए थोड़ेमें बहुत समझ जाते थे । मगर इस कालके मनुष्य वक्र और जड़ कहलाते हैं । इसलिए नितना आचार बताया गया है उतना भी वे नहीं पाल सकते हैं । यह बात खास तरहसे ध्यानमें रखना चाहिए कि, आचारमें अन्तर होने पर भी उनके प्रकाशित किये हुए सिद्धान्तोंमें कोई अन्तर नहीं है। पहिलेके तीर्थंकरोंने जैसे सिद्धान्त प्रकाशित किये हैं वैसे ही सिद्धान्त पीछेके तीर्थकरोंने भी किये हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको हुए असंख्य वर्ष बीत गये हैं। अन्तके महावीरस्वामीको हुए लगभग दो हजार वर्ष बीते हैं । बस उन्हीके बताये हुए मार्गमें हम द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार चल रहे हैं। आजमखाँको बड़ा आनंद हुआ। कुछ देर बाद उसने और पूछा:--" आपको साधु हुए कितने वर्ष हुए ? " सूरिजी-पावन बरस । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सूरीश्वर और सम्राट् । आजमखाँ इतने बरसोंमें आपने कोई चमत्कार दिखानेवाली शक्ति प्राप्त की है ? कभी आपको खुदाके दर्शन हुए हैं ? सूरिजी-खाँसाहिब ! खुदा संसारमें नहीं आ सकता । इसलिए उसके दर्शन भी कैसे हो सकते हैं ? और चमत्कार दिखानेवाली शक्तिसे हमें कोई प्रयोजन नहीं है । हम घर, बार, धनमाल, स्त्री, पुत्र आदि समस्त पदार्थोंका त्याग कर चुके हैं। हमें न राज्यप्राप्तिकी इच्छा है और न पैसेहीका लोभ है। हमें चमत्कारोंसे क्या लेना देना है ? हाँ, दुनियामें चमत्कारिणी विद्याएँ जुरूर मौजूद हैं। परन्तु उनका साधन करनेवाले निःस्पृही और त्यागी महात्मा संसारमें बहुत ही थोड़े हैं । कालिकाचार्य ईंटका सोना बना देते थे ? सनत्कुमारके थूकसे शरीरका रोग मिट जाता था ? पहिले इसी तरहकी और भी अनेक विद्याओंके जाननेवाले महापुरुष थे। मगर उन्होंने अपनी संततिको इसलिए विद्याएँ नहीं दी कि वे इन विद्याओंका अभिमान करके कहीं अपना साधुत्व न नष्ट करदें। अगले जमानेके साधु विद्याओंका दुरुपयोग नहीं करने थे । जब कभी धर्मका कोई कार्य आपड़ता था तभी वे उनका उपयोग करते थे । अब भी साधु यदि अपने चारित्रको निर्मल रक्खें और साधुधर्मको बराबर पालें तो इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं। चारित्रका प्रभाव ही ऐसा है कि, मनुष्य बिना जबान हिलाये ही हजारों पर अपना प्रभाव डाल सकता है। चारित्रके प्रभावहीसे साधुओंके पास आनेवाले जातिवैरवाले जन्तु भी अपना स्वभाव भूल जाते हैं। मगर चाहिए चारित्रकी सम्पूर्ण निर्मलता। ऐसे चारित्रवानको मंत्र-तंत्रादिकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके निर्मल चारित्रहीसे सारे कार्य सिद्ध हो जाते हैं। हम इस समय इसलिए खुदाकी बंदगी करते हैं और साधुधर्म पालते हैं कि, धीरे धीरे हम भी खुदाके जैसे हो जायें। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amraana सूबेदारों पर प्रभाव । सूरिजीका कथन सुननेके बाद आज़मखाँने एक हास्योत्पादक कथा सुनाई । उसने कहा: "मेरे कहेका आप बुरा न मानें । हिन्दु लोग कभी खुदाको नहीं पा सकते । केवल मुसलमान ही पासकते हैं । देखिए एक वार हिन्दु और मुसलमानोंके आपसमें झगड़ा हुआ । हिन्दु कहने लगे कि, खुदाके पास हम जा सकते हैं और मुगलमान कहने लगे कि हम जा सकते हैं। अन्तमें यह स्थिर हुआ. कि, दोनों एक एक आदमीको खुदाके पास रवाना करें। जिसका आदमी खुदाके पास जाकर आजायगा; समझना कि, वही पक्ष खुदाके पास है । फिर हिन्दुओंमेंसे एक बहुत बड़ा विद्वान् खुदाके पास जानेको तैयार हुआ । अपना शरीर छोड़कर वह खुदाके पास पहुँचने के लिये रवाना हुआ । रस्तेमें उसे एक महान् भयानक और बीहड़ जंगल मिला । उसको पार करके वह आगे नहीं जासका । इस लिए वापिस लौट आया । लोगोंने उसे पूछा कि,-"तुम खुदाके पास हो आये ?" तो उसने उत्तर दिया:-" हाँ, हो आया ।" फिर उससे पूछा गया कि,-"खुदा कैसा है ?” उसने उत्तर दिया:-" बड़ाही सुंदर है।" मगर वह कोई चिहन न बता सका । इससे उसकी झुठाई खुल गई। "फिर एक मुसलमान अपना शरीर छोड़ कर खुदाके पास चला । रस्तमें उसने अनार, बादाम, किश्मिश, चारोली, पिश्ता, आम आदिके फल देखे; स्वर्णके महल देखे । झरणोंमेंसे अमृतके समान उसने जल पिया। आखिर वह मंजिले मकसूदपर पहुँचा । उसने खुदाको रत्नजडित सिंहासन पर बैठे और उनकी हाजरीमें फरिश्तोंकी फौजको खड़े देखा । खुदाको सलाम करके वह तत्काल ही वापिस लौटा। खुदाके पास जाकर आया है इस बातकी सुबूतके लिए वह एक मिरचीका झूमका बगलमें दबाकर लेता आया। इससे सिद्ध होता हैं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सूरीश्वर और सम्राट्। कि, मुसलमानोंके सिवा दूसरा कोई भी आदमी खुदाके पास नहीं जा सकता है।" इस कथाको सुनकर सूरिजी और उनके साथके साधु हँसे । उन्हें हँसते देखकर आजमखाँने पूछा:-" आप हँसते क्यों हैं ? सरिजीने उत्तर दियाः-" आपकी इस कथाको सुनकर हँसी न आवे तो और क्या हो ? जिस मनुष्यमें थोड़ीसी भी समझ है, वह आपकी इस कथाको सच मान सकता है ? मनुष्य शरीर छोड़कर खुदाके पास जानेको रवाना हो और जंगलको पार न कर सकनेसे वापिस लौट आवे या खुदाके पास पहुँचकर उसे रत्नजडित सिंहासन पर बैठा देखे और वहाँकी निशानीके तौर पर रास्तेसे मिरचीका झूमका बगलमें दका कर लेता आवे, ये बातें क्या हवाम महल चुनानेकीसी नहीं हैं ? खुदा क्या शरीरवाला है जो स्वर्णसिंहासन पर जा बैठा ? जानेवाला मुसलमान जब शरीर ही यहाँ रख गया था तब उसके बगल फिर कहाँसे आगई थी जिसमें दबाकर मिरचका झूमका लेता आया था ! " आजमखाँ भी खिलखिला कर हँस पड़ा । उसने स्पष्ट कहा कि, मैंने सचमुच ही यह एक हवाई किलाही खड़ा किया था। उसने सूरिनीकी बहुत प्रशंसा की और कहा:--"मेरे लायक कोई काम हो तो फर्माइए ।” सूरिजीने झगडूशाह नामके श्रावकको-जो कैदमें था-छोड़ देनेके लिए कहा । आज़मखाने तत्काल ही उसको छोड़ दिया । उस पर एक लाखका जुर्माना किया था वह भी माफ कर दिया। उसके बाद बड़ी धूमधामसे आजमखाने सरिजीको उपाश्रय पहुँचाया। झगडूशाहके छूटनेसे और आजमखाँ पर सूरिजीका Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव । २०१ प्रभाव पड़नेसे अहमदाबादके श्रावक बहुत प्रसन्न हुए। अपनी प्रसन्नता व्यक्त करनेके लिए उन्होंने बहुतसा धन खर्चकर महोत्सव भी किया। आजमखाँको मूरिजी पर बहुत श्रद्धा हो गई थी। इसलिए जब उसको अवकाश मिलता तभी सूरिजीके पास जाता और उनके दर्शन करके व अमृतमय वचन सुनके आनंद मानता। कहाजाता है कि, सरिजीने वि० सं० १६६१ में जब ऊनामें चौमासा किया था तब भी वह हज ( मक्काकी यात्रा ) से वापिस लौटते वक्त सूरिजीके दर्शनार्थ गया था । उस समय उसने सातसौ रुपये सूरिजीके भेट किये । सूरिजीने उसे समझाया,-" हम लोग कंचन और कामिनीके सर्वथा त्यागी हैं। इसलिए हम ये रुपये नहीं ले सकते " आजमखाने वे रुपये दूसरे सन्मार्गमें खर्च करदिये । वहाँ भी सूरिजीका उपदेश सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ था। कासिमखाँ ।* वि० सं० १६४९ में सूरिजी पाटन गये थे। उस समय वहाँका सूबेदार कासिमखाँ था। जूनागढ फतेह करनेके बाद वि० सं० १६५० में आज़मखाँ कुटुंब परिवार, दासदासियों और सौ नोकरोंको साथमें ले, सरकारी ओहदे और अमीरीको छोड़ मक्का गया था । मक्कासे पीछे लौटते वक्त वह सूरिजी से वि० सं० १६५१ में मिला था। इससे मालूम होता है कि, वह मकामें लगभग एक बरस तक रहा था । विशेषके लिए आईन-इ-अकबरी (ब्लॉकमॅनकृत अंग्रेजी अनुवाद ) में पृ. ३२५ से ३२८ तक देखो ।। . * यह कुंदलिवालबारहक खान सैयदमुहम्मदका पुत्र था। यह पहिले खान आलमकी मातहतीमें नौकर रहा था । इसन मुहम्मद-हुसेन-मिर्जाका -जो मुहम्मद अज़ीज़ कोकासे हार कर दक्षिणमें भागा थापीछा करनेमें वीरता दिखाई थी। धीरे धीरे उसकी तरकी होती रही । अन्तमें वह 26 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सूरीश्वर और सम्राट् । उस समय तेजसागर और सामलसागर नामके दो साधुओंको किसी कारणसे समुदाय बाहरकी सना दी गई थी। इससे वे दोनों साधु क्रुद्ध होकर कासिमखाँसे मिले। उस समय उसके शरीरमें कोई रोग था । साधुओंने औषध करके वह रोग मिटा दिया। इससे कासिमखाँ उनसे प्रसन्न हुआ । और बोला:--" मेरे लायक कोई कार्य हो तो कहो ।” साधुओंने कहा:--" अगर तुम हमसे खुश हो तो हीरविजयसरिको समझाकर हमें वापिस समुदायमें शामिल करा दो।" कासिमखाँने तत्काल ही हीरविजयसूरिजीको अपने पास बुलाया । यद्यपि उसने यह सोचा था कि, मैं सूरिजीको दबाकर इन साधुओंको समुदायमें शामिल करा दूंगा। मगर हीरविजयसूरिनीको और उनकी भव्य आकृतिको देखते ही उसका वह विचार जाता रहा । उनके चारित्रका उस पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि, उसने जिस हेतुसे सूरिजीको बुलाया था उसका कोई जिक्र ही नहीं किया । वह सादर उनके साथ वार्तालाप करने लगा। प्रसंगोपात्त सूरिजीने उसको जीवहिंसा-त्यागका उपदेश दिया । कासिमखाने कहा: “संसारमें जीव जीवका भक्षण है । ऐसा कौनसा मनुष्य है जो जीवोंका भक्षण नहीं करता है। लोग अनाज खाते हैं,वह क्या है? उसमें भी तो जीव है । लोग अनाजके अनेक जीवों का भक्षण करते हैं, इसकी अपेक्षा केवल एक ही जीवका वध कर उसका भक्षण किया जाय तो इसमें बुराई क्या है ? " सूरिजी बोले:-" सुनिए खासाहब ! खुदाने सारे जीवों पर गुजरातका सबेदार नियत हुआ। ई० स० १५९८ में उसका देहान्त हुआ। मरा उस समय वह पन्द्रह सा सेनाका नायक था। विशेषके लिए आईन-इअकबरी (ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवाद ) का ४१९ वाँ पृष्ठ देखो। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ सूबेदारों पर प्रभाव | महर रखनेकी आज्ञा की है । इस बातको शायद आप भी जरूर स्वीकार करेंगे। समस्त जीवोंपर रहम - दया करके उसके भक्षणसे दूर रहना, यह सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । मगर ऐसा करन । मनुष्य जातिके लिए अशक्य है । क्योंकि पेट हरेकको भरना पड़ता है । इसलिए यह बात विचारणीय है कि, जीवहिंसा जितनी हो सके उतनी कम करके पेट कैसे भरा जा सकता है ? 1 1 , " संसार में जीव दो तरह के हैं । 'स' और 'स्थावर' | जो जीव अपने आप हलन चलन नहीं कर सकते हैं वे 'स्थावर ' कहलाते हैं । जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति । अनाजके जीव भी 'स्थावर' जीव हैं । जो जीव अपने आप हलनचलन कर सकते हैं वे त्रस जीव होते हैं ! नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव ' त्रस ' कहलाते हैं । 'स्थावर' जीवोंके सिर्फ एक ही इन्द्री होती है । 'स' जीवोंके दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियाँ होती हैं । एकेन्द्रियकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रियकी अपेक्षा चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रियकी अपेक्षा पंचेन्द्रियका पुण्य विशेष होता है। यदि पुण्य में न्यूनाधिकता न होती तो फिर इन्द्रियोंमें न्यूनाधिकता कैसे होती ? पाँच इन्द्रिय जीवोंमें भी पशु, मनुष्य आदि हैं। पशुओंकी अपेक्षा मनुष्योंका पुण्य ज्यादा होता है । मनुष्योंमें भी पुण्यकी न्यूनाधिकता है । कोई गरीब है और कोई राजा है । कोई साधु है और कोई गृहस्थ है । इस भिन्नताका कारण पुण्यकी न्यूनाधिकता ही है । अब मैं आपसे पूछता हूँ कि, जो मनुष्य अनाजके जीवोंको और पशुओं के जीवोंको समान गिनके पशुओं का मांस खाते हैं, वे मनुष्यों का मांस क्यों नहीं खाते हैं ? क्योंकि उनकी मान्यतानुसार तो अनाज, पशु और मनुष्य सबके जीव समान ही हैं । मगर नहीं खाते । कारण- पारे जीवोंके पुण्य में न्यूनाधिकता है। जिन जीवों में पुण्यकी Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सूरीश्वर और सम्राट् । न्यूनता है उन जीवोंकी हिंसाका पाप भी कम होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि, जब तक थोड़े पुण्यवाले जीवोंकी हिंसासे काम चलता है तब तक विशेष पुण्यवाले जीवोंकी हिंसा करना बुरा है । इस तरह जब हमारा कार्य अनाजसे चल जाता है तब हमें विशेष इन्द्रियवाले जीवोंका संहार किस लिए करना चाहिए । जो विशेष इन्द्रियवाले जीवोंको खाते हैं-जो मांसाहारी हैं उनके अन्तःकरणोंमें, यह बात निर्विवाद है कि, खुदाके हुक्मके माफिक महर-दया नहीं रहती है।" सूरिजीके वक्तव्यसे कासिमखाँ बहुत प्रसन्न हुआ। उसके अन्तःकरणमें दयाभाव उत्पन्न हुए । उसने सूरिनीसे कोई कार्य ,बतानेको कहा । सारनीने जो बकरे, भैंसे, पक्षी और बंदीवान बंद थे उन्हें छोड़ देनेके लिए कहा। उसने सूरिनीकी आज्ञाका पालन किया । सबको छोड़ दिया। इस कार्यद्वारा कासिमखाने सूरिनीको प्रसन्न करके उनसे एक याचना की, " आपने अपने जिन दो शिष्योंको गच्छ बाहिर निकाला है उन्हें यदि आप वापिस गच्छमें लेलेंगे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।" सूरिजीने कहाः-" सैयद साहब ! शायद आप जानते होंगे कि, हम मनुष्यको, उसके कल्याणार्थ, साधु बनानेके लिए कितना प्रयत्न करते हैं ? एक जीव संसारी बंधनोंको तोड़कर साधु बनता है तब हमें बहुत आनंद होता है। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तब बने हुए साधुओंको हम, विना ही कारण अलग करदें यह कभी संभव है ? मगर किया क्या जाय ? वे किसीका कहना नहीं मानते और स्वतंत्र रहते हैं, इसीलिए मुझे ऐसा करना पड़ा है। तो भी आपके आग्रहको मानकर मैं उन्हें वापिस समुदायमें शामिल करलेता हूँ; परन्तु आप उन्हें समझा दीजिए कि, वे आगेसे हमेशा मेरी आज्ञामें रहें।" Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूबेदारों पर प्रभाव । कासिमखाँने तत्काल ही तेजसागरजी और सामलसागरजीको बुलाया और कहा:-" महाराज, तुम्हें वापिस समुदायमें लेलेते हैं, मगर आगेसे महाराजकी आज्ञाका उल्लंघन न करना।" फिर सूरिजीको उसने जुलूसके साथ उपाश्रय पहुँचाया । सुल्तान मुराद । * वि० सं० १६५० में पाटनसे सिद्धाचलजी जानेके लिए एक बहुत बड़ा संघ निकला था। सूरिजी भी उसके साथ थे। संघ जब अहमदाबाद पहुंचा तब सुल्तान मुरादने सूरिजी और संघका बहुत सत्कार किया । उसने उत्तमोत्तम रत्न रखकर सूरिजीकी पूजा की और संघका भी अच्छा आतिथ्य किया। सुल्तानने मूरिजीके मुखसे धर्मोपदेश सुननेकी इच्छा प्रकट की। सूरिजीने उसे धर्मोपदेश दिया। सूरिजीने उस समय हिंसाका त्याग, सस्यका आचरण, परस्त्री त्याग, अनीति अन्यायसे दूर रहने, और भंग, अफीम, मदिरा आदि व्यसनोंसे बचनेका खास उपदेश दिया । उसने सूरिजीके उपदेशको मानकर उस दिन कोई जीव हिंसा न करे ऐसा ढिंढोरा पिटवा दिया । जब सूरिजीने वहाँसे विहार किया तब उसने दो मेवड़े भी उनके साथ भेजे। इसके उपरान्त सूरिजीने अपने भ्रमणमें दूसरे भी अनेक सुल्तानों और सूबेदारोंको उपदेश दिया था और उनसे जीवदयाके कार्य कराये थे। * अहमदाबादका सूबेदार आजमखाँ जब मकाकी यात्राके लिये गया था तब उसके स्थानमें बादशाह अकबरने अपने पुत्र सुल्तान मुरादको नियत किया था। इसके बारेमें जो विशेष जानना चाहें वे ' मीराते अहमदी' (गुज. राती अनुवाद ) का पृ० १८६ देखें । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण आठवाँ । दीक्षादान | EURAADP वरत अपना काम किये ही जाती है। कुदरती कानूनोंके विरुद्ध चलने की कोशिशमें मनुष्यको कभी सफलता नहीं मिलती । समयके अनुकूल प्रत्येक प्रवृत्ति में परिवर्तन हुआ ही करता है । आबू गिरिनार, तारंगा, पालीताना और राणपुर आदिके गगनस्पर्शी और भव्य मंदिर आज भी भारतकी प्राचीन विभूतिका प्रत्यक्ष प्रमाण दे रहे हैं । उनको देखनेसे कइयोंके मनमें यह प्रश्न उठा करता है कि, " उस कालके वे लक्ष्मीपुत्र कैसे थे कि, जिन्होंने अपनी अखूट लक्ष्मीका व्यय ऐसे मंदिर बनवानेमें किया ! क्यों नहीं उन्हें बोर्डिंग, बालाश्रम, विश्वविद्यालय, अनाथाश्रम और पाठशालाएँ आदि स्थापन करनेका खयाल आया ? " ऐसी कल्पना करनेवाले यदि थोड़ा बहुत संसारकी परिवर्तनशीलताका अवलोकन करेंगे तो उनका हृदय ही उनके प्रश्नका उत्तर दे देगा । कोई समय समान नहीं रहता । उसमें परिवर्तन हुआ ही करता है । जिस जमाने में जैसे कार्योंकी आवश्यक्ता मालूम होती है उस जमाने में मनुष्यों की बुद्धि उसी प्रकारकी हो जाती है । कोई काल दर्शन उदयका आता है । उस समय लोगोंकी प्रवृत्ति मुख्यतया स्थान स्थान पर मंदिर बनवाने, प्रतिष्ठाएँ करवाने, संच निकालने और बड़े बड़े उत्सव करानेकी तरफ होती हैं । कोई समय ज्ञानके Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान | २०७ उदयका आता है उस समय लोग, स्थान स्थान पर पाठशालाएँ स्कूल बनवाने, विश्वविद्यालय स्थापन करने और पुस्तकालयोंका उद्घाटन करनेमें लग जाते हैं। कोई समय चारित्र के उदयका आता है उस समय साधुओं की वृद्धि ही दृष्टिगत होती है । विक्रमकी सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दिका समय, जिस समयका हम जिक्र कर रहे हैं, प्रधानतया चारित्र के उदयका था । उस समय संसारकी अनित्यताका भान होते ही बहुत से गृहस्थ - बहुत से गर्भश्रीमंत भी गृहस्थावस्थाका परित्याग कर चारित्र ( दीक्षा ) ग्रहण कर लेते थे । और इसीका यह परिणाम था कि, सैकड़ों ही नहीं बल्कि हजारोंकी संख्यामें जैनसाधु विचरण करते थे । । 1 कर्तव्यभ्रष्ट मनुष्य संसार में निंदा पात्र बनते हैं । यद्यपि यह बात सत्य है कि, संसार के समस्त मनुष्य समान प्रकृतिके, समान विद्वत्तावाले और समान ही कार्य करनेवाले नहीं होते । तो भी इतना जरूर है कि, किसीको अपने लक्ष्यबिंदुसे च्युत नहीं होना चाहिए । जैसे दीक्षा लेनेवालेको यह भली प्रकार से समझ लेना चाहिए कि, दीक्षा लेनेका उद्देश्य क्या है ? इसी तरह दीक्षा देनेवालेको भी यह न भूलजाना चाहिए कि, दीक्षा देनेका उद्देश्य क्या है ? दीक्षा परम सुखका कारण है। दीक्षा मोक्षकी निसेनी है। दीक्षित मनुष्य जिस सुखका अनुभव करता है, वह इन्द्र, चंद्र नागेन्द्रको भी नहीं मिलता । ऐसी इस भव और परभव दोनोंमें सुख देनेवाली दीक्षा अंगीकार करना प्रत्येक सुखाभिलाषी मनुष्यके लिए आवश्यक है। मगर उस ओर मनुष्यकी अभिरुचि नहीं होती । इसका कारण संसारके अनित्य पदार्थों परकी आसक्ति और चारित्र के महत्त्वकी अज्ञानता है । कई वार ऐसा भी बनता है कि, दीक्षा लेनेके बाद भी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૯ सूरीश्वर और सम्राट् । मनुष्य स्व-पर- उपकारका साधन करनेमें तत्पर नहीं रहता है, विषयवासनाओं में लिप्त हो जाता है, मोहमूर्च्छासे मूच्छित बनजाता है । उसकी स्थिति धोबीके गधेकीसी हो जाती है। वह आप भी डूबता है और दूसरी भी अनेक आत्माओंको अपने साथमें डुबोता है । मगर ऐसी स्थिति उसी मनुष्यकी होती है जिसका दीक्षाका यह उद्देश्य होता है, मूँड मुँडाये तीन गुण, मिटे सीसकी खाज । खानेको लड्डु मिलें, लोक कर्हे महाराज ॥ मगर जो ' सानोति स्व-परकार्याणीति साधुः । ' अथवा ' यतते इन्द्रियाणीति यतिः * इन वाक्योंको जो अपने हृदयपट पर अंकित कर रखते हैं, उनकी स्थिति कभी ऐसी नहीं होती । इसीलिए कहा गया है कि, मनुष्य अपने लक्ष्यबिंदुको न चूके । इसी प्रकार दीक्षादान करनेवालेको चाहिए कि, वह अपनी उदार भावनाको हमेशा स्थिर रक्खे | यह कहने की तो कोई आवश्यकता नहीं दिखती कि, दीक्षा लेनेवालेकी अपेक्षा देनेवाले पर उत्तर दायित्व विशेष रहता है । उसको हमेशा इस बातका प्रयत्न करना पड़ता है कि, दीक्षालेनेवाला जगत्का कल्याणकर्ता कैसे हो ? विषयवासनाओंसे उसका चित्त कैसे हटे ! उसका जीवन आदर्श कैसे बने ? आदि । इस प्रकार सचेष्ट वही गुरु-दीक्षा देनेवाला - रह सकता है कि, जो संमारके आरंभ समारंभ मस्त और विषय वासना तथा क्रोधादि कषार्थोंसे तृप्त जीवको, दया और शासनहितकी भावनासे, दीक्षा देता है । मगर जो सिर्फ बहुतसे शिष्यों के गुरु कहलाने के लोभसे + जो स्व-पर कार्यों की साधना करता है वह साधु होता है । * जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है, वह ' यति ' होता है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान। और मिथ्या आडंबरसे लोगोंको खुश करनेकी इच्छासे दीक्षाएँ देते हैं, वे दीक्षा लेनेवालेकी कोई भलाई नहीं कर सकते । वे तो मनु. प्यको गृहस्थावस्थासे निकाल कर अपने समुदायमें मिला लेनेहीमें अपने कर्तव्यकी ' इतिश्री' समझते हैं। इसका परिणाम प्रायः यह आता है कि, दीक्षालेनेवाला थोड़े ही दिनोंमें वापिस गृहस्थी बन जाता है । यदि कोई कुलकी लाजसे गृहस्थी नहीं बनता है तो भी उसको जीवनभर, साधुतामें जो वास्तविक सुख है वह नहीं मिलता। न तो वह समाजकी भलाई कर सकता है और न वह अपना हित ही कर सकता है। ऐसे गुरु और शिष्य सचमुचही समाजके लिए भार रूप हो जाते हैं। अपने नायक हीरविजयसूरि महान् विचक्षण, शासमप्रेमी और जगत्के कल्याणकी इच्छा करनेवाले थे । इसीलिए वे जब कमी किसीको दीक्षा देते थे तब पवित्र उद्देश्यको सामने रखकर ही देते थे। उनके उपदेशसे अनेक दीक्षा लेनेको तैयार होते थे। उन्हें दीक्षा देनेके अनेक प्रसंग मिले । उनमेंसे थोड़ेसे प्रसंगोंका यहाँ उल्लेख किया जाता है । उनसे पाठकोंको उस समयकी दीक्षाओं, मनुष्योंकी भावनाओं और अन्य कई व्यावहारिक बातोंका स्वरूप मालूम हो जायगा । ___ एक प्रकरणमें इस बातका उल्लेख किया जा चुका है कि, जिस समयकी हम बात कर रहे हैं उस समय कई स्वच्छंदी पुरुष नये नये मत निकालने और उनके प्रचार करनेमें थोड़े बहुत सफल होनाते थे। इससे हीरविजयसूरिके समान धर्मरक्षकोंको विशेष रूपसे प्रयत्न शील रहना पड़ता था। लौंका नामक गृहस्थके मतको-जिसका उल्लेख प्रथम प्रकरणमें किया जा चुका है-माननेवाले यद्यपि अनेक साधु और गृहस्प थे 27 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mma सूरीश्वर और सम्राद। तथापि जबसे जगह जगह हीरविजयसूरि सप्रमाण मूर्तिपूजाको सिद्ध करने लगे तबसे मूर्तिको नहीं माननेवाले अनेक साधुओं और श्रावकोंके विचार फिरने लगे । इतना ही नहीं अनेक साधु तो अपने मतको छोड़कर हीरविजयसूरिजीके पास पुनः दीक्षित हुए । और मूर्तिपूजक बने । इस तरह लौंकामत छोड़कर मूर्तिपूजक बने हुए साधुओंमेंसे मेघजीऋषिके-जो एक साथ तीस साधुओं सहित अपना मत छोड़कर तपागच्छमें आये थे-दीक्षा प्रसंगका यहाँ उल्लेख किया जाता है । लौकामतमें मेघजी नामक एक साधु मुख्य गिना जाता था । यद्यपि पहिले वह लौंकाका अनुयायी था, मगर पीछेसे जैनसूत्रोंका अवलोकन करनेसे उसको विदित हुआ कि,जैनसूत्रोंमें मूर्तिपूजाका उल्लेख है। मगर जो मूर्तिपूजाका विरोध करते हैं वे झूठे हैं, कदाग्रही हैं । मेघजीकी श्रद्धा मूर्ति और मूर्तिपूजाको माननेकी हुई। शनैः २ उसने अन्य भी कई साधुओंको अपनी मान्यता समझाई । वे भी उसको ठीक समझने लगे । तपागच्छके साधुओंमें उस समय हीरविजयसूरि मुख्य थे । मेघनी आदि लौंकागच्छके अनुयायी साधुओंकी इच्छा हीरविजयसरिसे तपागच्छकी दीक्षा लेनेकी हुई । मूरिजीको इस बातकी सूचना मिलते ही वे तत्काल ही अहमदाबादमें आये। क्योंकि उस समय मेघनी आदि साधु वहीं थे। मूरिजीके अहमदाबाद पहुँचने पर मेघनी आदिने उनसे पुनः दीक्षा ग्रहण करना स्थिर किया। अहमदाबाद के श्रीसंबने उत्सव करना प्रारंभ किया। उस समय एक और भी आश्चर्योत्पादक बात हुई । वह यह है,सम्राट अकबर उस समय अचानकही अहमदाबाद आ गया था । साथ __* अकबरका यह आगमन उस समयका है कि, जब उसने गुजरात पर प्रथम बार चढ़ाई की थी । वह ई. स. १५७२ के नवम्बरकी २० वीं तारीखको अह्मबादमें आया था और ई. स. १५७३ की १३ वी अप्रेलको Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान। उसका कृपापात्र अनुचर थानसिंह रामजी नामक जैनगृहस्थ भी था । उसके प्रभावसे शाही बाना पल्टन आदि भी इस उत्सवके लिए मिले थे। उससे उत्सवका और जैनोंका गौरव बढ़ गया था। इस प्रकार बड़ी धूमधामसे मेघजी* ऋषिने लौं कामतका त्यागकर हीरविजयसरिजीके पास संवत् १६२८ में दीक्षा ली। सूरिजीने मेधनीका नाम उद्योतविजय रक्खा । मेघजीके समान एक प्रभावशाली साधु अपने मतको छोड़कर शुद्ध मार्ग पर आया, उसके तीस+ शिष्य-अनुयायी भी उसके गुजरात छोड़ कर चला गया था । लगभग पांच महीने तक वह गुजरातमें रहा था। (देखो. अकबरनामा, ३ रा भाग, बेवरिज कृत अंग्रेजी अनुवाद, पृ० ११ से ४८ तक) उसी समय मेघजीकी दीक्षाका प्रसंग भी आया था । x ऋषभदास कविके कथनसे मालूम होता है कि, मेघजी गृहस्थावस्थामें प्राग्वंशी था । + मेघजीने कितने साधुओंके साथ सूरिजीसे पुनः दीक्षा ली, इस विषयमें लेखकोंके भिन्न भिन्न मत हैं । ' हीरसौभाग्य ' काव्यके नवमें सर्गके ११५ वें श्लोकमें तीस आदमियोंके साथ दीक्षा लेना लिखा है--विनेयैविंशता समम्' ___ इसी प्रकार कवि ऋषभदास भी हीरविजयसूरिरासमें तीसके साथ दीक्षा लेना लिखता है,-'साथई साथ लिओ नर त्रीश. 'विजयप्रशस्ति ' काव्यके भाठवें सर्गके नववे श्लोक की टोकामें लिखा है कि, दीक्षा सत्ताईसने ली थी- सप्तविंशतिसंख्यैः परीतः सन् गुणविजयजीके शिष्य संघविजयजीने वि. सं. १६७९ के मिगसर सुद ५ के दिन बनाये हुए · अमरसेन-वयरसेन ' आख्यानमें लिखा है कि, उन्होंने अठाईस ऋषियोंके साथ आकर प्रसन्नता पूर्वक हीरविजयसूरिको वंदना की । ( 'अठ्ठावीस ऋषिस्युं परवर्या, आवी वंदइ मनकोडि' ९७) इन्हीं संघविजयजीने 'सिंहासनबत्तीसी में भी अठाईसके साथ ही दीक्षा लेनेका उल्लेख किया है । इसलिए यह स्थिर नहीं किया जा सकता है Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ सूरीश्वर और सम्राट् । साथ तपागच्छमें दाखिल हुए, और हीरविजयमूरिसे दीक्षित हुए। उन तीसमें मुख्य आंबो, भोजो, श्रीवंत, नाकर, लाडण, गांगो, गणो (गुणविजय) माधव और वीरआदि थे। उनके गृहस्थ अनुयायी दोसी श्रीवंत, देवजी, लालजी और हंसराज आदि भी सूरिजीके अनुयायी बने । यह बात अभूतपूर्व हुई । इससे जैसे श्वेतांबर मूर्तिपूजकोंकी प्रशंसा हुई वैसे ही हीरविजयसूरिजीके प्रभावमें भी बहुत ज्यादा अभिवृद्धि हो गई । मेघनी आदि मुनियोंकी प्रशंसा इनसे भी ज्यादा दुई। क्योंकि उन्होंने सत्यका स्वीकार करनेमें लोकापवादका लेशमात्र भी भय न रक्खा। चरित्रनायक सूरिनी गीतार्थ थे । वे उत्सर्ग और अपवादके मार्गको जानते थे । शासनके प्रभावक थे । उनको न था शिष्योंका लोभ और न थी मानकी अभिलाषा । उनके अन्तःकरणमें केवल यही भावना रहती थी कि, जगजीवोंका कल्याण कैसे हो? जैनधर्ममें प्रभावक पुरुष कैसे पैदा हों ? और स्थान स्थान पर जैनधर्मकी विजयवैजयन्ती कैसे फहरावे ? और इसीलिए उनके उपदेशका इतना प्रभाव होता था कि, अनेक बार अनेक लोग उनके पास दीक्षा लेनेको तत्पर होते थे । शुद्ध हृदय और परोपकारबुद्धिप्रेरित उपदेश असर क्यों न करेगा ? वि. सं. १६३१ में हीरविजयमूरि जत्र खंभातमें थे, तब उन्होंने एक साथ ग्यारह मनुष्योंको दीक्षा दी थी। यह और ऊपरकी बात यही प्रमाणित करती हैं । इन दोनों बातों पर विशेष रूपसे प्रकाश कि, मेघजीऋषिके साथ कितनीने दीक्षा ली थी । यह संभव है कि, पहिले मेघजीके साथ तीस तत्पर हुए हों और पीछेसे दो तीन निकल गये हों और लेखकाने निकले हुओंको कम करके संख्या लिखी हो । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान । डालनेसे पाठकोंको विदित होगा कि, उस समयके लोग आत्मकल्याण करनेके लिए कितने उत्सुक रहते थे। पाटनमें अभयराज नामका एक ओसवाल गृहस्थ रहता था। वह कालान्तरमें अपने कुटुंब सहित दीव बंदर में जा रहा । अभयराज दीवबंदरका एक बहुत बड़ा व्यापारी समझा जाता था । कारण-चार तो उसके पास वाहण-जहाज ही थे । उसने अपने ही उद्योगसे धन कमाया था । उसकी स्त्रीका नाम अमरादे था। उसके गंगा नामक एक कन्या भी थी। वह बालकुँवारी थी। कमलविजयजीx * ये बड़े कमलविजयजीके नाम: प्रसिद्ध हैं । उनका मूल निवास द्रोणाड़ा (मारवाड़) था । ये छाजेड गोत्रके ओसवाल थे। उनके मातापिताका नाम गेलमदे और गोविंदशाह था । उनका जन्म नाम केल्हराज था। बारह वर्षकी आयुहीमें उनके पिताका स्वर्गवास हो गया था । इसलिए वे अपनी माताके साथ जालोर (मारवाड़) गये । वहाँ पंडित अमरविजयजीके सहवाससे उनके हृदयमें दीक्षा लेनेकी इच्छा उत्पन्न हुई थी । बड़ी कठिनतासे उन्होंने मातासे आशा लेकर धूमधामके साथ पं. अमरविजयजीके पास दीक्षा ली । नाम कमलविजयजी रक्खा गया । थोड़े ही दिनोंमें उन्होंने आगो-शास्त्रोंका अच्छा अभ्यास कर लिया । उनको योग्य समझ कर आचार्य श्रीविजयदानसूरिने उनको गंधारमें पंडित पद दिया (वि.सं.१६१४) में उन्होंने मारवाड़, मेवाड और सोरठ आदि देशोमें विहार किया था, और अनेकोंको उपदेश दे कर दीक्षित किया था । उनकी त्यागवृत्ति बहुत ही प्रशंसा नोय थी । महीनेमें छ: उपवास तो वे नियमित किया करते थे । नित्यप्रति ज्यादासे ज्यादा, वे दिनभरमें केवल सात चीजोंका उपयोग करते थे। वि. सं. १६६१ में उन्होंने आचार्य श्रीविजयसेनसूरिके आदेशसे महेसानेमें चातुर्मास किया था। वहाँ आषाढ सुदी १२ के दिन उनके शरीरमें व्याधि उत्पन्न हुई। यद्यपि सातदिनका उपवास करने के बाद कुछ दिनके लिए उनका रोग शान्त हुआ था, तथापि उसी महीनेके अन्तमें आषाढ सुद १२. के दिन ७२ वर्षकी आयुमें उनका स्वर्गवास हो गया । (विशेषके लिए एतिहासिक राससंग्रह, भा. रा. १२९ देखो। ) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। पन्यासकी एक साध्वीके पास वह निरन्तर अध्ययन किया करती थी। अध्ययन करते हुए उसके हृदयमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने अपनी मातासे दीक्षा लेनेकी बात कही। माताको बहुत दुःख हुआ। उसके पिताने उसे समझाया कि दीक्षा लेनेकी अपेक्षा उसको पालनेमें कितना ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, उसमें कितने धैर्य और कितनी सहनशीलताकी आवश्यक्ता है । मगर गंगा अपने निश्चय पर दृढ रही। माताने कहा:--" अगर तू दीक्षा लेगी तो मैं भी तेरे साथ दीक्षा ले लूंगी।" अभयकुमारने सोचा,-जब कन्या और पत्नी दोनों मिलकर दीक्षा ले रहे हैं, तब मैं भी क्यों न दीक्षित हो जाऊँ। सोचता था, मगर उसके मार्गमें एक बाधा थी। उसके एक मेघकुमार नामका लड़का था। उसकी उम्र छोटी थी। इससे अभयकुमार सोचता था कि, मेरे बाद लड़केकी क्या दशा होगी । एक दिन उसने कहा:--" वत्स ! तेरी बहिन, तेरी माता और मैं तीनों आदमी दीक्षा लेंगे। तूने सुखपूर्वक संसारमें रहना और आनंद करना।" मेघकुमारने उत्तर दिया:-" पिताजी ! आप मेरी चिन्ता न कीजिए । मैं भी आपहीके साथ दीक्षा लेनेको तैयार हूँ। अपने मातापिता और अपनी बहिनके साथ मुझे दीक्षा लेनेका अवसर मिलता है यह तो मेरे लिए सौभाग्यकी बात है । ऐसा अपूर्व अवसर मुझे फिर कब मिलेगा ?" पुत्रकी बातसे अभयराजको बहुत प्रसन्नता हुई । आत्मकल्याणके सोपान पर चढ़नको तत्पर बने पुत्रके शब्दोंसे उसके हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। मेघकुमारकी वैराग्य भावना देख कर उसकी काकीको मी दीक्षा लेनेकी इच्छा हुई । एक एक करके सारे कुटुंब को। ( पाँच आदमियोंको) दीक्षा लेनेके लिए तैयार होते देख कर अभयराजके चार Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ - दीक्षादान। मुनीम-गुमास्तोंको भी संसारसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने भी उनके साथ दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । इस तरह नौ मनुष्योंका एक साथ दीक्षा लेनेका विचार स्थिर हुआ । फिर अभयकुमारने आचार्य श्रीहीरविजयमूरिको एक पत्र लिखा। उसमें उसने उक्त आठ आदमियों सहित दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । मूरिजी उस समय खंभातमें थे। उन्होंने उत्तरमें दीक्षा देनेकी प्रसन्नता प्रकट की । ऐसे लज्जासंपन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, धनसम्पन्न और हरतरहसे योग्य वैरागी मनुष्योंको दीक्षा देनेकी आचार्य श्रीउत्सुकता बतावे इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। सूरिजीका उत्तर मिलते ही अभयराज सबको लेकर खंभात गया । वहाँ वे वाघजीशाह नामक गृहस्थके घर पर ठहरे । दीक्षोत्सवकी तैयारी होने लगी। आसपासके गाँवोंके लोग जमा होने लगे। अभयराजकी ओरसे नित्यप्रति साधर्मीवत्सल होने लगे । दान दिया जाने लगा । इस तरह बराबर तीन महीने तक शुभ कार्य होते रहे । लगभग ३५ हजार ' महमूंदिका ' ( उस समयका चलनी सिक्का ) खर्च हुई । अभयराज का लक्ष्मी पाना सार्थक हुआ। इस तरह धनधान्य, ऋद्धि-सिद्धिका परित्याग कर; उनको शुभ कार्यमें लगा अभयराजने अपनी स्त्री, पुत्री, माई की पत्नी, पुत्र और चार नौकरों सहित खंभातके पासके कंसारीपुर '* ___ * 'कंसारीपुर' खंभातसे लगभग एक माइलके अन्तर पर एक छोटासा गाँव है । यद्यपि इस समय वहाँ न कोई मंदिर ही है और न कोई श्रावकका घर ही, तथापि कई प्रमाणोंसे यह मालूम होता है कि पहिले वहाँ ये सब कुछ थे। सत्रहवीं शताब्दिके सुप्रसिद्ध कवि ऋषभदासने खंभातकी चेत्यपरि. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राद। में आंबासरोवरके+ पास, रायणवृक्षके नीचे, हीरविजयसूरिसे दीक्षा लेली। पाटी बनाई हैं । वह उसीके हाथकी लिखी हुई है, उसमें कंसारीपुरका वर्णन करते हुए वह लिखता है,भीडिभंजन जिन पूजवा, 'कंसारीपुर' मांहिं जईइ3; बावीस ब्यंब (बिंब) तिहां नमी, भविक जीव निर्मलहह थईह । बीजइ देहरइ जइ नमुं स्वामि ऋषभजिणंद; सत्तावीस ब्यंब प्रणमता, सुपरषमनि आणंद ॥ ४६ ॥ इससे मालूम होता है कि, ' कंसारीपुर ' में उस समय दो मंदिर थे। एक था ऋषभदेवका और दूसरा था भीडभंजनपार्श्वनाथका । ऋषभदेवक मंदिरमें सत्ताईस प्रतिमाएँ थीं और भीडभंजनपार्श्वनाथके मंदिरमें बाईस । सं० १६३९ में सुधर्मगच्छके आचार्य श्रीविनयदेवसूरि खंभात गये थे। तब वे ' कंसारीपुर ' में तीन दिन तक ठहरे थे । उस समय उन्होने वहाँ पार्श्वनाथ के दर्शन किये थे । मनजीऋषिने यह बात विनयदेवमूरिरासमें लिखी है । गछपति पांगर्या, परिवारह बहु परवर्या, गुणभर्या कंसारीई आविया ए: पास जिणंद ए अश्वसेनकुलिचंद ए, वंद ए भावधरीनई वंदीया ए; बंद्या पासजिणेसर भावई त्रिण दिवस थोभी करी; हवइ नयरि आवइ मोती वधावइ शुभ दिवस मनस्यां धरी॥ इसी भाँति विधिपक्षीय श्रीगजसागरसरिके शिष्य ललितसागरके शिष्य मतिसागरने भी सं. १७०१ में खंभातकी तीर्थमाला बनाई है । उसमें भी उन्होंने चिन्तामाणपार्श्वनाथका, आदिनाथका और नेमिनाथका इस तरह तीन मंदिरोंका होना लिखा है । __ अभी खंभातके खारवाड़ाके मंदिर में 'कंसारीपार्श्वनाथ'को मूत्ति है । कहाजाता है कि, यह मूर्ति कंसारीपुरसे लाई गई थी । संभव है कि, यही पार्श्वनाथको मूत्तिं पहिले भीडभंजनपार्श्वनाथके नामसे ख्यात हो । ___+ वर्तमानमें 'आंबासरोवर'का नाम 'आंबाखाई है । यह कंसारीपुरसे लगभग आधे माइलकी दूरी पर पश्चिम दिशामें है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान । २१७ इस भाँति एक साथ नौ मनुयोंको दीक्षा लेते देख, श्रीमाली ज्ञातिके नाना नागजी नामक गृहस्थकोभी वैराग्य उत्पन्न हो गया । इससे उसने भी उसी समय दीक्षा ले ली। उसका नाम भाणविजय रक्खा गया । इस तरह क्षणमात्र वैराग्यके उत्पन्न होते ही दीक्षाका लेना या देना कइयोंको अनुचित मालूम होगा । मगर वस्तुतः वह अनुचित नहीं था । क्योंकि ' श्रेयांसि बहु विघ्नानि ' श्रेष्ठ कार्योंमें अनेक विघ्नोंकी संभावना रहती है, इसीलिए कहा है कि, धर्मस्य त्वरिता गतिः धर्म कार्यमें देर नहीं करना चाहिए। उसमें भी मुख्यतया दीक्षाकार्य के लिए तो हिन्दुधर्म शास्त्रोंमें भी यही कहा गया है कि, यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् । यानि जिस दिन वैराग्य हो उसी दिन दीक्षा ले लेनी चाहिए । यह ठीक ही है । जिस समय तीव्र वैराग्य हो उसी समय, एक मुहूर्त्तकी भी प्रतीक्षा न कर दीक्षा ले लेनी चाहिए। न जाने दूसरे मुहूर्तमें कैसे विचार आवें और शुभ समय हाथ से जाता रहे । हाँ, यह बात ठीक है कि, दीक्षा देनेवालेको लेनेवालेकी योग्यताका विचार अवश्यमेव करलेना चाहिए । दूसरे प्रकरण में यह कहा जा चुका है कि, हीरविजयसूरि एक बार जब खंभातमें गये थे तब वहाँके ' रत्नपाल दोशी ' नामक गृहस्थने सूरिजीको वचन दिया था कि, ' मेरा लड़का रामजी बीमार है, यदि वह अच्छा हो जायगा तो, मैं उसे, अगर वह चाहेगा तो, आपके सिपुर्द कर दूंगा । पीछेसे वह लड़का अच्छा हो गया तो भी सूरिजीको न सौंपा गया * रामजी इस दीक्षाके समय वहीं खड़ा ।' था । वह पहिलेहीसे यह जानता था कि, मेरे मातापिताने मुझे हीर विजयसूरिजी को सौंपने का वचन दिया था । मगर पीछे से सौंपा * पृष्ठ २७ देखो । 28 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सूरीश्वर और सम्राट् । - नहीं था। यद्यपि में सौंपा नहीं गया हूँ तथापि वास्तवमें तो मैं सूरिजीका शिष्य हो चूका हूँ। अतः मुझे उनकी सेवामें जाना ही चाहिए । इसी जानकारीके कारण, पिताका आग्रह होनेपर भी उसने ब्याह नहीं किया था। जिस वक्त दस आदमियोंकी दीक्षा हो रही थी उस समय रामजी भी वहीं मौजूद था। उसका मन ऐसे अपूर्व प्रसंग पर दीक्षा लेनेके लिये तलमला रहा था । मगर करता क्या ? उसका पिता और उसकी बहिन इसके सख्त विरोधी थे। रामनीने भानुविजयजीजिन्होंने रामजीके कहनेहीसे दीक्षा ली थी-नामक साधुकी ओर देखा और उसको इशारेसे समझाया कि, मुझे किसी न किसी तरहसे दीक्षा दो। उस समय कुछ ऐसा प्रयत्न किया गया कि, उसी समय गोपालजी नामका एक श्रावक रामनीको रथमें बिठाकर पीपलोईx ले गया । उसके पीछे एक पंन्यास भी गया। उसने जाकर रामजीको दीक्षा दी । वहाँसे वे वडली गये। दिक्षा लेनेवालेका मन यदि दृढ़ होता है तो हजारों विघ्न भी कुछ नहीं कर सकते हैं । यह बात निर्विवाद है । रामजीका मन दृढ था । दीक्षा लेनेकी उसके हृदयमें इच्छा थी तो दूर जाकर भी अन्तमें उसने दीक्षा ले ली। यद्यपि इस प्रकारकी दीक्षासे उसके बहिन भाइयोंने गड़बड़ मचाइ परन्तु पीछेसे उदयकरणके सम___x पीपलोई खंभातसे ६-७ माइल दूर है । वर्तमानमें भी उसको पीपलोई ही कहते हैं । वडलीको वर्तमानमें वडदला कहते हैं । अभी वहाँ कोई मंदिर नहीं है। मगर श्राववोंके थोडेसे घर अब भी वहाँ हैं। खंभातसे यह ९-१० माइल दूर है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान । झानेसे वे समझ गये थे। नवदीक्षित रामजी खंभात बुलाया गया और उसकी दीक्षाके लिये उत्सव मनाया गया। . उपर्युक्त प्रकारसे मेघकुमार ( मेघविजय ) आदि ग्यारह मनुप्योंने एक साथ दीपा ली। अहमदाबादमें भी इसी प्रकार एक प्रसंग बना था। वहाँ भी सूरिजीने एक साथ अठारह मनुष्योंको दीक्षा दी थी। वीरमगाँवमें वीरजी मलिक नामका एक वजीर रहता था। वह पोरवाल ज्ञातिका था । यह मनुष्य बड़ा नामी और प्रभावशाली था । पाँचसौ घुड़सवार हर समय उसके साथ रहते थे। वीरजीका पुत्र सहसकरण मलिक था । यह भी बहुत प्रसिद्ध था । महम्मदशाह * बादशाहका मंत्री था। सहसकरणके गोपालजी नामका एक पुत्र था। गोपालजीकी बचपनहीसे धर्म पर अच्छी प्रीति थी। उसका हृदय विषयवासनासे सदा विरक्त रहता था। गोपालजी साधुओंके सहवासमें ज्यादा रहता था। उसने छोटी उम्रमें ही न्याय-व्याकरण आदिका अच्छा अभ्यास कर लिया था। नैसर्गिक शक्तिके कारण वह अपनी छोटी आयुहीमें कविता करने लगा था । बारह वर्षकी आयुमें उसने ब्रह्मचर्यव्रत लिया था। . थोड़ेही कालके बाद गोपालजीका हृदय वैराग्यवासित हो गया। उसके हृदयमें दीक्षा लेनेकी भावना लहराने लगी। उसने हार्दिकभाव अपने कुटुंबियोंसे कहे । कुटुंबी विरोधी हुए। मगर वह अपने विचारसे न टला । इतना ही नहीं, उसने अपने भाई कल्याणजी और अपनी * यह वह महम्मदशाह है कि, जिसने ई. स. १५३६ से १५५४ तक राज्य किया था । विशेषके लिये देखो 'मुसलमानी रिसायत' (गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित ) पृ. २१२, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। बहिनको भी दीक्षा लेनेके लिए तत्पर किया। तीनों भाईबहिन हीरविजयसूरिके पास अहमदाबाद गये । वे वहाँ जौहरी कुंवरजीके यहाँ उतरे । दीक्षाका उत्सव प्रारंभ हुआ। जुलुस निकलने लगे। कुंवरजी जौहरीने इस उत्सवमें बहुतसा धन खर्चा । गोपालजी और कल्याणजीको दीक्षा लेते देख शाह गणजी नामक एक व्यक्तिको भी वैराग्य हो आया। उसने भी उन्हींके साथ दीक्षा ले ली । इनके सिवाय धनविजय नामक साधु हुए । उनके साथ ही उनके दो भाईयों (कमल और विमल) तथा मातापिताने भी दीक्षा लेली । इनके अलावा सदयवच्छ भणशाली, पद्मविजय, देवविजय और विजयहर्ष आदि ऐसे सब मिलाकर अठारह आदमियोंने उस समय दीक्षा ली थी। गोपालजीका नाम सोमविजय रक्खा गया था। ये वे ही सोमविजयजी हैं कि, जिन्हें उपाध्यायकी पदवी थी और जो हीरविजयसारके प्रधान थे। कल्याणजीका नाम कीर्तिविजयजी और उनकी बहिनका नाम साध्वी विमलश्री क्खा गया था। ये वेही कीर्तिवि. जयजी हैं कि, जो सुप्रसिद्ध उपाध्याय श्रीविनयविजयजीके गुरु थे। हीरविजयसूरि प्रायः ऐसोंहीको दीक्षा दिया करते थे कि, जो खानदानी और लज्जा-विनयादि गुणसम्पन्न होते थे। यह बात बिलकुल ठीक है कि, जब तक ऐसे मनुष्योंको दीक्षा नहीं दी जाती है; दूसरे शब्दोंमें कहें तो-जब तक उत्तमकुलके और व्यावहारिक कार्योंमे कुशल बहादुर मनुष्य दीक्षा नहीं लेते हैं, तब तक वे साधुवेष में रहते हुए भी शासनके प्रति जो उनका कर्तव्य होता है उसको पूर्ण नहीं कर सकते है । यह बात सदा ध्यान रखनी चाहिए कि, देश, समाज या धर्मकी उन्नतिका मुख्य आधार साधु ही हैं। जब तक साधु सच्चे निःस्वार्थी, त्यागी और उपदेशक नहीं होते हैं, तब तक उन्नतिकी आशा केवल भावनामें ही रह जाती है। जब जब शासनमें Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान | २३१ महान कार्य हुए हैं, तब तब उसमें मुख्यता साधुओंकी ही रही है । यानी साधुओंके उपदेशसे ही महान् कार्य हुए हैं । देश - देशान्तरोमें घूम घूम कर साधु ही लोगोंके हृदयोंमें धर्मकी जागृति किया करते हैं। राजसभाओं में भी साधु ही प्रवेश करके, धर्मबीजबोनेका प्रयत्न करते हैं। ऐसे साधु वृक्षोंसे या आकाशसे नहीं उतरते । गृहस्थोंमेंसे ही ऐसे व्यक्ति निकलते हैं और वे साधु बनकर शासन की उन्नति करते हैं। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तब जो गृहस्थ अपने को सुशिक्षित समझते हैं, और प्रायः इस तरहके आक्षेप करके - कि, 'साधु कुछ भी धर्महितका कार्य नहीं करते हैं; श्रावकोंको उचित उपदेश नहीं देते हैं; अपनेको शासनहितैषी होनेका दावा करते हैं वे साधुत्व ग्रहण करके क्यों नहीं समाज या धर्मकी उन्नतिके कार्यमें लगते हैं? क्यों नहीं वे स्वयं साधु बन कर आधुनिक साधुओंके लिए आदर्श बनते हैं ? यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि, जमाना काम करके बतानेका है, बातें बनानेका नहीं । करना कुछ नहीं और बड़ी बड़ी बातें बनाना या दूसरों पर आक्षेप करना, केवल धृष्टता है । लाखों खंडी बोलनेवालेकी अपेक्षा पैसे भर कार्य करनेवालेका प्रभाव विशेष होता है । इस नियमको हमेशा याद रखना चाहिए । यद्यपि हम यह मानते हैं कि, वर्तमान साधुओं द्वारा जितना कार्य हो रहा है उतनेहीमें हमें सन्तोष करके बैठ नहीं जाना चाहिए। वर्तमान समयके अनुसार कार्य करनेवाले तेजस्वी साधुओंकी विशेष आवश्यकता है । इस बातको हम मानते हैं । कारण शास्त्रकार कहते हैं कि, ' जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा । ' जो कार्य करने में वीरता दिखाते हैं वे ही धर्म भी वीरता के साथ पाल सकते हैं । इसलिए शासनोन्नतिकी आशाको यदि विशेष फलवती करना हो तो ऐसे योग्य साधु पैदा करने चाहिए । साधुवर्गको भी इस विषय पर विचार करना चाहिए । 1 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ सूरीश्वर और सम्राट् । अकबरके पास एक जेताशाह नामका नागौरी गृहस्थ रहता था। बादशाहकी उस पर पूर्ण कृपा थी । जब हीरविजयसूरि बादशाहके पाप्तसे रवाना होने लगे तब जेताने प्रार्थनाकी कि, यदि आप दो तीन महीने तक यहाँ और ठहरें तो मैं आपके पास दीक्षा लें।" सूरिजीके लिए यह बात विचारणीय थी। जेताशाहके तुल्य बादशाहके कृपापात्र और प्रतिष्ठित. मनुष्यको दीक्षा देनेका लाभ कुछ कम न था; मगर गुजरातकी ओर प्रयाण करना भी जरूरी था । सूरिजी बड़े विचारमें पड़े। थानसिंहने जेताशाहसे कहाः-" जब तक बादशाहकी आज्ञा न मिलेगी तुम दीक्षा नहीं ले सकोगे।" तत्पश्चात् उसने ( थानसिंहने ) और मानुकल्याणने बादशाहसे जाकर अर्ज की,-" जैतानागोरी हीरविजयसूरिजीके पास दीक्षा लेना चाहता है । मगर आपकी आज्ञाके विना यह काम नहीं होगा।" - बादशाहने जैताशाहको बुलाया और कहा:-" तू साधु क्यों होना चाहता है ? अगर तुझे किसी तरहका दुःख हो तो मैं उसको मिटानेके लिए तैयार हूँ । गाँव, जागीर, धन-दौलत जो कुछ चाहिए मांग। मैं दूंगा।" जैताशाहने उत्तर दिया:--" आपकी कृपासे मेरे पास सब कुछ है । मुझे किसी गाँव, जागीर या धन-दौलतकी चाह नहीं है। मेरे स्त्रीपुत्र भी नहीं हैं। मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूँ। इसलिए साधु बननेकी इच्छा है । कृपा करके प्रसन्नतापूर्वक मुझे साधु होनेकी आज्ञा दीजिए।" जैताशाहको अपने विचारोंमें दृढ देखकर बादशाहने उसको दीक्षा लेनेकी आज्ञा दी । तब थानसिंहने कहा:-" सूरिजी महाराज तो चले जाते हैं फिर इसको दीक्षा कौन देगा ! Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान। बादशाह बोला:-" जाओ सूरिजी महाराजको मेरी ओरसे प्रार्थना करो कि, जहाँ धर्मोन्नतिका लाभ हो वहाँ साधुओंको रहना ही चाहिए । जैताशाह आपके पास दीक्षा ग्रहण करना चाहता है, अतः कृपा करके आप थोड़े दिन ठहर जाइए।" सुतरां सूरिजीको ठहरना ही पड़ा । जैताशाहकी दीक्षाके लिए उत्सव प्रारंभ हुआ।बादशाहकी अनुमतिसे धूमधामके साथ जैताशाहको सूरिजीने दीक्षा दी। उसका नाम जीतविजयजी रक्खा गया । ये जीतविजयजी 'बादशाही यति । के नामसे प्रसिद्ध हुए। जेताशाहके समान प्रसिद्ध और बादशाहके कृपापात्र मनुष्यके दीक्षा लेनेसे जैनधर्मकी कितनी प्रभावना हुई होगी, इसका अंदाजा सहजहीमें लगाया जा सकता है। . आचार्य हीरविजयसूरिजीके उपदेशमें ऐसा असर था कि उससे कई वार तो कुटुंबके कुटुंब दीक्षा ले लेते थे। सरिजी जब सीरोहीमें थे तब उन्हें एक बार ऐसा स्वप्न आया कि, हाथीके चारबच्चे सूंडमें पुस्तक पकड़ कर पढ़ रहे हैं। इस स्वप्नका विचार करनेसे उन्हें विदित हुआ कि, चार उत्तम शिष्य मिलेंगे । कुछ ही दिनों में उनका स्वप्न सच्चा हुआ। रोहके * सुप्रसिद्ध श्रीवंत सेठ और उनके कुटुंबके मनुष्योंने सूरिनीके पास दीक्षा ली । उनमें चार उनके पुत्र (धारो, मेघो, कुंवरजी (कलो) और अनो ) पुत्री, बहिन, बहनोई, भानजा और स्त्री लालबाई ( इसका दूसरा नाम शिणगारदे था ) थे। इन दसोंके नाम दीक्षाके बाद निम्न प्रकारसे रक्खे गये थे। * आबूसे लगभग १२ माइल पर, दक्षिण दिशामें यह ग्राम है। आर. एम. आर. रेल्वेका वहाँ स्टेशन भी है । स्टेशनका नाम भी रोह'ही है। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ सूरीश्वर और समाद। १-श्रीवंत शेठका नाम (क्या रक्खा गया मालूम नही हुआ) २-लालबाईका लाभश्री ७-पुत्रीका सहजश्री ३-धाराका अमृतविजय (-बहिनका रंगश्री ४-मेवाका मेरुविजय ९-बहनोईका शार्दूलऋषि ५-कुंवरजी विजयानंदसुरि१०-भानजेका भक्तिविजय ६-अजाका अमृतविजय इस तरह सारे कुटुंबका दीक्षा लेना आश्चर्यमें नहीं डालेगा ? उपर्युक्त दीक्षा ग्रहण करनेवाले व्यक्तियों में कुंवरजी विशेष प्रसिद्ध हुआ था। कुंवरजी पीछेसे विजयानंदसूरि के नामसे प्रसिद्ध हुए थे। सीरोहीमें ही वरसिंह नामका एक गृहस्थ रहता था। वह बहुत बड़ा धनी था। पूर्ण युवावस्था होनेसे उस समय उसके ब्याहकी तैयारीयाँ हो रही थी । व्याह मँड चुका था । जवारे बो दिये थे। नित्य मंगलगान होने लगे थे । सुबो शाम नगारे बजते थे। जीमनके लिए मिष्टान्न तैयार होने लग रहा था । इस तरह ब्याहके सब सामान तैयार हो गये थे। फेरे फिरनेमें कुछ ही दिन बाकी रहे थे। वरसिंह एक धार्मिक मनुष्य था । हमेशा उपाश्रयमें जाता और धार्मिक क्रियाएँ करता था । लग्नका दिन निकट आनाने और आनंद उत्सव होने पर भी वह अपनी धर्मक्रियाओंको छोड़ता न था। एक दिन वरसिंह उपाश्रयमें बैठा हुआ, सिरपर कपड़ा ओढ़ कर सामायिक कर रहा था । उसका मुँह कपड़से ढका हुआ था। वह इस तरह बैठा हुआ था कि उसे कोई पहिचान न सकता था। उपाश्रयमें साधुओंको वंदना करनेके लिए अनेक स्त्रीपुरुष आते थे और वे साधुओंके साथ ही वरसिंहको भी वंदना कर जाते थे । वरसिंहकी भावीपत्नी भी आई और अन्यान्य स्त्रीपुरुषोंकी भाँति उसको वाँद गई। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान । २१५ उसके पास में बैठा हुआ एक गृहस्थ हँसा और बोला: " वर सिंह ! अब तू ब्याह नहीं कर सकेगा; क्योंकि तेरी स्त्री अभी ही तुझे साधु समझकर वंदन कर गई है और वंदनाके द्वारा यह सूचना दे गई है कि, ' अब भी चेत जाओ' अतः तुझे भत्र ब्याह नहीं करना चाहिए । " वरसिंहने उत्तर दिया : " बंधु, मैं तुम्हारी बातको मानता हूँ। मैं अब ऐसा ही करूँगा जिससे वह ( मेरी होनेवाली पत्नी ) और अन्यान्य स्त्रीपुरुष हमेशा ही वंदना किया करें। घर आकर उसने कहा कि, 'मुझे अब ब्याह नहीं करना है ।' उसका सारा कुटुंब जमा हुआ । उसको अनेक तरह से समझाने लगा; दीक्षा नहीं लेनेके लिए विवश करने लगा। मगर उसने किसीकी बात न मानी और कहा :- "यदि तुम मुझे दीक्षा नहीं लेने दोगे तो मैं आत्मघात करूँगा । " बरसिंह अन्नजल छोड़कर घरमें बैठ गया । मातापिताने हारकर उसको दीक्षा लेनेकी आज्ञा देदी | विवाहोत्सवके लिए जो तैयारियाँ हुई थीं उनका उपयोग दीक्षाके लिए किया गया। बरसिंहने उत्सवके साथ दीक्षा ली । दीक्षा ग्रहण करनेके अभिलाषी कमजोर सबक सीखना चाहिए | केवल अजानमें वास्तविक वंद्य बननेके लिये सर्वस्वका त्याग कर देना, क्या कम मातापिता, स्त्रीपुत्रादिके क्षणिक मोहमें लुब्ध होजानेवाले, हृदयवालोंको उक्त घटनासे लोगोंद्वारा बंदन कर जाने पर मनोबल है ? यही वरसिंह धीरे धीरे पंन्यास हुए । और इनके एकसौ और आठ शिष्य भी हुए । 29 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। .. इसके अलावा संघजी नामके एक सद्गृहस्थने पाटनमें दीक्षा ली थी, वह घटना भी उल्लेखनीय है । संघजी पाटनमें एक धनिक व्यक्ति था। उसके यहाँ धनवैभवकी कमी नहीं थी। उसके कुटुंबमें सुशीला पत्नी और पुत्रीके सिवा और कोई नहीं था। उसकी आयु जब बत्तीस बरसकी हुई, तब उसके हृदयमें सूरिजीका उपदेश सुनकर दीक्षा लेनेकी भावना उत्पन्न हुई। वह रोज सूरिनीका उपदेश सुननेके लिए जाता था । एक बार वह उपदेश सुनकर वापिस घर आया और अपनी स्त्रीको बत्तीस हजार महमूंदिका देकर बोला:-" इनको लो और मुझे दीक्षा लेनेकी आज्ञा दो। " उसकी पत्नी भी धर्मपरायणा थी। उसने उत्तर दियाः-" मैं तुम्हें दीक्षा लेनेसे नहीं रोकती; मगर लड़की छोटी है इस लिए प्रार्थना है कि, इसका ब्याह करने के बाद आप दीक्षा संघजीने उत्तर दियाः-" उसके ब्याहका भार क्या मेरे ही ऊपर है ? यदि मैं नहीं होऊँगा तो क्या व्याह नहीं होगा ? काम किसीके बिना नहीं अटकता । प्रत्येकका कार्य उसके पुण्यप्रतापसे होता ही रहता है। यदि इस समय मेरे आयुकर्मकी स्थिति पूर्ण होनाय तो फिर क्या हो ? क्या उसका ब्याह हुए बिना रह जाय ? " पतिका दृढ निश्चय देखकर पत्नीने अनुमति देदी। उसके बाद उनके पाद शुभ मू में संघजीने दौलतखाँकी* बाड़ीमें-बाग म रोक पा । दीक्षा ले ली। सर मरिनीनं भने म यमाओंको दीक्षा दी; उनका उद्धार किया और कहे जे धर्ममा सच्चा सदर बनाना। अगर कवि ऋषभदासके शब्दोंमें कहें तो:--- Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षादान । - Aman सिष्य दिषीआ एकसो नि साठ, साधइ हीर मुगतिनी बाट; ४६ एक सो साठि पंडितपद दीध, साति उवन्झाय गुरु हीरिं कीध । पृ० २२१ ___ इससे मालूम होता है कि, मरिनीने एक सौ साठ आदमियोंको दीक्षा दी थी; और एक सौ साठ साधुओंको पंडितपद दिया था और सातको उपाध्यायके पदसे विभूषित किया था। १-यह दौलतखाँ, ऐसा जान पड़ता है कि, खंभातके राय कल्याणका नौकर था । इसके लिए जो विशेष जानना चाहें वे मीराते एहमदी (गुज. राती अनुवाद ) का १४ बाँपुर देखें। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण नवाँ । शिष्य-परिवार | ह बात निर्विवाद है कि, पुण्यकी प्रबलताके विना अधिकार नहीं मिलता । एक ही माताकी कुखसे दो पुत्र उत्पन्न होते हैं, मगर पुण्यकी * प्रबलता और हीनताके कारण एकको हजारों-लाखों X मनुष्य मानते हैं; उसके वचनोंको, ईश्वरीय बाक्य समझ कर लोग मस्तक पर चढ़ाते हैं और उसकी कलम से लिखे गये शब्दों की सत्यताको संसार स्वीकार करता है और दूसरेको कोई पूछता भी नहीं है । हजारों मनुष्य सम्मान प्राप्त करनेके लिए जीतोड़ परिश्रम करते हैं; परन्तु उन्हें सम्मान नहीं मिलता; हजारों घुटने टेककर प्रतिष्ठित बननेके लिए ईश्वरसे प्रार्थना करते हैं, मगर उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती । इसका कारण ? कारण पुण्यकी कमी ही है । एक बात और भी है । किसी भी चीजकी अभिलाषा उस वस्तुकी प्राप्तिमें बाधक होती है । अनमाँगे मोती मिलें, माँगी मिले न भीख । यह लोकोक्ति सत्यसे ओतप्रोत भरी है। जो नहीं माँगता है, उसको हरेक चीज़ अनायास ही मिलजाती है । निःस्पृह और निरीह मनुष्योंको पदार्थ अनायास ही मिलजाते हैं। अपने चरित्र प्रथम नायक सूरिजी कितने निःस्गृह थे सो उनके जीवनकी जो घटनाएँ अब तक कही गई हैं उनसे भली प्रकार मालुम हो चुका है । उनकी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार, निःस्पृहताके कारण ही वे जहाँ जाते थे वहाँ सम्मान पाते थे और इच्छित कार्य समाप्त कर सकते थे। इतना ही नहीं उन्हें अचिन्तित शिष्य-संपदा मी आ मिलती थी । इसीसे वे धीरे धीरे दो हजार साधुओंके अधिकारी-आचार्य-हो गये थे। यहाँ यह बात जरूर ध्यानमें रखनी चाहिए कि, किसी भी 'पद' के प्राप्त करनेमें इतनी कठिनता नहीं है, जितनी उस पद का'ऊपरी' पनका उत्तरदायित्व समझने में है। आचार्य श्रीहीरविजयसरि आचार्य हुए, गच्छनायक हुए और दो हजार जनसाधुओं व लाखों जैनगृहस्थोंके नेता हुए, उससे वे जितने प्रशंसाके पात्र हैं उससे भी विशेष प्रशंसाके पात्र इस लिए हैं कि उन्होंने अपने 'पद'का उत्तरदायित्व समझ कर युक्ति पुरस्सर विशाल-भावसे उन्होंने समुदायकी सँभाल रक्खी थी और शासनके हितार्थ अनेक कठिनाइयाँ झेली थीं। सदासे चला आया है उस तरह हीरविजयसरिके समयमें भी कई क्लेशप्रिय और संकृचित हृदयके मनुष्य, झूठे सच्चे कारण खड़े कर समाजमें क्लेश उत्पन्न करते थे । कई सम्मानके भूखे और प्रतिष्ठाके पुजारी मनुष्य अपनी इच्छा तृप्त करनेके लिए समाजमें फूट डालते ये और कई ईर्ष्यालु हृदयी दूसरेकी कीर्ति न सह सकनेसे अनिष्ट उपद्रव खड़े करते थे। ऐसे मौकों पर सरिनी जल्दबाजी, दुराग्रह और छिछोरापन न कर इस तरहसे काम लेते थे कि, जिसका परिणाम उत्तम ही होता था। कईशार मूरिजीकी कृति उनके अनुयायियोंको भी ठीक नहीं जंचती थी, मगर पीछे से जब वे उसका शुभ परिणाम देखते थे तब उन्हें इस बातकी सत्यता पर विश्वास होता था कि,'महात्माओंके हृदयसागरका किसीको भी पता नहीं लगता है।' ऐसे प्रसंगोंको दबादेनेका मूरिनीको जितना खयाल रखना पड़ना या Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सेंम्राट --mairiccoumiiimom उतना ही, बरके उससे भी ज्यादा खयाल उन्हें इस बातका रखना पड़ता था कि, समाजमें एकका छूत दूसरेको न लग जाय । जब कोई ऐसी बात उपस्थित होती थी तब मूरिनी गंभीरता पूर्वक उस पर विचार करते थे और उसके बाद कोई मार्ग ग्रहण करते थे। सूरिनीको ऐसे अनेक प्रसंगोंका मुकाबिला करना पड़ा था । हम उनमेंसे एक दो का यहाँ उल्लेख करते हैं। हीरविजयसूरि जब अकबर बादशाहके पास थे तब उनकी अनुपस्थिति द्वेषी लोगों ने गुजरातमें अनेक उपद्रव खड़े किये थे। खंभातके xरायकल्याणने कई गैनोंस अमुक कारणको सामने कर बारह हजार रुपयोंका खत लिखवा लिया था और कइयोंके सिर मुंडवा डाले थे। कइयोंने, प्राणभयसे इस उपद्रवमें जैनधर्मका भी त्याग कर दिया था। इस उपद्रवसे सारे गुजरातमें हाहाकार मच गया। दूसरी तरफ पाटनमें विजयसेनसूरिके साथ खरतरगच्छवालोंने शाखा करना प्रारंभ किया था। x यह राज्याधिकार्यों में से एक था। खंभातहीका रहनेवाला वैश्य था। इसके विषयमें विशेष जाननेके लिए ' अकबरनामा' के तीसरे भागके अंग्रेजी अनुवादका ६८३ वाँ तथा ' बदाउनी ' के दूसरे भागके अंग्रेजी अनुवादका २४९ वा पृष्ठ देखना चाहिए । * यह उस समयका शास्त्रार्थ है कि, जब विजयसेनसरिने पाटनम चौमासा किया था । इस शास्त्रार्थमें खरतरगच्छवाले निरुत्तर हो गये थे। उसके बाद उन्होंने रायकल्याणका आश्रय लेकर अहमदाबादमें फिरसे शास्त्रार्थ शुरू किया था । अहमदाबादका यह शास्त्रार्थ वहाँके सूबेदार खानखानाकी सभामें हुआ था । वहाँ भी कल्याणराय और खरतरगच्छके अनुयायियोंको विजयसेनसूरिके शिष्योंसे निरुत्तर होना पड़ा था । इस विषयमें विशेष जानना हो तो · विजयप्रशस्तिकाव्य के दसवे सर्गका १ से १० वा श्लोक पढ़ना चाहिए । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार। २३१ ये सारी बातें हीरविजयसूरिजीको लिखी गई । सूरिजी उस समय गुजरातसे बहुत दूर थे । वे सहसा न तो गुजरातमें ही पहुँच सकते थे और न उनके पत्रहीसे यह विग्रह शान्त हो सकता था। क्योंकि विग्रहकर्ता उनके अनुयायी नहीं थे, दूसरे थे । इसलिए सूरिजीके लिए यह बात बड़ी विचारणीय हो गई थी कि, विग्रह कैसे शान्त किया जाय ? उनको रह रह कर यह भी खयाल आ रहा था कि यदि इस समय उचित प्रबंध न होगा तो भविष्यमें अन्य भी इस तरहके हमले करते रहेंगे । इसलिए कोई ऐसा दृढ उपाय करना चाहिए कि, जिससे सदाके लिए शान्ति हो जाय । फिर कोई हमला करनेका साहस न करे । उसका एक ही उपाय उन्हें सूझा और वह यह कि, बादशाहको कहलाकर उससे कोई प्रबंध करवाना। सूरिजी उस समय अभिरामाबादमें थे। ... वे अभिरामाबादसे फतेहपुर आये। वहाँ उन्होंने जैनियोंकी एक सभा बुलाई । उसमें इस बात पर विचार किया गया कि-गुजरातके उपद्रवका क्या उपाय किया जाय ? उस सभामें यह प्रस्ताव पास किया गया कि, अमीपाल दोशी बाहशाहके पास भेजा जाय । वादशाह उस समय नीलाब * नदीके किनारे था । शान्तिचंद्रजी और भानुचंद्रजीभी वहीं थे। अमीपालने जाकर पहिले सारी बात * नीलाब, सिंधु या अटक नदीका दूसरा नाम है । पंजाबकी दूसरी पाँच नदियोंकी अपेक्षा यह नदी बड़ा है । देखो. ' आईन-इ-अकबरी . ( एच. एस. जैरिट कृत अंग्रेजी अनुवाद ) के दूसरे भागका ३२५ वाँ पृष्ठ । वि० सं० १६४२ ( ई. स. १५८६ ) की यह बात है । अकबर उस समय अटक पर था। यह बात 'अकबरनामा ' से भी सिद्ध होती है । देखो अकबरनामा ' तीसरे भागके अंग्रजी अनुवादका पृष्ठ ७०९-५१५. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरीश्वर और समाद। शान्तिचंद्रजीसे कही । तत्पश्चात् उन्होंने भानुचंद्रजीको बुलाया। उन्हें भी सारी बातें कही गई । उन दोनोंने जाकर वे बातें अबुल्फजलसे कहीं। उनकी सलाहसे अमीपाल दोशी बादशाहके पास गया और नजराना करके खड़ा रहा । बादशाहने सरिजीके कुशल समाचार पूछे । शेख अबुल्फ़ज़लने बादशाहसे कहा:-" गुजरातमें हीरविजयसूरिके जो शिष्य हैं उन्हें बहुत तकलीफ हो रही है, इसलिए उनको तकलीफसे छुड़ानेका कोई प्रबंध करना चाहिए।" फिर उसने गुजरातकी सारी घटना सुनाई । सुनकर बादशाहने अहमदामादके सुबेदार मिर्जाखान को पत्र लिखा और उसमें लिखा कि, जो हीरविजयसूरिके शिष्योंको कष्ट पहुँचाते हों उन्हें तत्काल ही दंड दो। पत्र अहमदाबादके श्रावकोंके पास आया । उन्होंने वीपुशाहको यह पत्र ले कर खानसाहेबके पास जानेके लिए कहा। उसने सलाह दी कि,-" यथासाध्य प्रयत्न करके आपसमें झगड़ा मिटा लेना ही अच्छा है। राज्याधिकारीयोंसे दूर रहने में ही अपना भला है । कल्याणरायके पास विट्ठल नामका कार्यकर्ता है। वह बहुत ही बदमाश और खटपटी है उसका चलेगा तब तक वह हमें दंड दिलाये विना नहीं रहेगा।" यह बात लोगोंको ठीक न लगी। जीवा और सामल नामके दो नागोरी श्रावकोंने कहा कि, " हम लोग मिर्जाखानसे मिलने और बादशाहका पत्र उसे देने जानेको तैयार हैं । मगर हमें अपना पक्ष समर्थनके लिए प्रमाण भी जुटा रखने चाहिएं। इसके लिए हमारी यह सलाह है कि, खंभातमें जिन लोगोंके सिर मुंडवाये गये हैं, वे यहाँ बुला लिये जायें। खंभातसे अन्याय-दंडित लोग बुलाये गये । जब वे आ गये Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार। तब उन्हें ले कर दोनों नागौरी सज्जन खानके पास गये । खानके हाथमें बादशाहका पत्र दिया गया। पत्र पढ़ कर उसने सादर उन्हें बिठाया और पूछा:-मेरे लायक जो काम हो सो कहिए।" उन्होंने खंभातमें जो घटना हुईथी, सो सुनाई और कहा कि, इस तरह रायकल्याणके मारे हमें अपना धर्म पालना भी कठिन हो रहा है । इसलिए इसका प्रबंध होना चाहिए। मिर्जाखाँने उसी समय रायकल्याणको पकडलानेका हुक्म दिया । विठ्ठल वहीं था।वह पकड़ा गया।सारे गाँवमें फिराया गया और तीन दर्वाजेके पास बाँध कर दंडित किया गया। रायकल्याणको पकड़नेके लिये दोसौ घुड़सवार खंभात भेजे गये । यह खबर सुनकर रायकल्याण वहाँसे भागकर अहमदाबाद सूबेदारके पास आया। खाँने उसको बहुत बुरा भला कहा और साधुओंसे क्षमा माँगने की मूचना दी ।रायने जाकर साधुओंसे माफी माँगी और उनकी पद्धुली मस्तक पर चढ़ाई । उसने जुल्मसे बारह हजारका जो खत लिखा लिया था वह रद्दी किया गया और जिन्होंने भयके मारे जैनधर्मको छोड़ दिया था वे भी पुनः जैनी हो गये । वसीला क्या काम नहीं कर सकता है ? हजारों ही नहीं बल्के लाखों रुपये खर्च करने पर भी जो काम नहीं होता है वह वसीलेसे हो जाता है । इसी लिए तो शासनशुभैषी, धर्मधुरंधर पूर्वाचार्य मानापमानकी पर्वाह किये विना राज-दरिमें प्रवेश करते थे और रुके हुए धर्मके कार्यको अनायास ही पूर्ण करा लेते थे। इतिहासमें ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं। एकवार सूरिजी खंभातमें थे तब अहमदाबादमें विमलहर्ष 30 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ सूरीश्वर और सम्राट् । उपाध्यायके साथ भदुआ * नामक श्रावकका किसी कारण से विवाद हो गया । विवाद में भदुआने ऐसी ऐसी बातें उपाध्यायनीको कहीं कि, जिनका कहना श्रावकोंके लिए सर्वथा अनुचित था । उपाध्यायजीने यह बात सूरिजीको लिखी । सूरिजीको यह पढ़कर बहुत दुःख हुआ । उन्होंने सोचा कि, इसी तरह यदि गृहस्थ अपनी मर्यादाका त्याग करेंगे, तो परिणाम यह होगा कि, साधु और श्रावकों के बीच में एक गंभीर मर्यादा है, वह न रहेगी अतः इस अनुचित स्वाधीनता पर अंकुश रखना चाहिए । यह सोचकर उन्होंने अहमदबादस्थ साधुओंको एक पत्र इस अभिप्रायका लिखनेके लिये, सोमविजयजीको कहा कि, भदुआ श्रावकको संघ बहार निकालकर उसके यहाँ गोचरी जाना बंद कर दो। जब पत्र रवाना किया जाने लगा तब विजयसेनसूरिने हीरविजयसूरि से प्रार्थनाकी कि, पत्र यदि अभी न भेजा जाय तो अच्छा हो; परन्तु सूरिजीने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया । पत्र भेज दिया । पत्र पाकर अहमदाबादमें साधुओंने भदुआको संघबाहर कर दिया और उसके घर गोचरी- पानी जाना छोड़ दिया । अहमदानादका संत्र इससे बहुत चिन्तित हुआ । इसमें तो किसीको शंका नहीं थी कि, भदुआने साधुओंके अपमानका महान् अपराध किया था । साधुओंने भदुआको दंड १- भदुआ हीर विजयसूरिके भक्त श्रावकों में से एक था । मगर वह अमुक समय के लिए धर्मसागरजी के पक्षमें मिल गया था। जान पड़ता है कि, इसीलिए विमलह उपाध्याय के साथ कुछ विवाद हो गया होगा। भदुआ श्रावक संघ बहार निकाल दिया गया था | पं-दर्शन विजयजीने यह बात अपने बनाये हुए ' विजय. तिलकसूरिरास में भी लिखी है । ऐतिहासिक रास संग्रह ४ थे भागका २३ वा पृष्ठ देखो ! Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार | २३५ आचार्यश्री की आज्ञा से दिया था, इसलिए श्रावक साधुओंको कुछ कह भी नहीं सकते थे । इसलिए भदुआको वापिस संघमें लेनेके लिए आचार्य महाराज से क्षमा माँगनेके सिवा और कोई उपाय नहीं था । बहुत कुछ सलाह मान करनेके बाद संघ भदुआको ले कर खंभात गया । वहाँ उसने और भदुआने बड़ी ही नम्रताके साथ सूरिजी से क्षमा माँगी । सूरिजीने, बिना आग्रह भदुआको क्षमा करके, वापिस संघमे ले लिया । संघकी भलाई के लिए, शासन-मर्यादाको भंग न होने देनेके लिए बड़ोंको अपनी सत्ताका उपयोग करना चाहिए, यह बात जितनी उचित है उतनी ही उचित यह भी है कि, अपना कार्य सफल हो जानेके बाद दुराग्रह न करके अपनी सत्ताके दौरको बंद कर देना चाहिए। इससे विपरीत चलना बुरा है। सूरिजी संपूर्णतया इस नियमका पालन करते थे । उनकी कृतियोंसे यह बात भली प्रकार सिद्ध होती है । अहमदाबादका संघ वापिस अहमदाबाद आया । वहाँ आकर भटुआ विमलहर्षजीके पाससे क्षमा माँगी; मनमें किसी तरहका ईर्ष्याभाव न रक्खा । इसके अलावा सुप्रसिद्ध उपाध्याय धर्मसागरजी - जो महान् विद्वान थे और जिनके रोमरोम में शासनका प्रेम प्रवाहित हो रहा था के अमुक ग्रंथोंके लिए जैनसंघर्मे उस समय बड़ी गड़बड़ी मची हुई थी। मगर सूरिजीने हरतरहसे धर्मसागरजीको समझा कर उन्हें संघ से माफी माँगनेके लिए बाध्य किया । उन्होंने क्षमा माँगी । इस गंभीर मामलेको उन्होंने ऐसी युक्तिसे सुधारा था और उसको ऐसे सँभाल रक्खा था कि, संब तरह शान्ति ही रही और उनकी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सूरीश्वर और सम्राट् । अनुपस्थितिमें जैसा बुरा परिणाम हुआ बैसा उनकी उपस्थितिमें नहीं हुआ। बड़ोंको बड़ी चिन्ता । सारे समुदायकी रक्षाका कार्य कुछ छोटा नहीं है । बड़ोंको कितने धैर्य और कितनी दूरदर्शितासे कार्य करना चाहिए, इस बातको सूरिजी भली प्रकार जानते थे । इसीसे उस समयके सारे समुदाय पर उनका प्रभाव पड़ता था। - यह पहिले कहा जा चुका है कि, हीरविजयसूरि लगभग दो हजार साधुओंके अधिकारी थे । इन साधुओंमें कई व्याख्यानी थे, कई कवि थे, कई वैयाकरण थे, कई नैयायक थे, कई तार्किक थे, कई तपस्वी थे, कई योगी थे, कई अवधानी थे, कई स्वाध्यायी थे और कई क्रियाकांडी थे । इस तरह भिन्न भिन्न साधु भिन्न भिन्न विषयोंमें दक्ष थे। और इसीसे वे अन्यान्य लोगों पर प्रभाव डाल सकते थे। मूरिजीकी आज्ञानुसार चलनेवालोंमेंसे खास ये थे। - १-विजयसेनसूरि, जब इनके कार्योंका विचार करते हैं तब हम यह कहे विना नहीं रह सकते हैं कि, इनको गुरुके अनेक गुण विरासतमें मिले थे । संक्षेपमें ही हम यह कह देना चाहते हैं कि, वे हीरविजयसूरिजीकी तरह ही प्रतापी थे । छठे प्रकरणसे हमारे इस कथनको पुष्टि मिलती है । उन्होंने अपनी विद्वत्तासे बादशाह पर अच्छा प्रभाव डाला था । वे नाडलाई ( मारवाड़) के रहनेवाले थे। उनकी वंशावली देखनेसे मालूम होता है कि, वे राजा देवड़की पैंतीसवीं पीढ़ीमें हुए थे। उनका नाम जयसिंह था। उनके मातापिताका नाम क्रमशः कोडिमदे और कमाशाह था। वि. सं. १६०४ के फाल्गुन सुदी १५ को उनका जन्म हुआ था। - वे जब सात वर्ष के थे तब उनके पिताने और नौ बरसके हुए तब Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार २३७ यानी वि. सं. १६१३ ज्येष्ठ सुदी ११ के दिन उन्होंने अपनी माताके साथ सुरतमे विजयदानसूरिजी के पास दीक्षा ली थी। विजयदानसूरिने उन्हें दीक्षा देकर तत्काल ही, हीरविजयसूरि के आधीन कर दिया था । योग्य होने पर सं. १६२६ में खंभातमें उन्हें ' पंडित ' पद, सं. १६२८ के फाल्गुन सुदी ७ के दिन अहमदाबाद में 'उपाध्याय ' पद और 'आचार्य' पद मिला था। (उस समय मूला सेठ और वीपा पारेखने उत्सव किया था) सं. १६३० के पौष कृष्ण ४ को उनकी पाटस्थापना हुई थी । उनकी योग्यताका यह ज्वलंत उदाहरण है कि, उन्होंने योगशास्त्र के प्रथम श्लोक सातौ अर्थ किये थे । कहा जाता है कि, उन्होंने कावी, गंधार चाँपानेर, अहमदाबाद और पाटन आदि स्थानों में लगभग चार लाख जिनबिंबोंकी अपने हाथोंसे प्रतिष्ठा की थी । उनके उपदेशसे तारंगा, शंखेश्वर, सिद्धाचल, पंचासर, राणपुर, आरासर और वीजापुर आदिके मंदिरोंके उद्धार भी हुए थे। उनके समुदाय में ८ उपाध्याय, १५० पंडित और दूसरे बहुत से सामान्य साधु थे । वे जैसे विद्वान् थे वैसे ही वादी भी थे। उनकी वाद करनेकी अपूर्वशक्तिका यह प्रमाण है कि, उन्होंने अकबर के दर्बारमें ब्राह्मण पंडितोंको और सूरत में भूषण * नामक दिगम्बराचार्यको शास्त्रार्थ में निरुत्तर किया था । उनकी त्यागवृत्ति और निःस्पृहता भी ऐसीही प्रशंसनीय थी । ६८ वर्षकी आयु पूर्णकर सं० १६७२ के ज्येष्ठ वद ११ के दिन * - वि० सं० १६३२ के वैशाख सुदी १३ के दिन जयवंत नामक गृहस्थ के किये हुए उत्सव पूर्वक चाँपानेर में प्रतिष्ठा करके सूरिजी सूरत में आये थे । सुरिजीने वह चौमासा सूरतहीमें किया था । चौमासा उरतनेके बाद चिन्तामणि मिश्र आदि पंडितोंको मध्यस्थता में यह शास्त्रार्थ हुआ था । • विजयप्रशस्ति महाकाव्य 'सर्ग ८ वाँ श्लोक ४२-४९ । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ खुरीश्वर और सम्राट् । खंभातके पास बसे हुए अकवरपुरमेंx उन्होंने शरीर छोड़ा था। उनका स्तूप बनवानेके लिए जहाँगीर बादशाहने दश बीघे जमीन मुफ्तमें दी थी। और तीन दीन तक पाखी पाली थी ( बाजार आदि बंद रखाये थे।) उनका जहाँ अग्निसंस्कार हुआ था वहाँ खंभातनिवासी सोमजीशाहने स्तूप कराया था। * ___x-अकबरपुर खंभातके पास एक पुरा है । कवि ऋषभदासकी बनाई हुई और उसीके हाथसे लिखी हुई चैत्यपरिपाटी ' को देखनेसे मालूम होता है कि, उस समय वहाँ तीन मंदिर थे । १- वासुपूज्यजीका, २. शान्ति माथजी का (उसमें इक्कीस जिनबिंब थे) और ३- आदीश्वरका उसमें बीस प्रतिमाएँ थीं । कालके प्रभावसे आज उस स्थान पर एक भी मंदिर या प्रतिमा नहीं है। __ *-सोमजी शाहने जो स्तूप बनवाया उसमेंका अकबरपुरमें कुछ भी नहीं है । मगर खंभातके भोयराबाड़े शान्तिनाथका मंदिर है । उसके मूल गभारेमें-जहाँ प्रतिमा स्थापित होती ह उस स्थानमें -बायें हाथकी तरफ एक पादुकावाला पत्थर है। उसके लेखसे ज्ञात होता है कि, यह वही पादुका है जो सोमजी शाहने विजयसेनसूरिजीके स्तूप पर स्थापित की थी । कालके प्रभावसे अकबरपुरकी स्थिति खराब हो जाने पर यह पादकावाला पत्थर यहाँ साया गया होगा । इस लेखसे निम्न लिखित बातें मालूम होती हैं । " वि. सं० १६७२ के माघ सुदी १३ रविवारके दिन सोमजीने अपने तथा अपने कुटुंबियों के-बहिन धर्माई, स्त्रियाँ सहजलदे और वयजलदे, पुत्र सूरजी और रामजी आदिके कल्याणार्थ, विजयसेनसूरिकी यह पादुका उनके शिष्य विजयदेवसूरिसे स्थापित कराई । सोमजी, खंभातनिवासी वृद्धशाखीय ओसवाल शाह जगसीका पुत्र था। उसकी माता, काका और काकीके नाम क्रमश. तेजलदे, श्रीमल्ल और मोहणदे थे । लेखमें लिखे हुए'पादुकाः प्रोत्तुंगस्तूपसहिताः कारिताः ' इन शब्दोंस यह भी सिद्ध होता ह कि, यह पादुका एक ऊँचे स्तूपके साथ स्थापन की गई थी। पूर्ण लेख इस प्रकार है ॥६० संवत् १६७२ वर्षे माधसितत्रयोदश्यां रवौ वृद्धपाणीय । स्तंभतीर्थनगरपास्तव्य उसषालक्षातीय सा० श्रीमल Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार। २-शान्तिचंद्रजी उपाध्याय, इनके गुरुका नाम सकलचंद्रजी था। उन्होंने ईडरके राजा रायनारायणकी + समामें वादीभूषण न मके दिगंबराचार्यको परास्तकर जय पाई थी । यह बात उन्हींके शिष्य अमरचंद कविने कुलध्वजरास-जो सं० १६७८ के वैशाख सुदि ३ रविवारके दिन बनाया गया है-को प्रशस्तिमें लिखी है। उन्होंने संस्कृत भाषामें ऋषभदेव और वीरप्रभुकी स्तुति बनाई है । वह स्तुति उन छंदोमें बनाई गई है जिनका प्रयोग 'अजितशान्तिस्तव ' में किया गया है। उन्होंने सं० १६५१ में जंबूद्वीपपन्नति की टीका भी बनाई है। वे कैसे प्रभावशाली थे सो तो अक भार्या मोहणदे लघुभ्रातृ सा० जगसी भार्या तेजलदे सुत सा० सोमा नाना भगिनी धर्माई भार्या सहजलदे वयजलदे सुत. सा० सूरजी स(रा)मजी प्रमुखकुटुंबयुतेन स्वश्रेयसे श्रीअकम्बरसुरत्राणदत्तबहुमानभट्टारकश्रीहीरविजयसूरिपट्टपूर्वाचलतटीसहस्रकिरणानुकारकाणां । ऐदयुगीनराधिपतिचक्रवर्तिसमान श्रीअकबरछत्रपतिप्रधानपर्षदि प्राप्तप्रभूतभट्टाचार्या दिवादिवं. दजयवादलक्ष्मीधारकाणां । सकलसुविहितभट्टारकपरंपरापुरदराणां । भट्टारकश्रीविजयसेनसूरीश्वराणां पादुकाः प्रोतुंगस्तू. पसहिताः कारिताः प्रतिष्ठापिताश्च महामहःपुरःसरं प्रतिष्ठि ताच श्रीतपागच्छे । भ० श्री विजयसेन सूरिपट्टालंकारहारसौ. भाग्यादिगुणगणाधारसुविहितसूरिशंगारभट्टारकश्रीविजयदेवसूरिभिः । लेखके संवतसे स्पष्ट विदित होता है कि, इस पादुकाको स्थापना उसी साल हुई है जिस साल विजयसेनसूरिका देहावसान हुआ था। १-यह वही राजा है कि, जिसका नाम अकबरनामाके तीसरे भागके अंग्रेजी अनुवादके पृ० ५९ में और आईन-इ-अकबरीके पहले भागके ब्लॉकमेनकृत अंग्रेजी अनुवादके पृ. ४३३ में आया है। यह राजा राठोड़ राजपूत था । और दूसरे नारायणके नामसे पहिचाना जाता था। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सूरीश्वर और सम्राट्। बर बादशाहसे उन्होंने जो कार्य कराये थे उन्हींसे विदित हो जाता है । . ३-भानुचंद्रजी उपाध्याय; ये भी उस समयके प्रभाविक पुरुषोंमेंसे एक थे । उनकी जन्मभूमि सिद्धपुर थी। उनके पिताका नाम रामजी और माताका रमादे था । उनका गृहस्थावस्थाका नाम भाणजी था । वे सात वर्षकी आयुमें स्कूल भेजे गये थे । दस वर्षकी आयुमें तो वे अच्छे होशियार हो गये थे । उनके बड़े भाईका नाम रंगजी था । सूरचंद्रजी* पंन्यासका सहवास होने पर उन दोनों भाइयोंने दीक्षा ली थी। अनेक ग्रंथोंका अभ्यास करनेके बाद उनको पंडित पद मिला था। हीरविजयसूरिने उन्हें योग्य समझकर अकबर बादशाहके पास रक्खा था । अकबर भी उनके उपदेशोंसे बहुत प्रसन्न हुआ था। उसी प्रसन्नताके कारण उसने उनके उपदेशोंसे अनेक अच्छे अच्छे कार्य किये थे। उन कार्योंका वर्णन छठे प्रकरणमें किया जा चुका+ है - अकबरका देहान्त हो गया, उसके बाद भानुचंद्रनी फिरसे आगरे गये थे । वहाँ उन्होंने जहाँगीरसे परवानोंका-जो अकबरने दिये थे---अमल कायम रखनेके लिए हुक्म लिया था । अकबरकी तरह जहाँगीरकी भी भानुचंद्रजी पर बहुत श्रद्धा थी। जब वह मांडवगढ़में था तब मनुष्य भेजकर उसने भानुचंद्रजीको अपने पास बुलाया था । वहाँ उसने अपने लड़के शहरयारको भानुचं - ४ पृ. १४४ से १४७ तक देखें। * ये वेही सूरचंद्रजी पंन्यास है कि, जिन्होंने धर्मसागरजी उपाध्यायके बनाये हुए 'उत्सूत्रकंदकुद्दाल' नामक ग्रंथको आचार्य विजयदानसूरिजीकी आज्ञासे पानीमें डुबा दिया था ( देखो ऐतिहासिक राससंग्रह भा. ४ था पृ. १३). + देखो पृ. १४७-१५४. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य परिवार | ૪૨ द्रजीके पास पढ़ने बिठाया था । भानुचंद्रजी जब माँडवगढ़ में गये तब जहाँगीरने कहा: ----- " मिल्या भूपेनई, भूप आनंद पाया, भले तुमे लई अहीं भाणचंद आया; तुम पासिथि मोहि सुख बहूत होवइ, सहरिअर भगवा तुम वाट जोवइ । १३०९ पढ़ावो अहं पृतकुं धर्म्मवात, जिउँ" अवल सुणता तु पासि तात; भागचंद ! कदीम 'तुमे हो हमारे, 93 की तुमहोम्महि प्यारे | १३१० * भानुचंद्रजी जब बुरहानपुर गये थे तब उनके उपदेश से वहाँ दश मंदिर बने थे । मालपुरमें उन्होंने 'बीजामतियों' से शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया था । यहाँ भी उनके उपदेशसे एक भव्य मंदिर बना था, स्वर्णकलश चढ़ाया गया था । प्रतिष्ठा भी उन्होंने ही कराई थी। जब वे मारवाड़ - अन्तरगत जालौर में गये थे तब उन्होंने एक साथ इक्कीस आदमियोंको दीक्षा दी थी। कवि ऋषभदास लिखता है कि, उनके सब मिलाकर ८० विद्वान् शिष्य और १३ पंन्यास थे । ४- पद्मसागर; ये अच्छे वादी थे । प्रसंग प्राप्त होने पर शास्त्रार्थ करके दूसरों को परास्त करनेमें वे अच्छे कुशल थे। सीरोहीके राजाके सामने नरसिंह भट्टको उन्होंने बातों ही बातों में निरुत्तर कर दिया था । वह घटना इस तरह हुई थी, - ७०. १ राजासे; २ - श्रेठ; ३- तुम ४ अच्छा हुआ; ५ - यहाँ ; ६ - तुमसे; होता है; ८ - देखता है; ९ - मेरे ; १० - जैसे; ११ - तुमसे १२- तुम हो; १३सबसे १४ - मुझे | + यह गाँव जयपुर रियासत में अजमेर से लगभग एचास माइल पूर्व में हैं । 31 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। एक बार पद्मसागरजीने यज्ञमें भी पशुहिंसाका निषेध किया था। उस समय वहाँ कई व्याख्यान सुनने वाले ब्राह्मण बैठे थे । उन. मेसे एक बोला:-" हम बकरेको अपनी इच्छासे नहीं मारते हैं। वह चिल्ला२ कर हमसे कहता है कि, हे मनुष्यो ! मुझे जल्दी मारकर स्वर्ग पहुँचाओ जिससे मैं इस पशुयोनिसे छुटकारा पाऊँ ।" पद्मसागरजीने इस युक्तिवादका उत्तर देते हुए कहा:" पंडितप्रवर ! आप ऐसी कल्पना न करें। यह स्वार्थमय कल्पना है। पशु तो चिल्लाकर कहता है कि,-'हे सज्जनो ! मैं न तो स्वर्गकी इच्छा रखता हूँ और न मैंने मुझे स्वर्ग पहुँचानेकी तुमसे प्रार्थना ही की है । मैं तो हमेशा तृण भक्षण करनेहीमें सन्तुष्ट हूँ। अगर यह सच है कि, यज्ञमें जितने जीव होमे जाते हैं वे सभी स्वर्गमें जाते हैं तब तुम अपने मातापिता, पुत्रभार्या आदि कुटुंबियोंको क्यों नहीं सबसे पहिले यज्ञमें होमते हो ? ताकी वे अतिशीघ्र स्वर्गलाभ करें ।, सज्जनो ! स्वार्थमय युक्तियाँ व्यर्थ हैं । इनसे कोई लाभ नहीं। वास्तविकताका विचार करना चाहिए । जैसे हमको लेशमात्र भी दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही दूसरे जीवोंको भी दुःख अच्छा नहीं लगता है । इसलिए किसी जीवको, किसी भी निमित्तसे मारना अनुचित है।" पद्मसागरजीकी उपर्युक्त युक्तिसे सब चुप होगये । उसी समय कर्मसी नामके भंडारीने एक प्रश्न किया । उसने मूर्तिपूजाकी अनावश्यकता बताते हुए कहा, "किसी स्त्रीका पति परदेश गया। पीछेसे वह स्त्री पतिकी मूर्ति बनाकर पूजा करती रही; परन्तु उस मूर्तिने पति के तुल्य कोई लाभ नहीं पहुँचाया । इसी तरह भगवानकी मूर्ति पूजना भी व्यर्थ है।" पभसागरजीने उत्तर दियाः- " मैं कोई दूसरा उदाहरण हूँ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार. २४३ इसके पहिले तुम्हारे ही दिये हुए उदाहरण पर जरा विचार करो । मैं यह मान लेता हूँ कि, पतिकी मूर्तिको पूजनेसे स्त्रिको कोई लाभ नहीं पहुँचा । मगर यह तो तुम्हें माननाही पड़ेगा कि, जब जब वह स्त्री अपने पतिकी मूर्ति देखती होगी तब तब उसे अपने पतिका और पतिके गुणावगुणका स्मरण हुआ ही होगा। इससे तुम क्या यह स्वीकार न करोगे कि, पतिका और उसके गुणावगुणका स्मरण करनेमें पति-मूर्ति स्त्रीके लिए उपयोगी हुई ! मूर्तिका कितना माहात्म्य है इसके लिए मैं एक दृष्टान्त और देता हूँ। किसी आदमीके दो स्त्रियाँ थीं । एकबार वह परदेश गया तब उसकी दोनों स्त्रियोंने पतिकी मिन्नर मूर्तियाँ स्थापित की। एक स्त्री रोज उठकर अपने पति-मूर्तिकी पूजा करती थी और दूसरी हमेशा उठकर पति-मूर्तिपर थूकती थी । जब पुरुष आया और उसे अपनी स्त्रियोंके व्यवहारोंकी बात मालूम हुई तब उसने अपनी मूर्तिकी पूजा करने वालीको बड़े प्रेमसे व आदरसे रक्खा और थूकने व ठुकराने वालीको अनादर और घृणाके साथ । इससे सहजहीमें यह बात समझमें आजाती है कि, मूर्तिसे कितना असर होता है ? + पद्मसागरजीने अनेक युक्तियों द्वारा मूर्ति और मूर्तिपूजाकी आवश्यक्ताको सिद्ध कर दिया । इससे सारी सभा बहुत प्रसन्न हुई और पद्मसागरनीके बुद्धि-वैभवकी प्रशंसा करने लगी। इसी तरह पद्मसागरजीने 'केवली आहार लेते हैं या नहीं और स्त्रीको मुक्ति होती है या नहीं। इस विषयमें दिगंबर पंडितोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें निरुत्तर किया था । + मूर्ति और मूर्ति-पूजाके विषयमें विशेष जाननेके लिए, देखो पृष्ठ १८५-१८५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । पद्मसागरजी जैसे तार्किक थे वैसे ही विद्वान् भी थे । उन्होंने अनेक ग्रंथ भी रचे हैं । उनमें से मुख्य ये हैं- ' उत्तराध्ययनकथा ' ( सं० १६५७ ) ' यशोधरचरित्र ' ' युक्तिप्रकाश - सटीक ' नय प्रकाश - सटीक (सं० १६३३) 'प्रमाणप्रकाश - सटीक' 'जगद्गुरुकान्य' 'शीलप्रकाश' 'धर्मपरीक्षा' और ' तिलकमंजरीकथा (पद्य) आदि । ૨૪ ५- कल्याणविजयवाचक; इनका जन्म लालपुर में वि० सं० १६०१ के आसोज व० ५ को हुआ था । सं० १६१६ के वैशाख व० २ के दिन महेसानेमें उन्होंने हीरविजयसूरि के पाससे दीक्षा ग्रहण की । थी । सं० १६२४ के फागण वद ७ के दिन उन्हें पंडित पद मिला था। वे जैसे विद्वान् थे वैसे ही व्याख्यानी और तार्किक भी थे । उनका चरित्र बड़ा निर्मल था । इससे श्रोताओं पर उनके व्याख्यानका बड़ा प्रभाव पड़ता था । " एकबार राजपीपला में राजा वच्छ* तिवाड़ीके आमंत्रणसे छः हजार ब्राह्मण पंडित जमा हुए थे । राजा उदार मनवाला था । उसने ब्राह्मण विद्वानोंकी इस विराट् सभामें कल्याणविजयजीको भी * यह राजपीपलाका राजा था । जातिका ब्राह्मण था । ( देखो - आईन-इ-अकबरीके दूसरे भागके अंग्रेजी अनुवादका २५१ वाँ पृष्ठ )' बच्छ, उसका नाम था । और ' तिवाडी ' उसकी अटक ( Surname ) थी । अकबरनामा के अंग्रेजी अनुवाद तीसरे भाग के ६०८ वें पृष्ठमें लिखा गया है कि, तीसरा मुजफ्फर, जो गुजरातका अन्तिम बादशाह था, फतेहपुर सीकरीसे भागकर राजपीपलाके राजा तरवारी ( तिवाड़ी) के पास गया था। मीराते सिकंदरीके गुजराती अनुवादमें-जो आत्मारामजी मोतीरामजी दीवानजीका किया हुआ है - ' तरवारी ' को एक , स्थान बताने की भूल की है । देखो पृष्ठ ४५८ । इसी तरह की भूल मीराते - अहमदी' के गुजराती अनुवाद में भी - जो पठान निजामखाँ नूरखांका किया हुआ है हुई है । देखो पृष्ठ १३८ । " Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य परिवार | ૨૪૦ बुलाया और पंडितोंके साथ वाद करनेके लिए कहा। राजा मध्यस्थ बना । वाद प्रारंभ हुआ । ब्राह्मण पंडितोंने हरि ( ईश्वर ) ब्राह्मण और शैवधर्म इन तीन तत्त्वोंकी स्थापना की । अर्थात् -" हरि ईश्वर है । वह जगत्का कर्ता, हर्ता व पालनकर्ता है । ब्राह्मण सच्चे गुरु हैं और शैवधर्म हो सच्चा धर्म है । " कल्याणविजयजीने इसका उत्तर देते हुए कहा : " जो ईश्वर है वह कदापि जगत्का कर्ता, हर्ता या पालक नहीं हो सकता है । क्योंकि वह ईश्वर उसी समय बनता है जब वह समस्त कर्मों को नष्ट कर संसार से सर्वथा मुक्त हो जाता है । संसार - मुक्त ईश्वरको ऐसी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है कि, जिससे वह दुनियाके प्रपंच में पड़े । और यह एक कुदरती बात है कि मतलब बिना किसी की भी प्रवृत्ति, किसी कार्यमें, नहीं होती है। कहा है कि प्रयोजनमनुद्दिश्य मंदोऽपि न प्रवर्तते । ' I 1 अतएव ईश्वर कर्ता, हर्ता या पालक कदापि नहीं गिना जा सकता है । यह भी नहीं कहा जा सकता है कि ईश्वर अपनी इच्छासे सृष्टिको बनाता है । क्योंकि इच्छा उसीको होती है जो राग-द्वेषयुक्त होता है । रागद्वेषका परिणाम ही इच्छा है । और ईश्वर तो वही माना जाता है कि, जो रागद्वेषसे सर्वथा मुक्त होता है । अगर ईश्वर भी रागद्वेषयुक्त मान लिया जायगा तो फिर उसमें और हममें अन्तर ही क्या रह जायगा ? दूसरी बात यह है कि, जगत्में जितनी वस्तुएँ हैं उन सबको शरीरधारीने बनाया है । अगर यह मान लिया जा, सृष्टि ईश्वरने बनाई है तो, ईश्वर शरीरी प्रमाणित होगा । 'जब ईश्वर शरीरी होगा तो वह कर्ममलसे लिप्त माना जायगा । मगर ईश्वर तो कमका सर्वथा अभाव है इसलिए यह युक्ति भी ठीक नहीं Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ सूरीश्वर और सम्राट् । है । संसार में ऐसे पापी जीव भी देखे जाते हैं कि, जो दूसरे जीवोंका संहार करते हैं । परम दयालु परमेश्वर ऐसे पापी जीवको उत्पन्न करके क्या अपनी दयालुताको कलंकित करेगा ? किसीका जवान २० बरसका पुत्र मर जाता है, क्या यह कहोगे कि, उसका ईश्वरने हरण कर लिया ? अगर ईश्वरने वास्तव में उसको उठा लिया है तो फिर उसकी दयालुता किस कामकी है ? अतएव चारों तरफ से विचार करने पर यह भली प्रकार से निश्चित हो जाता है कि, ईश्वरने न इस संसारको बनाया है न वह इसका संहार या पालन ही करता है । इस प्रकार ईश्वरके कर्ता हर्ता और पालनकर्ता के संबंध में उत्तर देनेके बाद उन्होंने ब्राह्मणोंके स्थापन किये हुए गुरुत्वके संबंध में इस प्रकार उत्तर दिया:-" बेशक ब्राह्मण गुरु हो सकते हैं । कहा भी है कि, ' वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ' ब्राह्मण समस्त वर्णोंका गुरु है । मगर वे ब्राह्मण शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय, शास्त्रोंके पारगामी, ब्रह्मचर्यको पालनेवाले, अहिंसा के उपासक, कभी जूठ नहीं बोलनेवाले, बगेर पूछे किसीकी चीज न लेनेवाले और सन्तोषवृत्तिके धारक होने चाहिए । इन गुणोंके धारक ब्राह्मण ही गुरु होने या कहलाने का दावा कर सकते हैं। गुण बिना गुरु, गुरु नहीं कहला सकते हैं । इसी तरह शैवधर्मको धर्म मानने से किसीको इन्कार नहीं है अगर उसमें कल्या का मार्ग हो और अहिंसाका पूर्ण रूपसे प्रतिपादन किया गया हो । धर्मकी परीक्षा चार तरहसे होती है। श्रुत (शास्त्र) शील (आचार) तप और दयासे । जिसमें इन चारों बातोंकी उत्कृष्टता हो, वही धर्म हरेकके मानने लायक है । वह धर्म चाहे किसी भी नामसे पहिचाना जाता हो । अमुक धर्महीको मानना चाहिए, अमुक गुरुहीको मानना Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार | और अमुकको नहीं मानना चाहिए, हमने माना उस स्वरूपवाला ईश्वर ही सच्चा है दूसरा नहीं, यह वृत्ति संकुचित है । कल्याणविजय वाचककी ये और इसी तरहकी दूसरी अनेक युक्तियाँ सुन कर बच्छराज बहुत प्रसन्न हुआ । उसने जैनधर्मकी बहुत प्रशंसा की । वह कल्याणविजयनीको उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण देने लगा । उन्होंने अस्वीकार कर उसे साधुधर्म समझाया, जिससे वह इस बात को समझ गया कि, साधुओंके लिए इन चीजोंका ग्रहण करना मना है । वह साधुओंके त्याग धर्मसे और भी विशेष प्रसन्न हुआ और उन्हें बड़ी धूमधामसे उपाश्रय पहुँचाया । २४७ कल्याणविजयजी वाचकने वि. सं. १६९६ का चौमासा सूरतमें किया था । उस समय धर्मसागरजी के अनुयायियों और हीरविजयसूरिके अनुयायियोंमें बहुत विवाद चल रहा था । इस विवादमें यद्यपि वाचकजीको भी बहुत कुछ सहन करना पड़ा था, तथापि उन्होंने बहुत ही समयसूचकतासे काम लिया था, और आचार्य विजयसेनसूरिको सारी बातें लिखकर अपराधीको दंड दिलाया था ।x उपर्युक्त मुख्यमुख्य साधुओंके सिवा, सिद्धिचंद्रजी, नंदिविजयजी, सोमविजयजी, धर्मसागर उपाध्याय, प्रीतिविजयजी, तेजविजयजी, आनंद विजयजी, विनीतविजयजी, धर्मविजयजी, और हेमविजयजी आदि भी धुरंधर साधु थे । वे हमेशा स्व- पर कल्याणही में लगे रहते थे । उनके आदर्शजीवनका जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता था । ऋषभदास कवि हीरविजयसूरि रासमें सूरिजी के मुख्य मुख्य साधुओंके नाम गिना कर अन्तमें लिखता है X इस विषय में जिनको विशेष जानना हो वे ऐतिहासिक राससह भा. ४ था ( विजयतिलकसूरिरास ) देखें । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪૮ सूरीश्वर और सम्राट्। हीरना गुणनो नहि पारो, साध साधवी अढी हजारो। विमलहर्ष सरीषा उवझाय, सोमविजय सरिषा ऋषिराय ॥१॥ शान्तिचंद परमुष वली सातो, वाचक पदे एह विष्यातो। सिंहविमल सरिषा पंन्यासो, देवविमल पंडित ते षासो ॥ २ ॥ धर्मशीऋषि सबली लाजो, हेमविजय मोटो कविराजो। जससागर वली परमुष षास, एकसो ने साठह पंन्यास ॥ २ ॥ हीरविजयसरिजीकी आज्ञाको सर्वतो भावसे माननेवाला केवल साधुवर्ग ही नहीं था बल्कि सैकड़ों और हजारों श्रावकोंका समूह बंगाल और मदरास के सिवा समस्त भारतके प्रायः गामों में था। उनकी हीरविजयसूार पर अनन्य श्रद्धा थी । किसी भी कार्यमें हीरविजयसूरिकी आज्ञा मिलने पर वे हजारों ही नहीं बल्कि लाखों रुपये आनंदसे खर्च कर देते थे। मूरिजीकी सूचना मिलने पर शंकाके लिए स्थान नहीं रहता था । श्रावकोंको जिस तरह इस बातका पूर्ण विश्वास था कि, हीरविजयसूरि हमें निरर्थक कामोंमें पैसा खर्च करनेका उपदेश नहीं देंगे; उसी तरह मूरिनी भी इस बातको पूर्णतया समझते थे कि, जिस धनको गृहस्थ लोहीका पानी बनाकर और अनेक तरहके पापोंका सेवन कर संग्रह करते हैं; उस धनको बेमतलब अपने स्वार्थ के लिए खर्च कराना नीतिका भंग करना ही नहीं है बल्के विश्वासघात करना है। इसी हेतुसे सूरिजीकी हर जगह प्रशंसा होती थी। उनके मुख्य श्रावकोंमेंसे कुछके नाम यहाँ दिये जाते हैं । गंधारमें इन्द्रजी पोरवाल सूरिजी का परम भक्त था । ग्यारह बरसकी आयुमें उसके हृदयमें दीक्षा लेनेकी भावना उत्पन्न हुई थी। मगर उसके भाई नाथाको उससे बहुत प्रेम था. इसी लिए उसने उसको दीक्षा नहीं लेने दी थी। यद्यपि उसका भाई उसको ब्याह देना Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य परिवार | २४९ चाहता था; परंतु इन्द्रजीने ब्याह न किया । वह यावज्जीवन बालब्रह्मचारी ही रहा । इन्द्रजी एक धनी मनुष्य था । अपनी आयुमें उसने छत्तीस प्रतिष्ठाएँ कराई थीं । इसी गंधारका रहने वाला रामजी श्रीमाली भी सुरिजीका परम भक्त था । उसने सिद्धाचलजी पर सूरिजीके उपदेशसे एक विशाल और सुंदर मंदिर बँधवाया था * । खंभात में संघवी सोमकरण, संघवी उदयकरण सोनी तेजपाल, राजा श्रीमल्ल, ठक्कर जयराज, जसवीर, ठक्कर लाइया, ठक्कर कीका, वाघा, ठक्कर कुँवरजी, शाह धर्मशी, शाह लक्को, दोसी हीरो, श्रीमल्ल, सोमचंद और गाँधी कुंअरजी वगैरह मुख्य थे इसी खंभातके रहनेवाले । * यह मंदिर सिद्धाचलजी पर आदीश्वर भगवान के मंदिर की परिक्रमाके ईशानको में है । चौमुखजोके मंदिरके नामसे पहिचाना जाता है । इसके अंदरके लेखसे मालूम होता है कि, वि० सं० १६२० के कार्तिक सुद २ के दिन इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई थी । और हीर विजयसूरि के उपदेश से गंधारनिवासी श्रीमाली ज्ञातीय पासवीरके पुत्र वर्धमान, और उसके पुत्र सा. रामजी, लहुजी, हंसराज और मनजीने चार द्वारवाला यह शान्तिनाथका मंदिर बनवाया था । * यह हीर विजयसूरिका परम श्रद्धालु श्रावक था । उसने सूरिजी के स्वर्गवास के बाद तत्काल ही उनके ( सूरिजी ) पगलोंकी सिद्धाचलजी पर स्थापना की थी । यह पादुका अब भी ऋषभदेव भगवान के मंदिर के पश्चिममें एक छोटेसे मंदिरमें मौजूद हैं । उस परके लेखसे मालूम होता कि, सूरिजीका स्वर्गवास हुआ उसी वर्ष में यानी सं० १६५२ के मिगसर वद २ और सोमवार के दिन उदयकरणने विजयसेन पुरिके हाथसे, महोपाध्याय कल्याणविजय और पंडित धनविजयजीकी विद्यमानता में प्रतिष्ठा कराई थी । लेखके अन्तिम भागमें सूरिजीने अकबरको प्रतिबोध देकर जो कार्य कराये थे उनका संक्षिप्त वर्णन है । संघवी उदयकरण खंभातका प्रसिद्ध श्रावक था । कवि ऋषभदासने हीरविजयसूरिरासमें स्थान स्थानपर उसका नामोल्लेख किया है । + ऋषभदास कविने वि० सं० १६८५ के पौष शुका १३ रविवार के 32 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । राजिया और वजिया सरिजीके परम भक्त थे। इन्होंने सूरिजीके उपदेशसे अनेक समयोचित कार्य किये थे । यद्यपि वे खंभातके रहनेवाले थे; परन्तु रहा करते थे प्रायः गोवाहीमें । गोवामें उनका व्यापार बहुत अच्छा चलता था। इतना ही नहीं वहाँ राजदारमें भी उनका अच्छा प्रभाव था । इन्होंने पाँच तो बड़े बड़े मंदिर बनवाये थे । उनमें से एक खंभातमें है। उसमें *चिन्तामणिपार्श्वनाथकी दिन खंभातहीमें 'मल्लीनाथरास' बनाया है। उसके अन्तमें खंभातके मुख्य श्रावकोंका परिचय दिया है। उसका भाव यह है, ___ "श्रावक वजिया और राजियाको कीर्ति सारे संसारमें हो रही है । उसने साढ़े तीन लाख रुपये पुण्यार्थ खर्च किये और गाँवगाँवमें अहिंसाधर्मका पालन कराया ॥ २८२ ॥ त्रंबावती निवासी तेजपाल ओसवालने शत्रुजय पर उद्धार कराया उसमें उसने दो लाख ल्याहरी खर्च किये ॥ २८३ ॥ संघवी सोमकरण और उदयकरणने, राजा श्रीमल ओसवालने, ठक्कर जसराज और जसवीरने और ठक्कर कीका वाघाने प्रत्येकने आध लाख रुपये पुण्य. कार्यमें खर्चे । * राजिया और वजियाका बनवाया हुआ चिन्तामणिपार्श्वनाथका यह मंदिर अब भी मौजूद है। इस मंदिरके रंगमंडपकी एक भीतमें एक पत्थर पर २८ पंक्तियोंका एक लेख है। उसमें ६१ श्लोकोंमें एक प्रशस्ति दी गई है । प्रशस्ति पूर्ण होनेके बाद अन्तिम दो पंक्तियोंमें यह लिखा है ॥६० ॥ ॐ नमः ॥ श्रीमविक्रमन पातीत सं० १६४४ वर्षे प्रवर्तमानशाके १५०९ गंधारीय प० जसिआ तद्भार्या बाई जसमादे संप्रतिश्रीस्तंभतीर्थवास्तव्य तत्पुत्र प० वजिआ प० राजिआभ्यां वृद्धभ्रातभार्या विमलादे लघुभ्रातभार्या कमलादे वृद्धभ्रातृपुत्रमेघजी तद्भार्या मयगलदे प्रमुख । निजपरिवारयुताभ्यां । श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथश्रीमहावीरप्रतिष्ठा कारिता श्री चिन्तामणिपार्श्वचैत्यं च कारितं कृता च प्रतिष्ठा सकलमंडलाखंडलशाहिश्रोअकब्बरसन्मानित श्रीहीरविजयसूरीशपट्टा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिज्य-परिवार। २५१ प्रतिमा स्थापन कराई थी। दूसरा गंधारमें है, उसमें नवपल्लवपार्श्वनाथकी स्थापना कराई थी। तीसरा *नेनामें है। उसमें ऋषभदेवकी प्रतिमाकी स्थापना कराई थी। दो मंदिर वरडोलामें बनवाकर उनमें करेडापार्श्वनाथ और नेमिनाथकी मूर्तिकी स्थापना कराई थी। इन्होंने संघवी बनकर आबू, राणपुर और गोडीपार्श्वनाथकी यात्राके लिए संघ निकाले थे। इन दोनोंका इतना मान था कि, अकबर बादशाहने भी इनका कर माफ कर दिया था । जीवदयाके कार्यो में भी दोनों भाई हमेशा अगुआ रहते थे । उन्होंने सरकारसे यह आज्ञा प्राप्त की थी कि, घोघलामें कोई मनुष्य जीवहिंसा न करे । सन् १६६१ में जब भयंकर दुष्काल पड़ा था, तब उन्होंने चार हजार मन अनाज खर्च लंकारहारसदृशैः शाहिश्रीअकबरपर्षदि प्राप्तवर्णवादैः श्रीविजयसेनसूरिभिः। इस लेखसे मालूम होता है कि, वि० सं० १६४४ में राजिया और वजियाने मंदिर बनवाकर उसमें चिन्तामणि पार्श्वनाथ और महावीरस्वामीकी प्रतिष्ठा कराई थी । प्रतिष्ठा श्रीविजयसेनसूरिने की थी। इस लेखमें केवल प्रतिष्ठाका संवत् लिखा गया है । मिति या वार नहीं लिखे गये। मगर इस लेखमें जिस मूर्तिको स्थापन करनेका वर्णन है उस मूर्ति (चिन्तामणिपार्श्वनाथकी मति) परके लेखमें प्रतिष्ठाकी तिथि सं० १६४४ का जेठ सुद १२ सोमवार दी गई है। इसी प्रकार 'विजयप्रशस्तिकाव्य' और 'हीरविजयसूरिरास' में भी यही तिथि दी गई है । ऊपर जो लेख दिया गया है उससे यह भी मालूम होता है कि, राजिआ और वजिआ मूल गंधारके रहनेवाले थे, मगर मंदिर हुआ उस समय वे खंभातमें रहते थे। ___ * नेजा यह छोटासा गाँव, खंभातसे लगभग ढाई माइल उत्तरमें है । वर्तमानमें न तो गाँवमें कोई मंदिर है और न किसी श्रावकका घर ही। गाँव भी लगभग बस्ती बिनाहीका है। वहाँ केवल एक सरकारी बागीचा है। - यह गाँव दीव बंदरसे लगभग दो माहल दूर है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૨ सूरीश्वर और सम्राट्। कर अनेक कुटुंबोंको मरनेसे बचाया था। अपने नौकरोंको गाँव गाँव भेनकर उनके द्वारा अनेक दरिद्रोंकी धन देकर रक्षा की थी। कहा जाता है कि, एक बार चिउलके एक खोजगीको और दूसरे कई आदमियोंको गोवाके फिरंगी ( पोटुगीज़ ) लोगोंने कैद कर लिया था। फिरंगियोंका स्वामी उन्हें किसी भी तरहसे छोड़ता न था। आखिरकार वह एक लाख ल्याहरी दंड लेकर छोड़नेको राजी हुआ । मगर यह दंड आवे कहाँसे । अन्तमें खोजगीने राजिया, वजियाका नाम बताया। राजिया फिरंगियोंके स्वामी विजरेल (वॉयसराय)के पास गया, एक लाख ल्याहरी देकर खोजगीको छुड़ा लाया। और उसको कई दिन तक अपने यहां रखने पर चिउल पहुँचा दिया। पीछेसे खोजगीने एक लाख ल्याहरी वापिस राजियाको दे दी। एक बार उपर्युक्त खोजगीने बाईस चोरोंको कैद किया था। जब वह उन्हें मारने लगा तब उन्होंने कहा:-" आप बड़े आदमी हैं। हमारे ऊपर दया कीजिए । और आज राजियासेठका बड़े त्योहारका (भादवासुद २)का दिन भी है। 'राजियाके त्योहारका दिन है। यह सुनते ही उसने चोरोंको मारना तो दूर रहा, सर्वथा मुक्त ही कर दिया और कहा कि, वे मेरे मित्र हैं, इतना ही नहीं वे मेरे जीवनदाता भी हैं । उनके नामसे मैं जितना करूँ उतना ही थोड़ा है। राजिया और वजियाकी तारीफ़, पं० शीलविजयजीने अपनी तीर्थयात्रामें जोकुछ लिखा है उसका भाव यह है,-"श्रावक वजिया और राजिया बड़े प्रतापी हुए । उन्होंने बड़े बड़े पाँच मंदिर कराकर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ AAAAAAAAAm शिष्य-परिवार। उनमें प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित कराई । उनकी दुकान गोआ बंदरमें है। उस पर स्वर्णका कलश सुशोभित होता है। उनकी बात किसीने नहीं टाली। फिरंगियोंके स्वामीने भी उनके सामने सिर झुकाया।" हीरविजयमूरिके श्रावक ऐसे ही उदार और शासनप्रेमी थे। इसी तरह राजनगर में बच्छराज, नाना वीपु, जौहरी कुँअरजी, शाह मूलो, पूँजो बंगाणी और दोषी पनजी आदि थे । वीसलनगर (वीसनगर ) में शाह वाघो, दोशी गला, मेघा, वीरपाल, वीजा और जिनदास आदि थे। सीरोहीमें आसपाल, सचवीर, तेजा, हरखा, म्हेता पूँजो और तेजपाल आदि थे । वैराटमें संघवी भारमल और इन्द्रराज* आदि थे । पीपाड़में हेमराज, तालो पुष्करणो आदि थे। अलवरमें शाह भैरव था। जेसलमेरमें मांडण ___ * हीरविजयसूरि जब अकबरके पाससे रवाना होकर गुजरातमें आते थे तब पीपाड़ नगरमें सूरिजीकी वंदना करनेके लिए, वैराटके संघवी भारमलका पुत्र इन्द्रराज आया था। उसने सूरिजीसे अपने नगरमें चलनेकी सामह विनती की थी। मगर सूरिजीको शीघ्र ही सीरोही जाना था इसलिए स्वयं न जाकर उन्होंने कल्याणविजयजी उपाध्यायको भेज दिया । इन्द्रराजने चालीस हजार रुपये खर्च कर बड़ी धामधूमके साथ कल्याणविजयजीसे प्रतिष्ठा कराई थी। x भैरव हुमायुका मानीता मंत्री था । कहा जाता है कि, उसने अपने पुरुषार्थसे नौलाख बंदियों को छुडवाया था। बंदियोंसे यहाँ अभिप्राय कैदियोंसे नहीं है। युद्धमें जो लोग पकड़े जाते थे वे बंदी कहलाते थे। उन बंदियोंको मुसलमान बादशाह गुलामकी तरह खुरासान या दूसरे देशोंमें बेच देते थे। ऐसे नौलाख बंदियोंको भैरवने छुड़ाकर अभयदान दिया था। कवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरिरास' में उसका उल्लेख किया है । उस घटनाका संक्षिप्त सार यह है, " हुमायूने जब सोरठ पर चढ़ाई की तब उसने नौलाख मनुष्योंको बंदी बनाया । उसने उन लोगोंको मुकीमके सिपुर्द किया और उन्हें खुरासानमें Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક सूरीश्वर और सम्राट् । कोठारी, नागौर में जयमल महेता और जालोर में मेहाजल रहता था । वह वीसा पोरवाल था । उसने लाख रुपये खर्चकर चौमुखजीका मंदिर अलवर में लाये गये । वहाँके छोड़े न गये । उनमें से बेच आनेकी उसको आज्ञा की । ये सब लोग पहिले महाजनोंने उन्हें छोड़ देनेकी प्रार्थना की; परन्तु वे दबीस मनुष्य सदैव रक्षकों की बेपरवाहीसे मरते रहते थे । भैरवको यह बात अत्यंत दुखःदाई मालूम हुई । वह हुमायूँका मानीता मंत्री था । ऐसी अवस्था में भी यदि वह कुछ न करता तो फिर उसकी दयालुता और सन्मान क्या कामके थे ? सबेरेके वक्त बादशाह जब दातन करने बैठा तब उसने अपनी अंगूठी भैरवके हाथमें दी । भैरवने एक कोरे कागज पर अंगूठीकी मुहर लगा ली । जब वह बादशाह के पाससे आया तब एकान्तमें बैठकर उसने धूजते हाथों उस कागजपर फर्मान लिखा । इस फर्मानको लेकर वह मुकी मके पास गया । आप रथमें बैठा रहा और अपने एक नौकरको फर्मान लेकर मुकीम के पास भेजा । फर्मान में लिखा था - " तत्काल ही नौलाख बंदियों को भैरव के हवाले कर देना । बादशाहकी मुहर - छापका फर्मान देखकर मुकीमने भैरवको अपने पास बुलाया; उसका सत्कार किया और बंदियोंको उसके आधीन कर दिया । बंदी स्त्री, पुरुष, बालक-बूढे सभी भैरवको अन्तःकरणपूर्वक आशीर्वाद देने लगे । भैरवने उसी रात उन सबको रवाना कर दिया और खर्चे के लिये एक एक स्वर्ण मुद्रा सभीको दी । उनमेंके पाँचसौ मुखिओंको एक एक घोड़ा भी, उसने सवारीके लिए दिया । 97 1 एक "" सबेरे हो. भैरव देवपूजा, गुरुवंदनादि आवश्यक कार्यों से निवृत्त हो, विचित्र वाघा पहिन बादशाह के पास गया । बादशाह सहसा उसे न पहिचान सका । उसने पूछा:- " तुम कौन हो ? " भैरवने कहाःमैं आपका दास भैरव हूँ। आज मैंने हुजूरका बहुत बड़ा गुनाह किया है । मैंने उन नौलाख कैदियोंको छुड़ा दिया है और बहुतसा धन भी खर्चा है । बादशाह यह सुनकर क्रुद्ध हुआ और उसने “किसलिए ऐसा किया ? किसकी आज्ञासे किया" आदि कई बातें कह डालीं । भैरव आहिस्तणीके साथ बोला:- " हुजूरके सिर एक आपत्ति है, इसी लिए मैंने सब बंदियों को घोड़े और धन देकर रवाना करदिया है । वे बेचारे अपने बालबच्चों और सगेसंबंधियों से जुदा होगये थे । मैंने उनकी जुदाई मेटकर उनकी दुआएँ ली हैं और खुदावंदकी उम्र दराज - बढ़ी आयु की इस युक्तिसे बादशाह ज्ञान्तही नहीं होगया बल्के भैरव से प्रसन्न भी हुआ । " Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ शिष्य-परिवार। बनवाया था। आगरेमें थानसिंह, मानुकल्याण और दुर्जनशाल था । फीरोजनगरमें अकु संघवी था वह बहुत पुण्यशाली था । छियानवे बरसकी आयु होनाने पर भी उसकी इन्द्रियाँ अच्छी हालतमें थीं। उसकी मौजूदगीमें उसके घरमें इकानवे पुरुष पगड़ी बाँधते थे। उसने कई $ इसने फतेहपुरमें उत्सवपूर्वक सूरिजीके हाथसे जिनबिंबकी प्रतिष्ठा करवाई थी। शान्तिचंद्रजीको उसी समय उपाध्याय पद दिया गया था। इसी तरह उसने आगरेमें भी चिन्तामणिपार्श्वनाथका मंदिर बनवाकर उसमें प्रतिष्ठा करवाई थी। यह मंदिर अब भी आगरके रोशन मुहल्लेमें विद्यमान है। उसमें मूलनायकजीकी मूर्ति तो वही है; परन्तु मंदिर वही मालूम नहीं होता । वि० सं० १६५१ के वैशाख महीनेमें कृष्णदास नामके कविने लाहौरमें दुर्जनशालकी एक 'बावनी' बनाई है। उससे मालूम होता है कि, वह ओसवाल था । गोत्र 'जडिया' था। वह जगुशाहका वंशज था।जगुशाहके तीन पुत्र थे १-विमलदास, २-हीरानंद और ३-संघवी नानू । दुर्जनशाल नानूका पुत्र था । इस दुर्जनशालके गुरु हीरविजयसूरि थे । बावनीके ५३ वे पथसे यह बात स्पष्ट मालूम होती है.हरषु धरिउ मनमझ्झि जात सोरीपुर किद्धि, संघ चतुरविधि मेलि लच्छि सुभमारग दिद्धी; जिनप्रसाद उद्धरइ, सुजस संसार हि संजइ, सुपतिष्ठा संघपूज दानि छिय दंसन रंजइ; संघाधिपत्ति नानू सुतन दुरजनसाल धरम्मधुर, कहि किश्नदास मंगलकरन हीरविजयसूरिंद गुर ॥५३॥ इस कवितासे यह भी मालूम होता है कि उसने सौरीपुरको यात्रा कर चतुर्विध संघकी भक्ति करनमें अपनी लक्ष्मीका सदुपयोग किया था । जिनप्रासादका उद्धार और प्रतिष्ठा भी कराये थे। आगे चलकर दुर्जनशालकी प्रशंसा करते हुए कवि कहता हैलछिन अंगि बतीस चारिदस विद्या जाणइ, पातिसाहि दे मानु पान सुलितान वषाणइ; Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । पौषधशालाएँ और जिनप्रासाद बनवाये थे । वह केवल धनी ही नहीं था कवि भी था। उसने कई कविताएँ बनाई थीं। सीरोहीमें आसपाल और नेता थे । इन दोनोंने चौमुखजीके मंदिरमें बड़ी धूमधामके साथ क्रमशः आदिनाथनी और अनंतनाथजीकी प्रतिष्ठा कराई थी। बुरहानपुरमें संघवी उदयकरण, भोजराज, ठक्कर संघजी, हाँसजी, ठक्कर संभूजी, लालजी, वीरदास, ऋषभदास और जीवराज आदि थे। मालवे में डामरशाह और सूरतमें गोपी, सूरजी, व्होरो सूरो और शाह नानजी आदि थे । बडौदेमें सोनी पासवीर और पंचायण, नयेनगरमें अबजी भणशाली और जीवराज आदि थे। और दीवमें पारख मेघजी, अभेराज, पारेख दामो, दोसी जीवराज, शवजी और बाई लाड़की आदि थे। इस प्रकार अनेक गाँवों में सूरिजीके अनेक भक्त श्रावक रहते थे । उनकी सूरिजीपर अटल श्रद्धा थी । सूरिनीके उपदेशसे प्रत्येक कार्य करनेको वे सदा तत्पर रहते थे । इतना ही नहीं, सूरिजीकी पध. रामणी और इसी प्रकारे के दूसरे प्रसंगोमें वे हजारों रुपये दान दिया करते थे। हीरविजयसूरि एकबार खंभातमें थे तब उनका पूर्वावस्थाका एक अध्यापक वहाँ चला गया । यद्यपि सूरिजी उस समय साधु थे, लाखों मनुष्योंके गुरु थे, तो भी उन्होंने अपनी पूर्वावस्थाके गुरुका लाहनूरगढ मझिझ प्रवर प्रासाद करायउ, विजयसेनसूरि बंदि भयो आनंद सवायउ; जां लगइ सूर ससि मेर महि सुरसरिजलु आयासि धुअ, कहि किनदास तां लग तपइ दुरजनसाल प्रताप तुअ॥५४॥ इससे एक खास मतलबकी बात मालूम होति है और वह यह कि, दुनर्जशालने लाहोरमें एक मंदिर बनवाया था । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य परिवार | २५७ फिर कहा - " आप भेट - सत्कारके योग्य मैं निग्रंथ हूँ । इसलिए मैं आपको कुछ बहुत सत्कार किया और हैं; मगर आप जानते हैं कि, भी भेट नहीं कर सकता हूँ । " अध्यापक ने कहाः "महाराज! इस बातका आप कोई खयाल न करें। मैं तो आपके पास किसी दूसरे ही उद्देश्यसे आया हूँ । मुझे एक दिन सर्पने काट खाया था । अनेक उपाय करने पर भी उसका विष न उतरा । अन्तमें एक सद्गृहस्थने आपके नामका स्मरण कर उस जगहकी चमड़ीको चूरा जिस जगह सर्पने काटा था । आपके नामके प्रभाव से जहर उतर गया और मेरे प्राण बच गये । तब मैंने विचारा कि, जिनके नाम - प्रभाव से मैं बचा हूँ उनके दर्शन करके अपनेको कृतार्थ करना चाहिए । बस इसी लिए मैं आपके पास आया हूँ । ” उस समय संघवण साँगदे वहाँ बैठी हुई थी। उन्होंने पूछा:“ ये ब्राह्मण क्या आपकी पूर्वावस्था के पाधे - शिक्षक हैं ? " सूरिजीने उत्तर दिया:- "पाधे नहीं गुरु हैं ।" यह सुनकर संघवणने तत्काल ही अपने हाथमेंसे कड़ा निकाला और दूसरे बारहसौ रुपये जमा कर ब्राह्मणके भेट किये । ब्राह्मण आनंद पूर्वक सूरिजीके नामका स्मरण करते हुए रवाना हो गया । इसी तरह एक बार सूरिजी जब आगरेमें थे, तब भी ऐसे ही कीर्तिदानका प्रसंग आया था। बात यह हुई थी कि, सूरिजी के पधारने के निमित्त लोगोंने अनेक तरहके दान किये । उस समय अक नामके एक याचककी स्त्री पानी भरनेके लिए गई थी। उसे घर आने में कुछ देर हो गई। जब वह घर पहुँची तब उसके पति ने उसको धमकाया और कहाः " इतनी देर कहाँ लगाई ? मैं तो कभी का -- 33 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सूरीश्वर और सम्राट् । " पानी भरके लाना कुछ सरल भूखा बैठा हूँ ।" स्त्री ने कहा :नहीं है । देर भी हो जाती है । अगर ऐसा दिमाग रखते हो तो 1 एकाध हाथी ही कहीं से ले आओ। " याचक क्रोधमें घर से निकल गया और श्रावकोंके मंडल में जाकर हीरविजयसूरिके गुण गाने लगा । अपने गुरुके गुण गाते देख श्रावक उस पर बहुत प्रसन्न हुए । और अनेक प्रकारका दान देने लगे मगर उस याचकने कुछ भी नहीं लिया और कहा: "मैं उसीका दान ग्रहण करूँगा जो मुझे हाथी देगा । " उसकी बात सुनकर ' सदारंग ' नामके गृहस्थने घरसे अपना हाथी मँगाया और लूणा कर याचक को देना चाहा । एक भोजक वहाँ बैठा हुआ था । उसने कहाकि - " लछणा की हुई चीज पर तो भोजकका हक होता है दूसरेका नहीं ।" सदारंगने तत्काल ही वह हाथी भोजको दे दिया और अकू याचकके लिए दूसरा हाथी मँगवा दिया। थानसिंहने उस हाथीका शृंगार कर दिया | अकू याचक हाथमें अंकुश लेकर हाथी पर सवार हुआ और उमरावोंके तथा बादशाहके पास जाकर भी हीरविजयसूरिकी प्रशंसा करने लगा । फिर वह घर जाकर स्त्रीके सामने अपनी बहादुरी दिखाने लगा । स्त्री बड़ी ही प्रसन्न हुई । कुछ देर के बाद वह बोली:- " हाथी वे रख सकते हैं जो बड़े राजामहाराजा होते हैं, या गाँव-गरासके मालिक होते हैं। हम तो याचक हैं। अपने यहाँ हाथी नहीं शोभता । इसको बेचकर नकद रुपये कर लेना ही अच्छा है । " अकूको भी यह बात उचित मालूम हुई | उसने हाथी सौ महरोंमें एक मुगलके हाथ बेच दिया । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार । ___ एक बार सरिजी जब अहमदाबाद गये थे तब उनके पधारनेकी खुशीमें अच्छे अच्छे गायकोंने सूरिजीकी स्तुतिके सुमधुर गीत गाये। गायकोंके सुमधुर स्वरों और अलौकिक भावोंसे सारी सभा चित्रवत् स्थिर हो गई । भदुआ नामका श्रावक गायकोंपर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने अपना का हमारके मूल्यका स्वर्णका कंदोरा उतार कर गायकोंको दे दिया । उसके बाद दूसरे श्रावकोंने भी अंगूठी, कंठी, मोती आदि पदार्थ दान दिये । एक चंदेकी सूची भी हुई। लगभग बारहसौ रुपये जमा हुए । वे भी गायकोंको दे दिये गये। इसी तरह पता नामके एक भोजकने हीरविजयसूरिका रास गाया था, उससे प्रसन्न होकर श्रावकोंने उसको एक लाख टके दिये थे। अभिप्राय कहनेका यह है कि, सूरिजीके भक्त इस प्रकार अवसर आने पर बहुतसा धन खर्च देते थे। यह भी सूरिजीहीके पुण्य प्रकर्षकी महिमा के सिवा और क्या है ? अब इस समय एक खास बातकी तरफ़ पाठकोंका ध्यान खींचना हम आवश्यक समझते हैं । हीरविजयसूरिके उपर्युक्त भक्त श्रावकोंके कामोंकी तरफ दृष्टि डालते हैं तो मालूम होता है कि उनकी प्रवृत्ति बहुधा मंदिर बनवानेमें, प्रतिष्ठाएँ करवाने, संघ निकालने और ऐसे ही अन्यान्य कार्योंके समय बड़े बड़े उत्सव करानेमें हुई है। ऋषभदास कविके कथनानुसार केवल सूरिजीने ही पचास प्रतिष्ठाएँ करवाई थीं । और उनके उपदेशसे लगभग पाँच सौ मंदिर बने थे। जैसे-मुलाशाह, कुँवरजी जौहरी, सोनी तेजपाल,x रायमल, आसपाल, भारमल, थानसिंह, मानु. * सोनी तेजपाल खंभातका रहनेवाला था। वह सूरिजीके अनेक Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । कल्याण, दुर्जनमल, गोनाककू, राजिया, वजिया, ठक्कर जसु, शाह धनाढ्यों और उदार श्रावकों से एक था। वि० सं० १६४६ में हीरविजयसूरि जब खंभातमें आये तब ज्येष्ठ सुदी ९ के दिन उसने अनंतनाथकी प्रतिष्ठा कराकर पचीस हजार रुपये खर्चे थे। उसी समय सोमविजयजीको उपाध्यायकी पदवी दीगई थी। उसने खंभातमें एक बहुत बड़ा जिनभुवन बनवाया था। उसका वर्णन करते हुए कवि ऋषभदास हीरविजयसूरिरासमें लिखता है कि, इन्द्रभुवन जस्युं देहरु कराव्यु, चित्रलिखित अभिराम; त्रेवीसमो तीर्थंकर थाप्यो, विजयचिंतामणि नाम हो. ही. ६ ऋषभतणी तेणे मुरति भरावी, अत्यंत मोटी सोय; भुंइरामा जइने जुहारो, समकित निरमल होय हो. ही० ७ अनेक बिंब जेणे जिननां भराव्या, रूपकनकमणि केरा; ओशवंश उज्ज्वल जेणे करीओ, करणी तास भलेरा हो. ही० ८ पृ० १६६ यह मंदिर इस समय खंभातके माणिकचौककी खिड़की में विद्यमान है। उसके भोयरेमें ऋषभदेवकी बड़ी प्रतिमा है। इस भोयरेकी भीत पर एक लेख है। वह उपर्युक्त कथनको ही प्रमाणित करता है। लेख यह है, ॥६०॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्रीविक्रमनृपात् ॥ सं० १६६१ वरषे वैशाष शुदि ७ सोमे ॥ श्रीस्तंभतीर्थनगरव्यास्तव्य ॥ ऊकेशज्ञातीय ॥ आबूहरागोत्रविभूषण ॥ सौर्णिक कालासुत सौर्णिक ॥ वाघा भार्या रजाई ॥ पुत्र सौवर्णिक वछिआ ॥ भार्या सहासिणि पुत्र सौवर्णिक ॥ तेजपाल भार्या॥ तेजलदे नाम्न्या ॥ निजपति ॥ सौवर्णिक तेजपालप्रदत्ताशया॥ प्रभूतद्रव्यव्ययेन ॥ सूभूमिगृहश्रीजिनप्रासादः कारितः॥ कारितं च तत्र मूलनायकतया ॥ स्थापनकृते श्री विजयचिन्तामणिपार्श्वनाथबिंबं प्रतिष्ठितं च श्रीमत्तपागच्छाधिराजभट्टारकश्रीआनंदविमलसूरिपट्टालंकार ॥ भट्टारकश्रीविजयदानसूरि तत्पप्रभावक ॥ सुविहितसाधुजनध्येय ॥ सुगृहीतनामध्येय ॥पात॥ साहश्रीअकब्बरप्रदत्तजगदगुरुविरुधारक ॥ भट्टाकर ॥ श्रीहीरविजयसूरि ॥ तत्पद्रोदयशैल ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य-परिवार । रामजी, वर्धमान, और अवजी आदिने अनेक मंदिर बनवाये थे और सहस्रपाद ॥ पातसाहश्रीअकब्बरसभासमक्षविजितवादिवृंदसमुदभूतयशःकर्पूरपूरसुरभीकृतदिग्वधूवदनारविंदभट्टारक श्रीविजयसेनसूरिभिः॥ क्रीडायातसुपर्वराशिरुचिरो यावत् सुवर्णाचलो मेदिन्यां प्रहमंडलं च वियति अध्नेंदुमुख्यं लसत् । तावत्पन्नगनाथसे वितपदश्रीपार्श्वनाथप्रभो मूर्तिश्रीकलितोयमत्रजयतु श्रीमजिनेन्द्रालयः॥१॥छः॥..॥ इस लेखसे मालूम होता है कि,-सोनी तेजपाल ओसवाल ज्ञातिका था । उसका गोत्र आबूहरा था। उसके पिताका नाम वछिआ और माताका नाम सुहासिनी था । इससे एक महत्वकी बात भी मालूम होती है । वह यह है कि, यह भूमिगृहवाला जिनमंदिर सोनी तेजपालकी भार्या तेजलदेने अपने पतिकी आज्ञासे बहुतसा धन खर्च करके बनवाया था। बिंबकी प्रतिष्ठा सं० १६६१ के वैशाष वद ७ के दिन विजयसेनसूरिने की थी। इसी तेजपाल सोनीने एक लाख ल्याहरी खर्चकर सिद्धाचलजीके ऊपर मूल श्रीऋषभदेव भगवानके मंदिरका जीर्णोद्धार कराया था। यह बात सिद्धाचलजी पर मुख्य मंदिरके पूर्वद्वारके रंगमंडपमें एक स्तंभ पर खुदे हुए शिलालेखसे भी सिद्ध होती है। इस लेखमें कुल ८७ पंक्तियाँ हैं । प्रारंभमें आदिनाथ और महावीर स्वामीकी स्तुति की गई है। फिर हीरविजयसूरि तक पटावली दी गई है और तत्पश्चात् हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरिके प्राभाविक कार्योंका वर्णन किया गया है। उसके बाद तेजपालके पूर्वजोंका नाम देकर लिखा गया है कि, तेजपालने हीर विजयसूरि और विजयसेनसूरिके उपदेशसे जिनमंदिर बनवानेमें और संघभक्ति करने में अगणित धन खर्चा था। उसमें खासकरके सं० १६४६ में खंभातमें सुपार्श्वनाथका मंदिर बनवाया था। इसका भी उल्लेख किया गया है। उसके बाद प्रस्तुत ऋषभदेवके मंदिरका जीर्णोद्धार करानेकी बात लिखकर मंदिरकी ऊंचाई, उसके झरोखे, उसके तोरन आदि तमाम चजिीका वर्णन है। उसके बाद लिखा है कि,-मंदिर सं० १६४९ में तैयार हुआ था । उसका नाम नंदिवर्धन रक्खा गया था। बड़ी धूमधामके साथ उसने ( तेजपालने) शत्रुजयकी यात्रा की थी और हीरविजयसूरिके हाथसे मंदिरकी प्रतिष्ठा कराई थी । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । सूरिजीके हाथोंसे उनकी प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। उनके निमित्त बड़े बड़े उत्सव कराये थे । शाह हीराने ननगरमें, कुंवरजी * बाढुआने साथ यह भी बताया गया है कि, इस मंदिरके उद्धारके साथ ही शा रामजी, जसु ठक्कर, कुँअरजी और मूला सेठक बनवाये हुए मंदिरोंकी प्रतिष्ठा भी, सूरिजीने उसी समय की थी। ___ अन्तमें सूत्रधार-तीन वस्ता, प्रशस्तिके लेखक कमलविजय पंडितके शिष्य हेमविजय, शिलापर लिखनेवाले पीडित सहजसागरके शिष्य जयसागर और शिलामें अक्षर खोदनेवाले माधव तथा नाना नामक शिल्पियोंके नाम देकर यह लेख समाप्त किया गया है । उपर्युक्त कार्योंके अलावा तेजपालने शासनकी प्रभावनाके और भी अनेक कार्य किये थे । कवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरिरास' में तेजपालकी प्रशंसामें जोकुछ लिखा है, उसका भाव यह है, " उसने आबूजीका संघ निकाला था। रास्तेमें लाहणी ( भाजी ) बाँटता हुआ गया था। आबू पर जाकर अचलगढ़ में ऋषभदेवजीकी पूजा की थी। सातों क्षेत्रोंमें उसने धन खर्चा था । हीरविजयसूरिका यह श्रावक था। इसके बराबर कोई 'पोसा' करनेवाला नहीं था। यह विकथा कभी नहीं करता था। उसके हाथमें हमेशा उत्तम पुस्तक ही रहती थी ।” - * कुँवरजीने कावीमें-जो खंभातके पास है-दो बड़े बड़े मंदिर बनवाये हैं। दोनों मंदिर इस वक्त मौजूद है। एक मंदिर धर्मनाथजीका कहलाता है और दूसरा आदीश्वरजीका । धर्मनाथजीके मंदिरके रंगमंडपके बाहिर दर्वाजेकी भीतमें एक लेख है। उसमें कुंवरजीका संक्षिप्त परिचय है । उस लेखका संवत् है-१६५४ का श्रावण वदी ९ शनिवार । उसमें बताया गया है कि,, इस मंदिरका नाम ' रत्नतिलक' दिया गया है। इसके अलावा इसी मंदिरके मूलनायकको परिकरको दाहिनी तरफ़के काउसगिया पर एक लेख है। उसमें लिखा है कि, सं० १६५६ के वैशाख सुद ७ के दिन कुँवरजीने विजयसेनसूरिसे प्रतिष्ठा कराई थी। आदीश्वरके मंदिरमें मूलगभाराके दर्वाजेमें घुसते दाहिने हाथकी तरफ़ झरोखेमें ३२ श्लोकोंकी प्रशस्ति सहित एक लेख है। उससे भी कुँवरजीके विषयमें निम्न लिखित उल्लेख है । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य परिवार. २६३ कावीमें, शाह लहुजीने गंधार में और शाह हीराने चिउलमें जिनमंदिर बनवाये थे । इनके अलावा लाहोर, आगरा, मथुरा, मालपुर, फतेहपुर, राधनपुर, कलिकोट, माँडवगढ, रामपुर और डभोल आदिमें अनेक मंदिर उनके उपदेशसे बने थे । भारमल शाहने विराटमें, वस्तुपालने सीरोही में, वच्छराज और रूपाने राजनगर, ककू शाहने पाटनमें, वधु और धनजीने वडली और कुणगेरमें, श्रीमल, कीका और वाघाने शक्करपुरमें * देवालय और पोषवशालाएँ धनवाई थीं । ठक्कर जसराज और जसवीरने महिमदपुर में मंदिर बनवाया था और आबूका संघ गुजरात के वडनगर गाँवमें लघुनागर ज्ञातीय सियाणा गोत्रका गाँधीदेपाल रहता था । उसका पुत्र अलुआ और पौत्र लाडिका था । इसके बाढुक और गंगाधर नामके दो लड़के हुए | बादुकके दो स्त्रियाँ थीं । एकका नाम था पोपटी और दूसरीका हीरादेवी उन दोनों के तीन पुत्र हुए । पोपटीका कुँवरजी और हीरादेवीका धर्मदास और वीरदास । धन कमानेकी इच्छास बाहुआ गाँधी खंभातमें जा बसा था । खंभातमें उसने हरतरहकी उन्नति की थी । उस समय कावी' तीर्थमें एक मंदिर था । वह अत्यंत जीर्ण हो गया था । उसका जीर्णोद्धार करानेकी कुँवरजीकी इच्छा हुई । परन्तु उसने - जैसा कि प्रशस्ति में कहा गया है - ततः श्रद्धवता तेन भूमि शुद्धिपुरःसरम् । स्वभुजार्जितवित्तन प्रासादः कारितो नवः । उस श्रद्धालु श्रावकने निज भुजबल से उत्पन्न किये हुए द्रव्यसे, जमीन से लेकर सारा मंदिर नवीन तैयार कराया था । और सं० १६४९ के मार्गशीर्ष शुक्ला १३ सोमवारके दिन श्री आदीश्वर भगवानकी स्थापनाकर विजयसेनसूरिके पाससे उसकी प्रतिष्ठां करवाई थी । * शक्करपुर, यह खंभातसे लगभग दो माइल पर एक पुरा है । अभी वहाँ दो मंदिर हैं । एक चिन्तामणि पार्श्वनाथका और दूसरा सीमंधरस्वामीका | दोनों मंदिरों में जाननेलायक एक भी लेख नहीं है । केवल आचार्योंकी पादुकाओं पर और ऐसे कुछ ही दूसरे भिन्न भिन्न लेख हैं, जो प्रायः अठारहवीं शताब्दि हैं । ऊपर जिन गृहस्थोंका वर्णन है उनके नामका एक भी लेख नहीं है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सूरीश्वर और सम्राट्। निकाला था । ठक्कर लाईने अकबरपुरमें मंदिर और उपाश्रय बनवाये थे । ठक्कर वीरा और सोढाने भी जिनभुवन बनवाये थे । कुंवरपालने दिल्लीमें भव्य जिनमंदिर निर्माण कराया था। ___ वर्तमानमें कुछ लोगोंको यह बात अनुचित मालूम होगी; परन्तु हमें यह कहना पड़ता है कि, हम जिस समयका अवलोकन कर रहे हैं उस समयके लिए सूरिजीका उपदेश समुचित-योग्य था। क्योंकि कालके प्रभावसे कुछ ही समय पहिले, कुछ मुसलमान शासकोंके जुल्मके सबबसे अनेक स्थानोंके मंदिर नष्ट होगये थे और अनेक स्थानोंमें मूर्तियाँ असातनाके भयसे गुप्त स्थानोंमें छिपा दी गई थीं। वैसी दशामें धर्मकी रक्षाके लिए मंदिर बनवानेका उपदेश समयके अनुकूल ही था । संक्षेपमें यह है कि अपने नायक हीरविजयसूरिके तमाम कामोंको ध्यान पूर्वक देखनेवाला हरेक सहृदय यही कहेगा कि, उन्होंने समयके प्रवाहको ध्यानमें रखकर ही उपदेश दिये थे । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण दसवाँ । शेष पर्यटन | प्रकरण के अन्त में हम अपने नायक हीरविजयसूरिको अभिरामाबाद में छोड़ आये हैं । अब हम उनके शेष पर्यटनका हाल लिखेंगे । वि० सं० १६४२ ( ई. स. १९८६ ) का चौमासा उन्होंने अभिरामाबाद में बिताया था । उसके बीच में उन्हेंगुजरात में जो भयंकर उपद्रव उपस्थित हुए थे उन्हें शमन कराने के लिए एक बार फिर फतहपुरसीकरी जाना पड़ा । गत प्रकरणमें इस बातका उल्लेख हो चुका है। अभिरामाबादसे विहार करके सूरिजी मथुरा और गवालियरकी यात्रा कर आगरेमें आये । पाँचवें प्रकर में यह बात लिखी जाचुकी है । उनके आगमन से आगरेमें धर्मके अनेक उत्तमोत्तम कार्य हुए । वहाँसे विहारकर सूरिजी फिर मेडते पधारे। फाल्गुन चातुर्मास उन्होंने भेडताही में बिताया । वहाँसे विहार कर नागोर गये । वहाँ सूरिजीका बहुत सत्कार हुआ । संघवी जयमल भक्तिपूर्वक सूरिजीको वाँदनेके लिए सामने गया । महाजल महताने भी सुरिजीकी बहुत भक्ति की । यहाँ जैसल - मेरका संत्र भी सूरिजीकी वंदना करनेके लिए आया था। मांडण कोठारी उनमें मुख्य था । इस संवने सूरिजी की सोनैयासे पूजा की । सं० १६४३ का चौमाला खतम होने पर सूरिजी पीड़ पधारे । सूरिजी के पधारने की खुशी में वहाँके ताला नामक एक पुष्करणा 34 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anmmmmm २६६ सूरीश्वर और सम्राट्। ब्राह्मणने बहुतसा धन खर्चा । वहाँसे सरिजी सीरोही पधारे । गुजरातसे विजयसेनसरि सरिजीके सामने आते थे, वे भी यहीं मिले। दोनों आचार्योंके एकत्रित होनेसे लोगोंमें अपूर्व उत्साह फैला । दोनों आचार्य सीरोहीमें थोड़े ही दिन तक एक साथ रहे; क्योंकि कई अनिवार्य कारणोंसे विजयसेनसूरिको सूरिनीकी आज्ञासे सीरोही छोड़कर गुजरातमें तत्काल ही जाना पड़ा था। सीरोहीमें हीरविजयसूरिके बिराजनेसे और उनके उपदेशसे शासनोन्नतिके अनेक उत्तमोत्तम कार्य हुए । उस समय सीरोहीके श्रावक इतने उत्साहमें थे कि उन्होंने मूरिनीको आबूकी यात्रा करा कर वापिस सीरोही चलनेकी साग्रह, भक्तिपूर्वक प्रार्थना की और सीरोहीमें लेजाकर उनको चौमासा करवाया । (वि० सं० १६४४ ) सूरिजीको सीरोहीमें चौमासा कराने के लिए राय सुलतान और पूंजा महताका अत्यंत आग्रह था । सीरोहीमें भी अनेक दीक्षामहोत्सव और अन्यान्य धर्मोन्नतिके कार्य कराकर मुरिजी पाटण पधारे । वि० सं० १६४५ का चौमासा उन्होंने पाटणहीमें किया । पाटणसे विहार कर मूरिजी खंभात गये । यहाँ उन्होंने प्रतिष्ठादि कई कार्य किये । ऐसा मालूम होता है कि, उन्होंने सं० १६४६ का चातुर्मास खंभातहीमें किया था। उसी वर्ष धनविजय, जयविजय, रामविजय, भाणविजय, कीर्तिविजय और लब्धिविजयको पंन्यास पद्वियाँ दी गई थीं। वि० सं० १६४७ में इस तरह कई कार्य कर सूरिजी अहमदावाद गये । अहमदावादमें सूरिजीका अच्छा सत्कार हुआ । उनके पधारनेकी खुशीमें कई श्रावकोंने बहुतसा धन दानमें दिया और बड़े बड़े उत्सव किये । वि० सं० १६४८ के साल सूरिनी अहमदाबादहीमें रहे थे। उस समय नवाब आजमखाँके साथ उनका विशेष रूपसे परिचय हुआ । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष पर्यटन । उसका वर्णन सातवें प्रकरणके अन्तमें किया जा चुका है । सूरिजी वहाँसे विचरण करते हुवे राधनपुर पधारे । वहीं अकबर . का वह पत्र मिला था, जिसमें उसने विजयसेनसूरिको अपने पास भेजनेकी प्रार्थना की थी। तदनुसार वे भेजे गये थे राधनपुरमें लोगोंने छः हजार सोना महारों, रिनीकी पूजा की । वह विहार कर मूरिजी पाटन पधारे । पाटनमें उस समय उन्होंने तीन प्रति. ठाएँ की थीं। कासमखाँके साथ धर्मचर्चा-जिसका उल्लेख सातवें प्रकरणमें किया जा चुका है-करनेका अवसर भी मुरिजीको उसी समय मिला था। जिस समय सूरिजी पाटनमें थे उस समय उन्हें एक दिन स्वप्न आया कि, वे हाथी पर सवार होकर पर्वतपर चढ़ रहे हैं और हनारों लोग उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। सूरिजीने सोमविजयजीको अपना स्वप्न सुनाया । बहुत सोचविचारके बाद सोमविजयजीने उत्तर दियाः" इस स्वप्नका फल आपको सिद्धाचलजीकी यात्रा करना होगा ।' थोड़े ही दिनोंमें यह स्वप्न सत्य हुआ । सूरिजी सिद्धाचलजीकी यात्रा करनेके लिए तत्पर हुए। वहाँ के जैनसंघने भी 'छरी' (एक प्रकारकी क्रिया ) ___x विधिपूर्वक तीर्थयात्रा करनेवालेको 'छरी' पालनेकी शास्त्राज्ञा है । अर्थात् जिनके अन्तमें 'री' आवे ऐसी छः बातें पालनी पड़ती हैं, वे ये हैं, १ एकाहारी (एकवार भोजन करना ). २ भूमि संस्तारी (पृथ्वी पर ही सोना) ३ पादचारी (पैदल चलकर ही जाना) ४ सम्यक्त्वधारी (देव, गुरु और धर्मपर पूर्ण श्रद्धा रखना) ५ सचित्तहारी (सचित्तजीववाली वस्तुओंका त्याग करना ) और ६ ब्रह्मचारी (घरसे रवाना हुए उस समयसे लेकर, यात्रा करके वापिस घर आ तब तक बराबर ब्रह्मचर्यव्रत पालना ।) इस प्रकार ' छरो' पालते हुए जो यात्रा की जाती है वह यात्रा सविधि कही जाती है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૬૮ सूरीश्वर और सन्नाट । पालते हुए सूरिजीके साथ ही सिद्धाचलजीकी यात्रा करना स्थिर किया । संघने गुजरात और काठियावाड़के गाँवोंमें और पंजाब, काश्मीर और बंगालके बड़े बड़े शहरोंमें कासिदोंके साथ निमंत्रण भेजे। शुभ मुहूर्तमें संघ सूरिजी और मुनिमंडल सहित धूमधामसे रवाना हुवा । गाडियाँ, रथ, पालकी, ऊँट, घोड़े और हजारों आदमियों सहित संघ आगे बढ़ने लगा। कई मंजिलें पूरी करके संघ अहमदाबाद पहुँचा । उस समय अहमदाबादका सुवेदार अकबरका पुत्र मुराद था । उसने संघ और सूरिजीकी बहुत भक्ति की । सरिजीके उपदेशसे प्रसन्न होकर उसने दो मेवड़े भी सूरिजीकी सेवामें भेजे । .. क्रमशः विहार करता हुआ संघ धोलके पहुँचा । खमात निवासी संघवी उदयकरणने विनति करके संघको थोड़े दिनों तक वहाँ ठहराया। उसीके बीचमें बाई साँगदे और सोनी तेजपाल भी अपने साथ छत्तीस सेजवाला लेकर खंभातसे आगये । वे भी इस संघके साथ ही सिद्धाचलजीकी यात्राको चले । जब यह बड़ा संघ पालीतानासे थोड़ा ही दूर रहा तब 'सोरठ'के अधिपति नौरंगखाँको मालूम हुआ कि, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हीरविजयसूरि एक बड़े संघके साथ सिद्धाचलकी यात्रा करनेके लिए जा रहे हैं, तब वह तत्काल ही उनकी अगवानीके लिए आया । सोरठके मुंबेदारके साथ थोड़ी देर तक सुरिजी वार्तालाप करते रहे । फिर उन्होंने अकबरके दिये हुए कुछ फर्मान उसको बताये । सुबेदार बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सरिजीका बड़ा सत्कार किया। आनंदोसवके साथ सूरिजीका पालीतानामें प्रवेश कराया। एक ओर अनेक प्रकारके बाजोंसे गूंजते हुए गंगनमंडलमें भाटोंकी विरुदावलीकी ध्वनि थी। और दूसरी ओर भजनगंडलियों द्वारा खेलाजानेवाला दाँडियारास और Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष पर्यटन | २६९ अन्तिम भागमें चलती हुई, सुंदरियोंके, सिद्धाचलजी के चरणस्पर्श करनेको उत्साहित करनेवाले गीत अन्तःकरणों को आनंदसे भरदेते थे। लाखों मनुष्यों की भीड़ में चलते हुए सूरीश्वरजीको हजारों मनुष्य सोना चाँदी के फूलोंसे वधाते थे । गृहस्थ एक दूसरेको केशरके छींटोंसे रँग कर उस दिनके अपूर्व प्रसंगका हर्ष प्रकट करते थे । कवि ऋषभदासने लिखा है कि, उस यात्रामें सूरिजी के साथ बहतर संघवी - सिंघी थे । उनमें शाह श्रीमल्ल, सिंघी उदयकरण, सोनी तेजपाल, ठकर कीका, काला, शाह मनजी, सोनी काला, पासवीर, शाह संघजी, शाह सोमजी, गाँधी कुँअरजी, शाह तोला, बहोरा वरजाँग, श्रीपाल, आदि मुख्य थे । शाह श्रीमल्लके साथ केवल पाँचसौ तो रथ ही थे । घोड़े - पालकी आदि तो हजारों थे। उसके साथ चार जोड़ी नौबत तथा निशान भी थे - ध्वजाएँ थीं । इनके अलावा पाटनसे ककुशेठ भी संघ लेकर आये । अवजी महता, सोनी तेजपाल, दोसी लालजी और शाह शिवजी आदि भी पाटणसे संघके साथ आये । अहमदाबादसे तीन संघ आये थे । शाह वीपू और पारख भीमजी संघपति होकर आये थे । पूँजा बंगाणी, शाह सोमा और खीमसी भी आये थे । मालवेसे डामरशाह भी संघ लेकर आया था । उसके साथ चंद्रभान, सूरा और लखराज आदि भी थे । मेवात से कल्याण* बंबू भी संघ लेकर आया था। उसने दो सेर शक्कर की भाजी बाँटी थी । मेडतासे सदारंग भी संघ लेकर आया था । * यह आगराका रहनेवाला था । उसने समेतशिखरकी यात्रा के लिए एक बहुत बड़ा संघ निकाला था । संघने पूर्वदेश के समस्त तीर्थोंकी यात्रा की थी । श्रीकल्याणविजयजी वाचकके शिष्य पं० जय विजयजीने इस यात्राका Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । उपर्युक्त स्थानोंके अलावा इस यात्रामें जेसलमेर, वीसनगर, सिद्धपुर, महसाना, ईडर, अहमदनगर, हिम्मतनगर, साबली, कपडवणन, मातर,सोजित्रा, नडियाद, वडनगर, डाभला, कड़ा,महेमदाबाद,वारेना, बडोदा, आमोद, शीनोर, जंबूसर, केरवाडा, गंधार, सूरत, भडूच, रानेर, दीव, ऊना, घोघा, नयानगर, माँगरोल, वेरावल, देवगिरि, वीनापुर, वैराट, नंदरबार, सीरोही, नडुलाई, राधनपुर, वडली, कुणगेर, प्रांतिज, महिअज, पेथापुर, बोरसद, कडी, घोलका, धंधूका, वीरमगाम, जूनागढ और कालावड आदि गाँवोंके संघ भी आये थे । 'विजयतिलकसूरि रास ' के कर्ता पं० दर्शनविजयजीके कथनानुसार, इस संघमें सब मिलकर दो लाख मनुष्य इकट्ठे हुए थे। जिस समयकी हम बात लिख रहे हैं, वह वर्तमान समयके जैसा न था । उस समय एक नगरसे दूसरे नगर खबर पहुँचाने में अनेक दिन लग जाते थे । आज तो घंटों और मिनिटोंमें समाचार पहुँचाये जा सकते हैं । उस समय तीर्थयात्रा करनेमें महीनों बीत जाते थे । हजारों लाखों रुपये खर्च होते थे और अनेक प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते थे। इस समयमें तो कुछ ही दिनोंमें, थोड़ा ही धन खर्च करने पर विना कठिनतासे लोग यात्रा कर आते हैं। उस समय बहुत ज्यादा धन और समय खर्च करने और जोखम उठाने पर तीर्थयात्रा होती थी, इस लिए बहुत ही कम लोग यात्रार्थ जाते थे । जब बड़े बड़े संघ निकलते थे तभी लोग यात्रार्थ जाते थे। .. प्रस्तुत यात्रामें इतने प्रान्तोंके संव आये थे। इसका यही कारण था कि, ऐसा अपूर्व प्रसंग बार बार नहीं आता है। उस समय वर्णन अपनी ‘समेतशिखर-तीर्थमाला' में किया है। देखो तीर्थमाला संग्रह भाग पहला पृ. २२-३२ तक । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष पर्यटन । २७१ आनेवाले लोगोंको स्थावर और जंगम दोनों तरहके तीर्थोकी यात्रा करनेका अपूर्व अवसर मिला था। स्थावरतीर्थ थे 'सिद्धाचलजी' और जंगमतीर्थ थे हीरविजयसरि । यही हेतु था कि, लाखों मनुष्य उस समय एकत्रित हो गये थे। ऋषभदास कविने लिखा है कि उस यात्रामें एक हजार साधु हीरविजयसूरिके साथ थे। कल चैत्री पूर्णिमा है। कलहीके दिन पुंडरीक स्वामी पाँच करोड मुनियों सहित मोक्षमें गये थे । इस लिए हमें भी कल ही यात्रा करनी चाहिए । पालीताना गाँवसे शत्रुनयगिरि लगभग दो माइल दूर है। सवेरे सारा संघ एक साथ रवाना न हो सकेगा यह सोचकर संघ सहित सूरिजीने चतुर्दशीहीको पर्वतकी ओर प्रस्थान किया। शत्रुजयगिरिकी तलहटीमें, इस समय यात्रियोंके आरामके लिए अनेक साधन हैं; परन्तु उस समय कोई साधन नहीं था। इस लिए हीरसौभाग्यकाव्यके कर्ताका कथन है कि-सूरिजीने शिवजीके मंदिरमें चौदसकी रात बिताई थी। और संबने मैदानमें । दूसरे दिन अर्थात् पूर्णिमाके दिन सवेरे ही बड़े बड़े धनाढ्य गृहस्थोंने सोने चाँदीके पुष्पों और सच्चे मोतियोंसे इस पहाड़को बधाया और सूरिजी सहित सारे संघने शत्रुजयके पवित्र पर्वत पर चढ़ना प्रारंभ किया। धीरे धीरे बड़े उत्साहके साथ, एकके बाद एक मेखला और टेकरीको लाँघते हुए सबने पर्वतके ऊपरि भागके प्रथम दुर्गमें प्रवेश किया । इसके बाद सूरिजी और संघने कहाँ कहाँ दर्शन किये ? इसका वर्णन ' हीरसौभाग्यकाव्य ' में इस प्रकार किया गया है, __ " संघने और सूरिजीने प्रथम दुर्गमें प्रवेश करते ही हाथी पर अवस्थित मरुदेवी माताकी मूर्तिको प्रणाम किया । वहाँसे, शान्ति Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सूरीश्वर और सम्राट् । 1 नाथके, अजितनाथ के मंदिरोंमें, पश्चात् पेथडशाहके बनाये हुए मंदिरोंमें दर्शन करते हुए छीपावस्ती में प्रवेश किया । वहाँसे टोटरा और मोल्हा नामक मंदिरोंमें दर्शनकर कपर्दियक्ष और अदददादा के आगे स्तुति की। फिर वे मरुदेवी शिखर से उतरकर स्वर्गारोहण नामकी ट्रंक पर अनुपमादेवीके बनवाये हुए अनुपम नामके तालाब को देखते हुए ऊपर चढ़े और ऋषभदेव के मंदिवाले दुर्गमें गये । इस दुर्ग के पास वस्तुपालकी बनवाई हुई गिरिनारकी रचना है; उसको देखा । वहाँ से खरतरवसती नामके मंदिर में गये । राजीमती और नेमनाथ की मूर्तियों की वंदना की । यहाँ से घोड़ाचौकी नामके मंदिरके और पादुकाके दर्शन कर तिलकतोरण नामके जिनालय में दर्शन किये । वहाँसे सूर्यकुंडको देखते हुए मूल मंदिर के कोटमें घुसे और सीढ़ीयाँ चढ़ने लगे । जीनों पर चढ़ते हुए क्रमश: तोरन, मंदिरका रंगमंडप, ध्वजाओं रंगमंडप के स्तंभों, हाथी पर बैठी हुइ मरुदेवा माता मंदिरके गभारे और खास ऋषभदेव प्रभुकी मूर्तिको देखकर सूरिजीको अत्यन्त आनंद हुआ । ऊपर चढ़कर मूल मंदिरकी परिक्रमामें देवरियोंके अंदर बिराजमान प्रतिमाओंके और रायणवृक्षके नीचेवाली पादुकाके दर्शन किये । उसके पश्चात् जसु ठक्करके बनवाये हुए तीन द्वारवाले मंदिरके, रामजीशाह के बनवाये हुए चार द्वारवाले मंदिरके और ऋषभदेवके सामने विराजमान पुंडरीक स्वामीके दर्शन करके मूल मंदिर में प्रवेश किया । मंडपके अंदर स्थित मरुदेवा माताकी मूर्तिको नमस्कार कर ऋषभदेव भगवानकी भावसहित स्तुति की । तत्पश्चात् बाहर आकर मूलद्वारके आगे जो खुली जगह है उसमें दीक्षादान, व्रतोच्चारण आदि धर्म - क्रियाएँ सूरिजीने करवाई । वहाँसे पुंडरीक गणधरकी प्रतिमाके सामने आकर सूरिजीने ' व्याख्यान दिया । " शत्रुञ्जयमाहात्म्य' पर " Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष पर्यटन | २७३ उपर्युक्त वर्णनके सिवा हीरसौभाग्यकाव्यके कर्ताने एक महast बात लिखी है; और वह यह है कि, सूरिजी कई दिनों तक सिद्धाचल पर्वत पर रहे थे । सिद्धाचलजी के समान पवित्र तीर्थस्थानपर रात रहना निषिद्ध है, परन्तु हीरविजयसूरिकी अवस्था ज्यादा हो गई थी । बारबार चढ़ना उतरना उनके लिए कठिन था, इसलिए विवश होकर अपवाद रूपसे वे ऊपर रात रहे थे । हीरसौभाग्यकी टीकामें भी वे क्यों ऊपर रात रहे थे ? इस प्रश्नका यही उत्तर दिया गया है * । कवि ऋषभदासने भी हीरविजयसूरिरासमें इस यात्राका वर्णन किया है । वह भी खास जानने योग्य है। उसने लिखा है:-- 1 " तलहटी में तीन स्तूप हैं । उनमेंसे एकमें ऋषभदेवजीकी, दूसरे में धनविजयजीकी और तीसरेमें नाकरकी चरण पादुकाएँ हैं । उन तीनों स्थानों में सूरिजीने और संघने स्तुति की । वहाँसे धोलीपरब पर जाकर कुछ विश्राम किया । वहाँ शर्बत पिलाया जाता था । वहाँसे तीसरी बैठक में गये । यहाँ कुमारकुंड है । चौथी बैठकका नाम ' हिंगलाजका हड़ा ' है । सूरिजी पाँचवीं बैठक पर चढ़ने में थक गये थे, इस लिए उन्होंने सोमविजयजीका सहारा लिया । शलाकुंड पर यात्रियोंने जल पी कर थोड़ा आराम लिया । यहाँ ऋषभ1 देवीकी पादुका भी है। संघ सहित सुरिजीने इनकी वंदना की । वहाँसे आगे चले । छठी बैठक पर दो समाधियाँ देखीं । वहाँसे सातवीं बैठक में गये । वहाँ दो मार्ग दिखाई दिये । बारीमें घुसकर 1 * देखो हीरसौभाग्यकाव्य सर्ग १६, श्लोक १४१ पृ. ८४७० 35 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सूरीश्वर और सम्राट् । जाते हुए चौमुखजीका मंदिर आता है और दूसरे मार्ग से जाते हुए सिंहद्वार आता है । सूरिजी संघ सहित सिंहद्वार होकर गये । सबसे बड़े मंदिर में पहुँच कर पहिले श्री ऋषभदेव भगवान के दर्शन किये और फिर तीन प्रदक्षिणाएँ दीं । परिक्रमामें एक सौ चौहद छोटे छोटे चैत्य हैं । उनमें एक सौ बीस निर्जित्र हैं । उनके दर्शन किये। फिर एक सौ आठ मध्यम चैत्योंमें और बड़े मंदिरोंमें सब मिलकर २४५ जिनबिंब हैं, उनके दर्शन किये । इनके अलावा एक सुंदर समवसरण है । उसके दर्शन कर रायणवृक्षके नीचेकी चौरानवे पादुकाओंके और तलघरके अंदरकी दो सौ प्रतिमाओंके भी दर्शन किये । वहाँसे सूरिजी और दूसरे सभी लोग कोटके बाहर आये। कोटसे बाहिर आकर सबसे पहिले खरतरवसी में दो सौ जिनबिंबोंके दर्शन किये । यहाँ ऋषभदेवकी मनोहर मूर्त्तिने सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा। वहाँ से पौषधशाला में आकर सूरिजीने और संघने थोड़ी देर विश्राम लिया । कोटके बाहिर सत्रह मंदिर हैं । उनमें दो सौ प्रतिमाएँ हैं । उनको वंदना की । वहाँसे अनोपमतालाब और पाँडवोंकी देवरी पर होते हुए अदबदजी के मंदिर में पहुँचे । उनके दर्शन किये । वहाँसे कवडक्षके दर्शन करते हुए सवासोमजी के चौमुखाजी के मंदिर में गये । वह नया बना था । उसके चारों तरफ बावन देवरियाँ थीं । वहाँ एक तलघर में सौ प्रतिमाएँ थीं । उनके भी दर्शन किये। वहाँ एक पीठिका पर दश पादुकाएँ थीं । उनके भी दर्शन करके पुंडरीकजीके मंदिर में आकर दर्शन किये । यहाँ सूरिजीने शत्रुजयका माहात्म्य सुनाया । "" उपर्युक्त प्रकार से सुरिजीने लाखों मनुष्योंके साथ सिद्धाचलजीकी यात्रा की । ऋषभदास कविके लिखे हुए वृत्तान्तसे यह बात सहज ही मालूम हो जाती है कि, सूरिजीने यात्रा की उस समय ( वि० Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष पर्यटन। ર૭૬ सं० १६५० में ) सिद्धाचलजी पहाड़ पर किस जगह क्या था और खास खास स्थानोंमें कितनी कितनी मूर्तियाँ थीं। सुरिजीके इस यात्रा-वर्णनसे यह बात भी सहनही ध्यानमें आ जाती है कि, जमाना कितनी तेजीके साथ बदलता रहता है। कहाँ भाव-भक्ति सहित अपने सारे जीवन में सिर्फ एक दो बार यात्रा करके जीवनको सफल बनाने, और समझनेवाले पहिलेके यात्री ! और कहाँ गर्मीकी मोसिममें केवल हवा खानेके लिए अथवा व्यापार-रोजगारके बोझेसे व्याकुल होकर आराम लेनेके लिए जाने वाले वर्तमानके यात्री ! ( इस कथनसे किसीको यह नहीं समझना चाहिए कि भक्तिभावके साथ यात्रार्थ जानेवाले अब हैं ही नहीं । अब भी अनेक भक्तिपुरस्सर यात्रार्थ जाने वाले यात्री हैं।) कहाँ इतने विशाल तीर्थस्थानमें अंगुलियों पर गिनने योग्य मूर्तियाँ और कहाँ आजकी हजारों मूर्तियाँ ! कहाँ तीर्थयात्र करनेके बाद सत्य, ब्रह्मचर्य, अनीति-त्याग, इच्छा निरोध आदिकी भावनाएँ ओर कहाँ आज अनेक बार तीर्थयात्रा करने पर भी इन गुणोंकी और प्रवृत्त होनेकी उपेक्षा ! कहाँ तीर्थस्थानोंमें वह शान्तिका साम्राज्य और कहाँ अज्ञानताके कारण चारों तरफ बढ़ा हुआ आजका अज्ञानतापूर्ण आडंबर ! कहाँ तीर्थस्थानों और देवमंदिरोंकी रक्षाके लिए लोगोंकी आन्तरिक भावना और स्थिरप्रवृत्ति और कहाँ उनकी रक्षाके बहाने चलाये जाने वाले पक्षपातपूर्ण राजप्तीठाटके कारखाने ! ये बातें क्या बताती हैं ? जमानेका परिवर्तन या और कुछ ? उस समय जिन लोगोंको तीर्थस्थानों में जानेका अवसर मिलता था वे, अपना अहोभाग्य समझते थे । तीर्थोकी पवित्र भूमिका स्पर्श करते ही वे अपने आपको कृतकृत्य मानने लगते थे । जब तक वे तीर्थस्थानोंमें रहते थे तब तक क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायोंको Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Navnama Annr सूरीश्वर और सम्राट् । मंद करते थे और अपने जीवनको सुधारनेके लिए उत्तमोत्तम नियम ग्रहण करते थे। सर्वत्र देववंदना करनेके बाद सूरिजी एक स्थान पर बैठे। तब सारे संघवालोंने गुरुवंदना प्रारंभ की। डामर संघवीने मूरिजीको वंदना करते हुए सात हजार महमूदिकाएँ खर्ची । गंधारका रामजीशाद जब गुरुवंदन करने लगा, तब सूरिजीकी उस पर दृष्टि पड़ी। सरिजीने उसको कहा:-" क्यों ? वचन स्मरण है न?" रामजीशाहने उत्तर दिया:--" हाँ साहिब ! मैंने वचन दिया था कि जब मेरे सन्तान होजायगी तब मैं ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लूंगा ।" सरिजीने कहा:" तब, अब क्या विचार है ? मैंने सुना है कि, तुम्हारे सन्तान हो गई है। " रामजीने कहा:-" महाराज ! मेरा सद्भाग्य है कि, मुझे ऐसे पवित्र स्थानमें आपके समान महान गुरुके पाससे व्रत लेनेका अवसर मिला है।" उसके बाद उसी समय रामजीने और उसकी स्त्रीनेजिसकी आयु केवल बाईस बरसकी थी-जीवनभरके लिए ब्रह्मचर्यजत धारण कर लिया। छोटी उम्रमें इन दोनों स्त्री पुरुषोंको ब्रह्मचर्यव्रत धारण करते देख दूसरे अनेक स्त्री-पुरुषोंने भी ब्रह्मचर्यवत स्वीकार किया। उसके बाद पाटणके ककु शेठने भी ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया । उनके साथ अन्य तिरपन मनुष्योंने भी ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया। ऋषभदास कवि लिखते हैं कि-हीरविजयसूरिकी पूजा करने में ग्यारह हजार भरुची (एक प्रकारकी मुद्रा ) की उपज हुई थी। इस तरह सिद्धाचलजी तीर्थ पर शुभ भाव पूर्वक देववंदन और ब्रतग्रहणादि क्रियाएँ करनेके बाद सब नीचे उतरे; पालीताना गाँव में आये। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष पर्यटन । कुछ काल पालीतानेमें रहनेके बाद, सूरिजीने विहार करनेका और संबने विदा होनेका निश्चय किया । भिन्न भिन्न स्थानोंसे आये हुए गृहस्थ सरिजीसे अपने अपने स्थान पर पधारनेकी विनती करने लगे । उनमें से भी खास करके खंभातके सिंघी उदयकरणकी और दीक्के मेघनी पारख, दामनी पारख और सवनीशाहकी विनति विशेष आग्रहपूर्ण थी। इन दोनों स्थानोंके गृहस्थोंने अपने अपने नगरमें पधारनेका अत्यंत अनुरोध किया। दीवकी लाड़कीबाई नामकी एक श्राविका थीं। उन्होंने सूरिजीसे प्रार्थना करते हुए कहा:-" आपने स्थान: स्थान पर विहार करके सर्वत्र प्रकाश किया है, परन्तु हम अब तक अँधेरेहीमें भटकते हैं। इस लिए दया करके आपको दीव पधारना ही चाहिए । ” अन्तमें मूरिजीने दीवके संघको कहा:-- " जैसी तुम्हारी इच्छा होगी और जिससे सबको सुखशान्ति होगी वही काम किया जायगा ।" दीवका संघ बहुत प्रसन्न हुआ। एक मनुष्य वधाई लेकर पालीतानेसे दीव पहुँच गया । वहाँके श्रावकोंने इस शुभ समाचारको सुन कर आनंद प्रकट किया और वधाई देनेवालेको चार तोले स्वर्णकी जीभ, वस्त्र और बहुतसी ल्याहरियाँ इनाममें दीं। जब अनेक देशों और गाँवोंके बहुत बड़े जन-मंडलमेंसे सूरिजी खाना हुए तब वह मंडल गुरु-विरहके दुःखसे दुखी हुआ । उस समय बिछुड़ते हुए संघके हृदयमें इस बातका स्वभावतः विचार होने लगा कि-न जाने अब सूरिजीके दर्शन होंगे या नहीं ? और इस विचारने उन्हें और भी दुखी बनादिया । गुरुजीसे दूर होते समय सबका चहरा उदास था । सूरिनी और उनके शिष्यवर्गने निराग मावसे दीवकी तरफ विहार किया । पालीताणासे रवाना होकर दाठा, महुवा आदि स्थानोंमें होते हुए सूरिजी देलवाड़े पहुँचे । वहाँसे Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७८ सूरीश्वर और सम्राट् । अंजार पहुँचकर अजारापार्श्वनाथकी यात्रा की । दीवका संघ सूरिजीको वंदना और विनति करनेके लिये आया और बड़ी धूम-धामके साथ यहाँसे दीवमें ले गया । वहाँसे ऊने जाते हुए लोगोंने सूरिजीको मोतियोंके थालोंसे वधाया । कहा जाता है कि, उस समय सूरिजीके साथ पचीस साधु थे । वहाँ रहकर सूरिजी प्रति दिन नवीन नवीन अभिग्रह-नियम लेने लगे। सूरिजी हमेशा ऊनामें व्याख्यान, करने लगे । हजारों लोग उनसे लाभ उठाने लगे । अनेक उत्सव हुए। मेघजी पारख, लखराज रूडो और लाड़कीकी माँने सूरिजीसे प्रतिष्ठाएँ करवाई। श्रीश्रीमालवंशी शाह बकोरने अपना द्रव्य समार्गमें खर्च कर सूरिजीके पाससे दीक्षा ली । इनके अलावा और भी अनेक क्रियाएँ जैनोंमें हुई। सूरिनी जब ऊनामें थे तब जामनगरके जाम साहबका दीवान अबजी मनसाली भी सूरिजीको वंदना करने आया था। उसने सूरिनीकी और दूसरे साधुओंकी स्वर्णमुद्रासे नवआँगी पूजा की थी। एक लाख मुद्राका ढुंछन किया था और याचकोंको बहुतसा दान दिया था। सं० १६५१ का चौमासा सूरिजीने ऊनाहीमें बिताया । चौमासा बीतने पर यद्यपि सूरिजीने विहारकी तैयारी की तथापि श्रावकोंने विहार नहीं करने दिया। क्योंकि सूरिनीकी तबीयत खराब थी। अतः उन्हें वहीं रहना पड़ा। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ग्यारहवाँ । जीवनकी सार्थकता। जै से सूर्य उदय होकर अस्त भी जरूर होता है उसी तरह जन्मके पश्चात् मृत्यु भी अवश्यमेव आती Evioeर है । सम्राट् हो या मंडलेश्वर, धनी हो या निर्धन, BREALLY गरीब हो या अमीर, बालक हो या वृद्ध, स्त्री हो या पुरुष, चाहे कोई हो; साक्षात् देव ही क्यों न हो-जो जन्मा है उसे जल्दी या देरमें मरना अवश्य होगा । मगर मौतमौतमें भी फरक है । जिन्होंने जन्म धारण करके अपने जीवनको सार्थक कर लिया है उन्हें अपनी मृत्यु आनंददायक मालूम होती है। कारण उन्हें यह विश्वास होता है कि, मुझे निंद्य-तुच्छ-मानवी देहका त्यागकर दिव्य शरीर प्राप्त होगा । सच है, जिस मनुष्यको विश्वास हो कि मुझे इस झोंपड़ीको छोड़नेके बाद महल रहनेके लिये मिलेगा, वह झोपड़ी छूटनेसे दुखी नहीं होता । विपरीत इसके जो अपने जीवनको सार्थक न करके हाय ! हाय ! में रहता है उसे मरना भी हाय! हाय ! में ही पड़ता है और जन्मान्तरमें भी वह हाय ! हाय ! उसका पीछा नहीं छोड़ती है। जीवनकी सार्थकता उत्तमोत्तम गुणोंके आचरणमें है। दया, दाक्षिण्य, विनय, विवेक, समभाव और क्षमादि बातें ही उत्तम गुण हैं। ये ही जीवनकी सार्थकताके हेतु हैं। अपने नायक हीरविजयसूरि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सूरीश्वर और सम्राट्। ऐसे उच्चत्तम गुणोंके भंडार थे । बार बार अपने जीवनमें आनेवाली तकलीफोंको उन्होंने जिस सहनशीलताके साथ झेली हैं वे उनके जीवनकी सार्थकताको बताती हैं। गुजरात जैसे रम्य और परम श्रद्धालु प्रदेशको छोड़ना; अनेक प्रकारके कष्ट उठाते हुए फतेहपुरसीकरी तक जाना; चार बरस तक उस प्रदेशमें रहना; अकबरके समान बादशाहको अपना भक्त बनाना और सारे साम्राज्यमेंसे छ:महीने तकके लिए जीवहिंसा बंद करवाना क्या उनके जीवनकी कम सार्थकता थी ? उनका समभाव कैसा था ? इतने ऊँचे दर्ने तक पहुंचने पर भी वे कैसी नम्रता विवेक, विनय और लघुता रखते थे ? और उनकी गुरुभक्ति कैसी थी ! इनका उत्तर जब उनके जीवन प्रसंग देखते हैं तब हम आनंदसे कह उठते हैं-जीवन यही धन्य है ! हीरविजयसूरि अपने साधुधर्ममें कितने दृढ थे और अपने निमित्त तैयार की गई चीजोंका उपयोग नहीं करनेकी वे कितनी सावधानी रखते थे इस संबंधकी केवल एक घटनाका हम यहाँ उल्लेख करेंगे। एक बार सूरिजी अहमदाबादके कालूपुरके उपाश्रयमें आये और श्रावकोंसे एक गोखड़ेमें-ताकमें-जो नवीन बनाया गया थाबैठकर उपदेश देनेकी अनुमति चाही। श्रावकोंने कहा:-" महाराज! हमसे पूछनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह गोखड़ा तो खास आपहीके लिये बनवाया गया है । " सूरिजीने कहाः-" तब तो यह हमारे निरुपयोगी है। क्योंकि हमारे निमित्तसे जो चीज तैयार कराई जाती उसको हम काममें नहीं ला सकते ।" इसके बाद वहाँ लकड़ीकी एक चौकी पड़ी थी उस पर बैढ कर सूरिजीने व्याख्यान दिया । एक बार गोचरीमें किसी श्रावकके यहाँसे खिचड़ी आई। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी सार्थकता। सूरिजीने उसे खाई । साधु लोग अभी आहारपानी कर भी न चुके थे कि, वह श्रावक-जिसके यहाँसे खिचड़ी आई थी-दौड़ता हुआ आया और मूरिजीके शिष्योंको कहने लगा:-" आज मुझसे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है । मेरे यहाँसे जो खिचड़ी आई है वह बहुत खारी है। इतनी खारी है कि, मैं उसका एकसे दूसारा नवाला तक न ले सका।" यह बात सुनकर साधु निस्तब्ध हो गये । कारण-दैवयोगसे उस दिन मूरिजीने उसके यहाँकी खिचड़ी ही खाई थी और खाते हुए उन्होंने किसी भी प्रकारसे यह प्रकट नहीं होने दिया था कि, खिचड़ी खारी है । वे सदाकी भाँती ही सन्तोषपूर्वक खाते रहे थे। इस घटनासे यह प्रकट हो जाता है कि, अपनी रसनेन्द्रियपर उनका कितना अधिकार था । रसनेन्द्रियको अधिकारमें करना कितना कठिन है इसको हरेक समझ सकता है। अन्यान्य इन्द्रिय-विषयोंपर अधिकार करनेवाले हजारों मनुष्य होंगे; परन्तु रसना इन्द्रियको न रुचे इस प्रकारकी वस्तु प्राप्त होनेपर भी सन्तोषपूर्वक-उसका मनमें दुर्भाव लाये बिना उपयोग करनेवाले तो विरले ही निकलेंगे । हरेक मनुष्यको, खास करके साधुओंको, जिनके निर्वाहका आधार केवल भिक्षावृत्ति ही है; जो संसारत्यागी हैं-तो रसना इन्द्रियको अपने काबूमें करनी ही चाहिए । कई नामधारी साधु साधुओंके लिए अग्राह्य पदार्थको भी कई बार ग्रहण कर लेते हैं । इसमें उन्हें जरासा भी संकोच नहीं होता। इसका कारण रसना इन्द्रियमें आसक्तिके सिवा और कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार ऊनामें भी एक खास स्मरणीय बात हुई थी। सूरिजी जब ऊनामें थे तब उनकी कमरमें एक फोड़ा हुआ था। वे समझते थे कि जब पापका उदय होता है तब रोगसे भरे हुए इस शरीरमेंसे कोई न कोई रोग बाहर निकलताही है। इस लिए रोगको शान्तिके साथ सहलेना ही मनुष्यका काम है । हाय ! हाय ! करनेसे 36 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । वेदना शान्त तो नहीं होती; परन्तु वह नवीन असाता वेदनीके कर्मों को उत्पन्न करती है । इन्हीं भावनाओंके कारण, यद्यपि शरीर-धर्भक अनुसार उन्हें फोड़ेसे अत्यन्त वेदना होती थी; तथापि वे उसे समभाव पूर्वक सहन करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि, सरिनीने रातके वक्त संथारा किया। एक श्रावक उनकी भक्ति-सेवा करनेके लिए आया । उसकी अँगुलीमें एक सोनेकी अंगूठी आँटोंवाली थी। वह सूरिनीका शरीर दाब रहा था । दवातेहुए अंगूठीकी नोक फोड़ेमें घुस गई । फोड़ेकी वेदना अनेक गुणी बढ़ गई । रक्त निकला । सूरिजीकी चद्दर भीग गई । इतना होने पर भी सूरिनी पूर्ववत् ही शान्तिसे रहे । उस श्रावकको भी उसकी इस असावधानताके लिए कुछ नहीं कहा । उन्होंने यह सोचकर मनको स्थिर रक्खा कि, जितनी वेदना भोगना मेरे भाग्यमें बदा होगा उतनी मुझे भोगनी ही पड़ेगी। दूसरेको दोष देने में क्या लाभ है ? सवेरे ही श्रीसोमविजयजीने सूरिजीकी चद्दर रक्तवाली देखी । उसका कारण जाना और श्रावककी असावधानीके कारण बहुत खेद प्रकट किया । सूरिनीने उन्हें प्राचीन ऋषियोंके उदाहरण दे देकर समझाया कि, वे जब इससे भी अनेक गुणी ज्यादा वेदना सहकर विचलित नहीं हुए थे और आत्मभावमें लीन रहे थे, तब इस तुच्छ कष्टके लिए अपने आत्मभावोंको विसार देना हमारे लिए कैसे शोकास्पद हो सकता है ? सूरिजीमें अनेक गुण थे। उनमेंसे एक खास महत्त्वका और अपनी और ध्यान खींचनेवाला था । वह था 'गुणग्राहकता'। सूरिजी आचार्य थे। दो ढाई हजार साधु उनकी सेवामें रहते थे। लाखों श्रावक उनकी आज्ञानुसार चलते थे। अनेक राजामहाराजा उनके उपदेशानुसार कार्य करते थे । इसना होने पर भी वे जब कभी किसी में कोई गुण देखते थे तो उसका सत्कार किये बिना नहीं रहते थे। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी सार्थकता । सूरिजीके समयहीमें अमरविजयनी * नामके एक साधु हुए हैं। वे त्यागी, वैरागी और महान तपस्वी थे। निर्दोष आहार लेने की ओर तो उनका इतना ज्यादा ध्यान था कि, कई बार उनको निर्दोष आहार न मिलने के कारण तीन तीन चार चार दिन तक उपवास करने पड़ते थे । हीरविजयमूरि उनकी त्यागवृत्ति पर मुग्ध थे। एक बार जब सब साधु आहारपानी ले रहे थे उस समय सूरिजीने उनसे कहा:-" महाराज, आज तो आप मुझे अपने हाथसे आहार दीजिए।" कितनी लघुता ! गुणीजनोंके प्रति कितना अनुराग! इतनी उच्चस्थितिमें पहुंचने पर भी कितनी निरभिमानता! अमरविनयजीन मूरिनीके पात्रमें आहार दिया । एक महान् पवित्र-तपस्वी महापुरुषके हाथसे आहार लेनमें सूरीश्वरजीको जो आनंद हुआ वह वास्तव, अवर्णनीय है । सूरिजीने उस दिनको पवित्र मानकर अपनी गिनती के पवित्र दिनोंमें जोड़ा और अपने आपको भी उस दिन उन्होंने धन्य माना। सूरिनीमें जैसी गुण-ग्राहकता थी वैसो ही लघुता भी थी। हम इस बातको भली प्रकार जानते हैं कि, अकबरने जीवदयासे संबंध रखनेवाले और इसी तरहके जो काम किये थे उन सबका श्रेय हारविजयसूरिहीको है। यद्यपि विजयसेनसूरि, शान्तिचन्द्रनी भानुचंद्रनी और सिद्धिचंद्रनीने बादशाहके पास रहकर कई काम करवाये थे; तथापि प्रताप तो सूरिजीहीका था । कारण बादशाहके पास रहकर दीर्घकालतक उन्होंने जो बीज बोये थे-बीज ही नहीं उसके अंकुर भी फुपये थे-उन्हींके वे फल थे। इसलिए उनका सारा यश सूरिजीहीको है । इतना होनेपर भी सूरिनी यही समझते * पृ० २१३ के फुटनोटमें पं० कमलविजयजीके बारेमें कहा गया है। अमरविजयजी उन्हींक एक थे। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ 1 सूरीश्वर और सम्राट् । थे कि, मैंने जो कुछ किया है या करता हूँ अपना कर्तव्य समझकर किया है; या करता हूँ | मैंने विशेष कुछ नहीं किया । मैं तो, मेरे सिरपर जितना कर्तव्य है उतना भी पूर्ण नहीं कर रहा हूँ । 1 एक बार किसी प्रसंगपर एक श्रावकने सूरिजीसे उनकी प्रशंसा करते हुए कहा :66 आप जैसे शासनप्रभावक पुरुष धन्य हैं कि, जिन्होंने अकबर बादशाहको उपदेश देकर उससे वर्ष में से छः महीनों के लिए सारे भारतमेंसे जीवहिंसा बंद करवादी । " 1 सूरिजीने कहा : - " भाई ! जगत् के जीवोंको सन्मार्गपर arter प्रयत्न करना तो हमारा धर्म ही है । हम तो केवल उपदेश देनेके अधिकारी हैं । उपदेशके अनुसार व्यवहार करना या न करना श्रोताओंके अधिकारकी बात है । हम जब उपदेश देते हैं तब कई सावधान होकर सुनते हैं; कई बैठे हुए ऊँचा करते हैं । कई अव्यवस्थित रीति से बैठकर मनको इधर उधर भमाते हैं और कई तो उठकर चलते भी जाते हैं । अभिप्राय यह है कि, हजारों को उपदेश देनेपर भी लाभ तो बहुत ही कम मनुष्योंको हुआ करता है। अकबरने जो काम किये हैं इनका कारण तो उसका स्वच्छ अन्तःकरण ही है । यदि उसने वे काम न किये होते तो हम क्या कर सकते थे ? मैंने जब सिर्फ पर्युषणोंके आठ दिन माँगे तब उसने अपनी तरफसे चार दिन और जोड़कर बारह दिनका पर्वाना कर दिया । यह उसकी सज्जनता थी या और कुछ ? यदि विचार करेंगे तो मालूम होगा कि, श्रेष्ठ कार्य में याचना करनेवालेकी अपेक्षा दान करनेवालेकी कीर्त्ति विशेष होती है । मैंने माँगकर अपना कर्तव्य पूर्ण किया, बादशाहने देकर - कामकर अपनी उदारता दिखाई। कार्य करनेकी अपेक्षा उदारता दिखाना विशेष लाया है । इसके उपरान्त मुझे स्पष्टतया यह कह देना Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी सार्थकता। २८५ चाहिए कि, बादशाहने जितनी अमारीघोषणाएँ कराई-जीवहिंसाएँ बंद करवाई और गुजरातमें प्रचलित जजिया नामका जुल्मी कर बंद कराया इन सबका श्रेय शान्तिचंद्रजीको है और शत्रुनयादिके फर्मान लेनेका यश भानुचंद्रजीको है। क्योंकि ये कार्य उन्हींके उपदेशसे कितना स्पष्ट कथन ! कितनी लघुता! कितनी निरभिमानता !! सचमुच ही उत्तम पुरुषोंकी उत्तमता ऐसे ही गुणोंमें समाई हुई है। __ सूरिजीम गुरुभक्तिका गुण भी प्रशंसनीय था । गुरुकी आज्ञाको वे परमात्माकी आज्ञा समझते थे। एक बार उनके गुरु विजयदानसरिने उन्हें किसी गावसे एक पत्र लिखा । उसमें उन्होंने लिखा था कि, इस पत्रको पढ़ते ही जैसे हो सके वैसे यहाँ आओ। पत्र मिलते ही मूरिनी खाना हो गये । उस दिन दो दिनके उपवासका पारणा करना था। पारणाकर विहार करनेकी श्रावकोंने बहुत विनती की; परन्तु उन्होंने किसीकी बात नहीं मानी। वे यह कह रवाना हो गये कि,-गुरुदेवकी आज्ञा तत्काल ही रवाना होनेकी है, इसलिए मुझे रवाना होना ही चाहिए । बहुत जल्दी, सहसा, गुरुके पास जा पहुँचे । गुरुनीको बड़ा आश्चर्य हुआ कि,-वे इतने जल्दी कैसे जा पहुँचे । पूछनेपर उन्होंने उत्तर दिया कि, जब आपकी आज्ञा तत्काल ही आनेकी थी तब एक क्षणके लिए भी मैं कहीं कैसे ठहर सकता था ? विजयदानसूरि अपने शिष्यकी ऐसी भक्ति देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । पीछेसे जब उन्हें यह मालूम हुआ कि; हीरविजयमूरि दो दिनके उपवासका पारणा करने जितनी देर भी नहीं ठहरे, तबतो उनकी प्रसन्नताका कोई ठिकाना न रहा। गुरुकी आज्ञापालन करनेमें कितनी उत्सुकता ! कितनी तत्परता ! ऐसे शिष्य Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । गुरुकी पूर्ण कृपा प्राप्त करें और संसारमें सुयश-सौरभ फैलावें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हीरविजयसृरिमें उपर्युक्त प्रकारके उत्तमोत्तम गुण थे। वे उपदेशद्वारा हजारों मनुष्योंका कल्याण करनेका अश्रान्त प्रयत्न करते थे, इसलिए उनका जीवन तो वास्तविक अर्थमें सार्थक ही था । तो भी वे यह मानते थे और यह सचभी है-कि, बाह्य प्रवृत्तियोंकी अपेक्षा आध्यात्मिक प्रवृत्ति ही विशेष लाभदायक होती है। आध्यात्मिक प्रवृत्तिद्वारा प्राप्त हार्दिक पवित्रता बाह्य प्रवृत्तिमें बहुत सहायता पहुँचाती है । हार्दिक पवित्रताविहीन मनुष्यका लाखों ग्रंथ लिखे जायें इतना उपदेश भी निष्फल जाता है । हृदयकी पवित्रतावाले मनुष्यको बहुत बोलनेकी भी आवश्यकता नहीं होती है। उसके थोड़े ही शब्द मनुष्योंके हृदयोंपर अपना पूरा असर डालते हैं। हीरविजयसूरिजीने जैसे उपदेशादि बाह्य प्रवृत्तियोंसे अपने जीवनको सार्थक किया था वैसे ही बाह्य प्रवृत्तिकी पूर्ण सहायक-कारण आध्यात्मिक प्रवृत्तिको भी वे भूले न थे । वे समय समयपर एकान्तमें बैठकर घंटों ध्यान करते थे। कईबार तपी हुई रेती पर बैठ 'आतापनाभी लिया करते थे। रात्रिके पिछले पहरमें-जो योगियोंके ध्यानके लिए अपूर्व गिना जाता है-उठकर ध्यान तो वे नियमित रूपसे किया ही करते थे । सूरिनीकी इस आध्यात्मिक प्रवृत्तिसे प्रायः लोग अनान ही थे। और तो और उनके साथ रहनेवाले साधुओंमेंसे भी बहुत कम साधु इस बातको जानते थे। एक दिनकी बात है। सूरिनी उस समय सीरोहीमें थे। वे हमेशाके नियमानुसार पिछली रातमें उठकर ध्यानमें खड़े थे। अवस्था और शारीरिक अशक्तिके कारण उनको चक्कर आ गया । वे धड़ामसे Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी सार्थकता। जमीनपर गिरकर बेहोश हो गये। धमाका सुनकर साधु जागृत हुए । खोननेसे पता चला कि, मूरिजी ही अशक्तिके कारण ध्यान करते हुए गिर गये हैं । थोड़ी देर बाद जब उन्हें चेत हुआ तब सोमविजयजीने विनीत भावसे कहा:-" महाराज ! अब आप वृद्ध हुए हैं। जैनशासनोन्नतिकी चिन्तामें आपने अपना शरीर सुखा दिया है। शरीर बहुत ही कमजोर हो गया है । इस दशामें ऐसी आभ्यन्तरिक क्रियाओंसे दूर रहा जाय तो उत्तम है। आपने परमात्माके शासनके लिए जो कुछ किया है या जो कुछ करते हैं वह कुछ कम नहीं है। यदि आपके शरीरमें विशेष शक्ति रहेगी तो विशेष कार्य कर सकेंगे और हमारे समान अनेक जीवोंका उद्धार भी कर सकेंगे।" सूरिनीने सोमविजयजी आदि साधुओंको समझाते हुए कहा:--" भाई ! तुम जानते हो कि, शरीर क्षणभंगुर है । कब नष्ट हो जायगा इसकी खबर नहीं है। इस अंधेरी कोठड़ीमें अमूल्य रत्न भरे हुए हैं। उनमें से जितने अपने हाथ आवे उतने ले लेने चाहिए। शरीरकी दुजनताका विचार करनेसे मालूम होता है कि, उसको तुम कितना ही खिला पिलाकर हृष्टपुष्ट करो मगर, अन्तमें वह जुदा हो ही जायगा-यहींपर रह जायगा । तो फिर उसपर मोह किस लिए करना चाहिए। उससे तो बन सके उतना काम लेना ही अच्छा है। इस बातको भी ध्यानमें रखना चाहिए कि, हजारों लाखों मनुष्य वशमें किये जा सकते हैं; परन्तु आत्माको आधीन करना बहुत ही कठिन है। जब आत्मा आधीन हो जाता है तब सारा संसार आधीन हो जाता है । 'अपा. जीए सव्वं जी।' आत्माको जीता तो सबको जीता। जगतको जीतनेमें-मनुष्योंपर अपना प्रभाव डालने में भी आत्माको जीतनेकी आवश्यकता है। इस आवश्यकताको पूर्ण करनेके लिए अध्यात्म Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ सूरीश्वर और सम्राट । mmmmmmmm प्रवृत्ति बहुतही जरूरी है । आध्यात्मिक बल लाखों मनुष्यों के बलोंसे भी करोड गुणा अधिक है । जिस कामको लाखों मनुष्य नहीं कर सकते हैं उस कामको आध्यात्मिक बलवाला अकेला कर सकता है।" मूरिजीके वचन सुनकर साधु स्तब्ध होगये; एक शब्द भी वे न बोल सके । उनको यह सोचकर बड़ा आश्चर्य होने लगा कि;-जगत्में इतनी प्रतिष्ठा और पूजा प्राप्त करके भी सूरिनी इतने वैरागी हैं ! साधुओंको सँभालनेमें, लोगोंको उपदेश देने में और समाजहितके कामोंमें सतत परिश्रम करनेपर भी बाह्य प्रवृत्तिसे वे इतने निर्लेप हैं ! यहि अध्यात्म है। मनको वशमें करनेकी इच्छासे-आत्मा को जीतनेके इरादेसे जो अध्यात्म-प्रवृत्ति करते हैं वे आध्यात्मिक प्रवृत्तिका आडंबर नहीं करते । जो सच्चे अध्यात्म-प्रिय हैं वे कभी भी आडंबर प्रिय नहीं होते । जहाँ आडंबर प्रियता है वहाँ सच्चा अध्यात्म नहीं रहता। आध्यात्मिकोंमें इन्द्रियदमन, शारीरिक मूर्छाका त्याग और वैराग्य ये गुण होनेही चाहिएँ । इन गुणोंके बिना अध्यात्मज्ञानमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वर्तमानमें कुछ शुष्क आध्यात्मिक अध्यात्मविद् होनेका दावा करते फिरते हैं; मगर देखने जायगे तो किसीमें उपर्युक्त गुणों से थोड़ासा अंश भी नहीं मिलेगा। ऐसोंको अध्यात्मिविद् कहना या मानना ठगोंको उत्साहित करना है। हीरविजयसूरिके जीवनकी सार्थकताके संबंधमें अब विशेष कुछ कहना नहीं हैं । आध्यात्मिक प्रवृत्तिसे और उपदेशादि बाह्यप्रवृत्तिसे दोनों तरहसे उनका जीवन जनताके लिए आशीर्वादरूप था । कर्मोंको क्षय करनेके लिए उन्होंने तपस्या भी बहुत की थी। संक्षेपमें यह है कि, जैसे वे एक उपदेशक थे वैसे ही तपस्वी भी थे । स्वभावतः Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ जीवनकी सार्थकता। उनमें त्यागवृत्ति विशेष थी। सदैव वे गिनतीकी बारह चीजें ही काममें लाते थे । छट्ट, अहम, उपवास, आंबिल, नीवि और एकासनादि तपस्याएँ तो वे बातकी बातमें करलिया करते थे। ऋषभदास कविके कथनानुसार उन्होंने जो तपस्याएँ अपने जीवनमें की थीं वे इस प्रकार हैं: " इकासी तेले, सवा दो सौ बेले, छत्तीस सौ उपवास, दो हजार आंबिल और दो हजार नीवियाँ की थीं। इनके सिवाय उन्होंने वीस स्थानककी आराधना बीस बार की थी; उसमें उन्होंने चारसौ चौथ और चारसौ आंबिल किये थे। भिन्न भिन्न भी चारसौ चौथ किये थे। सूरिमंत्रकी आराधना करनेके लिए वे तीन महीनेतक ध्यानमें रहे थे। तीन महीने उन्होंने एकासन, आंबिल, नीवि और उपवासादिहीमें बिताये थे। ज्ञानकी आराधना करनेके लिए भी उन्होंने बाईस महीने तक तपस्या की थी। गुरुतपमें भी उन्होंने तेरह महीने बेले, तेले, उपवास, आंबिल और नीवि आदिक तपस्याओंमें बिताये थे । इसी तरह उन्होंने ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधनाके ग्यारह महीनोंका और बारह प्रतिमाओंका भी तप किया था । " आदि आत्म-शक्तियों का विकास यूँहीं नहीं होता। यदि खानेपीने और इन्द्रियोंके विघयोंहीमें लुब्ध रहनेसे आत्मशक्तियोंका विकास होता तो क्या संसारका हरेक आदमी नहीं कर लेता ? आत्मशक्तिका विकास करनेमें-लाखों मनुष्योंपर प्रभाव डालनेकी शक्ति प्राप्त करने अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता है । महावीरदेव सम्पूर्ण आत्मशक्तिको कत्र विकसित कर सके थे ? जब उन्होंने बारह बरसतक लगातार तपस्या की थी तब । इन्द्रिय-विषयासक्ति मिटाये बिना, दूसरे शब्दोंमें कहें तो इच्छाका निरोध किये बिना तपस्या नहीं होती । तपस्याके विना कर्मोका क्षय होना असंभव है । हीरविजयसूरिने जगत्पर उपकार 37 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सूरीश्वर और सम्राट् । करनेका महान् प्रयत्न करते हुए भी, आत्मशक्तिके विकासाथ भरसक तपस्याकी थी और जीवनको सार्थक बनाया था । मूरिनीकी विद्वत्ताके विषयमें भी यहाँ कुछ कहना आवश्यक है। वे साधारण विद्वान् नहीं थे । यद्यपि उनके बनाये हुए 'जम्बू. द्वीपप्रज्ञप्तिटीका' और ' अन्तरिक्षपार्श्वनाथस्तव ' आदि बहुत ही थोड़े ग्रंथ उपलब्ध हैं तथापि उन्हें देखने और उनके किये हुए कार्योंपर दृष्टिपात करनेपर उनकी असाधारण विद्वत्ताके विषयमें लेशमात्रभी शंका नहीं रहती है। उस समयके बड़े बड़े जैनेतर विद्वानोंके साथ वाद करनेमें तथा आलिमफाजिल सूबेदारों पर और खास करके समस्त धर्मोका तत्त्व-शोधनेमें अपनी समस्त जिंदगी बिताने वाले अकबर बादशाहपर धार्मिक प्रभाव डालने में सफलता प्राप्त करना, साधारण ज्ञानवालेका काम नहीं हो सकता, यह स्पष्ट है । अकबरने अपनी धर्मसभाके पाँच वर्गोंमेंसे पहले वर्गमे उन्हीं लोगोंको दाखिल किया था कि, जो असाधारण विद्वान् थे। उसी प्रथम वर्गके सूरिजी सभासद थे। इस बातका पहले उल्लेख हो चुका है। इन सारी बातोंसे यह बात सहन ही समझमें आ सकती है कि, हीरविजयसूरि प्रवर पंडित थे। अब उनके जीवनके संबंधों कहने योग्य कोई भी बात नहीं रही । ज्ञान, ध्यान, तपस्या, दया, दाक्षिण्य, लोकोपकार और जीवदयाका प्रचार आदि सब बातोंसे अपने ग्रंथनायक हीरविजयसूरिने निज जीवनको सार्थक किया था। इस प्रकार जीवनको जो सार्थक कर लेते हैं उन्हें मृत्युका भय नहीं रहता । उनको मृत्युसे इतनी ही प्रसन्नता होती ही जितनी प्रसन्नता मनुष्यको झोंपड़ीसे महलमें जानेमें होती है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग प्रकरण बारहवाँ । निर्वाण | त प्रकरणके अन्तमें यह कहा जा चुका है कि, सूरिजी वि. सं० १६५१ का चातुर्मास समाप्तकर जब ऊनासे विहार करने लगे थे तब उनका शरीर अस्वस्थ था, इसलिए संघने उन्हें विहार नहीं करने दिया । विवश सूरिजीको वहीं रहना पड़ा । जिस रोगके कारण सुरिजीने अपना विहार बंद रक्खा था वह रोग विहार बंद रखनेपर भी शान्त न हुआ । प्रति दिन रोग बढ़ता ही गया। धीरे धीरे पैरों पर भी सूजन आगई । श्रावकोंने सब तरहकी औषधियोंका प्रबंध करना चाहा; परन्तु सूरिजीने उन्हें रोक दिया । उन्होंने कहा:-- " मेरे लिए दवाका प्रबंध करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । मेरा धर्म है कि, मैं उदयमें आये हुए कर्मोंको समतापूर्वक भोग लूँ । रोगोंसे भरे हुए विनश्वर शरीरकी रक्षाके लिए अनेक प्रकार के पापपूर्ण कार्य करना सर्वथा अनुचित है । " 1 विधि - अपवादको जाननेवाले श्रावकोंने शास्त्रीय प्रमाणोंद्वारा यह बताने की कोशिश की कि, आपके समान शासनप्रभावक गच्छनायक सूरीश्वरको अपवादरूपसे, रोगनिवार्णार्थं यदि कुछ दोषका सेवन करना पड़े तो वह भी शास्त्रोक्त ही है । मगर सूरिजीने उनकी बात नहीं मानी । सूरिजी इस अपवादमार्ग से अनभिज्ञ नहीं थे । वे शास्त्रोंके पारगामी थे; गीतार्थ थे और महान अनुभवी थे । इसलिए Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सूरीश्वर और सम्राट्। वे इस बातसे अपरिचित नहीं थे, तो भी वे निषेध करते थे। कारण-उनको यह निश्चय हो गया था कि, मेरी आयु अब बहुत ही थोड़ी है । अब मुझे बाह्य उपचार और औषधकी अपेक्षा धर्मोषधका सेवन ही विशेष रूपसे करना चाहिए। अल्प अवशेष जीवनके लिए ऐसी आरंभ-समारंभवाली औषधे करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसी कारणसे वे श्रावकोंको निषेध करते रहे। श्रावकोंको बड़ा दुःख हुआ। वे सभी उपवास करके बैठ गये । उन्होंने कहा,सूरिजी यदि दवा नहीं करने देंगे तो हम भोजन नहीं करेंगे। ऋषभदास कवि तो यहाँ तक लिखता है कि, कई स्त्रियोंने उस समय तकके लिए अपने बच्चों तकको धवाना छोड़ दिया जब तककी सूरिजी उपचार करानेके लिए राजी न हों । सारे ऊनामें हाहाकार मच गया। सूरिजीके शिष्योंको भी बहुत कष्ट हुआ । अन्तमें सोमविजयजीने सूरिजीसे निवेदन किया:-"महाराज ! ऐसा करनेसे श्रावकोंके मन स्थिर नहीं रहेंगे । जैसे आप दवा लेनेसे इन्कार करते हैं वैसे ही श्रावक भी अन्ननल ग्रहण नहीं करनेकी हठ पकड़के बैठे हैं । इसलिए संघका मान रखनेके लिए भी आपको औषध लेनेकी स्वीकारता देनी चाहिए । यह बात तो आपसे छिपी हुई है ही नहीं कि, पहिलेके वाषियोंने भी रोगके उपस्थित होनेपर दवा ग्रहण की है। अतः आपको भी कुछ छूट रखनी ही चाहिए।शुद्ध और थोड़ी दवा ही ग्रहण करनेकी हाँ कहिए।" सोमविजयजीके विशेष आग्रहसे अपनी इच्छाके विरुद्ध भी सरिजीने दवा लेनेकी स्वीकारता दी । संब बहुत प्रसन्न हुआ। स्त्रियाँ बच्चोंको धवाने लगीं । सुदक्ष वैद्य औषधोपचार करने लगा। प्रतिदिन व्याधिमें भी कुछ न्यूनता होने लगी। तो भी शारीरिक अवस्था सुखसे ज्ञान, ध्यान, क्रिया करने योग्य न हुई। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण | ... " २९३ हीरविजयसूरिके प्रधान शिष्य और उनकी गद्दीके अधिकारी विजयसेनसूरि उस समय अकबर बादशाहके पास लाहौरमें थे। मूरिनीको गच्छकी बहुत चिन्ता रहा करती थी। उनके हृदयमें ये ही विचार बार बार आया करते थे कि,-विजयसेनसूरि यहाँ नहीं हैं । वे बहुत दूर हैं। यदि पासमें होते तो गच्छ संबंधी सारी बातें उन्हें बता देता । एक दिन उन्होंने अपने पासके समस्त साधुओंको एकत्रित करके कहा कि, "जैसे हो सके वैसे जल्दी विजयसेनसूरिको यहाँ बुलानेका प्रयत्न करो।" ___ साधुओंने विचार करके और किसी आदमीको न भेजकर धनविजयजीहीको रवाना किया । बड़ी बड़ी मंजिलें तै करके वे बहुत जल्दी लाहौर पहुँचे । उन्होंने विजयसेनसूरिसे कहा कि,-" सूरिजी विशेष रूपसे रुग्ण हैं और आपको बहुत स्मरण किया करते हैं । " . इस समाचारको सुनकर विजयसेनसूरिको बड़ा दुःख हुआ । उनका शरीर शिथिल पड़ गया । वे थोड़ी देरमें अपने आपको सँभालकर बादशाहके पास गये और सूरिजीकी रुग्णताके समाचार सुनाकर बोले कि,-"महाराजने मुझे शीघ्र ही बुलाया है "उस समय बादशाह उन्हें अपने पास ही रहनेका आग्रह न कर सका । उसने विजयसेनसूरिजीको गुजरात जानेकी अनुमति दे दी । अपनी ओरसे सूरिजीको प्रणाम करनेके लिए भी कहा। 'विजयप्रशस्तिमहाकाव्य । के कर्ताका मत है कि, विजयसेनसूरि जब अकबर बादशाहके पास नंदिविजयजीको रखकर गुजरातमें आते थे तब महिमनगरमें उन्हें हीरविजयसूरिकी बीमारीके समाचार मिले थे। चाहे कुछ भी हो मगर इतनी बात तो निर्विवाद है कि, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ PAAAA क्रियाओंमें मुझे यासाध्य चेष्टा नती है । मनुष्यार सूरीश्वर और सम्राट् । सूरिजीकी रुग्णताके समय विजयसेनसरिजी उनके पास नहीं थे। इन्हें उनकी रुग्णताके समाचार दिये गये थे । इधर जैसे जैसे हीरविजयसूरिकी रुग्णता बढ़ती गई वैसे ही वैसे विजयसेनसूरिकी अविद्यमानताकी चिन्ता भी बढ़ती गई । उनके हृदयमें बारबार यही विचार आने लगे कि,-वे अबतक क्यों नहीं आये ? यदि इस समय वे मेरे पास होते तो अन्तिम अनशनादि क्रियाओंमें मुझे बड़ा उल्लास होता ।" बहुत विचार और यथासाध्य चेष्टा करने पर भी मनुष्य चल तो उतना ही सकता है जितनी उसम शक्ति होती है । मनुष्योंके पंख नहीं होते कि, वे झटसे उड़कर इच्छित स्थानपर पहुँच जायँ । इसी तरह विजयसेनसूरि साधु होनेसे यह भी नहीं कर सकते थे कि, वे बादशाहके किसी पवनवेगसे चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर लाहौरसे तत्काल ही ऊना जा पहुँचते । हीरविजयसूरि जितनी आतुरताने विजयसेनसूरिके आनेकी प्रतीक्षा कर रहे थे उतनी ही बल्कि उससे भी विशेष आतुरता विजयसेनसूरिको हीरविजयसूरिकी सेवामें पहुंचनेके लिए हो रही थी। मगर हो क्या सकता था ? बहुत दिन बीत जानेपर भी जब विजयसेनसूरि नहीं पहुंचे तब एक दिन हीरविजयसूरिने सब साधुओंको अपने पास बुलाया और कहा: "विजयसेनसरि अबतक नहीं आये । मैं चाहता था कि, वे अन्तिम समयमें मुझसे मिल लेते तो समाज संबंधी कई बातें मैं उनसे कह जाता । अस्तु ! अब मुझे अपनी आयु बहुत ही अल्प मालूम होती है, इसलिए तुम्हारी सबकी सम्मति हो तो मैं आत्मकार्य साधनका प्रयत्न करूं।" Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण । MAAMANRAA हीरविजयसूरिके वचन सुनकर साधुओंके हृदयमें बड़ा आघात लगा । सोमविजयजीने कहा:--" महाराज ! आप लेशमात्र भी चिन्ता न करें । आपने तो ऐसे विषमकालमें भी आत्मसाधन करनेमें कोई कमी नहीं की है । त्याग, वैराग्य, तपस्या, ध्यान और क्षान्त्यादि गुणोंद्वारा तथा असंख्य जीवोंको अभयदान देने और दिलानेद्वारा आपने तो अपने जीवनको सार्थक कर ही लिया है। निश्चित रहिए । आप शीघ्र ही नीरोग हो जायेंगे । विजयसेनसूरि भी शीघ्र ही आपकी सेवामें उपस्थित हो जायगे।" सरिजी बोले: ---"तुम कहते हो सो ठीक है। मगर चौमासा शुरू होजानेपर भी विजयसेनसूरि अबतक नहीं आये। न मालूम वे कब आयेंगे ?" सोमवियजीने पुनः कहा:-"महाराज अब आप बहुत जल्दी स्वास्थ्य लाभ करेंगे । विजयसेनसूरि भी शीघ्र ही आयेंगे।" इस तरह करते करते पर्युषणा पर्व आ पहुँचा । यह बात बड़े आश्चर्य की है कि, इतनी रुग्ण दशामें भी पर्युषणामें कल्पसूत्रका व्याख्यान हीरविजयसूरिहीने बाँचा था। व्याख्यान बाँचनेके श्रमसे उनका शरीर विशेष शिथिल हो गया। पर्युषणा समाप्त हुए । सूरिनीको अपने शरीरमें विशेष शिथिलता मालूम हुई। तब उन्होंने भादवा सुदी १० ( वि० सं० १६५२ ) के दिन मध्यरात्रिके समय अपने साथके विमलहर्ष उपाध्याय आदि सारे साधुओंको एकत्रित कर कहाः " मुनिवरो ! मैंने अब अपने जीवनकी आशा छोड़ दी है। जो जन्मता है वह मरता ही है। जल्दी या देरमें सबको यह मार्ग लेना ही पड़ता है। तीर्थकर भी इस अटल सिद्धान्तसे छूट नहीं सके Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सूरीश्वर और सम्राट् । हैं । आयुष्यको क्षणमात्र बढ़ानेके लिए भी कोई समर्थ नहीं हुआ है। इसलिए तुम लेशमात्र भी दुखी न होना । विजयसेनसूरि यदि यहाँ होते तो मैं तुम सबकी उन्हें उचित भोलामन देता । कल्याणविजय उपाध्याय भी अन्तमें न मिले । अस्तु । अब मैं जो कुछ तुम्हें कहना चाहता हूँ वह यह है कि,तुम किसी भी तरहकी चिन्ता न करना । तुम्हारी सारी आशा विजयसेनसूरि पूर्ण करेंगे। वे साहसी, सत्यवादी और शासनके पूर्ण प्रेमी हैं। मेरी यह सूचना है कि, तुम जिस तरह मुझे मानते हो उसी तरह उनको भी मानना और उनकी सेवा करना । वे भी पुत्रकी तरह तुम्हारा पालन करेंगे । तुम सभी मेलसे रहना और जिससे शासनकी शोभा बढ़े वही काम करना । विमलहर्ष उपाध्याय और सोमविजयजी ! तुमने मुझे मुख्यतया बहुत सन्तुष्ट किया है । तुम्हारे कार्योंसे मुझको बहुत प्रसन्नता हुई है । मैं तुमसे भी अनुरोध करता हूँ कि, तुम शासनकी शोभा बढ़ाना और सारा समुदाय सदा एकतासे रहे ऐसे प्रयत्न करते रहना"। साधुओंको उपर्युक्त प्रकारका उपदेश देकर सूरिनी अपने पापोंकी आलोचना और समस्त जीवोंसे क्षमायाचना करने लगे। जिस समय वे साधुओंसे क्षमा माँगने लगे उस समय साधुओंके हृदय भर आये । आँखोंसे आँसू गिरने लगे और गला रुक गया। सोमविजयनी भराई हुई आवाजमें बोले:-" गुरुदेव ! आप इन बालकोंसे क्यों क्षमा माँगते हैं ? आपने तो हमें प्रियपुत्रोंकी तरह पाला है पुत्रोंसे अधिक समझकर आपने हमारी सार सँभाल ली है और अज्ञानरूपी अंधकारसे निकालकर हमें ज्ञानके प्रकाशमें ला बिठाया है। आपके हमपर अनन्त उपकार हैं । आप-पूज्य हमसे क्षमा माँगते हैं इससे हमारे हृदयमें व्यथा होती है। हम आपके अज्ञानी-अविवेकी बालक हैं। पद पदपर हमसे आपका अपराध हुआ होगा। समय Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण । २९७ समयपर हमारे लिए आपका हृदय दुखा होगा। उसके लिए हम आपसे क्षमा माँगते हैं । प्रभो ! आप तो गुणके सागर हैं। आपने जो कुछ किया होगा वह हमारे भलेके लिए ही किया होगा । मगर हमने उसे न समझ कर आपके विपरीत कुछ विचार किया होगा । हमारे उस अपराधको क्षमा कीजिए । गुरुदेव ! विशेष क्या कहें ! हम अज्ञानी और अविवेकी हैं । अत: मन, वचन और कायासे आपका जो कुछ अविनय, अविवेक और अप्सातना हुए हों उनके लिए हमें क्षमा करें । " सूरिजीने कहा:-"मुनियरो ! तुम्हारा कथन सत्य है; परन्तु मुझे भी तुमसे क्षमा माँगनी ही चाहिए । यह मेरा आचार है । साथमें रहनेसे कई बार कुछ कहना भी पड़ा है और उससे सामनेवालेका दिल दुखता है। यह स्वाभाविक है । इसलिए मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ।" ___ इस प्रकार समस्त जीवोंसे क्षमा माँगनेके बाद सूरिजीने पापकी आलोचना की और अरिहंत, सिद्ध, साधु, और धर्म इन चार शरणोंका आश्रय लिया। सरिनी समस्त बातोंकी तरफसे अपने चित्तको हटा कर अपने जीवनमें किये हुए शुमकार्यो-विनय, वैयावच्च, गुरुभक्ति, उपदेश, तीर्थयात्रा आदिकी-अनुमोदना करने लगे । ढंढण, हठप्रहारी, अर. णिक, सनत्कुमार, खंधककुमार, कूरगडु, भरत, बाहुबली, बलिभद्र, अभयकुमार, शालिभद्र, मेवकुमार, और धन्ना आदि पूर्व ऋषियोंकी तपस्या और उनके कष्ट सहन करनेकी शक्तिका स्मरण करने लगे। तत्पश्चात् नवकार मंत्रका ध्यानकर उन्होंने दश प्रकारकी आरा. धना की। ___ कुछ देरके लिए सूरिनी मौन रहे। उनके चहरेसे मालूम 38 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ सूरीश्वर और सम्राट् । होता था कि, वे किसी गंभीर ध्यानसागर में निमग्न हैं। उन्हें घेर के बैठे हुए मुनि टगर टगर उनके मुखकी ओर देख रहे हैं, और उत्कंठासे गुरुदेव के वचन सुननेकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। सैकड़ों श्रावक श्राविकाएँ आते हैं और सूरिजीकी पूजा कर उदास मुख बैठ जाते हैं । भादवा सुदी ११ ( वि० सं० १६५२ ) का दिन था । संध्या समय निकट आ रहा था । सूरिजी अब तक ध्यानमें मग्न थे । साधु उनके मुखारविंदको देख रहे थे । अकस्मात् उन्होंने आँखें खोलीं । प्रतिक्रमणका समय जाना । सब साधुओं को अपने पास बिठाकर प्रतिक्रमण कराया । प्रतिक्रमण पूर्ण होनेके बाद सूरिजीने अन्तिम शब्दोच्चार करते हुए कहा: "माइयो ! अब मैं अपने कार्य में लीन होता हूँ। तुमने हिम्मत नहीं हारना । धर्मकार्य करनेमें वीरता दिखाना । " फिर वे आत्मचिन्तवनमें लीन हुए- " मेरा कोई नहीं है; मैं किसीका नहीं हूँ; मेरा आत्मा ज्ञान-दर्शन चारित्रमय है; सच्चिदानंदमय है, शाश्वत है; मैं शाश्वत सुखका मालिक होऊँ मैं आत्माके सिवाय अन्य सब भावका त्याग करता हूँ; आहार, उपाधि और इस तुच्छ शरीरका भी त्याग करता हूँ । ” इत्यादि वाक्योच्चार कर सूरिजी चार शरणोंका स्मरण करने लगे। उस समय सूरिजी पद्मासनमें विराजमान हुए । हाथमें माला लेकर जाप करने लगे । चारमालाएँ समाप्तकर पाँचवीं फेरना चाहते थे, इतनेहीमें माला हाथसे गिर पड़ी । लोगों में हाहाकार मच गया । जगत्का हीरा मानवी देहको छोड़कर चला गया । जिस समय सुरलोक में हीरका स्वागत हुआ; सुरघंटका नाद हुआ । उसी समय भारतवर्षको गुरुविरहरूपी भयंकर बादलोंने आच्छादित कर लिया । X x x x Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण । २९९ हीरविजयसूरिका निर्वाण होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया । ऊनाके संघने यह दुःखदायी समाचार गाँव-गाँव में पहुँचानेके लिए कासीद रवाना किये । जिस गाँवमें यह समाचार पहुँचा उसीमें शोक छागया । गाँवों और नगरोंमें हड़ताले पड़ने लगी । हिन्दु, मुसलमान और अन्यान्य धर्मवालोंको इस समाचारसे दुःख हुआ। जिन पुरुषरत्नोंकी विद्यमानतासे भारतवर्षकी राष्ट्रीय और धार्मिक स्थितिमें बहुतसे सुधार हुए थे; जिनके कारण भारतवासी कुछ सुखके दिन देखने लगे थे उनमेंसे एक रत्न चल बसा । उसके चले जानेसे दुःख किसे न होता ? ऐसी कमीसे-जो पूरी नहीं हो सकती थीकिसके हृदयपर आघात न लगा होगा ? दूसरी तरफ सूरिजीकी अन्त्येष्ठी क्रियाके लिए उना और दीवका संघ तैयारी करने लगा । उन्होंने तेरह खंडका एक विमान बनवाया । वह कथिया मखमल और मशरुसे मढा गया था । मोतीके झूमकों, चाँदीके घंटों, स्वर्णकी घूघरियों, छत्र, चामर, तोरण और चारों तरफ अनेक प्रकारकी फिरती हुई पुतलियोंसे वह ऐसा सुंदर सजाया गया था कि, देखनेवाले उसको एक देवविमान ही समझने लगे। कहा जाता है कि, उसको बनानेमें दो हजार लाहरियाँ खर्च हुई थीं। उनके अलावा दो ढाई हजार लाहरियाँ दूसरी खर्च हुई थीं। केशर, चंदन और चूआसे सूरिजीके शरीर पर लेप किया गया । उसके बाद शब पालकीमें रक्खा गया । घंट नाद हुआ। बाजे बने । प्रतिष्ठित पुरुषोंने पालकीको उठाया । जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! के शब्दोंसे आकाशमंडल गूंन उठा । हजारों लोग अपनी श्रद्धाके अनुसार रुपये पैसे और बादाम उछालने लगे। मार्गमें पुष्पों की वृष्टि होने लगी । आवाल वृद्ध नरनारी अपने मकानोंकी छतोंपर और झरोखोंपर चढ़ चढ़कर भावपूर्वक वंदना करने लगे। पालकीके पीछे Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० सूरीश्वर और सम्राट् । हजारों आदमी सिर झुकाए चले जा रहे थे । गाँवके बड़े बड़े मार्गों से निकलकर पालकी आंबावाड़ी में पहुँची । वहाँ निर्जीव भूमिमें उत्तम नातिके चंदनकी चिता रची गई। सूरिजीका शब उसमें रखा गया । चितामें आग लगानेका कोई साहस नहीं करता था । सबकी आँखोंमें फिरसे पानी भर आया । सूरिजी के मुखकी तरफ देखते हुए सभी स्थिर होकर खड़े रहे । कुछ लोग गद्गद कंठसे बोले:-" हे गुरुदेव ! आप हमें मधुर देशना दीजिए ! हे हीर ! आप धर्मके विचार प्रकट कीजिए ! देव ! आपके भक्त रुदन कर रहे हैं तो भी आप बोलते क्यों नहीं हैं ? क्यों आप अपना पवित्र हाथ हमारे सिर पर रख कर हमें पवित्र नहीं बनाते हैं ? आप हमें रोते छोड़कर कहाँ जाते हैं ? हम किसके दर्शन करके पवित्र होंगे ? आपके सिवा हमारे संदेहोंको कौन दूर करेगा ? हे गुरु, आपकी मधुरवाणी अब हम कहाँ सुनेंगे ? हमारे समान संसार में फँसे हुए प्राणियों का उद्धार कौन करेगा ? " अन्तमें हृदय कड़ाकर लोगोंने चितामें अग्नि लगाई । चितामें पन्द्रह मन चंदन, तीन मन अगर, तीन सेर कपूर, दो सेर कस्तूरी, तीन सेर केसर और पाँच सेर चूआ डाला गया था । सूरिजीका मानवी शरीर भस्मसात् हो गया । केवल यश :शरीर संसारमें रह गया । सूरिनीके शरीर संस्कार में सब मिलाकर सात हजार ल्याहरियाँ खर्च हुई थीं। समुद्र के किनारे अमारी पाली गई । समुद्र में कोई जाल न डाले इस बातका प्रबंध किया गया । गुरु-विरहसे दुःखी साधुओंने तीन तीन दिन तक उपवास किये । अग्नि संस्कार करके श्रावकोंने मंदिर में जाकर देववंदन किया । और फिर साधुओंका वैराग्यपूर्ण उपदेश सुन सत्र अपने अपने घर गये । I जिस बागीचे में हरिविजयसूरिका अग्नि संस्कार हुआ था वह Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ umumtarnatarawasan निर्वाण। बागीचा और उसके आसपासकी बाईस बीघे* जमीन अकबर बादशाहने जैनोंको देदी थी। इसी बागीचेमें-जहाँ सूरिजीका अग्नि संस्कार हुआ था-दीवकी लाड़कीबाईने एक स्तूप बनाकर उस पर सूरिजीकी पादुका स्थापन की थी। हीरविजयसूरिके निर्वाणके पन्द्रह दिन पीछे, कल्याणविज. यजी उपाध्याय ऊना पहुँचे थे । उन्हें सूरिनीके स्वर्गवासके समाचार सुनकर बड़ा दुःख हुआ । सूरिजीके अद्वितीय गुण उन्हें बार बार याद भाने लगे और जैसे जैसे वे गुण याद आते वैसेही वैसे उनका हृदय भर आता और आँखोंसे पानी निकल पड़ता। कल्याणविजयजीको धावकों और साधुओंने अनेक प्रकारसे समझाकर शान्त किया। फिर उन्होंने अग्नि संस्कारवाले स्थानपर जाकर स्तूपके दर्शन किये । दूसरी तरफ लाहोरसे रवाना होकर विजयसेनसूरि हीरविअयसूरिके निर्वाणवाले दिन कहाँतक पहुंचे थे इस बातकी खबर न थी। विजयसेनसूरिभी विश्राम लिए बिना, इस इच्छासे उनाकी तरफ बढ़े आरहे थे कि, जल्दी जाकर गुरुके चरणोंमें मस्तक रक्खू और अपने आपको पावन करूँ। मगर प्रबल मावीके सामने किसीका क्या जोर चल सकता है । विजयसेनसूरिके भाग्यमें गुरुके अन्तिम * देखो ‘ हीरसौभाग्य काव्य ' सर्ग १७, श्लोक १९५, पृष्ठ ९०९ + यह पादुका अब भी मौजूद है । उस पर जो लेख है उससे विदित होता है कि, इसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १६५२ के कार्तिक वदि ५ बुधवार के दिन विजयसेनसूरिने की थी । लेखमें सूरिजीके निर्वाण की तिथि ( भादवा सुदी ११) भी दी गई है । हीरविजयसूरिजीने जो बड़े बड़े कार्य किये थे उनका उल्लेख भी इसमें है । यह लेख ' श्रीअजारापार्श्वनाथजी पंचतीर्थी महात्म्य और जीर्णोद्धारका द्वितीय रीपोर्ट नामकी पुस्तकके ३४ वे पृष्टमें प्रकाशित Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। दर्शन नहीं लिखे थे इसलिए उनके बहुत प्रयत्न करने पर भी उन्हें दर्शन नहीं हुए । भादवा वदि ६ के दिन विजयसेनसूरि पाटणमें मंदिरमें पहुँचे उस समय पाटणके श्रापक हीरविजयसूरिके निर्वाण समाचार सुनकर देववंदन कर रहे थे। विजयसेनसूरिने इस शुभाशाको लिए हुए पाटणमें प्रवेश किया था कि, पाटणमें मुझे गुरुजीके स्वास्थ्यके समाचार मिलेंगे; उनको तो वहाँ पहुँचनेपर विघातक समाचार मिले । सूरिजीकी निर्वाणकी बात सुनकर उनके हृदयमें एक आघात लगा। थोड़ी देर निस्तब्ध होकर वे खड़े रहे । अन्तमें मूच्छित होकर गिर पड़े। थोड़ी देर बाद जब उनकी मूर्छा गई तब वे बेचैन होकर इधर उधर घूमने लगे। कभी बैठ जाते, कभी उठ खड़े होते बड़बड़ाते,-" अरे यह क्या हुआ ? मैं ऊना जाकर किसको वाँगा ? अब वहाँ क्या है ? गुरुदेव मुझे दर्शन देनेको भी न ठहरे ? " अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प उनके मनमें उठने लगे । वे न आहार करते थे न जल पीते थे; न उपदेश देते थे न किसीके साथ बातचीत ही करते थे । जब कभी कोई उन्हें देखता वे गंभीर विचारमें निमग्न दिखाई देते । जब कभी बोलते तो यही बोलते " अरे हीर-हंस मानसरोवरसे उड़ गया ! प्रभो ! हमको बीचमें छोड़कर कहाँ चले गये ? अब हमारी क्या दशा होगी? हम किसकी प्रेमछायामें रहेंगे ? जैनशासनका क्या होगा ? " इसी तरह तीन दिन निकल गये। .. .. .. चौथे दिन पाटणका संघ एकत्रित हुआ। उसने विजयसेन. सूरिको अनेक तरहसे समझाया; आश्वासन दिया। इससे उनका चित्त , कुछ स्थिर हुआ । उन्होंने अपने हृदयको मजबूत बनाया; धैर्य धारण किया। उस दिन उन्होंने कुछ आहारपानी लिया। उसके बाद वे अपने साथके मुनियों सहित ऊना पहुंचे। वहाँ सूरिजीकी पादुकाकी भाव सहित वंदना की। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण । यही विजयसेनसरि, हीरविजयसूरिके पाटपर बैठे । हीरविजयसूरिकी तरह इन्होंने भी जैनधर्मकी विजयवैजयन्ती फर्राई । इस प्रकरणको समाप्त करनेके पहले हीरविजयसूरिके निर्वाणके समय एक आश्चर्यकारक घटना हुई थी उसका उल्लेख करना भी आवश्यक है। कवि ऋषभदास लिखता है कि,-जिस दिन हीरविजयसूरिका निर्वाण हुआ था उस दिन रातके समय, जहाँ सूरिजीका अग्नि संस्कार हुआ था वहाँ पासके खेतमें रहनेवाले एक नागर बनिएने नाचरंग होते देखा था । सवेरे ही गाँवमें जाकर उसने लोगोंको यह बात सुनाई । लोगोंके झुंडके झुंड बगीचेमें आने लगे। वहाँ उन्हें नाचरंग तो कुछ नहीं दिखाई दिया; मगर आमके पैडोंपर फल देख पड़े। किसीपर मौरके साथ छोटे छोटे आम थे; किसी पर जाली पड़े हुए आम थे और किसीपर परिपक्व हो रहे थे । कई ऐसे आमके पेड़ भी फलोंसे भरे हुए थे जिनपर कमी फल आता ही न था और जो वंध्य आमके नामस प्रसिद्ध थे। भादवेका महीना और आम ! लोगोंके आश्चर्यका कोई ठिकाना न रहा । एक दिन पहले जिन वृक्षोंपर मौरका भी ठिकाना न था दूसरे दिन उन्हीं वृक्षोंको फलोंसे लदा देखकर किसे आश्चर्य न होगा ? __ श्रावकोंने कुछ आम उतार लिये और उनमेंसे अहमदाबाद, खम्भात और पाटण आदि शहरोंमें थोडे थोडे भेजे । अकबर और अबुलफजलके पास भी उनमेंसे आम भेजे गये। जिन लोगोंने वे आम देखे उनको अत्यंत आश्चर्य और आनंद हुआ। सम्राट्को भी सूरिजीके पुण्य बाहुल्यपर अमिमान हुआ। सूरिजीके Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ सूरीश्वर और सम्राट् । प्रति उसकी भक्ति अनेक गुनी बढ़ गई । उसको और अबुलफजलको सरिजीके स्वर्गवासका बहुत दुःख हुआ । वह अनेक प्रकारसे सूरिजीकी स्तुति करने लगा । कवि ऋषभदासने बादशाहके मुखसे सूरिनीकी स्तुतिके जो शब्द कहलाये हैं उन्हींके भावके साथ हम इस प्रकरणको समाप्त करते हैं:--- " उन जगद्गुरुका जीवन धन्य है जिन्होंने सारी जिन्दगी दूसरोंका उपकार किया और जिनके मरने पर ( असमयमें ) आम्रफले और जो स्वर्गमे जाकर देवता बने ॥ ५ ॥ x x x x इस जमाने में उनके जैसा कोई सच्चा फकीर न रहा x x x x ॥६॥ जो सच्ची कमाई करता है वही संसारसे पार होता है । जिसका मन पवित्र नहीं होता है उसका मनुष्यभव व्यर्थ जाता है ॥ ७॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण तेरहवाँ । सम्राट्का शेषजीवन । पने प्रथम नायक हीरविजयसूरि के संबंध में बहुत कुछ कहा जा चुका है | अब अपने दूसरे नायक सम्राट् अकबर के अवशिष्ट जीवन पर कुछ प्रकाश डाला जायगा । यद्यपि अकबरके गुण-अवगुणके संबंध में तीसरे प्रकरणमें और उसके किये हुए जीवदया संबंधी कार्यो के विषय में पाँचवें प्रकरण में उल्लेख हो चुका है तथापि अकबर के जीवन से संबंध रखनेवाली अन्यान्य बातोंकी उपेक्षाकर यदि पुस्तक समाप्त कर दी जाय तो उतने अंशोंमें न्यूनता रह जाय । इसलिए इस प्रकरण में अकबर के जीवनकी अवशिष्ट बातोंका उल्लेख किया जायगा । यह प्रसिद्ध बात है कि अकबर बचपनहीसे तेजस्वी और चंचल स्वभावका था । तीसरे प्रकरण इस विषय में उल्लेख हो चुका है । यद्यपि उसको अक्षरज्ञान प्राप्त करनेकी रुचि नहीं थी, तथापि नई नई बातें जानने और विविध कलाएँ सीखने के लिए वह इतना आतुर रहता था, जितना अफीमची वक्तपर अफीम के लिए रहता है । बाल्यावस्थाहीसे वह चाहता था कि, मैं जगत् में प्रसिद्ध होऊँ और लाखों करोड़ों मनुष्योंको अपने आज्ञापालक बनाऊँ । राज्यगद्दीपर बैठने के बाद भी जबतक वह बहेरामखाँके आधीन रहा तबतक अपनी भावनाएँ पूर्ण न कर सका । जब वह बहेरामखाँ के बंधन से मुक्त हुआ 39 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और समाइ। Puhura NAAmoes और राज्यकी पूर्ण सत्ता अधिकारमें करचुका तब उसने सोचा कि, मैं अब अपनी इच्छानुसार हरएक कार्य कर सकूँगा। अकबरका जीवन यह बात अच्छी तरहसे प्रमाणित करता है कि, पुरुषार्थी जब चाहते हैं तभी अपने कार्यमें सफलता लाभ कर सकते हैं। राज्यकी पूर्ण सत्ता अपने हाथमें लेनेके बाद अकबरने अपनी इच्छाएँ पूर्ण करनेके प्रयत्न प्रारंभ किये। अकबरके कामोंसे हम यह कह सकते हैं कि, उसके मनमें तीन चार बातें खास तरहसे चक्कर लगा रही थीं । प्रथम यह कि, उसके पहलेवाले राजा जैसे, अपना नाम स्थिर कर गये थे वैसे ही वह भी अपना नाम अमर कर जाय । दूसरी यह कि, सारे सूबेदार उसकी आज्ञा पाले। तीसरी यह कि, उसके पिताके समयमें जो राज्य स्वाधीन हो गये हैं उन्हें वह वापीस आने आधीन कर ले। और चौथी यह कि, राज्यकी अन्तर्व्यवस्थाको-जो अनेक परिवर्तनोंके कारण खराब हो गई थी-पुनः सुधार ले। इन्हीं चार बातोंके पीछे उसने अपना सारा जीवन बिताया था। तीसरे प्रकरणमें कहा गया है, उसके अनुसार 'दीनेइलाही' नामक धर्म चलाने में उसका हेतु ख्याति लाभ करनेके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं था । हाँ यह सच है कि, वह इस हेतुको पूर्ण करनेमें सफल नहीं हुआ; कारण, उसका चलाया हुआ धर्म उसके साथ ही लुप्त हो गया । तोभी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि, उसने अपने जीवनमें उसका, यदि पूर्णरूपसे नहीं तो विशेष अंशोंमें आनंद अवश्यमेव ले लिया था। उसके धर्मको माननेवाले–यदि सच्ची श्रद्धासे नहीं तो भी दाक्षिण्यतासे या स्वार्थसे ही-अच्छे अच्छे हिन्दू और मुसलमान Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३०७ सम्राट्का शेषजीवन । थे। उसके धर्ममें जो लोग सम्मिलित हुए थे उनमेंसे मुख्यके नाम ये हैं :१-अबुलफ़ज़ल; २-फैज़ी; ३-शेखमुबारिक नागौरी; ४-ज़फरबेग आसफ़रखा ५-कासम काबुली; ६-अब्दुल्सनद ७-आजमखाँ कोका; ८-मुल्ला शाहमुहम्मद शाहाबादी; ९-सूफ़ी अहमद; १०-सदर जहान मुफ्ती ; ११-१२-सदर जहान १३-मीर शरीफ़ अमली; मुफ़्तीके दो लड़के; १४-सुल्तान ख्वाजा सदर; १५-मिर्जाजानी हाकमठवा; १६-नकी शोस्तरी; १७-शेखजादा गोसाला बनारसी; १८-बीरबल; 'दी हिस्टरी ऑफ आर्यन स्कूल इन इण्डिया के लेखक मि. इ. वी. हेवेल लिखते हैं कि, अकबरके धर्ममें जो लोग सम्मिलित हुए थे वे चार भागोंमें विभक्त थे। एक भाग ऐसा था जो अपने सारे दुनियवी लाम बादशाहके अर्पण करनेको तैयार रहता था। ___ दूसरा भाग ऐसा था जो अपना जीवन बादशाहके लिए अर्पण करनेको तत्पर रहता था। तीसरा भाग ऐसा था जो अपना भान बादशाहके अर्पण करता था। और, चौथे भागके मनुष्य ऐसे थे जो बादशाहके धर्म संबंधी विचारोंको अक्षरशः अपने ही विचार समझते थे। ..x प्रो. माजादको उमें लिखी हुई 'दमारे अकबरी : नामकी पुस्तकका पृ. ७३ वाँ देखो। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । उपर्युक्त चार प्रकारके मनुष्योंमेंसे चौथे प्रकारके मनुष्य यद्यपि बहुत ही थोड़े थे; परन्तु वे ऐसे थे कि, जो अकबरको वास्तविक खलीफा समझते थे | यह बातभी हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि, अकबर ने चारों प्रकारके लोगों की संख्या बढ़ानेमें कभी अपनी सत्ताका उपयोग नहीं किया था । इतना ही नहीं, यदि कोई उसके विचारोंका विरोध करता था तो उसकी दलीलें वह ध्यानपूर्वक सुनता था और शान्ति के साथ उनका उत्तर देता था । ३०८ उसने अपना धर्म फैलाने में बहुत ज्यादा शान्ति और सहनशीलता से काम लिया था । और उसके जीवन में तो उसके महत्त्वकी इतनी ख्याति हो गई थी कि, श्रद्धालु और भोले दिलके हिन्दु-मुसलमान उसकी मानता मानने लगे थे । कोई पुत्र - प्राप्ति के लिए, कोई 'धन प्राप्तिके लिए, कोई स्नेहीके संयोग के लिए और कोई शत्रुका दमन करने के लिए; किसी न किसी हेतुसे, लोग उसकी मानता मानते थे ! अबुल्फजल लिखता है कि, -- "Other Multitudes ask for lasting bliss, for an upright heart, for advice how best to act, for strength of body, for enlightenment, for the birth of a son, the reunion of friends, a long life, increase of wealth, elevation in rank, and many other things. His Majesty, who knows what is really good, gives satisfatory answers to every one, and applies remi- dies to their religious perplexities. Not a day passes but people bring cups of water to him, beseeching him to breathe upon it. "+ + Ain-i-Akbari, Vol 1, by H. Blochmanh M. A. P. 164. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । भावार्थ-शाश्वतसुख, प्रामाणिक हृदय, अच्छे आचरणकी सलाह, शारीरिक बल, सुसंस्कार, पुत्रप्राप्ति, मित्रोंका पुनः समागम, दीर्घायु, धन-सम्पत्ति और उच्च पदवी आदि अन्यान्य अनेक मुरादें लेकर झुंडके झुंड मनुष्य सम्राट अकबरके पास आते थे। सम्राट श्रेयका जानने वाला था, इसलिए हरएकको वह सन्तोषप्रद उत्तर देता था और उनकी धार्मिक समस्याओंको हल करनेकी योजनाएँ गढता था । ऐसा एक भी दिन नहीं बीतता था जिस दिन लोग अकबरके पाससे मंत्रोच्चारणद्वारा पानीके कटोरे पवित्र करखानेके लिए न आते हों। लोग अकबरकी मानता रखते थे, इस बातके इतिहासोंमें अनेक प्रमाण हैं। . कवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरिरास' में बादशाहके चमस्कारों के अनेक उदाहरण दिये हैं। उनके एक दो प्रमाण पाठकोंके विनोदार्थ यहाँ दिये जाते हैं। एक बार नवरोजके दिनोंमें स्त्रियोंका बाजार भरा । बादशाह * नवरोज-यह पारसियोंके त्योहारोंका दिन है । अकबरने अपने अनेक त्योहारोंके दिनोंके उपरान्त पारसियोंके कुछ त्योहारों को भी अपने त्योहार माने थे । उन्होंमें नवरोजका दिन भी शामिल है । अकबरने पारसियोंके जिन त्योहारोंको अपने त्योहार माने हैं उनके नाम 'आईन-ई-अकबरी' 'अकबरनामा ' ' बदाऊनी ' और ' मीराते अहमदी ' आदि अनेक ग्रंथों में आये हैं । ' अकबरनामे ' के दूसरे भागके अंग्रेजी अनुवादके २४ वें पृष्ठमें और ' आईन-ई-अकवरी' के प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादके पृ. .२७६ में निम्नलिखित दिन गिनाये गये हैं:१ नये बरसका पहला दिन; १ मिहरका १६ वाँ दिन; . १ फरवरदीनका १९ वाँ दिन; . १ आबानका १० वौँ दिन; भारदी बहिश्तका ३ रा दिनः .. १ आजरका ९ वाँ दिन; Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट । स्वयं उस बाजारमें गया था। वहाँ उसने एककपडे बेचती हुई स्त्रीसे Pos १ खुरदादका ६ ठा दिन; १ तीरका १३ वाँ दिन १ अमरदादका ७ वाँ दिन; १ शहरीवरका ४ था दिन, ३ दाईका ८-१५-२३ वाँ दिन; १ बहमनका २ रा दिन, . अस्फंदार मुजका ५ वाँ दिन; १५ जोड़. इस प्रकार १५ दिन गिने गये हैं। परन्तु ' मीराते अहमदी 'का बर्डने अंग्रेजी अनुवाद किया है । उसके ३८८ वें पष्ठमें १३ दिन ही गिने गये हैं। उसमें नये बरसका १ ला दिन और दाईका ८ वाँ दिन ये दो दिन नहीं गिने गये हैं। दूसरा यह भी भेद है कि, 'अकबरनामा' और 'आइन-ई-अकबरी' के मतसे उपर्युक्त लिस्टमें लिखे अनुसार अस्फंदारमुजका ५ वाँ दिन गिना गया है और 'मीराते अहमदी' में अस्फंदारमुजका ९ वौं दिन बताया गया है। इन दोनों मतोंमें अगर बदाऊनीका मत भी शामिल कर लिया जाय तो, बदाऊनीके दूसरे भागके अंग्रेजी अनुवादके ३३१ वें पेजमें जो उल्लेख है उससे १४ दिन ही होते हैं। क्योंकि उसने, फरवरदीन महीनेके उनीसवें दिनको वर्षारंभके उत्सवका एक अंश माना है । अभिप्राय कहनेका यह है कि, फरवरदानके १ ले और उन्नीसर्वेमेसें किसीने १ ला दिन लिया है और किसीने १९ वा और किसीने दोनों ही लिये हैं । इन दोनों मतोंमे कोई महत्त्वकी बात नहीं है; क्योंकि फरवरदीनका १९ वाँ दिन भी फरवरदानके ले दिनका एक अंश हो है। यानी वह नवरोजके उत्सवोंका अन्तिम दिन है । मगर 'दायी के ८, १५, और २३ वें दिनों से किसीने १५ वाँ और किसीने २३ वा गिना है। ऐसा क्यों हुआ इसका कारण समझमें नहीं आता । इसके अलावा भरपंदारमुजका किसीने ५ वाँ दिन बताया है और किसीने ९ वाँ। यह मतभेद भी खास विचारणीय है। उपयुक्त दिनों में जो नये बरसका पहला दिन गिना गया है वही नवरोजका दिन है । यह दिन फरवरदीन महीनेका प्रथम दिन है । इसका परिचय 'मीराते अहमदी के अंग्रेजी अनुवादके पृ० ४०३-०४ में इस प्रकार कराया गया है: « Let him do everything that is proper to be done at the festival of the NaoRoz, a feast first Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amarumantaraakshara MARAvinamrunning सम्राट्का शेषनीवन! पूछा:--" क्या तेरे कोई बाल-बच्चा नहीं है ? उसने उत्तर दिया:consequence, which Commences at the time when the sun enters Aries and is the beginning of the month of Farvardin. " भावार्थ-नवरोजके दिन उचित कार्य करने चाहिए। नवरोज आवश्यक त्योहार है। यह धनराशीमें सूर्य दाखिल होता है तब प्रारंभ होता है; और यह फरवरदीन महीनेके प्रारंभमें होता है । इसी तरह दाबिस्तान के प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादके २६८ वें पेजके नोटमें लिखा है कि,-- ___The Naoroz is the first day of the year, a great festival. " अर्थात्-नवरोज वर्षका प्रथम दिन है और वह बड़े त्योहारका दिन है। इन बातोंसे स्पष्ट हो जाता है कि, नवरोजका दिन तो एक (वर्षका पहला दिन ) ही था, परन्तु उसके निमित्त १९ दिन तक उत्सव होता था। यह बात आइन-ई-अकबरीके प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादके २७६ वें पेजमें आये हुए निम्नलिखित वाक्योंसे स्पष्ट हो जाती है, “ The new year day feast. It Commeces on the day when the sun in his splendour moves to Aries and lasts till the nineteenth day of the month ( Forvardin ). Two days of this period are considered great festivals, when much money and numerous other things are given away as presents : the first day of the month of Farvardin & the nineteenth which is the time of the sharaf. " ___अर्थात-नये बरसके दिनका उत्सव उस दिन प्रारंभ होता है जिस दिन सूर्य धनराशीमें जाता है। और यह उत्सव फरवरदीन महीनेके १९ वें दिनतक चलता है। इन दिनों से दो दिन बहुत बड़े त्योहारके 'माने गये हैं। उनमें बहुतसा धन भौर भनेक वस्तुएँ भेटमें दीजाती हैं। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सन्नाद । " आपसे छिपा हुआ क्या है ? ' बादशाहने उसी समय थोडासा ये दो दिन फरवरदीन महीनेके, पहला और उन्नीसवां, दिन हैं । यह अन्तिम दिन शरफ ( अर्थात् गति ) का है । इतना विवेचन होजानेके बाद यह बात सहज ही समझमें आजाती है कि, नवरोजका दिन फरवरदीन महीनेका पहला दिन है। इसका उत्सव उन्नीस दिनतक होता था । इसलिए उन्नीसों दिनोंको कोई यदि किसी अपेक्षासे नवरोजके दिन कहता है तो उसका कथन व्यवहार दृष्टिसे सत्य माना जा सकता है। जैसे, जैनियोंमें सिर्फ एक ही दिन ( भादवा सुदी ४ का ) पर्युषणका है, तो भी उसके लिए आठ दिनतक उत्सव होता है इसलिए लोग भाठो दिनोंको पर्युषणके दिन मानते हैं। मगर फरवरदीन महीनेके इन उनीस दिनोंको छोड़कर ऊपर जो दूसरे दिन गिनाये गये हैं। वे हरगिज़ नवरोजके दिन नहीं माने जासकते हैं। उपर्युक्त उत्सवके दिनोंमें लोग आनंदमें मग्न होकर उत्सव करते थे । प्रत्येक प्रहरमें नकारे बजाये जाते थे; गायक गाते थे। इन त्योहारोंके पहले दिनसे ( नवरोजके दिनसे ) तीन रात तक रंग बिरंगे दीपक जलाये जाते थे । और दूसरे त्योहारोंमें तो केवल एक रात ही दीपक जलाये जाते थे । ___ऊपर कहे हुए उत्सवके दिनोंमेंसे प्रत्येक महीनेके तीसरे उत्सबके दिन सम्राट अनेक प्रकारकी वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए, बहुत बड़ा बाजार लगवाता था । उसमें अपनी दुकाने लगाने के लिए उस समयके अच्छे अच्छे सभी व्यापारी आतुर रहते थे। दूर दूरके देशों से सभी प्रकारका माल मंगवाकर रखते थे। ____ अन्तःपुरकी स्त्रियाँ उसमें आती थीं। अन्यान्य त्रियोंको भी उसमें आमं. त्रण दिया जाता था । खरीदना और बेचना तो सामान्य ही था । खरीदने योग्य वस्तुओंका मल्य बदलनेमें अथवा अपने ज्ञानको बढ़ानेमें सम्राटू उत्स. वोंका उपयोग करता था । ऐसा करनेसे उसको राज्यके गुप्त भेद, लोगोंका चाल चलन और प्रत्येक कार्यालय तथा कारखानेकी भली बुरी व्यवस्थाएँ मालूम होजाती थीं । ऐसे दिनोंका नाम सम्राट्ने 'खुशरोज' रक्खा था । जब स्त्रियोंका यह बाजार समाप्त होजाता था तब सम्राट पुरुषोंके लिए बाजार. भरवाता था । प्रत्येक देशके व्यापारी अपनी वस्तुएँ बेचनेको लाते Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन। पानी मंत्र कर उसे दिया और कहा:--" इसको पीना; धर्मके कार्य करना; किसी जीवको मत मारना; और मांस भी मत खाना । यदि तू मेरे कथनानुसार करेगी तो तेरे बहुतसी सन्ताने होंगी।" सचमुचही उसके एक एक करके बारह बाल बच्चे हुए। दूसरा एक उदाहरण और भी दिया गया है कि-" आगरेका एक सौदागर व्यापारके लिए परदेश गया था । रास्तेमे उसे उसके कई ऋणदाता मिले । सौदागरने सोचा कि, अब मेरे पास कुछ भी नहीं बचेगा, ये लोग मेरा सब कुछ लेलेंगे । उसने अकबरकी मानता मानी कि, अगर मेरा माल बच जायगा तो चौथा भाग मैं अकबरके भेट कर दूंगा। उसका माल बच गया । व्यापारमें भी उसको अच्छा नफा रहा । उसने दूसरी बार और व्यापार प्रारंभ कर नफेका चौथा भाग अकबरके भेट करनेकी मानता मानी । उसमें भी उसे अच्छा नफा मिला । इस प्रकार उसने तीन बार मानता मानी और तीनों बार लाम उठाया । मगर उसके मनमें बेईमानी आई और उसने नफेका चौथा हिस्सा अकबरके पास नहीं पहुँचाया । - - थे । सम्राट् स्वयं हरएक तरहक लेन-देनको देखता था । जो लोग बाजार में पहुँच सकते थे वे वस्तुएँ खरीदनेमें आनंद मानते थे। उस समय लोग सम्राटको अपने दुःखोंकी कथाएँ भी सुनाया करते थे। कोई उन्हें ऐसा करनेसे रोक नहीं सकता था। व्यापारी अपनी परिस्थितियाँ सम्राटूको समझाने और अपना माल बतानेका यह अवसर कभी नहीं चूकते थे । जो प्रामाणिक होते थे उनकी विजय होती थी और जो अनीतिवान होते थे उनकी जाँचपड़ताल की जाती थी। इस समय खज़ानची और हिसाबी भी मौजूद रहते थे । वे तत्काल ही माल बेचनेवालोंको रुपया चुका देते थे । कहा जाता है कि, व्यापारियोंको ऐसे प्रसंगमें अच्छा नफा मिलता था । 40 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। ___ अकबरने एकबार उस सौदागरको बुलाकर कहा:- चौथा हिस्सा क्यों नहीं लाता है ? " सौदागरको आश्चर्य हुआ। वह कहने लगाः-" सचमुच ही आप तो जागते पीर हैं । मैंने यद्यपि यह बात किसी दूसरेसे न कही थी; परन्तु आपको तो मालूम हो ही गई।" तत्पश्चात् वह अनेक प्रकारसे अकबरकी स्तुति कर चौथा भाग दे गया ।" एक बार एक स्त्रीने मानता मानी कि, यदि मेरे पुत्र होगा तो मैं उत्सव पूर्वक बादशाहको बधाऊँगी और दो श्रीफल भेट करूँगी। समयपर स्त्रीके पुत्र हुआ। उसने उत्सवपूर्वक अकबरको बधाया और उसके सामने एक श्रीफल रक्खा । अकबरने कहा:-" मानता दोकी मानी थी और भेटमें एक ही कैसे रक्खा ? " स्त्री बड़ी लज्जित हुई । उसने तत्कालही दूसरा श्रीफल सामने रखा । वगेरः वगेरः । उपर्युक्त कथाओंमें सत्यांश कितना है इसका निर्णय इस समय होना असंभव है। चाहे कुछ भी हो, यह सच है कि, उसकी मानता मानी जाती थी। अनेक लोग उसे ईश्वरका अवतार मानते थे। इसमें मतभेद नहीं हैं । श्रीयुत बंकिमचंद्रलाहिड़ीने अपने सम्राट अकबर नामक बंगाली पुस्तकके २८२ वें पृष्ठमें लिखा है कि से समयेर हिन्दू ओ मुसलमान सम्राटके ऋषिवत् ज्ञान करित, ताँहार आशीर्वादे कठिन पीडा आरोग्य हय, पुत्र कन्या लाभ हय, अभीष्ट सिद्ध हय, एइ रूप सकले विश्वास करित । एइ जन्य प्रत्यह दले दले लोक ताँहार निकट उपस्थित हइया आशीर्वाद प्रार्थना करित ।" अर्थातू-उस समयके हिन्दू और मुसलमान सम्राटको ऋषिके Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । समान समझते थे। सभीको विश्वास था कि, उसके आशीर्वादसे कठिन पीडा मिटती है, सन्तानकी प्राप्ति होती है और मनोवांछित फल मिलता है। इसी लिए झुंडके झुंड लोग हमेशा उसके पास आते थे और उससे आशीर्वाद चाहते थे। इतना होने पर भी एक बात ऐसी है कि, जिससे आश्चर्य होता है । वह यह है,-एक तरफ़से कहा जाता है कि, अकबरका उपर्युक्त प्रकारसे माहात्म्य फैला था और दूसरी तरफ़से हम देखते हैं कि, उसका माहात्म्य और उसका धर्म उसके साथ ही विलीन हो गये । यह कैसे हुआ ? इसके संबंधमें विद्वान् अनेक प्रकारके तर्क करते हैं । कई कहते हैं कि, अकबरकी महिमा बढ़ानेवाले और उसके धर्मका गुणगान करनेवाले अबुलफजल और फैजी जैसे लोग अकबरके पहलेही संसार छोड़कर चले गये थे । इसलिए उसके धर्मशकटको चलानेवाला कोई भी न रहा । इसलिए उसका धर्म लुप्त हो गया। कई कहते हैं कि, अकबरके दीने इलाही धर्मको किसीने सच्चे दिलसे स्वीकार नहीं किया था, इसीलिए वह अकबरके साथही समाप्त हो गया था। कई यह भी कहते हैं कि, धर्मस्थापकमें जो अचल श्रद्धा होनी चाहिए वह अकबरमें नहीं थी। जब किसी धर्मके संस्थापकहीमें पूर्ण श्रद्धा नहीं होती है तब उसके अनुयायियोंमें तो होही कैसे सकती है ? चाहे किसी कारणसे हो मगर अकबरकी चमकारोंसे संबंध रखनेवाली महिमा और उसका धर्म उसके बाद न रहे। अकबरने उसके धर्मानुयायियोंमें एक बात और भी चलाई थी। वह थी अभिवादन संबंधिनी । इस समय दो हिन्दु जब मिलते है तब वे 'जुहारु ' या ' जयश्रीकृष्ण आदि बोलते हैं। दो मुसलमान जब मिलते है तब एक कहता है 'सलामालेकम । दूसरा उत्तर Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। देता है ' वालेकमसलाम ' दो जैन मिलते हैं तब वे 'प्रणाम' या 'जयजिनेंद्र ' बोलते हैं । अकबरके अनुयायी जब मिलते थे तब वे इनमेंसे एक भी बात नहीं करते थे। उनका अभिवादन तीसरे ही प्रकारका था। एक कहता था ' अल्लाहो अकबर ' दूसरा उत्तरमें बोलता था 'जल्लजलालुद्' * __ अकबरका चलाया हुआ यह रिवाज भी उसकी महत्त्वाकांक्षा को पूर्ण रूपसे प्रकट करता है । अस्तु । कहा जाता है कि, भारत के जुदा जुदा धर्मों और उनके अनुयायियोंके झगड़ों को देखकर अकबरका हृदय बहुत दुखी हुआ था । सभी अपनी अपनी सच्चाई प्रकट करनेका प्रयत्न करते थे, इसलिए वास्तविक सत्यको जानना असंभव हो गया था। इसलिए अकबरने यह जाननेका प्रयत्न किया था कि, किसी भी प्रकारके संस्कार बिना मनुष्यका मन कुदरती तौरसे किस तरफ झुकता है इसके लिए उसने बीस बालकोंको जन्मते ही ऐसे स्थानमें रक्खा कि, जहाँ मानवी व्यवहारकी हवा भी उन्हें नहीं लगती थी। अकबरने सोचा था कि जब वे बड़े होंगे तब मालूम हो जायगा कि प्राकृतिक रूपसे ये किस धर्मकी तरफ झुकते हैं । मगर इसमें उसे सफलता न मिली ! योग्य व्यवस्थाके अभावसे कई बालक तो मर गये और कई ३-४ वर्षके बाद से गूंगे ही रहे । ४ प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध जो कार्य किया जाता है उसका * आइन-ई-अकबरीफ प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका १६६ वाँ पृष्ठ देखो। x देखो-दी हिस्ट्री आफ आर्यन रूल इन इंडिया, ले. इ. बी. हेवेल. प. ४९४ ( The History of Aryan rule in India By E. B. Havell P. 494. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aru - ~ • सम्राटका शेषजीवन । परिणाम कभी अच्छा नहीं होता। यह बात यदि अकबर भली प्रकारसे जानता होता और उसपर पूर्ण रूपसे श्रद्धा रखता होता तो वह ऐसा कार्य कदापि न करता । अकबरमें एक खास गुण था । वह यह कि, वह अपना काम मीठा बनके निकालनेकाही प्रयत्न करता था। वह मानता था कि, अगर मीठी दवासे रोग मिटता हो तो कड़वी दवाका उपयोग नहीं करना चाहिए । इसी नीतिके द्वारा उसने अनेक राज्यों और अनेक वीरोंको अपने आधीन कर लिया था । अकबरकी यह प्रबल इच्छाथी कि, जो राज्य उसके बापके अधिकार से निकल गये थे उनको वह पुनः अपने अधिकारमें करले । मगर जब वह वस्तुस्थितिका विचार करता तब उसे जान पडता कि, भारत वीर पुरुषोंकी खानि है । सबसे विरोध करके अपना मनोरथ सफल करना असंभव है। इसी लिए उसने भेदनीतिका आश्रय लेकर भारतके वीरों में फूट डाली और उनमें से अनेक को अपने पक्षमें मिला लिया । अकबरको देश जीतने में और अन्यान्य कामोंमें मुख्यतया सहायता देनेवाले, राजा भगवानदास, राजा मानसिंह और राजा टोडरमल आदि कौन थे ? भारतहीके वीर । अकबरने भगवानदासकी बहिन, मानसिंहकी बुआ, के साथ व्याह कर उन्हें अपने पक्षमें मिलाया था। सलीम ( जहाँगीर ) इसी हिन्दु स्त्रीसे उत्पन्न हुआ था। कहा जाता है कि, अकबरने तीन हिन्दु राजकन्याओंके साथ ब्याह किये थे। उनमें बीकानेरकी राजकन्या भी थी। किसी न किसी तरहसे सारे राजा अकबरकी नीतिके शिकार हुए थे और उसके आधीन बने थे; केवल मेवाड़के महाराणा प्रतापसिंह ही उसकी जालमें न फंसे थे। उन्होंने अकबरकी शाम, दाम, दंड और भेद सभी नीतियोंको पैरोंतले रौंदकर Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mms सूरीश्वर और सम्राट। अपनी स्वाधीनताकी रक्षा की थी। इसीलिए इतिहासके पृष्ठोंमें उनका नाम 'हिन्दु सूर्य ' के मानद अक्षरोंसे अंकित है-अमर है। हिन्दु वीरोंमें फूट डालते ही उनकी सहायतासे मिन्न भिन्न देशोंपर आक्रमण करने लगा और क्रमशः उन्हें अपने आज्ञाधारक बनाने लगा। अकबर स्वयं युद्धमें जाता था और एक ज़बर्दस्त योद्धाकी तरह युद्ध करता था। उसने अपनी वीरता, दृढता और होशियारीसे आशातीत सफलता प्राप्त की थी। सैनिक उत्तम व्यवस्थाके कारण भी, अकबरका देशोंको जीतनेका काम बहुत सरल हो गया था। वह राजपूत राजाओंको सेनामें बड़े बड़े ओहदे देकर बहुत प्रसन्न रखता था। वह पाँच हजारसे अधिक फौज रखनेवालोंको ' अमीर । का और पाँच हजारसे कम फौन जिसके अधिकारमें होती थी उसको ' मनसबदार ' का पद देता था । इनके अलावा नीचे दर्जेके भी अनेक अधिकारी थे। फौजकी योग्य व्यवस्थाकरके उसके द्वारा भिन्न भिन्न देशोंको विजय करनेमें उसने अविश्रान्त परिश्रम किया था । कहा जाता है कि, उसने बारह बरसतक लगातार युद्ध किये थे। यह बात तो तीसरे अध्यायहीमें बताई जाचुकी है कि, अकबरने जिस समय राज्यकी बागडोर अपने हाथमें ली थी उस समय कौनसा देश किसके अधिकारमें था। उससे यह स्पष्ट मालूम होजाता है कि, भारतवर्षका बहुत बड़ा भाग स्वाधीन था; अकबरके . अधिकारमें नहीं था। इसीलिए समस्त भारतको अपने अधिकारमें करनेके लिए उसे सतत युद्ध करना पड़ा था। ____ अकबरने जितनी लड़ाइयाँ की उनमेंसे, पंजाब, सिंध, कंधार, काश्मीर, दक्षिण, मालवा, जौनपुर, मेवाड, गुजरात आदिकी लड़ाइयाँ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । खास उल्लेखनीय हैं। क्योंकि ये भयंकर थीं। उनको इन लड़ाइयोंमें बड़ी बड़ी विपत्तियोंका सामना करना पड़ा था। मगर सबमें विजयी होकर, सब स्थानों में उसने अपने सूबेदार नियत कर दिये थे। इन लड़ाइयोंमें कईबार तो फौजमें यहाँतक अफवा उड़ गई थी कि, अकबर मारा गया है । क्योंकि वह ऐसे ही संकटमें जापड़ा था; परन्तु जब वह वापिस मिला तब लोगोंको सन्तोष हुआ। किसी देशको फतह करनेके लिए पहले वह अबुलफजल, मानसिंह, टोडरमल आदि सेनापतियोंको भेजता था और अगर इनसे कार्य सफल न होता था तो फिर स्वयं युद्धमें जाता था । प्रायः युद्धोंमें हुआ करता है वैसे, प्रत्येक देश उसने पहलेही हमलेमें नहीं जीत लिया था। किसी किसी देशको जीतनेमें तो उसे तीन तीन चार चार आक्रमण करने पड़े थे; बड़ी बड़ी मुसीबतें उठानी पड़ी थीं; बहुत काल लगाथा और हजारोंही नहीं बल्क लाखों लोगोंका बलिदान देना पड़ा था। कोई देश जब पूर्णरूपसे अकवरके अधिकारमें आजाता था तब उसके साथ वह ऐसा स्नेह करलेता था कि, उस देशकी इच्छा फिरसे अकबरका विरोध करनेकी नहीं होती थी। काश्मीरके बड़े बड़े लोगोंकी कन्याओंके साथ अकबरने और कुमार सलीमने पाणिग्रहण किया था। यह उपर्युक्त कथनको प्रमाणित करदेनेका ज्वलंत उदाहरण है। अकबरने युद्ध किये थे उनमें कई ऐसी घटनाएँ भी हुई थी जिनके लिए अकबरकी प्रशंसा किये बिना कोई भी लेखक नहीं रह सकता है । हम एक दो घटनाओंका यहाँ उल्लेख करेंगे। राजा मानसिंह जब पंजाबका शासनकर्ता था तब अकबरके भाई मिर्जामुहम्मदहकीमने काबुल से आकर पंजाबपर आक्रमण किया Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂર सूरीश्वर और सम्राट्। था। भाई होते हुए भी उसने अकबरसे सत्ता छीनलेना चाहा था। जब अकबर स्वयं युद्ध करने को आया तब वह भाग गया। उसके बाद राजा मानसिंहने काबुल पर चढ़ाई की । हकीम पराजित हुआ। काबुल पर अकबरका अधिकार हुआ। हकीमकी दशा ऐसी खराब हो गई कि उसने आत्महत्या करलेनी चाही । अकबरको जब यह बात मालूम हुई तब उसने सोचा कि,- भाई दीनहीन होकर आत्महत्या करे और मैं ऐश्वर्यका उपभोग करूँ; यह सर्वथा अनुचित है। उसने अपने भाईके पास एक मनुष्य भेजा और उसे वापिस काबुलका शासनकर्ता बना दिया । अकबर ! धन्य है तेरी उदारता ! और धन्य है तेरा सौहार्द ! जो भाई तेरे साथ बार बार दुष्टताका वर्ताव करता था उसी पर तेरी इतनी अनुकम्पा ! _अकबरने मेडताका किला लेनेके लिए मिर्जाशरफुद्दीनहुसेन को भेजा था । ( ई. स. १५६२ ) वहाँका राजा मालदेव उसके साथ बडी वीरताके साथ लडा था, मगर पीछेसे अन्नजल समाप्त होजानेके कारण उसे शरफुद्दीनके शरणमें जाना पड़ा था। जिस मालवदेवने अकबरके साथ युद्ध किया था उसी मालवदेवको अपने १-यह उमराव कुटुंबके ख्वाजा मुईनका पुत्र था । यह वह ख्वाजा मुईन है जो खाविंद महमूदका पुत्र था । खाविंद महमूद ख्वाजा कलानका दूसरा लड़का था । ख्वाजा कलन प्रसिद्ध महात्मा ख्वाजा नासोइद्दीन उबैदुल्लाह अहरारका बना लड़का था । इसीलिए मिर्जा शर• फुद्दीन हुसेन खास तरहसे अहरारी कहलाता था । विशेषके लिए आइन-ई. अकबरी प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद, ब्लाक मॅन कृत पृष्ठ ३२३. २-राजा मालदेव एक प्रभावशाली पुरुष था । बहरामखाँका वह कहर शत्र था। बहरामखाँ जब मक्का गया था तब वह गुजरातके रस्ते न जाकर बीकानेर अपने मित्र कल्याणमलके पास गया था । कारण-बीकानेरका मार्ग उस समय कल्याणमलके क़बजेमें था । ( देखो-आइन-ई-अकबरी Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन | ३२१ दाहिनी तरफ बिठानेका मान दिया था | मालदेवने भी अपनी पुत्री जोधाबाई अकबर के साथ व्याह दिया था । ई. सन् १९६० के चातुर्मास में अकबरने मालवा जीतने के लिए अधमखाँ के सेनापतित्वमें सेना भेजी थी। इसने मालवा के राजा बाजबहादुरको ई. १५६१ में परास्त किया था । इस लड़ाई में अधमखाँने और पीरमहमम्दने बड़ी ही निर्दवताके साथ स्त्रियों प्रथम भाग, ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवाद पृ० ३१६) मालदेवका लड़का उदयसिंह मोटाराजा के नामसे प्रसिद्ध है | मालदेव के पास ८०००० घुडसवार थे । यद्यपि राणासांगा-जो फिरदौस मकानी ( वावर ) के साथ लड़ा था -- बडा हो शक्तिशाली था, तथापि सैन्य संख्या में और क्षेत्रविस्तार में मालदेव उससे बढ़कर था । इसीलिए वह विजयी होता था । विशेष के लिए, देखो, आईन-इ-अकबरी. प्रथम भाग, ब्लॉकमैन, अंग्रेजी अनुवाद पृ० ४२९-४३० । १- अधमखाँ माहम अंगाका लड़का था । युरोपिअन इतिहासवेत्ता ओंने उसका नाम आदमखाँ लिखा है । उसकी माता माहम, अकबर की अंगा ( आया ) थी | अकबर पढ़नेसे लेकर गद्दीनशीन हुआ तबतक अधमख़ाँकी माता ही अकबरकी संभाल लेती थी । माहमकी अन्तःपुरमें अच्छी चलती थी । इतना ही क्यों, अकबर भी उसको मानता था । बहरामख़ाँके वाद मुनीमखाँ वकील नियत हुआ था । इसकी यह सलाहकार थी | बहरामख़ाँको पदच्युत कराने में उसका बहुत हाथ था । अधमखाँ पंचहजारी था । वह मानकोट के घेरे वीरता दिखाकर प्रसिद्ध हुआ था । उसकी सहसा पदवृद्धि हुई थी इससे वह स्वेच्छाचारी होगया था । विशेष के लिए देखो, “आईन-इ-अकबरी प्रथम भागका ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवाद पृ. ३२३-३२४. २- पीरमहम्मद, शिखानका मुल्लां था । कंधार में यह बहरामख़ाँका कृपापात्र था और उसकी सिफारिशसे, अकबर जब गद्दीपर बैठा तब, वह अकबर के दर्वारमें अमीरकी पदवी प्राप्तकर सका था । उसने हेमू के साथ जो इन्छ हुआ था उसमें वीरता दिखाई थी । इसीलिए उसको 'नासीउल्मुल्क' tl Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । और बालकोंको कल किया था। इसके लिए अकबर उनसे बहुत नाराज हुआ था । युद्धमें भी अनीतिका व्यवहार करना अकबर राज्यधर्मविरुद्ध समझता था । अधमखाँके अत्याचारसे सम्राट स्वयं मालवेमें गया था; परन्तु उसकी माता माहम गंगाके प्रार्थना करनेपर उसको छोड़ दिया। आगरेमें जाकर अधमखाने फिर गड़बड़ प्रारंभ की । इसका परिणाम उसकी मौत हुआ । अधमखाँके बाद अब्दुलखाँ उजबक मालवे भेजा गया, और जिस बाजबहादुरने सम्राटके की पदवी मिली थी। इससे यह इतना मगरूर होगया था कि इसने चगताई अमीरोंकी और अन्तमें बहरामखाँ तककी अवगणना की थी। इसका परिणाम यह हुआ कि बहराम खाँने इसको अपने पदका इस्तिफा देनेकी आज्ञा दी । शेख गदाईके उत्तेजित कर पर उस बनायाके किलेकी तरफ़ भेजा और पश्चात् विवशकरके उसे यात्रार्थ भेज दिया। विशेषके लिए; देखो आईन-इ-अकबरी प्रथम भागका ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवाद । पृ. ३२५.. १-अब्दुल्लाखाँउज्बक हुमायूँ के दर्बारका एक अमीर था। हेमूंकी हारके बाद इसे 'शुजाअतखाँ' का पद दिया गया था। नौकरीके बदलेमें कालपी इसे बतौर जागीरके मिला था । गुजरातमें इसने अधमखाँके आधीन रहकर कार्य किया था। पीरमहम्मदकी मृत्यु के बाद जब बाजबहादुरने मालवा लिया था तब यह (अब्दुल्लाखाँ) पांच हजारी बनाया गया था, और लगभग असीम सत्ताके साथ मालवे भेजा गया था । इसने अपना प्रान्त वापिस जीत लिया । और माँडवेमें राजाकी भाँति राज्य करने लगा। विशेषके लिए देखो,-आईन-इ-अकबरी प्रथम भाग, ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवाद । पृ. ३२१. २-अबुल्फ़ज़लके कथनानुसार बाजबहादुरका असली नाम वाजि दखा था। बाजबहादुके पिताका नाम शुजाअतखाँ शूर था। इतिहास उसे शजावलखाँ या सजावलखाँ के नामस पहचानते हैं। इसीके नामसे मालवेके एक बहुत बड़े गाँवको लोग — शजावलपुर' कहते थे; जिसका असली नाम 'सुजातपुर' था । यह सारंगपुर सरकार (मालवे) के अधिकारमें था। वर्तमानमें वह विद्यमान नहीं है । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ muvina सम्राट्का शेषजीवन। विरुद्ध युद्ध किया था उसीको सम्राट्ने अपना कृपात्र बनाया और अन्तमें उसे दोहजार सेनाका अधिनायक नियत किया । कालिंजर अलाहाबादसे ९० माइल और रीवांसे ६० माइक है। वहाँका किला जीतनेके लिए अकबरने मजनूनखाँ काक्षालको बाजबहादुर हिजरी सन् ९६३ ( ई. स. १५५५) में मालवाका राजा हुमाथा । उसने 'गढ' पर आक्रमण किया था; परन्तु राणी दुर्गावतीने उसको हराया। इसके बाद वह ऐयाशीमें डूब गया था । वह अद्वितीय गानेवाला था। इसलिए उसने अच्छी अच्छी गानेवालियोंको जमा किया था । उनमें रूपमती भी एक थी। लोग अबतक उसको याद करते हैं। वह हि. सं. १०.१ ( ई. सं. १५९३ ) के लगभग मरा था । कहा जाता है कि, बाजबहादुर और रूपमती दोनों एक ही साथ उज्जैनक एक तालाबके मध्य भागमें गाड़े गये थे । विशेषके लिए देखोआईन-इ-अकबरी के प्र, भागका अंग्रेजी अनुवाद पृ. ४२८ तथा आर्चियो लॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया; वो० २ रा, ले० ए, कनिंगहाम. पृ० २८८ से २९२. ( Archelogical survey of India Vol. II. by A. Cunningham pp. 288-292. १ यह हुमा)का बड़ा प्रधान था। इसके पास नारनोल (पंजाबकी) जागीर थी । जब हुमायूँ ईरान भाग गया था तब हाजीखाँ ने नारनोलको घेर लिया था । मगर राजा बिहारीमलकी प्रार्थनासे मजनूनखाँको हाजीखाँने कोई कष्ट नहीं पहुँचाया था । उसे सहीसलामत नारनोलसे निकल जाने दिया था । जब अकबर गद्दी पर बैठा तब मजनूनखाँ माणिकपुर-जो साम्राज्यको पूर्व सीमापर था-का जागीरदार बनाया गया । वहाँ उसने वीरतापूर्वक अकबरकी हुकूमत कायम रखनेका प्रयत्न किया था । खानजमानको मृत्युतक यह वहीं रहा था । हि. स. ९७७ (ई. स. १५६९) में उसने कालिंजर. को घेरा था । कालिंजरका किला उस वक्त राजा रामचंद्रके अधिकारमें था । उसने यह किला बिजलीखाँसे जो पहाड़खाँका गोदका लडका था-बहुत बड़ी रकम देकर मोल लिया था । अन्तमें राजा रामचंद्र कालिंजर मजनूनखाँको Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂર सूरीश्वर और सम्राट। भेजाथा । यह किला भट्ठा अथवा रीवांके राजा रामचंद्रदेवके कबजेमें था । रामचंद्र जब उसके शरण आगया तब अकबरने उसे अलाहाबादके नजदीक एक जागीर दी थी। अभिप्राय यह है कि, जो राजा अकबरके साथ युद्ध करते थे; हजारो मनुष्योंको कतल करते करवाते थे और लाखों रुपये पानीकी तरह खर्चाते थे, वे ही राजा जब उसके आधीन-संधी करके या हार के हो जाते थे तब वह उनके साथ लेश मात्र भी शत्रुता नहीं रखता, प्रत्युत प्रायः वह उनका सम्मान ही करता था। अकबर जैसे शत्रुओंका सम्मान करता था वैसे ही वह अनीतिपूर्वक युद्ध करनेसे भी वृणा करता था। उसका हम एक उदाहरण देंगे। जब अकवर दोसौ मनुष्य लेकर "मही' नदीके पास आया तब उसे मालूम हुआ इब्राहीम हुसेन मिर्जा बहुत बड़ी सेना लेकर ठगल सौंपकर इसकी शरणमें आ गया था। अकबरने मजन्नखाँको उस किलेका सेनापति बनाया था । तवकातके कथनानुसार यह पंचहजारी था । इस के अलावा उसे जब जरूरत होती तंभी पाँच हजार सेना और मिल सकती थी । अन्तमें यह घोराघाट (बंगाल) का युद्ध जीतने के बाद मर गया था । विशेषके लिए देखो-आईन इ-अकबरी प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद | पृष्ठ ३६९-३७.. १-राजा रामचंद्र वाघेला वंशका था । वह भठ्ठा (रीवां) का राजा था। बावरने भारतवर्षके ३ बड़े राजा गिनाये हैं । उनमें भट्ठाके राजाको तीसरे नंबर बताया है । सुप्रसिद्ध गवैया तानसेन पहले इसी राजा रामचंद्रके आश्रयमें रहता था । इसके पालहीसे अकबरने उसे अपने दर्धारमें बुलाया था । जब तानसेनने सबसे पहले अकबरको अपनी विद्याका परिचय दिया था तब अकबरने उसको २ लाख रुपये इनाम दिये थे । देखो--आईन-इअकबरी प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद । पृ. ४०६. २-इब्राहीमहुसेनमि के पिताका नाम महमदसुल्तानमिर्जा था। इसका दूसरा नाम शाह मिर्जा भी था। उसके लड़केका नाम Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शैषजीवन । रासे पाँच माइल दूर 'सरनाल ' तक आ पहुँचा है । अकबरके एक सेनापतिने सलाह दी कि, जबतक हमारी दूसरी सेना न आ जाय तबतक हमें आगे नहीं बढ़ना चाहिए और रातको छापा मारना चाहिए । अकवरने इस बातको बिलकुल नापसंद किया और कहा,-"रातको छापा मारना अनीतिका युद्ध है।" अकबर, मानसिंह, भगवानदास और अन्यान्य मुसलमान सर्दारोंके साथ नदी पार कर सरनाल आया और इब्राहीम हुसेन मिर्जाको, युद्ध कर ई. स. १५७२ के दिसंबरकी २४ वीं तारीखके दिन, उसने पराजित किया। यह बात तो निर्विवाद है कि, अकबरने अविश्रान्त युद्ध करके, बहादुरी दिखाक और होशियारीसे कार्य करके अपनी आन्तरिक इच्छा पूर्ण की थी। उस की सबसे पहली और प्रबल इच्छा थी समस्त भारतमें अपना एकछत्र राज्य स्थापित करना । अनेक अंशोंमें उसने अपनी यह इच्छा पूरी की थी। दूसरे शब्दोंमें कहें तो इ.स. १९९५ तकमें तो वह उन्नति के सर्वोच्च शिखरपर पहुँच गया था । अकबरने इच्छित फल प्राप्त किया, एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया और सर्वत्र शान्ति फैला दी। यद्यपि ये बातें सही हैं तथापि वीरप्रसू भारतमाताकी, महाराणा प्रताप, जयमल, पता, उदयसिंह, और हेमके समान वीर सन्तानोंने, तथा किसी भी हिन्दु मुज़फ्फ़रहुसेन मिर्जा था। विशेषके लिए देखो आईन-इ-अकबरी प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका पृ० ४६१-४६२. १- हेमूने अकबर के अधिकारकी कुछ परवाह न कर आगरेको अपने कबजे में करलिया था। मगर अति लोभके कारण वह अन्तमें कुरुक्षेत्र में मारा गया था। पृष्ठ ४७-४८ में इस बातका उल्लेख होचुका है । यह ठीक है कि अन्तमें वह मारा गया था, मगर साथ ही यह भी ठीक है कि, वह वीरप्रस भारतमाताका वीर पुत्र था। हेमूकी वीरताके संबंधमें प्रो० आजादने अपनी Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सूरीश्वर और सम्राद। राजाकी सहायता लिये विना अकेले अपनी फौजके साथ युद्धस्थल में जानेवाली, मालवाधीश बाजबहादुरको परास्त करनेवाली, सम्राटको 'दरबारे अकबरी' नामकी उर्दू पुस्तकके पृष्ठ ८४३ में बहुत चित्ताकर्षक बातें लिखी हैं। उनसे मालूम होता है कि, हेम रेवाडीका रहनेवाला ह्रसर बनिया था। यद्यपि वह सुंदर शरीरवाला नहीं था तथापि वह प्रबंध करनेमें होशियार, उत्तम युक्तियोंसे कार्य करनेवाला और युद्धमें विजयलाभ करनेवाला था। वास्तवमें अबतक उसके गुण छिपाये और दुर्गुण ही प्रकाशित किये गये हैं। प्रो० आजाद कहते हैं कि, इस बनियेको उसका भाग्य गलीकूचोमेंसे घसीटकर सलीमशाहकी फौजके बाजारमें लेगया। बाजारमें दुकान लगाकर वह हरेकके साथ मिलजुलकर रहने लगा। लोग उससे महोब्बत करने लगे। परिणाममें वह चौधरी बनाया गया। धीरे धीरे वह कोतवाल और फौजदारके पद पर पहुँचा । अपने ओहदेपर रहकर उसने ईमान्दारीसे काम किया। सेवासे, मालिककी भलाईमें लगे रहनेसे अथवा लोगोंकी चुगलियोंसे-चाहे किसी भी सबबसे हो-वह बादशाहका प्रिय होगया। इससे अमीर उमरावोंके कार्य उसके हाथमें आने लगे। अन्तमें उसके भाग्यने उसको बादशाहका सबसे बड़ा और प्यारा वजीर बना दिया । चगताई वंशके इतिहास लेखक बनियेकी जातिको गरीब समझकर चाहे कुछ लिखें; मगर हेमूका प्रबंध उसके कानून और उसके हुक्म ऐसे दृढ थे कि, ढीली दालने गोश्तको दबा दिया । ( बनियेने मुसलमानोंको नीचा दिखा दिया) फिर महमूदआदिल बादशाह जब पठानोंके युद्धमें मारा गया तब वह एक जबर्दस्त राजा बन गया। उसी अवसरपर दिल्ली और आगरेके आसपास भयंकर दुष्काल पड़ा था। बदाउनीने इसका हृदय-द्रावक वर्णन लिखा है। वह कहता है,-" उस समय देशमें ढाई रुपयेमें १ सेर मकई भी नहीं मिलती थी। भलेभले आदमी तो दवाजे बंदकरके घरहीमें बैठे रहते थे। दूसरे दिन उनके घर देखे जाते तो उनमेसे दस बीस मुर्दे निकलते । गाँवों और जंगलोंको तो देखता ही कौन था ? कफन कौन लावे और दफन कौन करे ? गरीव अन्नकष्टको मिटानेके लिए जंगली वृक्षोंके छालपत्तोंपर दिन निकालते थे। अमीर गायों और भेंसोंको बेचते थे। लोग उन्हें खानेको लेजाते थे । जो लोग ऐसे जानवरोंको मारकर खाते थे उनके हाथपैर सूज जाते और थोड़े ही दिनों में वे मौतके शिकार बन जाते थे। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । भी अपनी वीरतासे स्तंभित कर देने वाली बंदूक और धनुष चलाने में सुनिपुण और रणस्थलमें पीठ दिखानेकी अपेक्षा मर मिटनेको ज्यादा पसंद करनेवाली कालिंजरकी राजकन्या, तथा गोंडवाणाकी राजधानी चौरागढ़ ( यह इस समय जबलपुरके पास है) की रक्षिका महाराणी दुर्गावतीके समान वीर रमणियोंने अकबरको अपनी वीरताका जो परिचय दिया था उसको वह यावज्जीवन भूला न था । और क्यों, मानसिंह, टोडरमल, भगवानदास और बीरबलके समान महान योद्धाओं के नामोंको भी हम नहीं भूल सकते । इन्होंने अकबरकी सर्वत्र हुकूमत कायम करने असाधारण सहायता की थी। ये कौनसे मुगल सन्तान थे ? ये भी तो वीरप्रसू भारतमाता ही की सन्तान थे ? उनकी वीरताके लिए भी भारत माता ही गौरवान्विता हो सकती है। कईबार तो मनुष्य मनुष्यको खाजात थे। उनकी शकले ऐसी बिगड़ गई थी कि उन्हें देखकर डर लगता था । एकान्तमें यदि कोई अकेला आदमी मिलजाता था तो उसके नाककान काटकर लोग खाजाते थे। यद्यपि देशमें ऐसी भयंकर स्थिति थी; परन्तु कार्यदक्ष हेमूकी सेनापर उसका कुछ भी प्रभाव न हुआ । इसका कारण उसका पुरुषार्थ था । उसके यहाँ जो हाथी घोड़े थे वे भी हमेशा घी शक्कर खाते थे । सिपाहियोंका तो कहना ही क्या है ? अन्तमें प्रो० आजाद कहते हैं,-" हेमू बनिया था: परन्तु उसके पराक्रम गूंज रहे हैं । वह बड़ा ही साहसी और धीर था; अपने मालिकका योग्य नौकर था। वह बहुत प्रेमी था । लोगोंके दिल हमेशा खुश रखता था। अकबर उस समय बालक था। अगर वह योग्य आयुमें होता तो ऐसे आदमीको कभी अपने हाथसे न खोता। वह उसे अपने पास रखता और सन्तुष्ट करके उससे काम लेता । परिणाम यह होता कि, देश उन्नत बनता और राज्यकी नींव मजबूत होती । १-रानी दुर्गावती, यह मध्यभारतवर्षकी वीर रमणी थी। यह गोंडवाणा में-जो भट्टाके दक्षिणमें है-राज्य करती थी । विशेषके लिए देखो - आईन-इ. अकबरी' के प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद । पृ० ३६७ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । भारत के इन वीरोंकी वीरता देखकर अकबरको यह विश्वास हो गया था कि, यदि भारतके वीर क्षत्रियों में फूट न होती तो मैं भारतमें कदापि साम्राज्यकी स्थापना नहीं कर सकता था। हायरे फूट ! भारतको सर्वथा नष्ट कर डालने पर भी तू अबतक इस पवित्र देशसे अपना कालामुँह क्यों नहीं करती ? कहाँ आर्यत्वकी रक्षाके लिए भूख और प्यासको सहने और जंगलोंमें भटकने वाले हिन्दु सूर्य महाराणा प्रताप ! और कहाँ पदवियोंके (Titles) लिए मर मिटनेवाले-अपनी आर्यप्रजाको बर्बाद करने वाले आजके कुछ खुशामदी नामधारी हिन्दु राना ! ओ भारतमाता ! ऐसे धर्मरक्षक और देशरक्षक वीरपुत्रोंको उत्पन्न करनेका गौरव अब फिरसे तू कब प्राप्त करेगी ? इतिहासके पृष्ठ इस बातको दृढ करते हैं कि, दूसरे मुसलमान बादशाहोंकी अपेक्षा अकवर प्रनाका विशेष प्यारा था। इतना ही नहीं अबतक भी इतिहास लेखकों के लिए अकबर इतिहासका एक विषय हो गया है। ऐसा क्यों हुआ? इस के अनेक कारण बताये जासकते हैं। पहला कारण तो यह था कि, हिन्दु, मुसलमान, पारसी, यहूदी, जैन, ईसाई आदि प्रत्येकापर उसकी समान दृष्टि थी। इतना ही नहीं उसने हरेक धर्मवालेको जुदाजुहा प्रकार के ऐसे फर्मान दिये हैं कि, जो यावच्चंद्रदिवाकरौ अकबरका स्मरण कराते रहेंगे। दूसरा कारण यह है कि, उसने प्रत्येकको प्रसन्न रखने के लिए अनेक सुधार भी किये थे । वैश्या और शराब के लिए उसने बड़ी कठोरता की थी। धनी या निर्धन कोई भी आवश्यकतासे अधिक नाज नहीं रख सकता था । बाजार भाव बढ़ाकर व्यापारी गरीबोंको कष्ट न दें, इस बातका खयाल रखनेकी उसने अपने कोतवालको सख्त ताकीद करदी थी। उसने सती होनेकी पृथाको और बालविवाहको रोका था । बालविवाहको रोकनेके लिए उसने यह आदानी थी कि Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन। लड़केका १६ बरसके और लड़कीका १४ बरसके पहले ब्याह न किया जाय। उसने जैसे पुनर्विवाहका निषेध किया था, वैसे ही वृद्ध स्त्रियाँ युवकोंके साथ ब्याह न करें इसका भी प्रबंध किया था। कहा जाता है कि मुसलमानोंमें उस समय यह रिवाज विशेष रूपसे प्रचलित था । सम्राट्का खयाल था कि, जो मनुष्य एकसे विशेष स्त्रियोंके साथ ब्याह करता है वह स्वतः अपना नाश करता है । जो हिन्दु बलिदानके नाम जीबोंकी हिंसा करते थे उन्हें भी, उस कार्यको अन्यायका कार्य बताकर, रोक दिया था। रेवेन्यु विभागका सारा भार किसानोंपर है यह समझकर उसने कृषकोंके कई कष्टदायक 'कर बंद कर दिये थे। इतना ही नहीं, हिन्दुराजाओंने जो 'कर' लगाये थे उन्हें भी उसने उठा दिया। उनसे जो 'कर' लिया जाता था वह भी मर्यादित था । वह 'कर' भी यदि किसीको भारी जान पड़ता तो अकबर उसमें भी कमी कर देता था । यदि कोई अपनी पैदावारका अमुक भाग देना चाहता था तो सम्राट् 'कर' के स्थानपर उसको ही स्वीकार कर लेता था। जिस वर्ष फसलें बिगड़जातीं, उस वर्षका 'कर' किसानोंसे बिलकुल ही नहीं लिया जाता था। कर' की व्यवस्थाका कार्य उसने टोडरमलको सौंपा था, कारण, वह पहलेहीसे जमींदार था, इसलिए इस विषयका उसे विशेष ज्ञान था । प्रजाके लाभार्थ ऐसी ऐसी व्यवस्थाएँ करनेवाला राजा प्रजाप्रिय क्यों न होता ? समस्त धोके लोगोंको समानदृष्टि से देखने और प्रजाकी भलाईहीमें अपनी भलाई समझनेवाला राजा-चाहे व हिन्दु हो या मुसलमान, पारसी हो या यहूदी, जैन हो या बौद्ध, चाहे कोई भी हो-यदि संसारमें प्रशंसापात्र है; प्रजा उसको प्यार करती है तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। 42 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीश्वर और सम्राट् । संक्षेप यह है कि अकबरकी राज्यव्यवस्थार्मे न्याय और दयाका मिश्रण था । न्याय विभागमें उसने जो सुधार किये थे वे उस जमाने के लिए बहुत ही सुधरे हुए कहे जा सकते हैं । उसके कानूनों में दया और प्रजा - प्रेम झलकते थे । अकबर ने अपने ही लिए नहीं बल्के अन्यान्य सूबेदारों और ओहदेदारों के लिए भी जो कानून बनाये थे उनमें उक्त दो बातें खास तरहसे लक्षमें रक्खी गई थीं। हम उसके सूबेदारोंहीके कानूनों को देखेंगे । उसके प्रत्येक सूबेदारको निम्न लिखित बातों पर खास तरहसे ध्यान देना पड़ता था । ३३० १ - सदा लोगों के सुखका ध्यान रखना । २ - गंभीरतापूर्वक ऊहापोह किये विना किसीकी जिंदगी नहीं लेना; अर्थात् मृत्युकी सजा नहीं देना । ३- म्यायके लिए जो अर्जी दे उसमें देर करके, न्यायके इच्छुकको दुःखी नहीं करना । ४ - पश्चात्ताप करनेवालोंको क्षमा करना । ५ - रस्ते अच्छे बनाना । ६ - उद्योगी किसानों से मित्रता करना अपना कर्तव्य समझना । उपर्युक्त बातों में किन बातोंका समावेश नहीं होता है ? अब अकबरकी कुछ अन्यान्य व्यवस्थाओं का दिग्दर्शन कराया जायगा । अकबर के समय के सिक्कों के लिए कहा जाता है कि, उसने पहले के राजाओं की छापवाले सिक्कोंको गलाकर अपनी नवीन छापके सिक्के चलाये थे । अकरके एक रुपये के सिक्केके ४० 'दाम' होते थे । एक 'दाम' वर्तमानके एक पैसे से कुछ विशेष होता था । 'दाम' ताँबे का सिक्का था और रुपया चाँदीका सिक्का था । अकबरका Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । 'लालीनलाली' नामक सोनेका सिका भी चलता था। इनके अलावा एक चौकोना सोनेका सिक्का चलता था । उसके मूल्यमें प्रायः परिवर्तन हुआ करता था। ईस्वी सन् १९७५-७६ से अकवरने अपने सिक्कों में 'अल्लाहो अकबर' लिखवाया था। मि. डब्ल्यु. एच. मोरलेंड. का कथन है कि,-" इस समय रुपयेका वजन १८० ग्रेन है। अकबरका सिक्का इससे वजनमें कुछ कम था; मगर वह खरी चाँदीका बना हुआ था । अकबरकी मुंहरों ( Soals ) के लिए कहा जाता है कि, वे भिन्न भिन्न प्रकारकी थीं। एकमें तो केवल उसीका नाम था। दूसरीमें उसके तैमूरतक पूर्वजोंके नाम थे । १ अकबरके समयके सिक्कोकी बातें जानने के लिए परिशिष्ट (ज) देखो। २ मुहरे लगानेका रिवाज जैसे अब है वैसे ही पहले भी था । वे मुहर भिन्न २ प्रकारकी रहती थीं । अबुलफजलके कथनानुसार सम्राट अकबरकी मुहरें अनेक तरहकी थी । उममें एक ऐसी थी जिसको मौलाना मकसदने अकबरकी हुकूमतके प्रारंभहीमें खोदकर बनाया था । यह लोहेकी बनी हुई और गोल थी । 'रीका' (पान गोल भागमें सीधी लाइन लिखनेको 'रीका' कहते हैं ) पद्धतिमें शाहन्शाहका और तैमूरसे लेकर अन्यान्य प्रसिद्ध पूर्वजों के नाम खुदे हुए थे । दसरी एक मुहर ऐसीही गोल थी। मगर उसमें ‘नस्तालिक' (जिसमें सभी लाइन गोल लिखी जाती हैं। पद्धतिका नाम था । इसमें केवल सम्राटहीका नाम था । तीसरी एक मुहर थी वह न्यायविभागक उपयोगमें आती थी । वह 'मेहराबी' (जिसका आकार छ: कोनेका लंवा तथा गोल होता है) के समान थी । उसके ऊपर बीचमें सन्नाटका नाम था और चारों तरफ निम्न लिखित आशयका लेख लिखा था, " ईश्वरको प्रसन्न करने का साधन प्रामाणिकता है। जो सीधे रस्ते चलता है उसे भटकते मैंने कभी नहीं देखा।" Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। इस बातको हम भली प्रकार जानते हैं कि, अकबरके समयमें, चौथी एक मुहर थी उसको नमकीनने बनाया था । ( यह नमकीन काबुलका था) पीछेसे इस प्रकारकी छोटीबड़ी मुहरोंको दिल्लीके मौलाना अलीअहमदने सुधारा था । इनमेंसे जो छोटी और गोल मुहर थी वह 'उजुक' (चगताई) के नामसे पहचानी जाती थी । वह 'फर्मान-ईसबतीस के लिए काममें आती थी। 'यह फर्मान-ई-सबतीस' तीन बातोंके लिए निकाला गया था। (१) मनसबका निर्वाचन करनेके लिए (२) जागीरके लिए (३) सयूषालके लिए । दुसरी एक बड़ी थी। इसमें शाहन्शाहके पूर्वजोंके नाम थे। यह पहले तो विदेशी राजाओंको पत्र लिखे जाते थे, उन पर लगानेके काम में आती थी; पीछेसे उपर्युक्त 'फर्मान-ई-सबतीस' में भी लगाई जाने लगी। इसके सिवा दूसरे फर्मानों के लिए एक चौकोर थी। उसके ऊपर ' अल्लाहो अकबर जल्ले जलालहू' लिखा था । ___ऊपर जो ‘उजूक' नामकी मुहर बताई गई है वह अकबरकी अंगुलीमें पहननेकी अंगूठी थी । अकबरका पिता हुमायुं भी ऐसी अंगूठी रखता था, और उसका मुहरकी तरह उपयोग करता था । यह बात इस पुस्तकके २५३ वे पृष्ठमें दिये हुए फुटनोटके वृत्तान्तसे भी प्रमाणित होती है । कहा जाता है कि, ई. स. १५९८ में (अकबरके राज्यके ४२ वें वर्ष) अकबरने ईसाई उपदेशकों (Jesuit missionaries ) को जो फर्मान दिया था उसकी मुहरको देखनेसे पता चलता है कि अकबरकी मुहरमें सब आठ गोलाकार थे। उसके बाद जहाँगीरने अपने नामका एक गोलाकार और बढ़ाकर नौ कर दिये थे । उसके पीछेसे आनेवाले बादशाहोंने भी अपने अपने नामका एक एक गोलाकार बढ़ादिया था । ऊपर्युक्त प्रकारसे अकबरकी मुहरमें आठ गोलाकार थे इसका कारण यह जान पड़ता है कि, वह तैमूरलंगसे आठवीं पीढीमें था। कई लेखकोंका अनुमान है कि, भारतमें, मुगलोंकी हूकूमतमें भी राजाओं, प्रधानों, बड़े बड़े अधिकारियों तथा फौजी अधिकारीयोंकी भी उनके रुतबेके माफिक, भिन्न भिन्न मुहर थीं। उनमें उनके नामोंके अलावा सम्राटुकी दी हुई पदवियाँ भी उनमें खुदी रहती थीं । रुतबेके अनुसार मुहरको काममें लानेके लिए मिले हुए हकका संवत् और हिजरी सन भी उनमें लिखा रहता था। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राका शेषजीवन | ३३३ रेलगाड़ियाँ या हवाई विमान नहीं थे। एक जगह से दूसरी जगह समाचार पहुँचानेका साधन सिर्फ़ कासीद थे । तो भी सरलतासे डाक पहुँचाने के लिए प्रति छः माइल एक आदमी रक्खा गया था। उसके द्वारा हर जगह डाक पहुँचाई जाती थी । बहुत दूरके आवश्यक समाचार पहुँचाने के लिए साँढनी सवार थे। वे समाचार पाते ही नियत स्थानपर पहुँचाने के लिए तत्काल ही रवाना होजाते थे । अकबरने प्रजाके सुखके लिए जो अनुकूलताएँ करदी थीं उनसे एक ओर जैसे प्रजा निश्चित थी वैसे ही दूसरी ओर दैनिक उपयोग में आनेवाली वस्तुएँ इतनी सस्ती थीं कि गरीबसे गरीब मनुष्य के लिए भी अपना गुजारा चलाना कठिन नहीं था । बेशक अभीकी तरह चलनी सिक्कोंकी बाहुल्यता - कागजके नोटों, चेकों और नकली धातुके सिक्कों की बाहुल्यता - न थी । मगर जब आवश्यक पदार्थ सस्ते होते हैं तब विशेष सिक्कोंकी आवश्यकता ही क्या रहजाती है ? मनुष्य जातिको मुगल बादशाहोंकी मुहरों में साधारणतया जो कुछ लिखा रहता था वह नीचे से ऊपर पढ़ा जाता था । इससे राज्यकर्ता सम्राट्का नाम सबसे ऊपर रहता था । कहा जाता है कि, मुगलोंकी उन्नति के समय में उनकी मुहरें बहुत छोटी अर्थात् १ या १|| इंच व्यासकी रहत' थीं । उनमें जो कुछ लिखा रहता था वह बहुत ही सादी और नम्र भाषामें रहता था । पीछे जब मुगलोंका पतन प्रारंभ हुआ तब बड़े बननेकी तीव्र इच्छा रखनेवाले प्रधानाने, केवल ' के शाहन्शाहोंके हाथोंमेंसे राज्याधिकार अपने हाथमें लिया और उनके नामोंकी मुहरें बहुत बड़ी बड़ी बनवाईं। वे बहुत सुंदर थीं। उनमें के लेख बहुत ऊंची श्रेणिके थे । , नाम लिए ' जर्नल १०० से मुगलोंकी मुहरोंसे संबंध रखनेवाली विशेष बातें जानने के ऑफ दी पंजाब हिस्टोरिकल सोसायटी' के पाँचवें वॉल्यूम के पृ० १२५ तक में छपा हुआ The Rev. Father Felix ( o. C. ) का " प्रथम भागका लेख बहुत उपयोगी है । तथा, देखो ' आइन - ई-अकबरी अंग्रेजी अनुवाद । पृ० ५२ व १६६. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JanuawnapadiaReasurmu - - गेहूँ जव सूरीश्वर और सम्राट्। अपने पेटकी चिन्ता सबसे पहले और ज्यादा होती है; और पेटका खड्डा चलनी सिक्कोंसे-नोटोंसे-या रुपयोंसे नहीं भरता। इसको भरनेके लिए अनाज, घी, दूध, दही आदि पदार्थोकी आवश्यकता है। ऐसे पदार्थ उस समय कितने सस्ते थे, इस विषयमें W. H. Moreland नामक विद्वान्का — दी वेल्यु ऑफ मनी एट दी कोर्ट ऑफ अकबर । नामक लेख अच्छा प्रकाश डालता है। उसके लेखसे मालूम होता है कि, उस समय सदा उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंका भाव निम्न प्रकारसे था :-- १ रु. के १८५ रतल । १ रु. के २७७॥ रतल । हलकेसे हलके चावल १ रु. के १११ रतल । गेहूँका आटा , १४८" दुध " ८९ , " २१ , सफेद शकर काली शकर नमक " १३७ , जवार " २२२ ॥ बाजरी " २७७॥ " उपर्युक्त देरसे यह बात सहन ही समझमें आसकती है कि, १ देखो; जर्नल ऑफ दी रॉयल एसियाटिक सोसायटीके इ. स. १९१८ के जुलाई और अक्टोबरके अंक. पे. ३७५ से ३८५ तक । २ विन्सेंट ए. स्मिथने अपनी ‘अकबर' नामकी पुस्तकके पृ० ३९० में अकबरके समयके जो भाव दिये हैं, वे भी उपर्युक्त भावोंके साथ लगभग मिलते जुलते ही हैं । कुछ फर्क घोके भावमें मालूम होता है । अर्थात् Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । जीवनोपयोगी पदार्थ उस समय कितने सस्ते थे। कहाँ आज रुपयेके ५ रतल गेहूँ और कहाँ उस समय १८५ रतल ? कहाँ आज रु. का ३-४ रतल गेहूँका आटा और कहाँ उस समय १४८ रतल ? कहाँ आज रु. का ५ रतल दूध और कहाँ उस समय ८८ रतल ! कहाँ आज रु. का लगभग पौन रतल घी और कहाँ उस समयका २१ रतल । क्या भारतवर्षके अर्थशास्त्री बता सकते हैं कि, देश पहलेकी अपेक्षा उन्नत हुआ है या अवनत ! जिस देशमें बहुत बड़ी संख्याको एक वक्तका अनाज ( घी, दूधकी तो बात ही नहीं ) मिलना भी, कठिन हो; पेट में एक एक बालिश्तके खड्डे पड़ गये हों; आँखें ऊँडी धंस गई हों, गाल सूख गये हों, चलते पैर काँपते हों; और सन्तान निर्माल्य पैदा होती हो; उस देशको उन्नत बतानेका साहस कौन करसकता है ? संभव है कि देशमें सिक्के (जैसा कि, पहले कहा जाचुका हैं ) बढ़े हों; मगर उन सिक्कोंसे मनुष्य जातिकी शारीरिक और मानसिक शक्तिके विकासमें क्या लाभ हो सकता है ? यदि कोई कहे कि ' अभी जो भाव बढ़ गये हैं इसका कारण लड़ाई है ? तो इसमें कुछ सत्यांश है; मगर जिस समय देशपर लड़ाईका कोई प्रभाव नहीं हुआ था उस समय भी लड़ाईके पहले भी-वस्तुएँ सस्ती न थीं। उपर्युक्त विद्वान्ने अकबरके भावोंके साथ ही सन् १९१४ के भाव लिखे हैं । वे इस प्रकार हैं, मि० मोरलेंडने धीका भाव ऊपर लिखे अनुसार रु. का २१ रतल बताया है और मि० स्मिथने रु. का १३३ रतल लिखा है । १ लड़ाईके वाद जो भाव बढ़े हैं वे लड़ाई के वक्तसे सवागुने हैं। इससे स्पष्ट है कि, इसका कारण खास लडाई नहीं मगर विदेशोंमें मालका जाना है। अनुवादक। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ गेहूँ जव चावल गेहूँ का आटा सूरीश्वर और सम्राट् । १ रु. के दूध घी सफेद शक्कर काली शकर "" "" -"" "" "" " २५ रतल २९ " १५ " २१ १६ २ "" "" "" 53 १० 3" 33 इससे यह स्पष्ट है कि, युद्ध के पहले भी ये वस्तुएँ बहुत सस्ती न थीं । वृद्ध पुरुषोंका कथन है कि प्रति दिन जीवनोपयोगी वस्तुएँ महँगी ही होती जारही हैं । ( लगभग ) ऐसा क्यों हुआ ? इस प्रश्नका उत्तर देनकी यह जगह नहीं है । इसके लिए बहुतसा समय और स्थान चाहिए । तो भी इतना तो कहना ही होगा कि, वस्तुओं की कीमतका आधार उसके निकास, बहुतायत और अच्छी फसलपर है। देशका माल जैसे जैसे बाहर जाने लगा वैसे ही वैसे सदैव काममें आनेवाले पदार्थ महँगे होने लगे, गरीबों और साधारण लोगों के हाथसे वे बिलकुल निकल गये । घृत, दही और दुग्ध तो बहुत ही ज्यादा महँगे हैं । इसका कारण पशुओंकी कमी है। घी, दूध और दही देनेवाले पशु एक ओर विदेश भेजे जाते हैं ओर दूसरी और देशहीमें व्यापारके नाम कतल किये जाते हैं। दोनों तरहसे पशुओंकी कमी होने लगी । यही कारण है कि, भारतवासियोंके जीवनभूत दुग्ध-दहीकी कमी हो गई है। अकबर यद्यपि मुसलमान था तथापि उसके समयमें पशुओंका इतना संहार नहीं होता था । इतना ही क्यों, उसने गाय, भैंस, बैल और भैंसेका मारना तो अपने राज्य में प्रायः बंद ही कर दिया था। इस बात का पहले उल्लेख Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । हो चुका है । इसीलिए उस समय दुग्ध, दही, घृतादि बहुत सस्ते थे। दूसरी तरफ़ हमारे देशसे गया हुआ बहुतसा कच्चा माल नये नये रूपोंमें वापिस यहाँ आने लगा । धर्म और देशका अभिमान नहीं रखनेवाले लोग उसपर फिदा होकर उसे ग्रहण करने लगे। हालत यहाँ तक बिगड़ी कि, अपने आर्यत्वके साथ अपने वेष-भूषाको भी लोगोंने छोड़ दिया । जब हम विदेशी वस्तुएँ ग्रहण करने लगे तब स्वदेशी वस्तुएँ बिकने और फलस्वरूप बननी बंद होगई। यह बात तो स्पष्ट है कि, वस्तुओंकी कीमतका आधार उनकी पैदाइश ही है। ऊपरकी चीजोंमेंसे एक चीनके विषयमें यहाँ कुछ लिखा जायगा । अकबरके समयमें सफेद शक्कर बहुत ज्यादा महँगी थी। इसका सबब यह था कि, सफेद शकरको सुधारनेकी-साफ़ करनेकी रीति बहुत ही थोड़े लोग जानते थे। इसीलिए सफेद शक्कर कम होती थी। पहले जो भाव लिखे गये हैं उनसे मालूम होता है कि, अकवरके समयमें गरीबसे गरीब आदमीको भी अपना गुजारा चलाने में कठिनता नहीं पड़तीथी । हिसाब लगानेसे मालूम होता है कि, एक आदमी पाँच छः आने महीनेमें अच्छी तरहसे अपना निर्वाह कर सकता था । मगर आज यह दशा है कि, साधारणसे साधारण मनुष्यको भी सिर्फ खुराकके लिए १५-२० रु. मासिक खर्चने पड़ते हैं। इसको देशका दुर्भाग्य न कहें तो और क्या कहें ? ___ अब हम अकबरकी कुछ आन्तरिक व्यवस्थाओंके ऊपर प्रकाश डालेंगे। 43 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A-Aamma ३३८ सूरीश्वर और सम्राट् । राज्यव्यवस्थाओंमें अन्तःपुर ( जनानखाना ) प्रायः क्लेशका कारण हुआ करता है । अकबर इस बातको भली प्रकार जानता था। इसीलिए वह अपने अन्तःपुरकी व्यवस्थापर विशेष ध्यान रखता था। उसने अन्तःपुरकी स्त्रियों के दर्जे बनाये थे और उनको न्यूनाधिक मासिक खर्च-जितना जिसके लिए नियत किया गया था-मिला करता था । अबुलफज़लके कथनानुसार पहले दर्नेकी स्त्रियोंको १०२८ से १६१० रुपये तक मासिक खर्चा मिलता था । जनानखानेके मुख्य नौकरोंको २०) से ५१) रु. तक और साधारण नौकरोंको २) से ४०) रु. तक मासिक वेतन मिलता था। (ध्यानमें रखना चाहिए कि अकबरके समयका रुपया ५५ सैंटके बराबर था) स्त्रियोंमेंसे किसीको कुछ जरूरत होती तो उसे खजानचीसे अर्ज करनी पड़ती थी। अन्तःपुरके अन्दरके हिस्सेकी चौकी स्त्रियाँ करती थीं। बाहरके मागमें नाजिर, दर्बान और फ़ौजी सिपाही अपने अपने नियत स्थानोंपर पहरा देते थे। अबुल्फ जल लिखता है कि, ई. सन् १९९५ वे में अकबरको अपने परिवारके खानगी खर्च, ७७। (सवासतहत्तर ) लाखसे भी अधिक रुपये देने पड़े थे। कई लेखकोंका मत है कि, अकबरके मुख्य दस स्त्रियाँ थीं । उनमें से तीन हिन्दू थीं और शेष थीं मुसलमान । मि. ई. बी. हेवेलका कथन है कि, उसके बहुतसी स्त्रियाँ थीं। वह तो यहाँ तक लिखा है कि,-" मुगलोंकी दन्तकथाओंके अनुसार बादशाह यदि किसी भी विवाहित स्त्रीपर मुग्ध होजाता था तो उसके पतिको मजबूरन् तलाक देकर, अपनी स्त्री बादशाहके लिए, छोड़ देनी पड़ती थी।" हम नहीं कह सकते कि, इसमें सत्यांश कितना है ! चाहे कुछ भी था मगर उस समयकी दृष्टिसे, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राका शेषजीवन | यह कहा जा सकता है कि, अकबरके स्त्रियाँ बहुत थोड़ी थीं । कई उदाहरणों से यह बात सिद्ध होती है । कहा जाता है कि राजा मानसिंहके १५०० स्त्रियाँ थीं। उनमेंसे ६० तो उसके साथ ही सती हुई थीं । अकबर के एक दूसरे मनसबदारके १२०० स्त्रियाँ थीं । इतना ही क्यों, हुमायूँ और जहाँगीरके भी अकबरसे विशेष स्त्रियाँ थीं। आधुनिक लेखकोंने, मालूम होता है कि, अकबरकी स्त्रियों के विषयमें एक दूसरी बातका विशेष रूपसे ऊहापोह किया है । वह यह है कि अकबरकी स्त्रियोंमें कोई ईसाई स्त्रि भी थी या नहीं ? इस विषय में सबसे सेंट झेवियर्स कॉलेजके फादर एच. होस्टेन, स्टेट्समेन द्वारा सन् १९१६ में यह कहनेको आगे आये थे कि, " अकबर के अन्तःपुर में एक ईसाई स्त्री भी थी । " इसके बाद अनेक इतिहासका - रोंने इस विषय में ऊहापोह किया है, मगर अबतक यह निश्चय नहीं हुआ कि, अकबरकी कौनसी स्त्री ईसाई थी ? अस्तु । दूसरे मुसलमान बादशाहोंकी अपेक्षा ही नहीं बल्के अनेक हिन्दू राजाओं की अपेक्षा भी अकबरने विशेष ख्याति पाई थी । इसका कारण उसके गुण और उसकी कार्यदक्षता ही है । प्रजाका प्यारा बनना कुछ कम चतुराई नहीं है । यह बात तो निर्विवाद है कि, ख्याति और सम्मान प्राप्त करनेकी इच्छा हरेकको रहती है । मगर कैसे आचरणोंसे यह इच्छा पूरी होती है ? इसका भली प्रकारसे जबतक ज्ञान नहीं होता तबतक यह इच्छा अपूर्ण ही रहती है । इतना ही नहीं कई बार तो इसका परिणाम उल्टा होता है । वर्तमान समय में भी भारत में अनेक वॉइसराय आये मगर लोकप्रिय होनेका सम्मान तो केवल लॉर्ड रीपन और लॉर्ड हार्डिजको ही मिला । दूसरे भी लोकप्रिय होनेकी आशा तो साथमें लाये थे मगर उनकी आशा पूर्ण न Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सूरीश्वर और सम्राट् । हुई। इसका कारण उनके लक्ष्यबिंदुकी त्रुटि थी । इस समय अकबरकी केवल हिन्दु-मुसलमान ही नहीं बल्के युरोपिअन विद्वान् भी प्रशंसा करते हैं। इसका कारण उसके गुण ही थे। यद्यपि अकबर एक मनुष्य था और उसमें अनेक दुर्गुण भी थे, जिनका निकर गत तीसरे प्रकरणमें किया जा चुका है; तथापि यह कहना ही पड़ेगा कि, उसके कई असाधारण गुणोंने उसके दुर्गुणोंको ढक दिया था। अकबरके गुणोंको देखकर कई लेखक तो यहाँ तक कहते हैं कि," अकबरने सिंहासनको देदीप्यमान कर दिया था। " कारण-सिंहासनस्थ राजाका प्रधानधर्म प्रनाको सुखी बनाना; प्रजाका कल्याण करना है । अकबरने भली प्रकारसे इस धर्मको पाला था। इसी लिए कहा जाता है कि, उसने सिंहासनको अलंकृत किया था। अकबरमें सबसे बड़ा गुण तो यह था कि वह बड़ेसे बड़े शत्रुको भी यथासाध्य नर्मीहीसे अपने अनुकूल,-अपने आधीन बना लेता था । वह जैसा साहसी था वैसा ही सशक्त और सहनशील भी था । अपने पर आनेवाले कष्टोंको वह बड़ी धीरजके साथ सह लेता था। अकबर मानता था कि,-" जिन राजकार्योंको प्रजा कर सकती है उनमें राजाको दखल नहीं देना चाहिए । कारण,प्रजा यदि भ्रममें पड़ेगी तो राजा उसको सुधार लेगा, मगर राजा ही यदि भ्रममें पड़ जायगा तो उसे कौन सुधारेगा ? कैसा अच्छा खयाल है ! प्रजा-स्वातंत्र्यके कितने ऊँचे विचार हैं । प्रजाको सिर नहीं उठाने देने के लिए कानूनके नये नये बोझे तैयार करनेवाले प्रना अपने दुःखोंसे व्याकुल होकर चिल्ला न उठे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटका शैषजीवन । ३४१ इस लिए उसके मुँह पर ताले ठोकनेवाले हमारे आधुनिक शासनकर्त्ता क्या अकबर के विचारों से कुछ सबक सीखेंगे ? अकबर के समस्त कार्योंका साध्यबिंदु एक था, - भारतको गौरावान्वित करना । इस साध्य-बिंदुको ध्यान में रखकर ही उसने अपने शासनकालमें, लुप्त प्रायः कृषि, शिल्प, वाणिज्य आदि विद्याओंका पुनरुद्वार किया था; उन्हें उन्नत बनाया था । वह जैसा दयालु था वैसा ही दानी भी था । अकबर जब दर्बारमें बैठता तब एक खजानची बहुतसी मुहरे रुपये लेकर सम्राट्के पास खड़ा रहता था । उस समय यदि कोई दरिद्र आ जाता था तो अकबर उसे दान देता था । वह जब बाहिर फिरने निकलता था उस समय भी उसके साथ क्रय लिए हुए एक आदमी रहता था । रास्ते में यदि कोई गरीब उसको दिखाई दे जाता था या कोई माँगनेवाला उसके सामने आजाता था, तो वह उसे कुछ न कुछ दिये बिना नहीं रहता था । लूले, लंगडों, अंधों या इसी तरहके दूसरे लाचार लोगोंपर अकबर विशेष दया दिखाता था । अकबरने न्यायमें जैसे हिन्दु, मुसलमान या धनी निर्धनका भेद नहीं रक्खा था उसी तरहसे दान देनेमें भी उसने जाति, धर्म, मूर्ख, पंडित आदिका भेद नहीं रक्खा था । अपने राज्य में अनेक स्थलोंपर उसने अनाथालय खोले थे। फतेहपुर सीकरी में दो अनाथाश्रम थे । एक हिन्दुओंके लिए और दूसरा मुसलमानों के लिए । हिन्दुवाले आश्रमका नाम धर्मपुर था और मुसलमानोंवाले आश्रमका नाम खैरपुर । कहा जाता हैं कि, अकबर ने कई ऐसी हुनर - उद्योग शालाएँ एवं कारखाने खोले थे जिनमें तोपें, बंदूकें, बारूद, गोले, तरवारें, ढाले Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ सूरीश्वर और सम्राट् । आदि युद्धकी सामग्रियाँ तैयार होती थीं । एक कारखानेमें इतनी बड़ी तोपें बनती थीं कि उनमें बारह मन वजनका गोला आजाता था। लोग इतनी बड़ी तोपको देखकर, सुनकर आश्चर्यान्वित होते थे; परन्तु युरोपके महा समरमें जिन शस्त्रास्त्रोंका प्रयोग हुआ है उन्हें देखमुनकर लोगोंका वह आश्चर्य जाता रहा है। वैसी तो अब साधारण बात समझी जाने लगी हैं। अकबर समझता था कि, दुराचार पापका मूल और अवनतिका प्रधान कारण है । जिस देशमें ब्रह्मचर्यका सम्मान नहीं होता उस देशकी उन्नति नहीं होती; जिस जातिमें ब्रह्मचर्यका नियम नहीं होता वह जाति निःसत्त्व होजाती है; और निस कुटुंबमें ब्रह्मचर्यका निवास नहीं होता वह अपमानित होता है, वह कभी गौरवान्वित नहीं होता । अकबरने अपनी प्रजाको ऐसे दुराचारवाले व्यसनोंसे दूर रखनेके अनेक उपाय किये थे । उसने वेश्याओंके लिए शहरसे बाहर रहनेका प्रबंध किया था। जिस स्थानपर वे रहती थीं, उसका नाम उसने ' शैतानपुर ' रक्खा था । सम्राट्ने शैतानपुर ' के नाके पर एक चौकी विठाई थी। चौकीका अहलकार वेश्याके यहाँ जानेवाले या वेश्याको अपने यहाँ बुलानेवालेका नाम, उसके पूरे पते सहित, लिख लेता था। यह बात उपर कई बार कही जाचुकी है कि, अकबर जैसा सहनशील था वैसा ही कार्यकुशल भी था। यदि कोई उसे अचानक कमी कोई अप्रिय बात कह देता था तो अकबर एकदम उसपर कुपित नहीं होजाता था। वह पहली बारकी भूल समझकर उसे क्षमा कर देता था। जिस कारणसे मनुष्य उत्तेजित होता था उस कारणको यदि उचित होता तो, मिटानेका वह प्रयत्न करता था। लोगोंमें यह प्रसिद्ध Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । होगया था, जसौ पहले कहा जा चुका है, कि अकबर मुसलमान धर्मसे भ्रष्ट होगया था। कहा जाता है कि, तुरानके राजा अबदुल्लाखाँ उज्बेगने भी अकबरके धर्मभ्रष्ट होनेकी अनेक झूठी सच्ची बातें सुनी थीं, इसलिए इसके संबंध अकबरको उसने एक पत्र लिखा था । अकबरने उसका उत्तर इस प्रकार दिया था, "लोग लिख गये हैं कि ईश्वरके एक लड़का था। पैगम्बरके लिए भी कई कहते हैं कि वह तो जादूगर था। जब ईश्वर और पैग़म्बर भी लोगोंकी निंदासे न बचे तब मैं कैसे बच सकता हूँ ? " चाहे कुछ भी था; परन्तु अपने आपको निर्दोष मनानेके लिए उसने कितना सुंदर उत्तर दिया था ! ___ अकवर साहित्यका पूरा शौक़ीन था। साहित्यमें धर्मशास्त्रों और ज्योतिष, वैद्यक आदि समस्त विद्याओंका समावेश होनाता है। अकबर सबमें रुचि रखता था, इसीलिए अथर्ववेद, महाभारत, रामा. १ उज्बेग लोगोंके और मुगलोंके आपसमें चिरकालसे शत्रुता थी। इस शत्रुताका अन्त इस अब्दुल्लाखाँ उज्बेगकी मृत्यु (ई. स. १५९७ ) के बाद हुआ था । ई. स. १५७१ में इसी अब्दुल्लाखाँका एक दूत अकबरके दर्बारमें आया था। अकबरने उसका उचित सत्कार किया था । अकबरने ता. २३ सन् १५८६ ई. को अब्दुल्लाखाँके पास एक पत्र भेजा था । उसमें लिखा था, " काफ़िर फिरंगियोंका-जो समुद्रके टापुओंपर आकर बस गये हैंमुझे नाश करना चाहिए । ये विचार मने अपने हृदयमें रख छोड़े हैं। " उन लोगोंकी संख्या बहुत बढ़ गई है । वे यात्रियों और व्यापारियोंको कष्ट पहुँचाते हैं । हमने खुदजाकर रस्ता साफ करनेका इरादा किया था............" देखो डा० विन्सेंट ए. स्मिथके अंग्रेजी अकबरके पृ० १०, १०४, और २६५ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। यण, हरिवंशपुराण तथा भास्कराचार्यकी लीलावती और इसी तरहके दूसरे खगोल तथा गणित विद्याके ग्रंथोंका उसने फारसीमें अनुवाद करवाया था। संगीत विद्याके सुनिपुण विद्वानोंका भी उसने अपने दर्बारमें अच्छा सत्कार किया था । कहा जाता है कि, उसके दर्बारमें ५९ कवि थे। फैजी उन सबमें श्रेष्ठ समझा जाता था। १४२ पंडित और चिकित्सक थे। उनमें ३५ हिन्दु थे । संगीत विशारद सुप्रसिद्ध गायक तानसेन और बाबा रामदास भी अकवरकी ही सभाके चमकते हुए हीरे थे। ऐसे भिन्न भिन्न विषयोंके विद्वानों का आदर-सत्कार ही बता देता है कि अकबर पूर्ण साहित्यप्रेमी था । अकबर इस बातको भली प्रकार जानता था कि, बड़े विभागोंमें पोल भी बड़ी ही होती है । इस बातका उसे कई बार अनुभव भी हुआ था। और जैसे जैसे उसको इस बातका विशेष अनुभव होता गया, वैसे ही वैसे वह स्वयं प्रत्येक बड़े विभागका निरीक्षण करने लगा। अकबरके अनेक विभागोंमें एक विभाग ऐसा भी था कि, जिसमें 'जागीर ' और 'सर्युघाल का कार्य होता था। यह एक ऐसा सयुघाल यह चगताई शब्द है । इसका अर्थ होता है जीवन-पोषणकी सहायता । इसका अरबी शब्द है — मदद-उल-माश' फारसीमें इसके लिए 'मदद-इ-माश' शब्द आता है। इसके विषयमें अबुल्फ़ज़ल लिखता है कि, अकबर चार प्रकारके मनुष्योंको, उनके गुजारेके लिए, पेन्शन अथवा जमीन देता था । उनके प्रकार ये हैं- १) जो संसारसे अलग रहकर ज्ञान और सत्यकी शोध करते थे । (२) (३) जो निर्बल एवं अपाहिज होनेसे कुछ भी कार्य नहीं कर सकते थे ( ४ ) जो उच्च कुलमें जन्म पाकर भी ज्ञानके अभावसे अपना भरण-पोषण नहीं कर सकते थे । इन चार प्रकारके मनुष्योंको जो रकम गुजारेके लिए दी जाती थी वह 'मदद-ई-माश' कहलाती थी। इसका समावेश सयुघालकी अंदर हो जाता है । देखो आईन-इ-अकबरी के प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका पृ० २६८-२७० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन | ३४५ विभाग था कि, अप्रामाणिक मनुष्य इसमेंसे इच्छानुकूल रकम हड़प कर सकता था । मगर अकबर इतनी सावधानी से उसकी देखरेख करता कि एक पाई भी उसमें से कोई नहीं खा सकता था। शेख अब्दुलनवीके हाथमें जब इस विभागका कार्य था तब उसने कुछ गोटाला किया था, परंतु अकबरने तत्काल ही इसको जान लिया था । सन् १९७८ ई. में उसको इस विभागसे दूर कर मेरुदमुल्मुल्क के साथ मक्का भेज दिया था और उस विभागको अपने अधिकारमें लिया था । • १ शेख अब्दुलनबीके पिताका नाम शेख अहमद था । वह इंदरी । जिला 'गंगो' ( सहारनपुर ) का रहनेवाला था । उसके पितामहका नाम अब्दुलकदूस था | अब्दुलनवी ' सर्युघाल' भागमें ई. सन् १५६४ से १५७८ तक रहा था । जब कभी किसीको जमीन देनी होती थी तब उसे मुज़फ्फरख़ाँसे जो उस समय वज़ीर और वकील था सलाह लेनी पड़ती थी । ई. स. १५६५ में उसको सदरे सदूर' का पदवी मिली थी । अब्दुलूनबी और मख्दूमुलुल्क के आपसमें बहुत विरोध था । मखदूमने उसके विरुद्ध कई लेख प्रकाशित कर उसे शारवान के खिजरखाँ और मीरहब्शीका ख़ूनी बताया था | अब्दुलूनबीने मख़दूमको मूर्ख प्रसिद्ध कर शाप दिया था । इसके लिए ही उल्माओं में दो दल हो गये थे । अकबरने अब्दुलनवी और मखदूम दोनोंको सन् १५७९ ई० में मक्का की तरफ रवाना कर दिया था और बगेर हुक्म वापिस हिन्दुस्थान में नहीं आनेकी सख्त ताकीद कर दी थी । अब्दुद्नबी को मक्का जाते समय अकबरने सत्तर हजार रुपये दिये थे यह जब मक्का से लौटकर वापिस आया तब इसकी जाँच करनेका काम अबुल्फजुलको सौंपा गया था और इसकी देखरेख नीचे वह नजरकैद भी रक्खा गया था | कहा जाता है कि, एक दिन अबुल्फ़ज़लने उसको, वादशाह के इशारेसे, गला घुटवाकर मरवा डाला था । यह बात इक़बालनामे में लिखी है। विशेषके लिए देखो 'आईन-इ-अकबरी' -- के अंग्रेजी अनुवादके प्रथम भागका पृ. २७२-७३ तथा दर्बारेअकबरी पृ. ३२०-३२७. २- मरुदूमुल्मुल्क सुल्तानपुरका रहनेवाला था । उसका नाम मौलाना 44 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ सूरीश्वर और सम्राट्। man इसी तरह अकबर इस बातका भी पूरा ध्यान रखता था अब्दुल्ला था । — मख्दमुल्मुल्क ' यह उसका खिताव था। उसे ' शेख-उलइस्लाम' नामका दसरा खिताब भी था । उसको दोनों खिताब हुमायुने दिये थे। प्रो. आजादने ' दर्बारेअकबरी' में लिखा है कि, उसको — शेख-उलइस्लाम' का खिताब शेरशाहने दिया था । वह धर्माध सुनी था । वह प्रारंभहीसे अवुल्फजलको भयंकर आदमी बताता आया था । उसने फतवा दिया था कि,-" इस समय मकाकी यात्रा करना अनुचित है। कारण, मका जानेके खास दो मार्ग है । एक ईरानका और दूसरा गुजरातका । दोनों ही निकम्मे है । यदि इसनमें होकर लोग जाते हैं तो वहाँक शिया लोग यात्रियोको सताते हैं और यदि लोग गुजरातमें होकर जलमार्गसे जाते हैं तो मेरी और जीसिसकी तस्वीरोंको-जो पोर्तुगीजोंके जहाजोपर रक्खी रहती हैदेखना पड़ता है । अर्थात् मूर्तिपूजा देखनी पड़ती है । इसलिए दोनों मार्ग निकम्मे हैं।" ____ मख्दमुल्मुल्क बड़ा ही चालाक आदमी था। इसकी - चालाकियोंयुक्तियों के सामने बड़े बड़े लोंगोकी युक्तियाँ सत्त्वहीन मालूम होती थीं। कहा जाता है कि उसने शेखों और समस्त गरीबोंके साथ निदेयताका व्यवहार किया था । उसकी निर्दयताकी बातें एक एक करके प्रकट होने लगी थी। इसी लिए बादशाहने उसे, विवश करके, मक्का भेज दिया था। इसके मकान लाहोरमें थे। उनमें कई लंबी चौड़ी कबरें थीं। इन कब के लिए कहा जाता था कि वे पूर्व पुरुषोंकी थी। उन कबरोंपर नीला कपड़ा ढका रहता था और दिनमें भी उनके आगे दीपक जला करते थे । मगर वास्तवमें वे कबरें नहीं थीं; उनके नीचे तो अनीतिसे एकत्रित किया हुआ धन गड़ा हुआ था। मख्दू मुलमुल्क मकासे लौटकर ई. स. १५९२ में अहमदाबादमें मर गया । उसके बाद काजीअली फतेपुरसे लाहौर गया था । उसको वहाँ मख्दमुलमुल्कक घरमेंस बहुतसा धन मिला था। उपर्युक्त कवरों में कई ऐसी पेटियाँ भी निकली कि जिनमें सेनेकी ईटें था। इनके अलावा तीन करोड नकद रुपये भी उनमेंसे निकले थे। ऊपरका हाल जानने के लिए देखो, आईन-इ-अकबरी प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका पृष्ठ १७२-१७३, ५४४, तथा ' दारे अकबरी ' ( उर्दू) का १० ३११-३१९. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन | ૩૨૭ कि और नौकर भी कई चोरी करना न सीख जायँ । यहाँ तक कि हाथियोंकी खुराक से भी कोई चुरा न ले इस लिए उसने अपने हाथियोंको तेरह भागों में विभक्त किया और प्रत्येक विभागके हाथियोंको अमुक वजनकी खुराक दिलाने लगा । इससे यदि कोई थोड़ीसी चोरी भी खुराक करता था तो वह ताल ही पकड़ लिया जाता था । अकबरने सब तरहकी व्यवस्था करनेका गुण अपने पितासे सीखा था । कहा जाता है कि, हुमायूँ में यह गुण उत्तम था; परन्तु उसके दुर्गुणोंने उसे इस गुणको काममें न लाने दिया । अकबर राज्यव्यवस्थामें जैसी सावधानी रखता था वैसी ही सावधानी वह राजनैतिक षड्यंत्रोंसे बचे रहने में भी रखता था । पूर्वके इतिहाससे और अपने अनुभवोंसे उसे निश्चय हो गया था कि, चंचल राज्य लक्ष्मी के लिए और अपनी सत्ता जमाने के लिए, पिता पुत्रका, पुत्र पिताका और भाई भाईका खून कर डालता है । इस ज्ञानही के कारण वह अपने सारे कार्य व्यवस्थापूर्वक, नियमित और होशियारी के साथ करता था । उसको प्रतिक्षण यह भय लगा रहता था कि, कहीं कोई उसकी असावधानीका दुरुपयोग न करे । इसी लिए वह अपनी सारी दिनचर्या नियमित रखता था । उसकी कार्यप्रणाली जानने योग्य है । वह नींद बहुत ही कम निकालता था। थोड़ा शामको सोता था और थोड़ा सवेरे के वक्त । रातका बहुत बड़ा भाग कामकाज करही में बिताता था । दिन निकलनेमें जब तीन घंटे बाकी रहते तब वह भिन्न भिन्न देशों से आये हुए गवैयोंका गायन सुनता । जब एक घंटा रात रहती तब प्रभुभक्ति करनेमें लगता और दिन निकलने पर थोड़ा बहुत कोई काम होता तो उसे समाप्त कर वह सो जाता । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । इससे सिद्ध होता है कि, वह निद्रा बहुत ही कम लेना था । रातदिनमें सब मिलाकर केवल तीन घंटे ही वह सोता था । वैद्यकशास्त्र के नियमानुसार अल्पनिद्रा लेनेवालेको मिताहारी होना चाहिए, इसलिए अकबर भी परिमित आहार ही करता था । दिनमें भोजन केवल एक बार करता था; उसमें भी वह प्रायः दूध चावल और मिठाई खाता था । ૨૮ इस तरह अकवरकी दिनचर्या ही ऐसी थी कि, जिससे वह किसी समय भी गाफिल नहीं होता था । प्रायः राजषड्यंत्रोंका वार रसोई और रसोइयोंद्वारा ही होता है; शत्रु इन्हींके द्वारा अपना मतलब साधते हैं । अकबर इससे अपरिचित नहीं था, इसलिए वह अपने रसोई घरमें काम करनेवाले लोगोंपर पूरी निगाह रखता था । प्रामाणिक और पूर्ण विश्वासपात्र मनुष्योंहीको वह रसोडेके अंदर रखता था । जो रसोई बनती उसे पहले दूसरा मनुष्य खालेता उसके बाद वह बादशाह के पास पहुँचाई जाती । रसोड़ेमें से जो रकाबियाँ जाती थीं वे सब मुहर लगकर बंद जाती थीं । अकबर ने अपने भोजनके संबंध में यह आज्ञा प्रकाशित की थी कि, " मेरे लिए जो भोजन तैयार हो उसमें से थोड़ा भूर्खो को दिया जाय । ” जिन बर्तनोंमें अकबर के लिए रसोई बनती थी उन पर महीने में दो बार और जिनमें राजकुमारों और अन्तःपुरकी बेगमों के लिए रसोई बनती थी उनमें महीने में एकबार कलई कराई जाती थी। अकबर प्रायः जौखार डालकर ठंडा किया हुआ, गंगाका पानी पीता था । रसोई घर में, इस लिए चंदोवे बाँधे जाते थे कि कहीं कोई जहरी जानवर अकस्मात् भोजनमे न गिर जाये । " १ देखो The Mogul Emperors of Hindustan P. 137. ( द मुगल एम्परर्स ऑव हिन्दुस्थान पू. १३७ ) । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटका शेषजीवन । अकबरकी कार्यदक्षताका ऊपर उल्लेख हो चुका है। उससे यह कहा जा सकता है कि, एक राजामें-सम्राट्में-जितनी कार्यकुशलता चाहिए उतनी उसमें थी। ऐसी कार्य-कुशलता रखनेवाला मनुष्य उदार हृदयका होना चाहिए। और तदनुसार वह उदार हृदयी था भी सही । जब हम अकबरके उच्च विचारोंका मनन करते हैं तब हम यह कहे विना नहीं रह सकते कि, अकबर केवल सम्राट ही नहीं था, बल्के वह गंभीर विचारक और तत्त्वज्ञानी भी था । यहाँ हम यदि अकबरके कुछ उच्च विचारोंका और मुद्रालेखोंका उल्लेख करेंगे तो अनुचित न होगा। ____जन परीक्षारूपी संकट सिर पर आजाय तब, धार्मिक आज्ञापालन, गुस्से से भौंहे टेढी करनेमें नहीं होता, परन्तु वैद्यकी कड़वी दवाकी तरह उसे आनंदके साथ सहन करनेमें होता है।" " मनुष्यकी सर्वोत्कृष्टताका आधार उसका विचारशक्ति ( विवेकबुद्धि ) रूपी हीरा है । इसलिए प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि, वह उसको सदैव उज्ज्वल रखनेका प्रयत्न करे-हमेशा विवेकबुद्धिसे काम ले ।" " यद्यपि ऐहिक और पारलौकिक सम्पत्तिका आधार ईश्वरकी योग्य पूजा है, तथापि बालकोंकी सम्पत्तिका आधार उनके पिताओंकी आज्ञाका पालन है।" " खेद है कि, सम्राट हुमायु बहुत बरस पहले ही मर गये Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सूरीश्वर और सम्राट्। इसलिए मुझे अपनी सेवाओंसे उन्हें प्रसन्न करनेका अवसर बिलकुल ही न मिळा ।" "स्वार्थाध होनेसे मनुष्य अपने चारों तरफ़ क्या हो रहा है सो नहीं देख सकता । कबूतरके रक्तसे सने हुए बिल्लीके पंजेको देखकर मनुष्य दुःखी होता है; परन्तु वही बिल्ली यदि चूहे को पकड़ती है, तो वह खुशी होता है । इसका कारण क्या है ? कबूतरने उसकी क्या सेवा की है कि, उसकी मृत्युसे तो उसे दुःख होता हैं और अमागे चूहेने उसका क्या नुकसान किया है कि उसकी मृत्युसे वह प्रसन्न होता है। " हम ईश्वरसे प्रार्थना करते हैं उसमें हमें ऐसे ऐहिक सुख न माँगने चाहिए कि जिनमें दूसरे जीवोंको तुच्छ समझनेका आमास हो ।।" " तत्त्वज्ञान संबंधी विवेचन मेरे लिए एक ऐसी अलौकिक मोहनी है कि, मैं और कामोंकी आपेक्षा उसीकी और विशेष आकर्षित होता हूँ। तो भी कहीं मेरे दैनिक आवश्यक कर्तव्यमें बाधा न पड़े इस खयालसे मैं तत्त्वज्ञानकी चर्चा सुननेसे अपने मनको जबर्दस्ती रोकता हूँ।" " मनुष्य-चाहे वह कोई भी हो-यदि जगतकी मायासे छूट Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन | ३५१ नेके लिए मेरी अनुमति चाहेगा तो मैं प्रसनता पूर्वक उसे दूँगा । कारण, यदि वास्तव में उसने अपने आपको जगतसे - जो कि केवल अज्ञानियोंहीको अपने अधिकारमें रख सकता है-भिन्न कर लिया है तो उसे उसीमें रहने के लिए विवश करना निंद्य और दोषास्पद है । परंतु यदि वह बाह्याडंवर ही करता होगा तो उसे अवश्यमेव उसका दंड मिलेगा । " X " जब बाज पक्षीको - वह दूसरे प्राणियों को मारकर खाता है इसलिए - अल्पायुका दंड मिला है; अर्थात् उसकी उम्र बहुत छोटी होती है; तत्र मनुष्य जातिके भोजनके लिए भिन्न भिन्न प्रकारके अनेकानेक साधनों के होते हुएमी जो मनुष्य मांस-मक्षणका त्याग नहीं करता है उसका क्या होगा ? " x X X ८ एक स्त्रीकी अपेक्षा विशेष स्त्रियोंकी इच्छा करना, अपने नाका प्रयत्न करना है ! हाँ यदि पहली स्त्रीके पुत्र न हो अथवा वांझ हो तो दूसरी स्त्री खाना अनुचित नहीं है । " I X x X X X X (2 यदि मैं कुछ पहले समझने लगा होता तो, अपने अन्तःपुरमें अपने राज्यकी किसी भी स्त्रीको बेगम बनाकर न रखता, कारण, - प्रजा मेरी दृष्टि मेरी सन्तानके समान है । " X X x X "घनायकका कर्तव्य है कि, वह आत्माकी परिस्थितिको जाने और उसको सुधारनेका प्रयत्न करे । उसका कर्तव्य Ethopकी तरह X Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । जटा बढ़ा, फटाटा गाऊन पहिन श्रोताओंके साथ, रिवाजकी तरह, ऊपरि विवाद करना नहीं। अकबरके विचारोंमेंसे ऊपर दिये हुए कुछ उद्धरणोंसे सहृदय पाठक यह कहे विना न रहेंगे कि, वह जितना राजकीय विषयोंका गहरा ज्ञान रखता था उतना ही सामाजिक, धार्मिक और नैतिक विषयों का भी रखता था ? वास्तवमें अकबरके ऐसे सद्गुण उसके पूर्वजन्मके शुम कर्मोंका ही फल है । अन्यथा करोड़ो मनुष्योंपर हुकू. मत करनेवाले यवनकुलोत्पन्न बादशाहमें ऐसे विचारोका निवास होना, बहुत ही कठिन है । अकबरको संयोग मी ऐसे ही मिलते गये कि जो उसके विचारोंको विशेष दृढ बनानेवाले-पुष्ट करनेवाले थे। उसके दारके प्रधान पुरुषोंकी संगति भी उसके लिए विशेष काभकारी हुई थी। उनमें भी अबुल्फ़ज़लका प्रभाव तो उस पर बहुत ही ज्यादा था । अपने द्वितीय नायक सम्राट्की उन्नतिका सूर्य ठीक मध्याह्न पर आया था । उसकी इच्छित सारी मनोकामनाएं पूर्ण हुई थीं। उसका साम्राज्य हिन्दुकुश पर्वतसे ब्रह्मपुत्रा तक और हिमालयसे दक्षिण प्रदेश तक फैल गया था । सर्वत्र शान्ति फैल गई। विदेशी लोगोंके आक्रमणका भय भी न रहा । संक्षेपमें कहें तो अकबरने भारतवर्ष के गौरवको पीछा जीवित कर दिया । उसने अनेक प्रकारके प्रयत्नोंद्वारा १ अकबरके विशेष विचार जाननेके लिए देखो, आईन-इ-अकबरीके तीसरे भागका, कर्नलजेरिटकृत, अंग्रेजी अनुवाद । पृ० ३८०-४०० । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सम्राट्का शेषजीवन । re - - -.. -Nal भारतवर्षको रसातलसे उठाकर उन्नतिके शिखर पर ला बिठाया; मस्तक पर स्थित सूर्यका प्रकाश सर्वत्र गिरने लगा । इससे अकबरके आनंदकी सीमा न रही। ___मार पाठक ! मारतका ऐसा सद्भाग्य कहाँ है कि उन्नतिका सूर्य सदैव उसके मस्तक पर ही झगमगाता रहे । पुनः वह सूर्य धीरे धीरे नीचे उतरने लगा। अवनतिकी छाया गिरने लगी। एक ओर अकबरके घरहीमें फूट फैली और दूसरी ओर उसके स्नेहियोंका क्रमश: अवसान होने लगा । अकबरको जब शान्तिके दिन देखनेका सद्भाग्य प्राप्त हुआ तब उस पर उपर्युक्त दोनों आघातोंने अपना प्रभाव दिखला दिया । यह कहा जा चुका है कि, कई अनुदार मुसलमान अकबरकी प्रवृत्तियोंसे नाराज थे। इस लिए उन्होंने अकबरके बड़े पुत्र सलीमको अकबरके विरुद्ध उभारा । यहाँ तक कि उसको अकबरकी गद्दी छीन लेनेके लिए उत्तेजित किया। सलीम दुश्चरित्र था । उसको किसी धर्म पर श्रद्धा न थी, तो भी संकीर्ण हृदयी मुसलमानोंने इन बातोंकी परवाह न कर उसे खूब उभारा । दूसरी तरफ सन् १९८९ ईस्वीमें अकबर जब काश्मीरकी सैर करने गया था उस समय उसका प्रिय अनुचर ‘फतहउल्ला'-जो एक अच्छा पंडित था और संस्कृत ग्रंथोका फारसीमें अनुवाद करता था--मर गया। काश्मीरके सीमाप्रान्तमें, अबुल्फेतहका जिसने अकबरके धर्मको स्वीकार किया था, १-फतहउल्ला अबुल.फतहका लड़का था वह खुशरोका दोस्त था इसलिए जहाँगीरने उसको मरवाडाला था । देखो आईन-इ-अकबरीके प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद, पृ० ४२५. . २-यह गीलानके मुल्ला · अब्दुर्रज्जाक का लड़का था। उसका पूरा नाम 'हकीम मसीउद्दीन अबुलफतह 'था। अरफी नामक कविने इसकी स्तुतिमें जो कविता लिखी है उसमें इसका नाम मीर अबुल्फतह लिखा है उसका बाप गीलानके सदरकी जगह बहुत दिनतक रहा था। जब सन् 45 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ सूरीश्वर और सम्राट। देहांत होगया । सम्राट् काश्मीर गया तब राजा टोडरमल भी जो १५६६ ईस्वीमें गीलान तहमास्पके हाथमें गया तब वहाँका राजा अहम दखाँ कैद किया गया और अब्दुर्रज्जाक मार डाला गया । इससे हकीम अबुल.फतह अपने दो भाइयों (हकीम हुमायुं और हकीम नुरुद्दीन) को साथ ले अपने देशको छोड़ सन् १५७५ में भारत वर्षमें आया । अकबरके दरिमें उसका अच्छा आदर हुआ । राज्यके चोवीसमें वर्षमें अबु. लफतह बंगालका सदर और अमीन बनाया गया था । यद्यपि उसकी पदवी एक हज़ारीकी थी, तथापि उसकी सत्ता वकीलके समान थी । सन् १५८९ ईस्वीमें अकबर जब काश्मीर गया था तब अबुल फतहभी उसके साथ ही गया था। वहाँसे 'जावलिस्तान के लिए रवाना हुआ और रस्तेमें बीमार होकर मर गया । अकबरके हुक्मसे रू बाजा शमशुद्दीन उसकी लाशको 'हसनअब्दाल' ले गया और जो कबर अकबरके लिए वनाई थी उसमें वह गाड़ा गाया । पांछे लौटते अकबरने उस कबर पर जाकर प्रार्थना भी की थी। बदाउनीके कथनानुसार अकबरके इस्लाम धर्म छोडनेमें अबुल्फतहका भी हाथ था । विशेषके लिए देखो-'आईन-इ अकबरी' के पहले भागका अंग्रेजी । अनुवादक पृ० ४२४-४२५ तथा — दबीरे अकबरी' पृ० ६५६-६६६. १-राजा टोडरमल लाहोरका रहने वाला था । कुछ लेखकोंका मत है कि वह लाहोर जिलेके चूनिया गाँवका रहनेवाला था। एसियाटिक सोसायटाने जो जाँचकी है उसके अनुसार वह लाहरपुर जिला अवधका रहनेवाला था । वह जातिका खत्री और गोत्रका टंडन था । सन् १५७३ ईस्वीके लगभग अकबरके दर्बारमें दाखिल हुआ था । धीरे धीरे अकबरने उसे आगे बढ़ाया और अपने राज्यकालके सत्ताईसवें वरस में उसको बाईस जिलोंका दीवान और वजीर बनाया था । वह जितना हिसावके कामसे प्रसिद्ध हुआ था उतना ही अपने पराक्रमसे भी प्रसिद्ध हुआ था । पक्षपातस वह सदा दूर रहता था । कहा जाता है कि उसने हिसाब गिननकी कूँचियोंकी एक पुस्तक लिखी थी । उसका नाम 'खाजनेइसरार' था । प्रो. आज़ादके कथनानुसार यह पुस्तक काश्मीर और लाहोरके वृद्ध लोगोंमें 'टोडरमल' नामसे प्रसिद्ध है । टोडरमल क्रियाकांडमें कट्टर हिन्दु था । वह अपने इष्ट देवको पूजा किये बिना कभी अनजल ग्रहण नहीं करता था । कई बार उसे अपने धार्मिक Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । पंजाबका शासनकर्ता था-इहलोकलीला समाप्तकर चला गया और राजा भगवानदास भी अपने घर आकर मर गया । इस प्रकार ई. सन् १९८९ में एक एक करके अकबरके अनुचरोंकी मृत्यु हुई । इससे उसको बड़ा ही दुःख हुआ । स्नेहियोंकी मृत्युसे भी घरका झगड़ा अकवरके लिए विशेष दुःखदाई था। दूसरोंकी शत्रुता हरतरहसे मिटाई जा सकती है परन्तु अपने पुत्रकी शत्रुताको मिटाने में उसने असाधारण विपत्तियाँ झेली । तो भी परिणाम कुछ नहीं हुआ। सलीमने अकबरके साथ यहाँ तक शत्रुता प्रकट की कि, उसने खुले तौर पर अलाहाबाद पर अधिकार कर लिया, और आगरे की गद्दी लेने के लिए प्रयत्न प्रारंभ किया । इतना ही नहीं, उसने अपने पिताको विशेष क्रुद्ध करनेके लिए अपने नामके सिक्के भी जारी कर दिये । सम्राट् यदि चाहते तो सलीमको उसकी इस ढिठाईका यथेष्ट दंड दे सकते थे; परन्तु वे वात्सल्य भावसे प्रेरित होकर अन्त समय तक चुप ही रहे । पुत्रके साथ युद्ध करनेको तैयार नहीं हुए । नियम पालनेमें कठिनाइयों उठानी पड़तों थी, परन्तु उन्हें सहकर भी अपने नियम पालता था । ___ जो लोग कहते है कि नौकर मालिकके वफादार तभी हो सकते हैं जब वे मालिक के विचार, व्यवहार और धर्मके अनुसार चलते हैं। उन्हें टोडरमलके जीवनपर ध्यान देना चाहिए । उसका जीवन बतायगा कि सच्चा वफादार वही नौकर होता है जो अपने धर्ममें पूरा वफादार होता है । अबुल फजल उसके विषयमें कहता है कि, यदि वह अपनी ही बात का अभिमान रखने और दूसरोंपर तिरस्कार करनेवाला न होता तो वह एक बहुत वड़ा 'महात्मा' गिना जाता । अन्तमें सन् १५८९ ईस्वी १० नवम्बरके दिन मर गया । देखो आईन-इ-अकबरीके प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद । पृ० ३२ तथा दरवीरे अकबरीका पृ० ५१९-५५४ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ सूरीश्वर और सम्राट्। अलावा इसके अकबर उस समय साधनहीन भी हो गया था। क्योंकि उसकी शासननीति और उसके धर्मका समर्थन करने वाले एक एक करके, सभी परलोकवासी हो गये थे। केवल अबुल्फ़ज़ल और फैज़ी के समान दो तीन व्यक्तियाँ रही थीं। उनके साथ सलीमकी पूर्ण शत्रुता थी। इसलिए उनके द्वारा कोई कार्य नहीं हो सकता था। इस तरहकी गड़बड़ी मची हुई थी ही, इतनेहीमें अकबरको एक आघात और लगा । जो फैज़ी अकबरका प्यारा था; जिसकी कविताओं पर अकबर फिदा था वही फैजी सख्त बीमार हो गया । अकबरका उस पर इतना प्रेम था कि, वह हकीमअलीको साथ १ हकीमअली गीलान (ईरान ) का रहनेवाला था। जब वह ईरानसे भारतमें आया था तब बड़ा ही गरीब और साधनहीन था। मगर थोड़े ही दिनोंमें वह अकबरका सन्माननीय मित्र होगया था । वह ई. सन् १५९६ वे में सातसौ सेनाका नायक बनाया गया था । उसको 'जालीनस उज्जमानी' का खिताब भी मिला था । बदाउनीका मत है कि; वह शीराजके निवासी फतह-उल्लाके पाससे वैद्यकशास्त्र सीखा था । वह एक धर्माध शिया था। वह ऐसा खराब वैद्य था कि उसने अनेक रोगियोंको यमधाम पहुँचा दिया था और उसने अपने गुरु फतह-उल्लाको भी इसीतरह मारडाला था । कई ऐसा भी कहते हैं कि अकबरने उसकी परीक्षा करनेके लिए कई रोगी मनुष्योंका और पशुओंका पेशाब, शीशियों में भरवाकर, उसे जाँचके लिए दिया था । उसने सबकी बराबर जाँच की थी । ई. सन् १५८० में वह बीजापुरके बादशाह अलीआदिलशाहके पास एलची बनाकर भेजा गया था। वहाँ उसका अच्छा सत्कार हुआ था। वह वहाँसे नज़रें लेकर सम्राटके पास अभी पहुँचा भी नहीं था कि आदिलशाहका अकस्मात् देहान्त होगया। अकबर जब मृत्युशय्यापर था तब वह इसी की देखरेखमें था । जहाँगीर कहता है कि, अकबरको उसीने मारा था । यह भी कहा जाता है कि, वह बहुत ही दयालु था । गरीबोंकी दवाके लिए वह प्रतिवर्ष छः हजार Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन । ३९७ लेकर स्वयमेव उसको देखने के लिए गया। फैज़ी उस समय मरणशय्या पर पड़ा था। हरेकने फैजी के बचनेकी आशा छोड़ दी थी। अबुल्फज़ल एक कमरेमें शोकग्रस्त बैठा था। बादशाह निस हकीमको ले गया था उस हकीमके इलाजसे भी कोई फायदा नहीं हुआ । अन्तमें वह ( फैजी ) इस संसारको छोड़ कर चला ही गया । अपने प्रिय कवि फैजीकी मृत्युसे अकबरको इतना दुःख हुआ कि, वह ज़ार ज़ार रोया था । इससे यह बात सहन ही समझमें आ जाती है कि, फैजी पर अकबरका कितना प्रेम था। जिस रुपये खर्च कर देता था । जहाँगीरके समयमें, जहाँगीरने उसे दोहज़री बनाया था । अन्तमें हिजरी सन् १०१८ (ई. स. १६१०) की ५ वा मुहर्रम के दिन उसका देहान्त हुआ था । देखो,-'आईन-इ-अकबरी' के प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादके पृ० ४६६-४६७ । १ फैजीका जन्म ई. सन् १५४६ में आगरेमें हुआ था। उसका नाम अबुल्फेज था । नागारके रहनेवाले शेखमुबारिकका वह ज्येष्ठ पुत्र था ! उसको अरबी भाषा, काव्यशास्त्र आर वैद्यकशास्त्रका बहुत अच्छा ज्ञान था । उसके साहित्य ज्ञानकी प्रशंसा सुनकर अकबरने ई. सन् १५६८ में उसे अपने पास बुलाया था । वह अपनी योग्यतास थोड़े हो दिनों में अकबरका सदाका सहवासी और मित्र बनगया था । सम्राट् उसे शेखजी कहकर पुकारता था। राज्यके तेतीसवें वर्षमें वह 'महाकवि' बनाया गया था। फैजीको दमका रोग होगया था और उसी रोगसे वह राज्यके ४० वे वर्षों मर गया था। कहा जाता है कि, उसने १०१ पुस्तकें लिखी थीं। वह पढ़नेका बहुत शौकीन था। जब वह मरा तब उसके पुस्तकालयमेंसे ४३०० हस्तलिखित पुस्तकें निकली थी। उन पुस्तकाको अकबरने अपने पुस्तकालयमें रक्खा था । फजी प्रारंभमें राजकुमारका शिक्षक नियत हुआ था। उसने कुछ समय तक एलचीका कार्य भी किया था । विशेषके लिए देखो,-'आईन-इ-अकबरी' के प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादके पृष्ठ ४९०-९१ तथा 'दरबारे अकबरी' पृ० ३५९-४१८. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सूरीश्वर और सम्राट्। फैजीको अकबर सन् १९६८ के पहले जानता भी नहीं था उसी फैजी पर अकबरका इतना शोक !-इतना दुःख !-इतना विलाप ! आश्चर्यकी बात है। जन्मान्तरोंके संस्कार कहाँसे कहाँ मेल मिला देते हैं ? फैजीकी मृत्युसे अकबरके हृदयमें असाधारण आघात लगा। वह यही सोचता था कि, एक ओर कुटुंब कलहकी ज्वाला जल रही है और दूसरी तरफ़ मेरे अनुयायी इस तरह एक एक करके नष्ट होते जा रहे हैं। न जाने मेरा क्या होनहार है ? अकबर अपने सिरपर आनेवाली विपत्तियोंको सहन करता हुआ रहने लगा। उसे जब जब अपने गृहकलह और स्नेहियोंकी मृत्यु याद आती तब तब वह अधीर हो उठता; उसका हृदय व्याकुल हो जाता। परन्तु वह अपने मनको बड़ी कठिनतासे समझाता और किसी काममें लगा देता। उस समय अकबरको आश्वासन देनेवाला सिर्फ एक अबुल्फज़लही रह गया था। __ यह आत ऊपर कही जा चुकी है कि, सलीम पूर्णरूपसे विद्रोही बनकर अलाहाबाद पर काबिज हो गया था और खुल्लमखुल्ला अकबरसे शत्रुता करने लगा था । पितासे तो सलीम विद्रोह करता ही था; परन्तु अबुल्फज़ल पर वह बहुत ही ज्यादा खफ़ा था । वह समझता था कि, जब तक सम्राटो पास अबुल्फजल रहेगा, तब तक सम्राटके सामने दूसरेकी एक भी न चलेगी। इसी लिए वह अबुल्फज़लको मारडालनेका प्रयत्न करता था। जिस समयकी हम बात कह रहे हैं उस समय अबुल्फ़ज़ल दक्षिणमें शान्ति स्थापन करनेके लिए गया हुआ था। इधर सलीमने बड़े जोरोंके साथ विद्रोहका झंडा खड़ा किया । अकबर घबराया। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन। उसने अबुल्फजलको लिखा कि,-वहाँका कार्य अपने पुत्रको सौंपकर तुम तत्काल ही यहाँ चले आओ। अबुल्फ़ज़ल थोडीसी सेना लेकर आगरेकी तरफ रवाना हुआ । रास्ते से उसने, न मालूम क्या सोचकर, सिर्फ थोड़ेसे सवार अपने साथ रक्खे और बाकी सेनाको वापिस भेज दिया । उन्हीं थोड़े सवारों के साथ वह आगरेकी ओर आगे बढ़ा। उधर आगरेमें रहनेवाले सलीमके पक्षके लोगोंने सलीमको ये समाचार भेजे । सलीमने अबुल्फ़ज़लको मारनेके लिए वीरसिंह नामके एक डाकूको राजी किया । यह डाकू किसी खास स्थानमें बहुत दिनोंसे उपद्रव करता था और आने जानेवाले लोगोंको लूट लेता था। उसके साथ बहुतसे आदमी थे । अबुल्फ़ज़ल जब 'राइबरार ' पहुँचा तब उसे एक फ़कीरने कहा,---" कल तुम्हें वीरसिंह डाकू मार डालेगा ! " अबुल्फ़जलने उत्तर दिया:--- "मौतसे डरना व्यर्थ है। इससे बचनेका सामर्थ्य किसमें है ?" १-यह ‘सराइ बरार' गवालियरसे १२ माइल दर एक अंतरी गाँव है उससे ३ माइल है । अंतरीम अब भी अबुल्फ़जलकी कब्र मौजूद है । २-इसका पूरा नाम वीरसिंहबुंदेला था । कुछ लेखकोंने इसका नाम नरसिंहदेव भी लिखा है । इसके पिताका नाम मधुकर बुंदेला था । और इसके बड़े भाईका नाम था रामचंद्र । सलीमका इसपर बहुत प्रेम था । सलीमने अबुल्फ़ज़लके खूनके बदलेमें इसको ओरछा इनाममें दिया था। इसने मथुरामें कई मंदिर बनवाये थे। उनमें तेतीस लाख रुपये व्यय किये थे । उन मंदिरोंको औरंगजेबने हि. सं. १०८० में नष्ट किया था। सलीमने इस लुटेरेको तीन हज़ारी बनाया था। विशेषके लिए देखो,विन्सेंट स्मिथ कृत अकबर (अंग्रेजी ) पृ. ३०५-३०७. तथा आईन. इ-अकबरीके प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादका पृ. ४८८. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । दूसरे दिन सवेरे भी वहाँसे रवाना होते समय उसे ' अफ्गान गदाईखाँने रोका था; मगर उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और वह आगे बढ़ा। थोड़ी ही दूर गया होगा कि, वीरसिंहने आकर उस पर आक्रमण किया। अबुल्फजल के थोड़े से आदमी वीरसिंहके बहुसंख्यक आदमियोंके सामने क्या कर सकते थे ? अबुल्फज़ल बड़ी वीरता के साथ लड़ा। उसके शरीर पर बारह ३६० १ अबुल्फ़ज़लका जन्म ई. सन् १५५१ (हि. स. ९५८ के मोहर्रम की छठी तारीख को ) में हुआ था । उसके पिता शेख मुबारिकने उसका नाम वही रक्खा जो उसके ( मुबारिक के ) उस्तादका नाम था । उसके पूर्वजन्म के ऐसे उत्तम संस्कार थे कि, वह वर्ष सवावर्ष की आयुमेंही बातें करने लग गया था। १५७४ में वह अकबर के दर्बारमें दाखिल हुआ था । धीरे धीरे उसकी पदवृद्धि होती गई । ई. स. १६०२ में उसको पाँच हज़ारीकी पदवी मिली । उसके शान्त स्वभाव, उसकी निष्कपटता और उसकी नमक - हलालीके कारण सम्राट् उस पर बहुत स्नेह और विश्वास करता था । अबु. ल्फ़ज़ल के दर्बारमें दाखिल होने के बाद ही अकबर की शासननीति में परिवर्तन हुआ था । अकबर की जाहोजलालीका मूल कारण अबुल्फ़ज़ल था । इस कथनमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है । सच तो यह है कि अबुल्फ़ज़ल ही अकबर के पीछे रहकर सारा राज-काज करता था । उसीने पीछेसे सम्राट के महान् कार्योंका इतिहास, एक साधारण इतिहास लेखककी तरह, लिखा था । यह कहना जरूरी है कि, यदि अबुल्फ़ज़लने अकबरका इतिहास न लिखा होता तो अकबरकी इतनी कीर्ति भी शायद न फैलती । अकबर और अबुल्फ़ज़लका संबंध इतना घनिष्ट हो गया कि, अकबर के विचार ही अबुल्फ़ज़लक विचार और अबुल्फ़ज़ल के विचार ही अकबर के विचार माने जाते थे । दोनों कोई भेद न था । दर्बारमें सभी धर्मोक विद्वानोंको जमा करनेका प्रस्ताव भी अबुल्फज़लने ही किया था । क्योंकि वह पहिलेही से ज्ञान और सत्यका जिज्ञासु था । अकबर के राज्याशासन में और धर्मकार्यों में अबुल्फ़ज़लही की चलती थी । इसी ईर्षासे सलीमने उसका खून कराया था । सलीमने अपनी डायरीमें इस बातको स्वीकार किया है। प्रो. आज़ादने तो यहाँ तक लिखा है कि, अबुल्फज़लने सम्राट्का मन अपनी और इतना आकर्षित Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शख अबुल फजल. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेष जीवन । जस्म लगे तो भी वह लड़ता रहा । अन्तमें पीछेसे एक सवारने आकर उसकी पीठमें भाला मारा । भाला पीठ फोड़कर आगे निकल आया । अबुल्फ़ज़ल घोड़ेसे गिर पड़ा। एक दूसरे आदमीने आकर उसका शिर काट डाला। ई. सन् १६०२ के अगस्तकी १२ वीं तारीखके दिन उसकी मृत्यु हुई। यह है शत्रुताका परिणाम ! बस अकबरका बचा हुआ एक अनुयायी, सच्चा सलाहकार संसारसे चल बसा । उदार मुसलमानोंने सच्चा तत्त्वज्ञानी खोया और हिन्दुओंने अपना वास्तविक विधर्मी प्रशंसक गुमाया। निस समय अबुल्फ़ज़लका मस्तक हाथमे लेकर सलीम प्रसन्न हो रहा था उस समय अकबरके समस्त राज्यमें शोक छा रहा था। अबुल्फजल मारा गया मगर उसकी मृत्युके समाचार अकबरके पास लेकर कौन जाय ! सम्राट् जिसको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय समझता था और हृदयसे जिसपर श्रद्धा रखता था उसीकी मृत्युके समाचार सम्राटके पास पहुँचानेकी हिम्मत कौन करे ? अन्तमें सदाकी रीतिके अनुसार अबुल्फ़ज़लका वकील काले रंगका कपड़ा कमरमें बाँधकर दीनभावसे सम्राट्के सामने जा खड़ा हुआ । अबुल्फ़ज़लके वकीलको इस दशामें आया देख सम्राट् जार ज़ार रोने लगे । उनकी आँखोंसे जलधारा बह चली । उनका हृदय विदीर्ण होने लगा । उस समय सम्राटको जितना शोक हुआ उतना शोक • कर लिया था कि, अकबर प्रत्येक विषयमें उसकी सम्मतिके अनुसार ही सारे काम करता था । संक्षेपमें कहें तो अबुल्फज़ल अकबरका दारी, सलाहकार, विश्वस्त, सबसे बड़ा मंत्री, दर्बारी घटनाओंकी याददाश्त लिखनेवाला और दीवानी महकमेका हाकिम था । इतना ही नहीं वह अकबरकी जिव्हा और बुद्धिमानी था । विशेषके लिए देखो,-' जर्नल ऑव द पंजाब हिस्टोरिकल सोसायटी ' वॉ. १ ला, पृ. ३१ तथा ' दोरे अकबरी' पृ. ४६३-५१६. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सूरीश्वर और सम्राट् । शायद पुत्रकी मृत्युसे भी न होता । कई दिनों तक वह न किसीसे मिला और न उसने कोई राज्यका कामकाज ही किया। वह केवल बंधु-वियोगके दुःखमें निमग्न रहा। दूसरी तरफ जिन मुसलमानोंने सलीमको ये समाचार दिये थे कि, अबुल्फजल आगरे आ रहा है उन्हें यह भय लगा की सम्राटको यदि इस बातकी खबर हो जायगी तो वह हमारी जिन्दा चामड़ी खिंचवा लेगा; इससे उन्होंने यह प्रसिद्ध किया कि सलीमने राज्यके लोभसे अबुल्फ़ज़लको मरवा डाला है। सम्राट्ने यह बात सुनी एक दीर्घ निःश्वास डाली और कहा:-" हाय सलीम! तूने यह १. क्या किया ? यदि तू सम्राट् होना चाहता है तो मुझे न मारकर अबुल्फ़ज़लको क्यों मारा ?" अस्तु, सम्राट्ने सलीमको राज्यगद्दी नहीं देनेका निश्चय किया, और अबुल्फज़लके पुत्रको तथा राजा राजसिंह और १ राजा राजसिंह राजा आसकरण कछवाहका पुत्र था । राजा आसकरण राजा बिहारीमलका भाई था । राजसिंहको उसके पिताकी मृत्युके बाद 'राजा' की पदवी मिली थी । उसने बहुत बरस तक दक्षिणमें नौकरी की थी । राज्यके ४४ वे बरसमें वह दर्बारमें बुलाया गया था। दर्बारमें आते ही वह गवालियरका सूबेदार बनाया गया था। राज्यके ४५ वें बरसमें अर्थात् ई. सन् १६०० में वह शाही सेनामें शामिल हुआ था । यह वह सेना थी कि जिसने 'आसीर' के किलेपर आक्रमण किया था। वीरसिंहके साथ युद्ध करनेमें उसने अच्छी वीरता दिखलाई थी, इसलिए ई. सन् १६०५ में वह चार हजारी बनाया गया था । जहाँगीर (सलीम ) के राज्यके तीसरे बरसमें उसने दक्षिणमें कार्य किया था । वहीं ई. सन् १६१५ में उसकी मृत्यु हुई थी । विशेषके लिए देखो 'आइन-ई-अकबरी' के पहले भागका अंग्रेजी अनुवाद पृ० ४५८. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेष जीवन। रायरायानपत्रदासको फोन देकर रवाना किया और उन्हें कह दिया कि,-" वीरसिंहका मस्तक मेरे सामने उपस्थित करो ।" ____ मुगलसेनाने जाकर वीरसिंहको घेर लिया । यद्यपि अकबरकी आज्ञाके अनुसार कोई वीरसिंहका मस्तक न लेजा सका तथापि उन लोगोंने उसका सर्वस्व जरूर लूट लिया । वीरसिंह ज़ख्मी होकर कहीं भाग गया। कौन न कहेगा कि अकबर तब आत्मीय-पुरुष-विहीन हो गया था ? यद्यपि उसके पास लाखों आज्ञापालक मनुष्य थे और शस्त्रास्त्र एवं धन सम्पत्तिसे उसका खजाना पूर्ण था तथापि उन आत्मीयपुरुषोंका उसके वहाँ अभाव था जिनकी सहायतासे उसने विशाल साम्राज्य स्थापित किया था और कठिन समयमें जिनसे सहायता मिलती थी । अखूट धन दौलत और विस्तृत अधिकारके होते हुए भी अकबरकी अवनतिके चिह्न दिखाई देने लगे। या यह कहिए कि उसकी अवनतिका पर्दा उठकर, प्रथम अंक प्रारंभ हो गया था । १ यह विक्रमादित्यके नामसे प्रसिद्ध था । जातिका खत्री था। अकबरके राज्यके प्रारंभमें फीलखानेका मुशरफ ( Head Clerk ) था । ' रायरायान' इसकी पदवी थी। ई. सन् १५६८ में चित्तौड़के आक्रमणमें वह प्रसिद्ध हुआ था । ई. सन् १५७९ में वह और मीर अधम दोनों बंगालके संयुक्त दीवान बनाये गये थे। सन् १६०१ ई. में उसे तीन हज़ारीका पद मिला था । सन् १६०२ में वह वापिस दर्बारमें बुलाया गया और सन् १६०४ ई. में वह पाँच हजारी बनाया गया। उस समय उसे 'राजा विक्रमादित्य' की पदवी मिली । जहाँगीर गद्दी पर बैठा उसके बाद वह 'मीर आतश' बनाया गया और यह हुक्म दिया गया कि वह पचास हजार गोलन्दाज और तीन हज़ार तोपगाड़ियाँ हर समय तैयार रक्खे । उसके निर्वाह के लिए पन्द्रह जिले अलग रक्खे गये । विशेषके लिए देखो 'आइन-ई-अकबरी' के प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद. १० ४६९-४४०. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । एक और आत्मीयपुरुषोंका अभाव और दूसरी तरफ पुत्रका विद्रोह; ऐसी स्थितिमें अकबरका धैर्य छूट जाय और उसके हाथ पैर ढीले पड़जायँ तो इसमें आश्चर्यकी कौनसी बात है ! उस समय सुप्रसिद्ध राजा बीरबल भी न रहा था कि जो हास्यरसका फव्वारा छोड़कर १ राजा बीरबल ब्रह्मभट्ट था । उसका नाम महेशदास था । प्रारंभमें उसकी स्थिति बहुत ही खराब थी; परन्तु बुद्धि बहुत प्रबल थी। बदाउनीके कथनानुसार,-अकबर जब गद्दी पर बैठा तब वह कालपीसे आकर दर्बारमें दाखिल हुआ था । वहाँ वह अपनी प्रतिभासे सम्राट्को अपना महरवान बना सका था । उसकी हिन्दी कविताओंकी प्रशंसा होने लगी । सम्राट्ने प्रसन्न होकर उसे ' कविराय' की पदवी दी और हमेशाके लिए अपने पास रख लिया। ई. सन् १५७३ में उसे 'राजा बीरबल ' की पदवी और नगरकोट जागीर में मिला । ई. सन् १५८९ में जैनखाँ कोका बाजोड और स्वादके यूसफजई लोगोंके साथ युद्ध कर रहा था। उस समय उसने और मदद मांगी थी । इससे हकीम अबुल्फ़तह और बीरबल सहायताके लिए भेजे गये थे। कहाजाता है कि, अकबरने बीरबल और अबुल्फज़ल दोनोंके नामकी चिट्टियाँ डाली थीं। चिट्ठी बीरबलके नामकी निकली । इसलिए इच्छा न होते हुए भी बीरबलको सम्राट्ने रवाना किया । इसी लडाइमें बीरबल ८००० आदमियों के साथ मारा गया था । बीरबलकी मृत्युके बाद यह बात भी फैली थी कि, वह अबतक जिन्दा है और नगरकोटकी घाटियोंमें भटकता फिरता है । अकबरने यह सोचकर इस बातको सही माना कि लड़ाई में हारनेके कारण वह यहाँ आते शर्माता होगा अथवा वह संसारसे पहले ही विरक्त रहता था, इसलिए, अब वह योगियोंके साथ हो लिया होगा । अकबरने एक ' एहदी' को भेजकर नगरकोटकी घाटियोंमें बीरबलकी खोज कराई। मगर वह कहीं न मिला। इससे यह स्थिर होगया कि, बीरबल मारा गया है। बीरबल अपनी स्वाधीनता, संगीतविद्या और कवित्व शक्ति के लिए विशेष प्रसिद्ध हुआ था। उसकी कविताएँ और उसके लतीफे लोगोंको आज भी याद हैं । विशेषके लिए देखो,-' आइन-ई-अकबरी' के प्रथम भागका अंग्रेजी अनुबाद, पृ. ४०४-४०५ तथा ' दारे भकबले' पृ० २९५-३१०. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटका शेष जीवन। अकबरको प्रसन्न करता और उसकी सारी चिन्ताओंको दूर कर देता। वह मी ई. सन् १९८६ में जैनखाँके साथ पहाड़ी लोगोंको परास्त करने गया था और वहीं मारा गया था। अकवर विशेष घबराने लगा और सोचने लगा कि, मेरा अब क्या होगा ? __कहावत है कि,-' अंत मुखी तो सदा सुखी । अन्तिम समयमें सुखके साधन मिलने बहुत ही कठिन हैं। अकबरके समान सम्राटके ऊपर अन्त समयमें जो दुःख पड़े उनका वर्णन जब पढ़ते हैं तब हृदयसे यह प्रार्थना निकले बिना नहीं रहती कि,-प्रभो । हमारे शत्रुको भी कभी ऐसा दुःख न हो। जिस सम्राटके वहाँ किसी बातकी कमी न थी; जिस सम्राटके लिए दुःखकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, उसी सम्राटकी यह दशा ! जैसे जैसे अकबरकी अन्तिम अवस्था निकट आती गई, वैसे ही वैसे उसके सिरपर विपत्तियों के बादल भी सघन होने लगे। मानसिक दुश्चिन्ताओंसे उसका मन व्याकुल रहने लगा। उसके सलाहकार, सहायक सब चल बसे थे, तीन पुत्रोंमेंसे एक,-मुराद शराबमें ही डूबा रहकर मर चुका था; दूसरा दानियाल भी उसे कलंकित करनेवाला ही था । वह इतना शराबी और व्यभिचारी हो गया था कि, लोग उससे घबरा उठे थे। उसको सुधारनेका सम्राट्ने बहुत प्रयत्न कियायहाँ तक की उसको शराब पीलाने वालेके लिए प्राणदंडकी आज्ञाका हुक्मनामा जारी किया तो भी उसका शराब पीना बंद न हुआ । वह अपनी 'मृत्यु' नामकी बंदूकमें शराब मँगवा मँगवाकर पीने लगा। आखिर इसीमें उसके प्राण पखेरू उड़ गये । तीसरा सलीम ही रह गया । अकबरका उत्तराधिकारी अब केवल सलीम ही रह गया। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । मगर इस बातको सभी जानते थे कि, सलीम अकबरका पूरा विरोधी है; वह विद्रोही बनकर ही अलाहाबादमें रहता था। अकबर रातदिनकी चिन्ताओंसे दुर्वल होने लगा, उसका शरीर सुखने लगा। अकबरकी बेगम सलीमाबेगम पिता पुत्रमें मेल करानेकी इच्छासे अलाहाबाद गई, और सलीमको समझाकर आगरे लाई। सम्राटकी माताने दोनोंको समझाकर पिता पुत्रमें प्रेम कराया। उदार सम्राट्ने सलीमका अपराध क्षमा किया। परस्पर अमूल्य वस्तुकी लेन-देन हुई। फिर जब सलीम अलाहाबाद जाने लगा तब अकबरने कहा:-- " जब इच्छा हो तब आना" सलीम भी अपने दो भाइयोंसे किसी तरह कम दुश्चरित्र और शराबी न था । और जबसे वह स्वाधीन होकर अलाहाबाद रहने लगा था तबसे तो उसने बेलगाम होजानेसे हद ही कर दी थी। अकबर एक बार उसे समझानेके लिए अलाहाबाद जाने लगा था; परन्तु रस्तेहीमें उसे अपनी माताकी बीमारीके समाचार मिले, इसलिए वह वापिस आगरे लौट आया। उस समय उसकी माताका रोग दुःसाध्य हो गया था; जीम बंद हो गई थी। सिर्फ श्वासोच्छ्रास चल रहे थे। अकबर रोने लगा; आखिर वे भी बंद हो गये। सम्राटकी माताने इस मानवदेहका त्याग कर दिया। अकबरको बार बार जो आघात लग रहे थे उनकी वेदनाको वह माताके आश्वासनसे भूल जाता था। आज वह आश्वासन भी जाता रहा । अकबरको उदरामयका रोग भी उसी समय हो गया। पहले आठ दिन तक तो उसने कोई दवा न ली; मगर पीछे से लेने लगा। चतुर हकीमोंने बहुत इलाज किया, मगर फायदा किसीसे कुछ भी नहीं हुआ। रोग बढ़ता ही गया । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेष जीवन । सलीम और उसका पुत्र खुसरो भी सिंहासनकी आशासे आगरे आ गये । उस समय अकबर की बीमारीमें सम्राट्का धातृ-पुत्र खाने आज़म अज़ीज़ कोका' राजका काम करता था। वह खुसरोका ससुर भी होता था । जनताका बहुत बड़ा भाग सलीमके दुश्चरित्रसे परिचित था । इससे वह खुसरोको गद्दीपर बिठाना चाहता था । ' अजीजकोका' ने जब यह प्रस्ताव सभा रक्खा, तब कई मुसलमान हर्मचारियों ने उसका विरोध किया; क्योंकि वे सलीमको चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि, अज़ीज़कोका और राजा मानसिंहने अपना विचार बदल दिया, इच्छा न होते हुए भी सलीमको गद्दीपर बिठाने का निश्चय किया। उदरामयके रोगसे पीडित सम्राट् भारतकी दुर्दशाका विचार करता हुआ पलंगपर लेट रहा था । उसके चारों तरफ राज्यके कर्मचारी और निपुण हकीम उदास बैठे थे। उस दिन सन् १६०५ ईस्वीके १५ अक्टोबरका दिन था। समस्त आगरेमें उदासी थी। लोगोंके मुखों और दिशाओं का नूर उतरा हुआ था । अकबरके कमरेमें अनेक आदमी चुपचाप बैठे भारतकी भावी दशाका विचार कर रहे थे। उसी समय एक युवकने, अनेक मुसलमानोंके साथ प्रवेशकर, अकबरके चरणों में सिर रख दिया। यह सलीम था । सलीमके पत्थरले हृदय में आखिरी वक्त पिताकी दशासे करुणाका संचार हुआ। पिताके दुःखसे उसका हृदय भर आया; उसका कंठ बहुत देरतक रुद्ध रहा । फिर वह जारज़ार रोने लगा। वाहरे पितृ स्नेह ! तू भी अजब हैं । जो राज्यके लोभसे एक दिन पिताकी हत्या करनेको तैयार था वही आन पिताके, अनायास, चलेजानेकी आशंकासे ज़ारज़ार रोरहा है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सूरीश्वर और सम्राट् । सम्राट्ने एक मनुष्यको आज्ञा दी,-" मेरी तलवार, राजकीय पोषाक और राजमुकुट सलीमको दो।" वाह ! सम्राट् तेरी उदारता ! पुत्रके, प्राणान्त कष्ट देनेवाले सब अपराधोंको भूलकर प्रसन्नतासे उसको राज्यगद्दी दी। अकबरको चेत था उस अवस्थाहीमें सलीमको तीनों वस्तुएँ सोंप दी गई। सम्राट् मानों इसी कार्यकी बाट जोह रहा था । इसके समाप्त होते ही वह सबसे अपने आराधोंकी क्षमा माँगकर, भारतको शोकसागरमें डुबाकर चल बसा । देशका दुर्भाग्य लोट आया; चारों तरफ हाहाकार मच गया। भारतको दुःखके सागरले बचानेवाला, देशकी दशाको उच्च स्थितिमें लानेवाला, भारत का दूसरा सूर्य भी अस्ताचलमें जा बैठा; भारत में पुनः अंधकाशच्छन्न होगया। अकबरका जीवनहंस संसार सरोवर से उड़ गया; पचास वर्षके अपने शासनकालमें वह अनेक आशाएं पूरी कर, अनेक अधूरी रख चल बसा । दूसरे दिन सबेरे ही उसके स्थूल शरीरको लोग बड़ी धूम वामके साथ, मुसलमानी रिवाजके अनुप्लार, शहरसे बाहर ले गये। सलीम और उसके तीन लड़कोंने अस्थीको उठाया; किलेके बाहिरतक वे उसे लाये । उसके बाद दर्बारी और अधिकारी लोग उसे 'सिकंदरा' में ले गये। यह आगरेसे चार माइल दूर है। बहुतसे हिन्दु और मुसलमान सिकन्दरातक साथ साथ गये थे। वहाँ सम्राट्का स्थूल शरीर सदाके लिए भारतमाताकी पवित्रगोदमें समर्पण किया गया। पीछेसे सम्राट् जहाँगीरने उस स्थानपर--जहाँ अकबरका शव गाडा गया था-एक आदर्श समाधि बनवाकर सदाके लिए अकबरका मूर्तिमान कीर्तिस्तंम स्थापित करदिया । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट्का शेषजीवन। अकबर एक मुसलमान सम्राट् था तो भी उसकी प्रशंसा केवल हिन्दुमुसलमान ही नहीं बरके युरोपिअन विद्वान लोग भी करते हैं। इस बातका हम कई बार उल्लेख कर चुके हैं। वह प्रशंसापात्र क्यों बना ! इसका मुख्य कारण है उसकी उदार राजनीति । उसने प्रनाका कल्याण सामने रखकर ही राज्यतंत्र चलाया था; इसीलिए आजतक विद्वान उसकी मुक्तकंठसे प्रशंसा करते आरहे हैं। उसमें धर्मान्धता और निरर्थक विरुद्धाचरणकी आदत न थी, इसीलिए कई लेखकोंने तो उसे अन्य सब राजाओंकी अपेक्षा उच्च कक्षामें रक्खा है। भारतवर्षके राजाओंका इतिहास पढ़ो । उससे मालूम होगा कि, प्रायः मुसलमान बादशाहोंने हिन्दुओं, जैनों और बौद्धों पर जुल्म किया है। इसी प्रकार अनेक हिन्दु राजाओं ने भी मुसलमानों या अन्य धर्मवालोंको सतानेमें कोई कसर नहीं रक्खी। मगर अकबर ही ऐसा था कि, जिसने धर्म या जातिका खयाल न करके सभीको समान दृष्टिसे देखा है और सबका एकसा न्याय किया है । इस बातको अबतकके प्रकरण अच्छी तरह प्रमाणित कर चुके हैं। __ ऐसी राज्यनीतिवाले सम्राट्की सभी प्रशंसा करें तो इसमें आश्चर्यकी बात कौनसी है ! इस प्रकारकी राजनीति उसने रक्खी इसका कारण,-वह समझता था कि प्रजाकी भलाइमें ही राजाकी भलाई है । ' अकबरने अपनी इस उदार राज्यपद्धतिका आन्तरिक संगठन ऐसा दृढ किया था कि उसका प्रभाव चिरकालतक रहा था । यदि यह कहें कि, अबतक चला आ रहा है तो भी अनुचित न होगा । इस संबंधमें अनेक लेखकोंने बहुत कुछ लिखा है। मगर उन सबके उद्गार न लिख केवल पिंगल केनेडी (Pringle Kennedy) नामके विद्वान्ने ' अपने ग्रंथ 'द हिस्ट्री ऑव द ग्रेट मोगल्स । 47 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट् । ( The History of the Great Moghuls ) के प्रथम मागके ३११ वें पेजमें जो उद्धार निकले हैं उनको उद्धृतकर, इस प्रकरणके साथ ही इस ग्रंथको भी हम समाप्त करेंगे । वह लिखता है,-- " That each persons should be taxed according to his ability, that there should be shown no exemption or favour as regards this, that equal justice should be meted out and external foes kept at bay, that cvery man should be at liberty to believe what he pleases without any interference by the State with his conscience; Such are the principles upon which the British Government in India rests, and such are its real boast and strength. But all these principles were those of Akbar, and to him remains the undying glory of having been the first in Hindustan to put them into practice. These rules now underlie all modern Western States, but for even of such States can boast that these priciples are as thoroughly carried out by them in this the twentieth century, as they were by Akbar himself more than three hundred years ago. " “प्रत्येक मनुष्यसे उसकी शक्ति के अनुसार ही ' कर ! लेना चाहिए । इस विषयमें न किसी कृपा दिखानी चाहिए और न कितीको मुक्त ही करना चाहिए । प्रत्येकका न्याय समान दृष्टिसे करना चाहिए और हरेकको उसकी इच्छानुसार, धर्म या सिद्धांत, माननेकी स्वाधीनता देनी चाहिए। इन तत्त्वोंपर ही भारतमें ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित हुआ है और ये तत्त्व ही उसके (ब्रिटिश साम्राज्यकी ) वास्तविक अभिमान और बलके कारण हैं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राटका शेषनीवन । मगर ये सभी तत्त्व अकबरके हैं और इन तत्त्वोंको भारतमें व्यवहृत करनेका अमर यश उसीको है। आधुनिक समयमें समस्त पाश्चात्य राज्योंमें ये नियम हैं; परन्तु उनमें से बहुत ही कम राज्य सामिमान यह कह सकते हैं कि,--अकबरने तीनसौ वर्ष पहले जिस तरह इन नियमोंको पाला था, उसी तरह सम्पूर्णतया इस बीसवींसदीमें हम पाळ CANCE समाप्त. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ QQ00000000 TRETE I en $000000000 a Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ TET STATIST TIHI | در استان گیر زمان خلال اور محمداکبربادشاه عاری نشان عالیشان با امارات اصلی اعتضادالمالك العطبراعتها الخلاقة الكيرن ذوالجمال الوضہ والشمائلا؛ بمنير ركن السلطنة القاهع مرتم الدولة الباه مورد العتابات السلطان منظور الانظار الخاقاني ماء النضا بالصور والكالات المعوم تروجوان ن اعظم خان بوقرر الطنان والعطلات روزافزون بارشا و سرنا متقارنات مباشر کچون همگی همت علي انهت مصروف آسنت که جميع طوایف امام طبقات عالم المختلفين مشارب ومتباثنين مذاهب ومنيوعر مال ومتخالفين نخل ارترين ووضع وكبر رصيني . وغني وفقر ودانا وباطن كه هركدام ازانها مظهر تجليات خاص حق ومصدر ظهور تقارب جهان ازین است و از ورابع برابع ابروانتظام بخش در طریق است خود ثابت قدم برده مرة . الحال وفارغ خاطر مهات عادت ومهام عادت و سایر مطالب خوداشتغال داشته دراوستا واستدامت توفيق مارا از راهب متعال وكرم مفصال مسبلت نماینده حکمت بالغہ در مردي از ابزار آدم منصب فرمان روليت وانا سروري طبقات داردانت كشفت عام ورانت مطلقہ راکم بر تو نیست از ظل رحمت بالغرايزري بشواي خود ساختہ اکبرلت سرای محبت كل نتواند سيد باري بامرنجابي مع كل منزلها استفاده باجيع عبادالمرسلو مهربانان وطريق شفقانه بیش کرد در موجودات خداست که نتایج ایجادعنا نهاد حضرت وجربو جودت نظر معان انداخت معاريت مقصد مشارب بنان نابر تارتن ار ضعیف کوتاه بور، هرکدام مسروردل و مبتهج باطن باشند باعا هذا نمودن وكثرت ریاضت رخداطلي عمره مرتاضان هرچی سورسيون وتابعان طرفته اوکه سرولات دریافته اند معلمان درکاه اند حکم شد که هیچ احدی از سکنه آن دیار احم احوال نما نشور ورود و مساکن ایشان که دپورها وربوسالهای ایشان با کسی فرد نباید واطات بانيان مرصاد والارات روخانه نهاده باشد با ویران شد باشد راز معتقدان و محبان ايشان با ساير صاحبجريوات نمونه عمان تنها دوچنانچہ کرو بالا که دمرتغامر بالاساس عداتها هيج أخري طاهر ومتعب و خدانشناسان امسال بارز وامثال آنرا که کار است زنانه و نامعاملار بانسون دانسته نسبت باين نامادران خداشناس منا مندرانواع آزار میرساند مارکر مالی امور درمان ملیت ایالت اوكر انهن هوشندان سعادت مسنات نشود رهبان مسموع شکر حاج حبيبات قابت بخاطر قدس اندبازارکل ک روش متل ومراسنا ہے انا مقدری میداند آزاری با شجاع رسا کر انتظام بخش عام استکان آه ای که اینان ازان مالك جزدار باشد که می امد کر کے ستم نتواند کرد طريق جميع حكام وولات حال واستقبال جميع متصدیان است که حمل بار شاه را کر مرجان من المرات عروة الوثناء صلاح خال خود دانستہ غلنا را وسعادت دين ودنيا وآب روي صور ومعني درامتنا راشد با سیدکه این فرمان را مطالعه غوره کول آنرا برداشتم درا لانتاناند تا همواره ندایشان برده در عادات خود متوزع باشند ر تاریخ در خرداد ود خدا پرستی سرکرمي ماند در عین دانست ششم ازارما ، الهی 3 مطابق ۲۸ مهر بارم الحرام - Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ دیوار کرمان اموالممل باترابا هجن C مرا مزاحلامنا फरमान नं. १ की दूसरी बाजु Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAA परिशिष्ट क. परिशिष्ट ( क ) फर्मान नं. १ का अनुवाद | अल्लाहो अकबर | जलालुद्दीन महम्मद अकबर बादशाह गाज़ीका फर्मान । अल्लाहो अकबरकी मुहर के साथ नकुल मुताबिक असल फर्मानके है । ३७५ महान राज्यके सहायक, महान् राज्यके वफादार, श्रेष्ठ स्वभाव और उत्तम गुणवाले, अजित राज्यको दृढ बनानेवाले, श्रेष्ठ राज्यके विश्वासभाजन, शाहीकृपापात्र, बादशाहद्वारा पसंद किये गये और ऊँचे दर्जेके खानोंके नमूने स्वरूप ' मुबारिज्जुदीन ' ( धर्मवीर ) आज़म खान ने बादशाही महरबानीयाँ और बख्शिशोंकी बढ़तीसे, श्रेष्ठताका मान प्राप्तकर जानना कि भिन्न भिन्न रीति-रिवाजवाले, भिन्न धर्मवाले, विशेष मतवाले और जुदा पंथवाले, सभ्य या असभ्य, छोटे या मोटे, राजा या रंक, बुद्धिमान या मूर्ख - दुनियाके हरेक दर्जे या जातिके लोग, कि जिनमेंका प्रत्येक व्यक्ति खुदाईनूर जहूर में आनेका, - प्रकट होनेका - स्थान हैं और दुनियाको बनानेवालोंके द्वारा निर्मित भाग्यके उदय में आनेकी असल जगह है; एवं सृष्टि संचालक ( ईश्वर ) की आश्चर्यपूर्ण अमानत हैं, अपने अपने श्रेष्ठमार्ग में दृढ रहकर, तन और मनका सुख भोगकर, प्रार्थनाओं और नित्यक्रिया में एवं अपने ध्येय पूर्ण करने में लगे रहकर, श्रेष्ठ बख्शिशें देनेवाले (ईश्वर) से दुआ - प्रार्थना करे कि, वह (ईश्वर) हमें दीर्घायु और Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। उत्तम काम करनेकी सुमति दे। कारण,-मनुष्यजातिमेंसे एकको राजाके दर्जेतक ऊँचा चढ़ाने और उसे सर्दारकी पोशाक पहनानेमें पूरी बुद्धिमानी यह है कि वह ( राजा ) यदि सामान्य कृपा और अत्यंत दया को-जो परमेश्वरकी सम्पूर्ण दयाका प्रकाश है-अपने सामने रखकर सबसे मित्रता न कर सके, तो कमसे कम सबके साथ सुळेह-मेलकी नींव डाले और पूज्य व्यक्तिके (परमेश्वरके) सभी बंदोंके साथ महरबानी, मुहब्बत और दया करे तथा ईश्वरकी पैदा की हुई सब चीज़ों ( सब प्राणियों) को-जो महान् परमेश्वरकी सृष्टिके फल हैं-मदद करनेका ख्याल रक्खे एवं उनके हेतुओंको सफल करनेमें और उनके रीति-रिवाजोंको अमल में लाने के लिए मदद करे कि जिससे बलवान् गरीबपर जुल्म न कर सके और हरेक मनुष्य प्रसन्न और सुखी हो। इससे, योगाभ्यास करनेवालोंमें श्रेष्ठ हीरविजयमूरि 'सेवडी' और उनके धर्मके माननेवालोंकी-जिन्होंने हमारे दर्बारमें हाज़िर होनेकी इज्जत पाई है और जो हमारे दर्वारके सच्चे हितेच्छु हैं-योगाभ्यासकी सचाई, वृद्धि और ईश्वरकी शोधपर नजर रखकर हुक्म हुआ कि, उस शहरके ( उस तरफ़के ) रहनेवालों से कोई भी इनको हरकत ( कष्ट ) न पहुँचावे और इनके मंदिरों तथा उपाश्रयोंमें भी कोई न उतरे । इसी तरह इनका कोई तिरस्कार भी न करे । यदि उनमेंसे ( मंदिरों या उपाश्रयों मेंले ) कुछ गिर गया या उजड़ गया १ श्वेतांबर जैनसाधुओंके लिए संस्कृतमें 'श्वेतपट' शब्द है । उसीका अपभ्रंश भाषामें · सेवड' रूप होता है । वही रूप विशेष बिगड़कर 'सेवड़ा' हुआ है। सेवड़ा' शब्दका उपयोग दो तरहसे होता है । जैनोंके लिए और जैनसाधुओंके लिए । अब भी मुसलमान आदि कई लोग प्रायः जैनसाधुओंको सेवदा ही कहते हैं । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (क ) ३७७ हो और उनको मानने, चाहने खैरात करनेवालोंमें से कोई उसे सुधारना या उसकी नींव डालना चाहता हो तो उसे कोई बाह्य ज्ञानवाला ( अज्ञानी ) या धर्मांध न रोके । और जिस तरह खुदाको नहीं पहचाननेवाले, बारिश रोकने' और ऐसे ही दूसरे काम को करना - जिनका करना केवल परमात्मा के हाथमें है-भूर्खतासे, जादू समझ, उसका अपराध उन बेचारे खुट्टाको पहचानने वालोंपर लगाते हैं और उन्हें अनेक तरहके दुःख देते हैं । ऐसे काम तुम्हारे साये और बन्दोबस्त में नहीं होने चाहिए; क्योंकि हम नाले और होशियार हो । यह भी सुना गया है कि, हामी वाहने जो हमारी सत्यकी शोष और ईश्वरीय पहचान के लिए थोड़ी रखता है - इस जमातको कष्ट पहुँचाया है। इससे हमारे पवित्र मनको-जो दुनियाका बंदोबस्त करनेवाला है - बहुत ही बुरा लगा है। इसलिए तुम्हें इस बात की पूरी होशियारी रखनी चाहिए कि तुम्हारे शान्तमें कोई किसीपर जुल्म न कर सके | उस तरफ मौजा और भविष्य होनेवाले हाकिम, नवाब या सरकारी छोटासे होटा काम करनेवाले अहलकारों के लिए भी यह नियम है कि, वे राजाकी बाजाको विरकी आज्ञाका रूपान्तर समझें, उसे अपनी हालत सुधारने सीमा और उसके विरुद्ध न चले; राजाज्ञा के अनुसार चलनेहीमें दीन और दुनियाका सुख एवं प्रत्यक्ष सम्मान समझें । यह कुर्मा पदक नकुल रख, उनको दे दिया जाय जिससे सटाके लिए उनके पास रहे; वे अपनी भक्ति की क्रियाएँ करने में चिन्तित न हो और ईश्वरोपासना में उत्साह रक्खें। इसको फर्ज रामदा इसके विरुद्ध कुछ न होने देना । १ देखो पेज ३१, ३२ इसी पुस्तके | २ इसी पुस्तक पृष्ठ १९० - १९४ वे में और 'अकबरनामाके' तीसरे भागके बेवरीज कृत अंग्रेजी अनुवादके ५. २०७ में इसका हाल देखो ! 48 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ सूरीश्वर और सम्राट्। इलाही संवत् ३५ अज़ार महीने की छठी तारीख और खुरदाद नामके रोज़ यह लिखा गया । मुताबिक तारीख २८ वीं मुहर्रम सन् ९९९ हिजरी । मुरीदों ( अनुयायियों ) मेंसे नम्रातिनम्र अबुल्फज़लंने लिखा और इब्राहीमहुसेनने नोंध की । नकल मुताबिक असलके है। १ अबुल्फ़ज़ल अपने नामके पहले मुरीद विशेषण इसलिए लगाता है कि, वह अकबरके धर्मका अनुयायी था। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ are at:arrl #trr| کے مطاء ابوتنسانان ده نان لبنان مانتاصل دین وتانعالین وب به : معان : ممدربانت. حيك، وحانی در کران حال واستقبال و متصدیان مماء مزرخت درکا سروج رمان عالیشان سعال فشار درباره دورتين کارابینز وماله مطلنارجه وفرم): حررونری برین زد ر م ان عالیان طزرت کرده را جز روزبرجرجنان نکند انجام واجبات ومقر مذمت رانندرجا بزنین کرجانز درختان آشیان براندازم دخيلفاخرین بازداشت احتلزمام ومحظ مالکام با پند ودون ان الازعان نيه كرنظر جیتے وکشتات وخراطلے عدة مرتاضان بيس مطبعن حرکیسریرتابان طرت اوکر مرد ملازمتان لند دیانتا معلمان در ایده معابد ومساکن ایسا نکاوی دیوسالهای ایشان باشد کے ردنا دواهان ایشان اند وكان بقاع روحان حاده باشد رانمعتدلزدحيان انسان سایز صاحب یا مخترباشد که برای رویا اساستخدات چمدظاهرين ومعصوره نما:سنابدجنة گروه ازعران شناسان امسال این کار استانمانیک جامعاملرلة يانسون وطلانتسبت اننامرادنه میاندوانواع انام برساند دزئی وطن خورک میکند فانت میکردند مطلٹ سامنالكم اموربان نامادان تکه کدابندکر باغ خاط بإرتاحزر برده باد اشتغال نمایندوطريق دمر خود را می توان باستندبايح الرمان عالیشان علزمان کی ایندکرجیب ترین جمعی بیا کی واحد اینترانکو درعين داستان تردد در دولت ابن قرملة التالية دغه شم بریاراتی مانند منانا Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. مخمر : انا من المال من الاتصالات می و ز نیوز کرمان در زمانیان میشود ارگاه کارون برد फरमान नं. २ की दूसरी बाजु Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ख) परिशिष्ट (ख) फर्मान नं. २ का अनुवाद । अल्लाहो अकबर । अबु-अलमुज़फ्फर सुल्तान............का हुक्म. ऊँचे दर्जेके निशानकी नकल असलके मुताबिक है। इस वक्त ऊँचे दर्जेवाले निशानको बादशाही महरबानीसे बाहर निकलनेका सम्मान मिला (है) कि,-मौजूदा और भविष्यके हाकिमों, जागीरदारों, करोडियों और गुजरात सूबेके तथा सोरठ सरकारके मुसदियोंने, सेवड़ा (जैनसाधु ) लोगोंके पाप्त गाय और बैलोंको तथा भैंसों और पाड़ोंको किसीमी समय मारनेकी तथा उनका चमड़ा उतारनेकी भनाईसे संबंध रखनेवाला श्रेष्ठ और सुखके चिह्नोंवाला फर्मान है और उस श्रेष्ठ फर्मानके पीछे लिखा है कि,-" हर महीनेमें कुछ दिन इसके खानेकी इच्छा नहीं करना तथा इसे उचित और फ़र्न समझना। और जिन प्राणियोंने घरमें या वृक्षोंपर घौसले बनाये हों उन्हें मारने या कैद करने ( पिंजरेमें डालने ) से दूर रहनेकी पूरी सावधानी रखना ।" इस मानने लायक फर्मानमें और भी लिखा है कि,"योगाभ्यास करनेवालोंमें श्रेष्ठ हीरविजयसूरिके शिष्य विजयसेनमूरि सेवड़ा और उसके धर्मको पालनेवाले-जिन्हें हमारे दर्बारमें हाज़िर होनेका सम्मान प्राप्त हुआ है और जो हमारे दर्वारके खास हितेच्छु हैं-उनके योगाभ्यासकी सत्यता और वृद्धि तथा परमेश्वरकी १ देखो पीछे पेज १६५, १६६ । meanimrain Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सूरीश्वर और सम्राट् । शोध पर नजर रख ( हुन छुनादि ) - इनके मंदिरोंमें या उपाश्रयों में कोई न ठहरे एवं कोई कर भी न करे । अगर ये जीर्ण होते हों और इनके नागदेवाली, चाहनेवालों, या खैरात करने वालों में से कोई इन्हें सुधारे या इनकी नींव डाले तो कोई भी व्यज्ञानवाला या धर्माध उसे न रोके । और जैसे खुदाको नहीं पहचाननेवाले, बारिशको रोकने या ऐसे ही दूसरे काम - जो पूज्यजातके ( ईश्वर के ) काम हैं - करनेका दोष, सूर्खता और बेवकूफीके सत्र, उन्हें जादूके काम समझ, उन बेचारे खुदा के माननेवालोंपर लगाते हैं और उन्हें अनेक प्रकारके दुःख देते हैं तथा वे जो क्रियाएँ करते हैं उनमें बाधा डालते हैं । ऐसे कामोंका दोष इन बेचारोंपर नहीं लगाकर इन्हें अपनी जगह और कानपर खुशी के साथ भक्तिका काम करने देना चाहिए, एवं अपने धर्मके अनुसार उन्हें धार्मिक क्रियाएँ करने देना चाहिए । " 1 इससे (उस) श्रेष्ठ फर्मान के अनुसार अमल कर ऐसी ताकीद करनी चाहिए कि, बहुत ही अच्छी तरहसे इस फर्मानका अमल हो और इसके विरुद्ध कोई लावे | ( हरेकको चाहिए कि ) वह अपना फर्ज समझकर फर्मान की उपेक्षा न करे;- उसके विरुद्ध कोई काम न करे | ता० १ शहर महीना, इलाही सन् ४६, मुताबिक़ ता० २५, महीना सफर, सन् २०१० हिज्री । पेनका वर्णन | फरदीनदिने सूर्य एक राशी दूसरी राशीमें हिरवा वे दिन कि में आते ही रमन महीने के सोमवार; जाता है ये दिन जो दो सूफियाना दिनांक Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ( ख ). ३८१ आवान महीना कि जो बादशाहके जन्मका महीना है; हरेक शमशी महीने का पहला दिन जिसका नाम ओरमज है; और बारह पवित्र दिन कि, जो श्रावण महीने के अन्तिम छः और मादके प्रथम छः दिन मिलकर कहलाते हैं । निशाने आलीशानकी नकल असलके मुताबिक है । मुहर. ( इस मुहर में सिर्फ काज़ी खानमुहम्मदका नाम पढ़ा जाता है । दूसरे अक्षर पढ़े नहीं जाते ) 1 मुहर. ( इस मुहरमें लिखा है, - अकबरशाह मुरीद जादा दारावे' १ दाराबका पूरा नाम मिर्ज़ादारावखाँ था । वह अबुर्रहीम खानखानाका लड़का था । विशेष के लिए देखो,' आइन-ई-अकबरी ' के पहले भागका अंग्रेजी अनुवाद | पृ० ३३. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ सूरीश्वर और सम्राट् । परिशिष्ट (ग) फर्मान नं. ३ का अनुवाद । अल्लाहो अकबर । नकल । (ता. २६, माह फ़र्वरदीन, सन् ५ के करार मुजिबके फर्मानकी) तमाम रक्षित राज्योंके बड़े हाकिमों, बड़े दीवानों, दीवानीके बड़े बड़े काम करनेवालों, राज्यकारोबारका बंदोबस्त करलेवालों, जागीरदारों और करोडियोंको जानना चाहिए कि,-दुनियाको जीतनेके अभिप्रायके साथ हमारी न्यायी इच्छा ईश्वरको खुश करनेमें लगी हुई है और हमारे अभिप्रायका पूरा हेतु तमाम दुनियाको-जिसे ईश्व. रने बनाया है-खुश करनेकी तरफ़ रजू हो रहा है। उसमें भी खास करके पवित्र विचारवालों और मोक्षधर्मवालोंको-जिनका ध्येय सत्यकी शोध और परमेश्वरकी प्राप्ति करना है-प्रसन्न करनेकी ओर हम विशेष ध्यान देते हैं। इसलिए इस समय विवेकहर्ष, ये महान् प्रतापी पुरुष थे। उन्होंने अनेक राजामहाराजाओंको उपदेश देकर उनसे जीवदयाके कार्य कराये थे । कच्छका राजा भारमल तो उनके उपदेशसे जैन ही हो गया था । इस विषयका उल्लेख 'मोटी खाखर' (कच्छ ) के शत्रुजयविहार नामके जैनमंदिरके एक बड़े शिलालेखमें है। यह शिलालेख मुनिराज श्रीहंस विजयजी विरचित 'प्रश्नोत्तर पुष्पमाला' नामक पुस्तकके १५५ - पृष्टमें छपा है। इन विवेकहर्ष' को ' महाजनवंशमुक्तावली' के लेखक, श्रीयुत रामलालजीगणि खरतर Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ src=issar Rental srat اب اکے انار ناران نے شر او زور دیا منہ حکام کرام وریرایا بعفا ومسميا مرلین مناظاناس السلطاني و در دراز مکروریان کلاک محروس بلا ندرچرن چیکن عدالت برای یکی در نیل بیان کے معروف را به مدت چندطيت در پرست اوردن حفاریان برای اگر مبدع معبودروامر واجب الوجود معطر راست خ رما در استرضنايا قلوب عالیدان وردنا الزبنان كم رجم متمرد مرطلریشان حیزحنجرینی وعراطیلاری دیكرنیست سایت رحم سر رله سیاریم همزاد رینولاک یک مرکری تندروها نشد واورکرکی ہایت کنری لزبین سری بھی دیور دینی حقش مهمی که درین مدت دریا برسرپرسلطنت می بردندحون التماس واستدعا من ذ كر العالم عروسی درد رازده روز محترمالم روت کارت پهن باشد (برملا انه مبارزهار حیوانات که نشود موجب سفر سایه این سسکیانخاعربود و چندین جای من ربرکت این حکم از ساعاذاعي حقول هدريافت ابر کرم برزکارزخ حضرت ابرساند هابرن دایر خواهد کردير از ايجار شاحن با بخاد مطالب وباربر بطل وخالازهر زیر رایور کے سودا از بازار مردف رانام ملت اورا بتول نترين داشت حتی نفاع پر واجب الاتباع دعا کا سرد اسرایانت کے درر راز روزی کور سال بسالے کل عالم محبس در سلنا جانركنند وارد این امر نکرد ودرین یا به ساحل زمجر طنیند میباید حسب لكم الامت علنرده اند و من يتحلواتزان فرزند درعر . ابولزوزت وانمند براورباافلام Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज फरमान नं. ३ की दूसरी बाजु Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ग). परमानंद, महानंद और उदयहर्ष तपा यति ( तपागच्छके साधु ) विजयसेनसूरि विजयदेवसूरि और नंदिविजयजी,-जिनको गच्छके साधु बताते हैं। (देखो महाजनवंशमुक्तावलीको प्रस्तावनाका पृ. ६ और पुस्तकका पृष्ठ ५९-६० ) मगर यह बात इतिहाससे सर्वथा प्रतिकूल है। मोटी खाखरके मंदिरके जिस शिलालेखका उल्लेख किया गया है वह और तीसरा फर्मान स्पष्टतया बताता है कि, वे तपागच्छके साधु थे। विवेकहर्षकी बनाई हुई · हरिविजयसूरि सज्झाय' के अन्तमें लिखा है, " जस पर प्रगट प्रताप उग्यो, विजयसेन दिवाकरो । कविराज हर्षानंद पंडित 'विवेकहर्ष' सुहंकरो।" इससे स्पष्ट ज्ञात होता कि, वे तपागच्छाचार्य श्री विजयसेनरिकी आज्ञामें रहनेवाले, और हर्षानंद कविके शिष्य थे। इसके सिवाय उन्होंने 'परब्रह्मप्रकाश' नामक एक पुस्तक भाषामें कविताबद्ध लिखी है। उसके अन्तमें भी उन्होंने अपनेको तपागच्छका ही बताया है । उन्होंने बीजापुरमें, वि० सं० १६५२ में ' हीरविजयसूरि रास' नामक एक छोटीसी पुस्तक लिखी है। उसमें भी उन्होंने अपनेको तपागच्छ का बताया है । विशेष आश्चर्य तो यह है कि,श्रीयुत रामलालजीगणिने विवेकहर्षको खरतरगच्छका बतानेके साथ ही उनका नाम भी वेषहर्ष बतानेकी बहुत बड़ी भूल की है। १ ये विवेकहर्षके गुरुभाई थे । इनको भी श्रीयुत रामलालजीगणिने खरतरगच्छके साधु ही बताया है । मगर यह भी भूल है। परमानंद भी तपागच्छहीके साधु थे। इस बातको यह तीसरे नंबरका फर्मान भली प्रकार सिद्ध करता है । इसके अलावा उन्होंने जुदी जुदी भाषाओंमें 'विजयचिन्तामाणि स्तोत्र लिखा है । उसका अन्तिम पद " श्रीविजयसेनसूरिंद सेवक पंडित परमानंद जयकरु " भी इसी बातको पुष्ट करता है । १ देखो इसी पुस्तकका पृष्ठ १५९-१६५ तथा २१६-१३८ । ३ ये विजयसेनसूरिके शिष्य थे। वि. सं. १६४३ में इन्होंने विजयसेनसूरिसे अहमदाबादमें दीक्षा ली थी । सं० १६५६ में इन्हें Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सूरीश्वर और सम्राट् ।। 'खुशफहम' का खिताब है-के शिष्य हैं, हमारे दारमें थे। उन्होंने दरखास्त और विनति की कि,-" यदि सारे सुरक्षित राज्यमें हमारे पवित्र बारह दिन--जो भादोंके पर्युषणाके दिन हैं-तक हिंसा करनेके स्थानोंमें हिंसा बंद कराई जायगी तो इससे हम सम्मानित होंगे, और अनेक जीव आपके उच्च और पवित्र हुक्मसे बच जायेंगे । इसका उत्तम फल आपको और आपके मुबारिक राज्यको मिलेगा | हमने शाही रहेम-नज़र, हरेक वर्ष तथा जातिके कामोंमें उत्साह दिलाने बल्के प्रत्येक प्राणीको सुखी करनेकी तरफ रक्खी है; इससे इस अर्जको स्वीकारकर दुनियाका माना हुआ और मानने लायक जहाँगीरी हुक्म हुआ कि,-उल्लिखित बारह दिनोंमें, प्रतिवर्ष हिंसा करनेके स्थानों में, समस्त सुरक्षित राज्यमें प्राणी-हिंसा न करनी चाहिए और न करनेकी तैयारी ही करनी चाहिए। इसके संबंधौ हर साल नया हुक्म नहीं मँगना चाहिए। इस हुक्मके मुताबिक चलना चाहिए; आचार्य पद मिला था। सं० १६७४ में, ये 'मांडवगढ' में बादशाह जहाँगीरसे मिले थे । बादशाहने प्रसन्न होकर इन्हें ' महातपा' का खिताब दिया था । उदयपुरके महाराणा जगतसिंहजीने उनके उपदेशसे 'पीछोला' और 'उदयसागर' नामक तालाबोंमें जाल डालना बंद करवा दिया था । राज्याभिषेकके दिन, सालगिरहके दिन तथा भादों महीनमें कोई जीवहिंसा न करे इस बातकी आज्ञा प्रकाशित की थी । नयानगरके राजा लाखाको, दक्षिणके ईदलशाहको, ईडरके कल्याणमल्लको और दीवके फिरंगियोंको भी उपदेश देकर उन्होंने जीवहिंसा कम कराई थी। वि० सं० १७१३ के आषार शुक्ला ११ के दिन ' उना' में उनका देहान्त हुआ था । विशेषके लिए देखो-' विजयप्रशस्ति महाकाव्य ' तथा ' ऐतिहासिक सज्झायमाला ' भाग पहला आदि ग्रंथ । १ देखो इस पुस्तकका पेज १६०. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ग) फर्मानके विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिए। इसको अपना कर्तव्य समझना चाहिए। __ नम्रातिनम्र अबुल्झेरके लिखनेसे और पहम्मदसैयदकी नोंधसे । १ यह शेख मुबारिकका पुत्र और शेख अबुल्फ़ज़लका भाई था। वह हि. स. ९६७ के जमादी-उलअव्वलको उसरी तारीखको ( आइन-ई-अकबरीके अनुसार २२ वी तारीखको ) जन्मा था। यह बड़ा ही होशियार आर मला आदमी था । जबानपर उसका अच्छा काबू था । अबुल्फ़ज़लकी लिखी हुई चिट्ठियोंसे मालूम होता है कि, दूसरे भाइऑको अपेक्षा इसके साथ उसका विशेष संबंध था । अबुल्फ़ज़लके सरकारी कागज़ प्राय: इसीके हाथमें रहते थे। पुस्तकालयकी देखरेख भी यही करता था । विशेषके लिए देखो दर्बारे अकवरी पृ० ३५५-३५६ तथा आइन-ई-अकबरीके प्रथम भागमें दिया हुआ अबुल्फ़ज़लका जीवनचरित्र पृ० ३३. २ यह सुजातखाँ शादीबेगका लड़का था; परन्तु शेख फरीदने इसे गोद लिया था। कारण -शेख फरीदके कोई लड़का नहीं था और उसकी कन्या भी निःसन्तान मर गई थी। इसके अलावा मीरखाँ नामके एक युवकको भी शेख फरीदने गोद लिया था। इससे महम्मद सैयद और मीरखाँ दोनों भाई लगते थे । वे बड़े दवदवेसे रहते थे; वादशाह तककी कुछ भी परवाह नहीं करते थे । वे सीन लालटेनों और मशालसे सजी हुई नौकामें बैठकर, नि:संकोच भ बस बादशाही महलके पाससे गुजरते थे । जहाँगीरने कई बार उन्हें ऐसा करनरो राका मगर जब यह प्रवृत्ति बंद न हुई तब जहाँगीरकी सूचनास महासखाँज एक मनुष्य भेजकर मीरखाँको मरवा डाला । इससे शेख फरीदने महाबतखाँको प्राणदंड देनेकी बादशाहसे अर्ज की। मगर महाबतखाँने कई रुतबवाल साक्षा पेशकर यह बात प्रमाणित की कि,-मीरखाँको महाबतखाने नहीं सारा है बढ़के महम्मद सैयदने मारा है । इस तरह महम्मद सैयद के ऊपर यह कलंक लगा था । महम्मद सैयद शाहजहाँके २० वें बरसमें जीवित था । ७०० सौ पैदल' सीपाही 49 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सूरीश्वर और सम्राट्। नकुल मुताबिक़ असलके है। मुहर. यह मुहर पढ़ी नहीं जाती। और ३०० घुड़सवार उसके अधिकारमें थे । देखो आइन-ई-अकबरीके प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद, पृ० ४१६ तथा ४८१, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 12 परिशिष्ट (घ) परिशिष्ट (घ ) 33 फर्मान नं. ४ का अनुवाद । अबुलमुज़फ्फर सुल्तानशाह सलीम गाजीका दुनियाद्वारा माना हुआ फर्मान । नकल मुताबिक असलके है । बड़े कार्मोसे संबंध रखनेवाली आज्ञा देनेवालों, उनको अमलमें लानेवालों, उनके अहलकारों तथा वर्तमान और भविष्य के मुआमलतदारों....... आदि और मुख्यतया सोरठ सरकारको शाही सम्मान प्राप्त करके तथा आशा रखके मालूम हो कि भानुचंद्र यति और 'खुशफ़हम' का खिताबवाले सिद्धिचंद्र यतिने हमसे प्रार्थना की कि, - जजिआ, कर, गाय, बैल, भैंस और भैंसेकी हिंसा, प्रत्येक महीने के नियत दिनों में हिंसा, मरे हुए लोगोंके मालपर कब्जा करना, लोगोंको कैद करना और सोरठ सरकार शत्रुंजय तीर्थपर लोगों से जो मेहसूल लेती है वह महसूल, इन सारी बार्तोकी आला हज़रत (अकबर बादशाहने ) मनाई और माफ़ी की है ।" इससे हमने भी - हरेक आदमीपर हमारी महरबानी है इससे एक दूसरा महीना - जिसके अन्तर्मे हमारा जन्म हुआ है - और शामिलकर, निम्न लिखित विगत के अनुसार माफी की है - हमारे श्रेष्ठ हुक्म के अनुसार अमल करना । तथा **********E* १ देखो पेज १४७ - १५८ तथा २४०-२४१ २ १५६-१५८. ३ १४०, १४६, १४७, १५२, १६५, १६६. EN ३८७ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ - Anuman सूरीश्वर और सम्राट्। विजयदेवरि और विजयसेनसूरिके-जो वहाँ गुजरातमें हैंहालकी खबरदारी करना और भानुचंद्र तथा सिद्धिचंद्र जब वहाँ आ पहुँचे तब उनकी सार सँग लका, वे जो कुछ काम कहें उसे पूरा कर देना, कि जिससे वे जीत करनेवाले राज्यको हमेशा (कायम) रखनेकी दुआ करनेमें दत्तचित्त रहे । और 'ऊना' परगने में एक बाड़ी है। उसमें उन्होंने अपने गुरु हीरजी (हीरविजयसूरि) की चरणपादुका स्थापित की है। उसे पुराने रिवाजके अनुसार 'कर ' आदिसे मुक्त समझ, उसके संबंधों कोई विन्न नहीं डालना । लिखा (गया) ता. १४ शहेरीवर महीना, सन् इलाही ५५. पेटाका खुलासा। फरवरदीन महीना, वे दिन कि, जिनमें सूर्य एक राशीसे दूसरी राशीमें जाता है । ईदके दिन, मेहर के दिन, प्रत्येक महीनेके रविवार, वे दिन कि जो सूफियानाके दो दिनोंके बीचमें आते हैं, रजब महीनेका सोमवार; अकबर बादशाहके जन्मका महीना-जो आवान महीना कहलाता है। प्रत्येक शमशी ( Solar ) महीनाका पहला दिन, जिसका नाम ओरमन है । बारह बरकतवाले दिन कि जो श्रावण महीनेके अन्तिम छः दिन और भादोंके पहले छः दिन हैं। अल्लाहो अकबर । नकल मुताबिक असलके है। ( इस मुहरके लक्षार हो ज।) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहांगीर बादशाहका फरमान । اسه اكبر انقطاع الطرطان المناسب مادر ملت -- حکام والے وصدار مات و بازار ماکیا دل واستعار الحمام كارورهم بترجعبادشاهان سرافراز و مرور بوده اند جون بمانچنچنے ودجن اط جوی غم برهاند رساندند كر وجوہ جزیرود به جا نوان لو کار زواره اصلا وحيوانات ریکی 1- تهیه ماه رمضان مرواسیر کردن مردم دیرم سر نعش کر ر سترخسرارسو میکرخندحضرت اجل معان ومنز به پیامبران برتقال سی رفیع الزمان ان کا باطنت دعملی کردیا نکاف مرايا دارم امور کورن مع لضاد کار می کرد. از ماء ولان اردن شد موجیم کرد هرتسليانز معان ومودم میارکحست الحي التريث عال مو دخلت وراغر. رزید دعتیہ دیوار کرنا با بزازحواران خبر دار برد، هرکاء جھانجرز چند در بندرعات وملقت ار مرل مرير لها مردم مجتمع آرد با فرا رسا منا کر مبلغه اطراء با دوام ت قاعده س ازی نموده باشند در برکم او یک طعما دجاجی روی خود ماده از دستور فرم سلا قرار خوک در محور تایخ بجے ردعم شهرياء اليه Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ شرع من تارت طلای مامان بانی جان منابع مالی امداد مدل بر روزعيه وروز و روزبعنوان نزاررواهامدار متر الامل ( फरमान नं. ४ की दूसरी बाजु Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (घ) ( इस मुहरमें काजी अब्दुलसमीका नाम है।) नकल मुताबिक असलके है। मुहर ( इस मुहरमें काज़ी खानमुहम्मदका नाम है। दूसरे अक्षर पढ़े नहीं जाते। - १ यह 'मियाँकाल' नामके पहाड़ी प्रदेशका रहनेवाला था। यह प्रदेश समरकंद और बुखाराके बीचमें है। बदाउनी कहता है कि यह धनके लिए शतरंज खेलता था । शराब भी बहुत पीता था । हि० सं० ९९० में अकबरने उसे काजी जलालुद्दीन मुल्तानीके स्थानमें काजिल्कुजात बनाया था । देखो,-आइन-ई-अकबरीके प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद पृ. ५४५, Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। Arunawwarewanaparimanon परिशिष्ट (ङ) फर्मान नं. ५ का अनुवाद अल्लाहो अकबर । हकको पहचाननेवाले, योगाभ्यास करनेवाले विजयदेवसूरिको, हमारी ख़ास महरबानी हासिलकर मालूम हो कि, तुमसे पत्तन में मुलाकात हुई थी । इससे एक सच्चे मित्रकी तरह (मैं) तुम्हारे प्रायः समाचार पूछता रहता हूँ। (मुझे) विश्वास है कि तुम भी हमारे साथ सचे मित्रका (तुम्हारा) जो संबंध है उसको नहीं छोड़ोगे। इस समय तुम्हारा शिष्य दयाकुशल हमारे पास हाज़िर हुआ है । तुम्हारे १ 'पत्तन' से गुजरातके 'पाटण' को नहीं मगर मांडवगढ़' (मालवा) को समझना चाहिए । क्योंकि, जहाँगीर और विजयदेवलूरि मांडवगढ़में मिले थे । इस भेटका पूर्ण वृत्तान्त विद्यासागरके प्रशिष्य अथवा पंचा. यणके शिष्य कृपासागरने 'श्री नेमिसागर निर्वाणरास' में दिया है । उसमें भी जहाँ मांडवगढ़के श्रावकोंका वर्णन लिखा है यहाँ स्पष्ट लिखा है कि, 'बीरदास छाजू वळी ए, शाह जगू गुण जाण के; 'पारणे' ते बस इत्यादिक श्रावक घणाए ॥ ९१ ॥ (जैनरासमाला, भाग पहला पृ० २५२) इससे स्पष्ट मालम होता है कि, 'मांडवगढ़' उस समय पाटणके नामसे भी ख्यात था। २ ये वेही दयाकुशलजी हैं जिन्होंने विक्रम संवत् १६४९ में विजय. सेनसूरिकी स्तुतिमें 'लाभोदय' रारा लिखा है। इनके गुरुका नाम कल्या. कुशल था। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहांगीर बादशाहने विजयदेवसूरि पर लिखा हुआ पत्र । خراسان شیر کی دوسری جات اور امریکی جوان باقات شده بود درباره مشاوره از جوان این بازی شاهه جان انا ما زدت زمرد در را حان دیار مدارات فراوان از روند بی خانم جون محصولات درباره روی کردار اوف ایرانی زن دردها و کار ما نبودن را در شعر را به منور شاہین نے ملزمان نمودار رویداد یعنی ایریا کی وانت بار فرانخواہ مانے اوراد و ویژه Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ङ) ३९१ समाचार उसके द्वारा मालून हुए । इससे हमें बड़ी प्रसन्नता हुई । तुम्हारा शिष्य भी अच्छी तर्कशक्ति रखनेवाला और अनुभवी है । यहाँ योग्य जो कुछ काम हो वह तुम अपने शिष्यको लिखना ( जिससे ) हुजूर को मालूम हो जाय । हम उसपर हरेक तरहसे ध्यान देंगे । हमारी तरफुले बेफिक्र रहना और पूजने लायक जातकी पूजाकर हमारा राज्य कायम रहे इस प्रकारकी दुआ करनेके काममें लगे रहना । लिखा ता० १९ महीना शाहबान, सन् १०२७. मुहर. इस मुहर, जहाँगीर, मुरीद और शाह नवाज़खाँ इतने १ इसका खास नाम ईरज था । यह अपनी वीरताके लिए बहुत प्रसिद्ध हुआ था । जब यह युवा था, तब 'खानखान- ई- जवान' कहलाता था । राज्यके चालीसवें वर्ष में यह चारसौका अधिपति बनाया गया था । राज्यके अड़तालीसवें वर्षमें इसने मलिक अम्बर के साथ ' खारकी ' में लड़कर 'बहादुर' की पदवी हासिल की थी। शाहजहाँ के समय में शाहनवाज़खान - ई - शफी नामका एक उमराव हुआ है । इसलिए दोनोंको भिन्न भिन्न बतानेके लिए इतिहास लेखक इसको ' शाहनवाज़खान- इ - जहाँगीरी' लिखते हैं । जहाँगीरने इसको हि० स० १०२० में ‘ शाहनवाजखाँ' पदवी देकर तीन हज़ारी बनाया था और हि० सं० १०२७ में पाँच हज़ारी बनाया था । जहाँगीर के राज्य के बारहवें वर्षमें इसने दक्षिण में कुमार शाहजहाँ की नौकरी करली थी । यह एक अच्छा सैनिक था । परन्तु कपड़ोंके विषय में यह बहुत ही लापरवाह था । इसकी एक कन्याका ब्याह शाहजहाँ के साथ हुआ था | ग्रांट - लिखित मध्यप्रान्तों के गेज़ेटियर के अनुसार इस ईरज ( शाहनवाज़ ) की का बुरहानपुर में है । यद्द 1 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ सूरीश्वर और सम्राट्। - - - - अक्षर हैं। कब इसकी जिन्दगीहीमें तैयार हुई थी । हि० स० १०२८ में यह अत्यधिक मदिरा पानेसे मर गया था । कहा जाता है कि, अकबर अपने फर्मानों में इस ईरज और दूसरे फर्मानोंके अन्तिम नोटमें (पृ. ३८१ में ) उल्लिखित दाराबका नाम किसी न किसी तरहसे लारखता था । विशेषके लिए देखो आइन-ई-अकबरीके प्रथम भागका अंग्रेजी अनुवाद पृ० ३३९, ४९१, तथा दर्बारे अकबरी पृ. ६४२-६४४, Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकow - T E Aamumanuman परिशिष्ट (च) परिशिष्ट (च) फर्मान नं. ६ का अनुवाद । अल्लाहो अकबर। नूरुद्दीन महम्मद जहाँगीर बादशाह ग़ाज़ीका फर्मान । हमेशा रहनेवाला यह आलीशान फर्मान, ता. १७ रजबुलमुरजन हि० स. १८२४ का है, उसकी नकल । अब इस फर्मान आलीशानको प्रकट और प्रसिद्ध करनेका, महत्त्वा , प्रसंग प्राप्त हुआ है। हुक्म दिया जाता है कि-मापी हुई दस बीघे जमीन, खंभातके समीप चौरासी परगनेके महम्मदपुर ( अकबरपुर ) गाँवमें निम्न लिखित नियमानुसार चंद संघवीको " मदद-ई-मुआश" नामकी जागीर खरीफ़के प्रारंभ-नौशकाने ईल ( जुलाई ) महीनेसे हमेशाके लिए दी जाय, जिससे उसकी आमदनीका उपयोग हाएक फ़सल और हरएक सालमें वह अपने खर्चके लिए करे और असीम बादशाही अखंडित रहे इसके लिए वह प्रार्थना करता रहे। वर्तमानके एवं अब होनेवाले अधिकारियों, पटवारियों, मागीरदानों तथा मालके ठेकेदारोंको चाहिए कि वे इस पवित्र एवं ऊंचे हुक्पको हमेशा बजालानेका प्रयत्न करें । ऊपर लिखे हुए ज़मीनके टुकड़ेक: नापकर और उसकी मर्यादा बाँधकर वह जमीन चंद् संघवीको दी जाय । इसमें कुछ भी फेरफार या परिवर्तन 50 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AmAARAARAumanAmeAAama AAURURRAJAMANAJARAI सूरीश्वर और सम्राट्। न किया जाय । एवं उसे तकलीफ़ भी न दी जाय । उससे किसी तरहका खर्च भी न माँगा जाय । जैसे,-पट्टा बनानेका खर्च, नज़राना, नापने का खर्च, ज़मीन कबजेमें देनेका खर्च, रजिस्टरीका खर्च, पटवार फंड, तहसीलदार और दारोगाका खर्च, बेगार, शिकार और गाँवका खर्च, नंबरदारीका खर्च, जेलदारीकी प्रति सैंकड़ा दो रु० फीस, कानूगोकी फीस, किसी खास कार्यके लिए साधारण वार्षिक खर्च, खेती करनेके समयकी फीस, और इसी प्रकारकी समस्त दीवानी सुल्तानी तकलीफोंसे वह हमेशाके लिए मुक्त किया जाता है । इसके लिए प्रतिवर्ष नवीन हुक्म और सूचनाकी आवश्यकता नहीं है। जो कुछ हुक्म दिया गया है, वह तोड़ा न जाय । सभी इसको अपना सरकारी कार्य समझें । ता. १७ अस्फन्दारमुझ-इलाही महीना, १० वाँ वर्ष । दूसरी तरफका अनुवाद । ता. २१ अमरदाद, इलाही १० वाँ वर्ष,-बराबर स्नबुलमुरजब __हि. स. १०२४ की १७ वीं तारीख, गुरुवार । पूर्णता और उत्तमताके आधाररूप, सच्चे और ज्ञानी ऐसे सैयद अहम्मद कादरीके भेजनेसे; बुद्धिशाली और वर्तमान समयके मालीनूस (धन्वन्तरी वैद्य ) एवं आधुनिक ईसा जैसे जोगीके अनुमोदनसे, वर्तमान समयके परोपकारी राजा सुबहानके दिये हुए परिचयसे और सबसे नम्र शिष्योंमें से एक तथा नोध करनेवाले इसहाक के लिखनेसे चंदू संघवी, पिता बोरु (?), पितामह वजीवन Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مری بن بدر در بارداری و کنار این دولت یازدهم نمودار سواری پر اور میدان امیر اور ان کو مار دیا ہے ان مردود شده اند و جوانان با انسانها را از یک بار هم بود و با این که کالر بازی کرده و با یکی از این دوران کیا اور ان کو داسوان مرواکونه موارد دیدار و گرانترین موانع الاسم عزادان و دیا اس کے بانی اور کیا اور مہربان اور پاک افغان به پیش مانی را از این که ما را برای ایجاد یک کسب و کار دارد سربراہ شیخ رشید اور روایات مودی را در این سے کاروبار جاری کر دیا اور اسے اور بد یا امدادی انار وله Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहांगीर बादशाहका फरमान । . او تکرار ان لاری بانوان سے جا کر دینا مہنچناصر ریز پر نبی کرزی در یک نیمی از مار نمی رود تا کار با اینترنت والتبر از شوان ریسرچ دینار لیرزمینی در امارت از ضمانتاکر برتا مردہ داران اور اب رخت سفر باید برای شما را در ایران ندارد اس ناکامی کا ذمہ دار اداری و اداری میز اداران ایران بوده وابت است و برا امیر مرکز ایران روابط بچھانویس مردار کا مارا ا مور اداکاری کاربرانی کا کردار اداکار اور امریکا مزاری تمام والدین رازی با مادر در پدا زیر پایان داد از او دی دیگر را در این منیر رولی سا اندارمری لے س Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (च) (वरजीवन ) आगरेका रहनेवाला, सयनवम (सेवड़ोंको माननेवाला ), जिसका कपाल चौड़ा, भ्रमर चौड़ी, मेड़ियेके जैसे नेत्र, कालारंग, मुंडीहुई डाढ़ी, मुँहके ऊपर बहुतसे चेचकके दाग, दोनों कानोंमें जगह नगह छेद, मध्यम उचाई, और जिसकी करीब ६० वर्षकी उम्र है, उसने बादशाहकी ऊँची दृष्टिको एक रत्नसे जड़ी हुई अंगूठी, १० वें वर्षके इलाही महीनेकी २० वीं तारीखके दिन भेट की । और अर्ज की कि अकबरपुर गाँवमें १० वीघा जमीन, उसको सद्गत गुरु विजयसेनरिक मंदिर, बाग, मेला और सम्मानकी यादगारके लिए दी जाय । इसलिए सूर्यकी किरणोंकी तरह चमकनेवाला और सब दुनियाके मानन योग्य हुक्म हुआ कि-चंद संघवीको गाँव अकबरपुर, परगना चौरासीमें-जो खंभातके समीप है-दश बीघे खेतीकी जमीनका टुकड़ा मदद-इ-मुआश नामकी जागीर स्वरूप दिया जाय । हुक्मके अनुसार जाच करके लिखा गया । मार्जिनमें लिखा है कि "लिखनेवाला सच्चा है।" जुमलुतुरमुक्त, मदारुलमहाम एतमादुद्दौलाका हुक्मः" दूसरीबार अर्ज की जाय" मुखलीसखानने-जो महरबानी करने योग्य हैं-बादशाहके सामने दूसरी बार अर्ज पेश की (पुनः यह पत्र पेश किया जाता है । ) ता. २१ माह यूर, इलाही स. १० जुमकुतुल्मुल्क, मदारुलमहामका हुक्मः-"ख़रीफके प्रारंमनोशकानेईल-से हुक्म लिखा जाय । " जुमलुतुरमुल्की मदारुल महामीका हुक्म: अन्तिम हुक्म सुमलतुल मारुन महामका Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Romanp Road सूरीश्वर और सम्राट्। " अरजी (वाजिब ) बनाई यह है किजाय" "मौजा महम्मदपुरसे इस (चंदूसंघवी) को माफी दी जाय ।" (नराबर पढ़ी नहीं माती) यह नकल मुतानिक असलके है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (छ) ३२७ परिशिष्ट (छ) पोर्तुगीज़ पादरी पिनहरो (Pinheiro) के दो पत्रे । पिनहरो नामके एक पोटुंगीन पादरीने, लाहोरसे ता. ३ सितंबर सन् १५९५ के दिन अपने देश में एक पत्र लिखा था । उसका एक वाक्य डा. विन्सेंट ए. स्मिथने अपने अंग्रजी 'अकबर' नामके ग्रंथमें दिया है। वह वाक्य इस पुस्तकके १७१ वें पेजमें उद्धृत किया गया है। उसने जैनियों से संबंध रखनेवाली जो बातें उस पूरे पत्रमें लिखी थीं, वे ये हैं: “ This King (Akbar ) worships God and the sun, and is a Hindu [ Gentile ]; he follows the sect of Vertei, who are liks inonks living in communities congregationi 1 and do much penance. They eat nothing that has had life anima 7 and before they sit down, they:sweep this place with a brush of cotton, in order that it may not happen [ non si affironti ] that under them any worm for insect', vermicells] may remain and be killed by their sitting on it. These people hold that the world existed from eternity, but others say No ---many worlds having १ पिनहराके इन दोनों पक्षों का अंग्रेजी अनुवाद सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. विन्सेंट ए. स्मिथन अपने त. २.--११-१८ के पत्र के साथ पूज्यपाद गुरुवर्य शायविशारद-जनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि महाराज के पास भेजा था । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वर और सम्राट्। passed away. In this way they say many silly things, which I omit so as not to weary your Reverence." " अकबर बादशाह ईश्वर और सूर्यको पूजता है और वह हिन्दु है। वह व्रती सम्प्रदायके अनुसार आचरण करता है। वे मउवासी साधुओंकी भाँति बस्तीमें रहते हैं और बहुत तपस्या करते हैं। वे कोई सजीव वस्तु नहीं खाते । बैठनेके पहले रूई (उन ) की पीछी ( ओघा ) से जमीनको साफ़ कर लेते हैं ताके ज़मीनपर कोई जीव रहकर उनके बैठनेसे मर न जाय । इन लोगोंकी मान्यता है कि, संसार अनादि है। मगर दूसरे कहते हैं कि,-अनेक संसार हो गये हैं। ऐसी मूर्खतापूर्ण ( ? ) बातें लिखकर आप श्रीमान्को दिक करना नहीं चाहता।" इसी तरह उसने ( पिनहरोने ) ता. ६ नवम्बर सन् १९९५ के दिन अपने देशमें एक पत्र लिखा था। उसमें जैनोंके संबंधमें यह लिखा था, • The Jesuit narrates a conversation with a certain Babansa (? Bāban shāb) a wealthy notable of Cambay, favourable to the Fathers. पेरुशी पृ० ६९ में छपे हुए पत्रके लेटिन अनुवादका यह तर्जुमा है। यही बात मॅकलेगनने 'जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगालके वॉल्युम ४५ के प्रथम अंकके ७० वें पृ० में लिखी ह।। २ व्रती' अन्य कोई नहीं, जैनसाधु ही हैं। उस समयके बहुतसे लेखकोंने जैनसाधुओंके लिए व्रती' शब्द ही लिखा है। डिस्क्रिप्शन ऑफ एशिया' नामक पुस्तक-जो ई. सन् १६७३ में छपा है-के ११५, २१३, १३२ आदि पृष्ठोंमें इस देशके जैन साधुओंका वर्णन दिया है वह प्रती' शब्दहीसे दिया है। और तो और सुप्रसिद्ध गुर्जर कवि शामलदासने भी 'सूडाबहोतेरी' में 'व्रती' शब्दही दिया है । 'वती' शब्दका व्युत्पत्ति-अर्थ होता है,व्रतमस्याऽस्तीति व्रती (जिसको व्रत होता है उसे व्रती कहते हैं।) मगर कल्मेिं 'प्रती' शब्द जैनसाधुओंके लिए ही व्यवहत हुआ है और होता है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (छ) ३९९ "He is a deadly enemy of certain men who are called Verteis, concerning whom I will give some slight information [delli quali toccaro alcuna cosa ]. The Verteis live like monks, together in communities [congregation ]; and when I went to their house [ in Cambay ] there were about fifty of them there. They dress in certain white clothes; they do not wear anything on the head; their beards are shaven not with a razor, but pulled out, because all the hairs are torn out from the beards, and likewise from the head, leaving none of them, save a few on the middle of the head up to the top, so that they are left a very large bald space. They live in poverty; receiving in alms what the giver has in excess of his wants for food. They have no wives. They have (the teaching of) their sect written in the script of Gujarat. They drink warm water, not from fear of catching cold, but because they say that water has a Soul, and that drinking it without heating it kills its Soul, which God created, and that is great sin, but when heated it has not a Soul. And for this reason they carry in their hands certain brushes, which with their handles look like pencils, made of cotton (bambaca) and these they use to sweep the floor or pavement whereon they walk, so that it may not happen that the Soul [anima] of any worm be killed. I saw their prior and superior (maggiore) frequently sweep the place before sitting down by reason of that scruple. Their chief Prelate or supreme Lord may Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरीश्वर और तबाद have about 100,000 men under obedience to him, and every year one of them is elected. I saw among them boys of eight or nine years of age, who looked like Angels. They seem to be men, not of India, but of Europe. At that age they are dedicated by their fathers to this Religion. * They hold that the world was created millions of millenniums ago, and that during that space of time God has sent twenty three Apostles, and that now in this last stage, he went another one, making twenty-four in all, which must have happened about two thousand ycars ago, cod from that time to this they possess scriptures, which the others [ Apostles 1 did not compose. Father Xavier and I discoursed about that saying to them that this one questo s Seil apparently the last Apostle ] concomed their Salvation The Babansa aforesaid being interpreter, they said us, we shall talk about that another time. But we never retuned there, slobougle they pressed us earnestly, because we departed the next day.?» पादारयोंके अनुसय, खंभा के बाबनसो ( ? बाबनशाह ) नामक एक धनाढ्य उमरावक सय पादोकी गातचीत हुई थी। उसका वर्णन उसने इस प्रकार है १ पेरुशीके पृष्ठ ५२ मेस किया हुवा अनुवाद । यह बात मैकलेगनने भी अपने लेखके ६५ - पृष्ट में लिखा है ! २ बाबनना यह एक पारसी गृहसका नाम ह । ऐसा मालूम होता है कि, उसका शुद्ध नाम बहमनशा होगा । उस समय भी खंभातमें पारसी गृहस्थ रहते थे। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ परिशिष्ट (छ) " वह व्रती ' नामसे पहचाने जानेवाले मनुष्योंका कट्टर शत्रु है । मैं उन व्रतियोंसे संबंध रखनेवाली कुछ बातें यहाँ लिलूँगा। " व्रती, साधुओंकी तरह समुदायमें रहते हैं । मैं जब उनके स्थान ( खंभातमें ) पर गया, तब उनमेंके लगभग पचास वहाँ थे। वे अमुक प्रकारके सफेद कपड़े पहनते हैं, शिरपर कुछ नहीं रखते; उस्तरेसे डाढ़ी नहीं कराते; मगर वे डाढ़ीके बाल खींच लेते हैं अर्थात् डाढ़ीके और शिरके बालोंका वे लोच करते हैं। सिरके ऊपर बीचके भागमें ही थोड़ेसे बाल होते हैं। इससे उनके सिरमें बडीसी टाल (Bald) हो जाती है। "वे निग्रंथ हैं । जो खाद्य पदार्थ गृहस्थों के यहाँ आवश्यकताके उपरांत बढ़ा हुवा होता है वही वे भिक्षामें लेते हैं। उनके स्त्रिया नहीं होतीं । गुजराती भाषामें उनकी धर्मशिक्षाएँ लिखी रहती हैं। वे गर्म पानी पीते हैं। मगर सर्दी लगनेके भयसे नहीं बल्के इस हेतुसे कि पानीमें जीव होते हैं, इसलिए उबाले बगेर पानी पीनेसे उन जीवोंका नाश होता है । इन जीवों को ईश्वरने बनाया है। और इसमें ( उबाले बिना पानी पीनेमें ) बहुत पाप है। मगर जब पानी उबाल लिया जाता है तो उसमें जीव नहीं रहते । और इसी हेतुसे वे अपने हाथों में अमुक प्रकारकी पीछियाँ (ओघे) रखते हैं। ये पीछियाँ उनकी डंडियों सहित रूईकी (उनको) बनाई हुई पेन्सिलोंके जैसी लगती हैं। वे इन पींछियों द्वारा (बैठनेकी ) जगह अथवा उन स्थानोंको साफ करते हैं जिन पर उन्हें चलना होता है । कारण, ऐसा करनेसे कोई कोई जीव नहीं मरता । इस व्हेमके हेतु उनके बड़ों और गुरुजनोंको कई बार मैंने ज़मीन साफ़ करते देखा है। उनके सर्वोपरि नायकके अधिकारमें एक लाख मनुष्य होंगे । प्रतिवर्ष इनमेंका एक चुना जाता 61 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सूरीश्वर और सम्राट्। है । मैंने इनमें आठ नौ वरसकी आयुके छोकरोंको मी देखा है। वे देवोंके समान लगते हैं । वे मुझे भारतके नहीं मगर युरोपकेसे लगते हैं । इतनीसी आयुमें ही उनके मातापिताने उन्हें इस धर्मके भेट कर दिया है। ___" वे पृथ्वीको अनादि मानते हैं । वे कहते हैं कि इतने समयमें ( अनादिकालमें ) उनके ईश्वरने २३ पैगम्बर ( तीर्थकर ) भेजे और इस अन्तिम युगमे एक और भेजा । इस तरह सब चौबीस हुए । इस चौबीसवेको हुए दो हजार बरस बीत गये हैं। उसी समयसे अबतक दूसरे पैगम्बरोंने नहीं बनाये ऐसे ग्रंथ उनके पास हैं। "फादर जेवियरने और मैंने इसके संबंधमें उनसे बातचीत की और पूछा कि, क्या इस अन्तिम पैगम्बरके द्वारा ही तुम्हारा उद्धार होगा ? " उपर्युक्त बावनशा हमारा दुभाषिया था। और उन्होंने हमसे कहा कि, इस विषयमें हम फिर वार्तालाप करेंगे । मगर हम दूसरे ही दिन वहाँसे रवाना हो गये इसलिए फिरसे वहाँ न जा सके । उन्होंने तो आग्रहपूर्वक हमें बुलाया था।" Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ज) ४०३ - परिशिष्ट (ज) अकबरके समयके सिके। जीवनोपयोगी वस्तुओंके व्यवहारके लिए प्रत्येक कालमें और प्रत्येक देशमें ' सिक्कों ' का व्यवहार अवश्यमेव होता है । ये सिक्के दो प्रकारके होते हैं। एक मुहरवाले और दूसरे विना मुहरके । जो सिके मुहरवाले होते हैं उनपर उस समयके राजाका चित्र,राज्यचिह्न, अथवा राजाका नाम और संवत ढाले हुए रहते हैं। और जो सिक्के बगेर मुहरके होते हैं उनका व्यवहार गिनतीसे होता है । जैसे,-बादाम कोडियाँ आदि । जो सिके मुहरवाले होते हैं उनके विशेष नाम होते हैं । जैसे,-वर्तमानमें सोनेके सिक्केको गिन्नी, चाँदीके सिक्के को रुपया और ताँबेके सिक्केको पैसा कहते हैं । इतिहासोंसे मालूम होता है कि, प्रायः इन्हीं तीन धातुओंके सिक्के हर समय व्यवहारमें आये हैं। प्राचीन समयमें शीशा (रांगा) और अन्यान्य धातुओंके सिक्के भी काममें आते थे; परन्तु गत तीन चारसौ बरसोमें तो विशेषकरके इन-सोना, चाँदी और पीतल-तीन धातुओंके ही सिके व्यवहार में आये हैं । हाँ, वजनकी कमी ज्यादतीके कारण उनके नाम जुदा जुदा रक्खे गये हैं, परन्तु धातु तो ये तीन ही हैं। जिस समयके सिक्कोंका वर्णन मैं करना चाहता हूँ उस समयके ( अकबरके वक्तके ) सिक्कोंमें भी ये ही तीन धातुएं काममें आइ हैं। और वे भी खरी-बगेर मिलावटकी । ___अकबरके समयमें जो सिक्के चलते थे वे अनेक तरहके थे। अर्थात् व्यवहारकी सरलताके लिए अकबरने अपने समयके सिके Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ comwwwwwwwwwwww सूरीश्वर और सम्राट्। अनेक भागोंमें विभक्त कर दिये थे। सबसे पहले हम उस समयके सोनेके सिक्कोंका उल्लेख करेंगे । 'ए मॅन्युअल ऑफ मुसलमान न्युमिसमेटिक्स' (A Manual of Musalman Numismatics ) के पृ० १२० में लिखा गया है कि, “ Also there are the large handsome gold piecos of 200, 100, 50 and 10 muhars of Akbar and his three successors, which were, no doubt, not for currency use exactly, but for presentation in the way of honour for the emperor or offered to the emperor or king for tribute or acknowledgment of fealty, nazarana as it is called. अर्थात्-इसके सिवाय दूसरे बड़े सुंदर सोनेके सिक्के थे । वे अकबर और उसके पीछेके तीन बादशाहोंके थे। वे २००, १००, ५० और १० के थे। उन्हें अशरफ़ीयां कहते थे। यह ठीक है कि ये अशरफीयां चलनी सिकेकी तरह काममें नहीं आती थीं। वे सम्राट्के सम्मानार्थ, अथवा बादशाहको या राजाको कर देने में या नज़राना देने में काम आती थीं। ____ अकबरके इन सोनेके सिक्कोंका वर्णन, 'आईन-इ-अकबरी' के प्रथम भागके अंग्रेजी अनुवादके पृ० २७ में इस तरह दिया गया है: (१) 'शाहन्शाह ' इस नामका एक गोल सोनेका सिक्का था, जिसका वज़न १०१ तोला ९ माशा ६ सुर्ख था। उसका मूल्य एक सौ ' लालेजलाली' अशरफ़ी-जिसका वर्णन आगे दिया गया है-होता था। इसके एक तरफ़ शाहन्शाहका नाम था और सिकेके किनारेके पाँच मागोंमें इस अभिप्रायको बतानेवाले शब्द थे, Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ज) ४०५ "महान् सुल्तान प्रख्यात बादशाह, प्रभु उसके राज्य और हुकूमतकी वृद्धि करे।" यह सिक्का आगरेमें ढाला गया था। इस सिक्केकी दूसरी तरफ़ ' ला इलाहि-इल-अल्लाह मुहम्मद रसूल-अल्लाह । यह कलमा, तथा कुरानका एक वाक्य लिखा गया था; उसका अर्थ यह होता था, “परमात्मा जिसपर प्रसन्न होता है, उसपर अत्यंत दया करता है।" इस सिकेके चारों तरफ पहिलेके चार खलीफों के नाम भी लिखे गये थे । इस सिक्के की आकृति सबसेपहले मौलाना मकसूदने बनाई थी। उसके बाद मुल्ला अलीअहमदने इसे सुधारा था। एक तरफ इसमें इस अर्थवाले शब्द लिखे थे,-"ईश्वरके मार्गमें, अपने सहधर्मियोंकी सहायताके लिए जो सिक्का खर्च होता है वह सर्वोत्तम है।" दूसरी तरफ लिखा था,-'' महान् सुल्तान सुप्रसिद्ध खलीफा, सर्वशक्तिमान उसके राज्य और हुकूमतकी वृद्धि करे, तथा उसकी न्यायपरायणता और दयालुताको अमर रक्खे ।" ___कहा जाता है कि, पीछेसे इनपरसे उपर्युक्त सभी शब्द निकालकर, मुल्लां अलीअहमदने शेख फैज़ीकी दो रुवायात लिखी थीं। एक तरफ़की रुबाईका अर्थ होता है,--- “ सात समुद्रोमें जो मोती होते हैं वे सूर्यके प्रभावहीसे होते हैं। काले पर्वतोमें जो रत्न होते हैं उनका कारण भी सूर्यहीका प्रकाश है । कानोंमसे जो सोना निकलता है वह भी सूर्यके मंगलकारी प्रकाशकाही प्रताप है । वही सोना अकबरकी मुहरसे उत्तमाको प्राप्त होता है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सूरीश्वर और सम्राट् । बीचमें 'अल्लाहो अकबर' और 'जल्लेजलालहू ।' शब्द थे। दूसरी तरफ़की रुबाईका अर्थ होता है,____ " यह सिका आशाका अलंकार है । इसकी मुहर अमर है। सिकेका नाम अमर्त्य है और मंगलसूचक चिनकी भाँति सूर्यने प्रत्येक समयमें उसपर अपना प्रकाश डाला है। बीचमें इलाही संवत् लिखा गया था। (२) दूसरा सोनेका सिक्का उपर्युक्त प्रकार हीकी आकृति और अक्षरवाला था । वजनमें फर्क था । इसका वज़न ९१ तोला ८ माशे था । उसका मूल्य सौ गोल अशरफिया था। इन गोल अशरफियोका वज़न प्रत्येकका ११ माशे था। ( ३ ) तीसरा रहस नामका सिक्का था । यह सिक्का भी दो तरहका था । एकका वज़न शाहन्शाह नामके सिक्केसे आधा था और दूसरेका वज़न दूसरे नंबरके सिक्केसे आधा था। यह सिक्का कई बार चौरस भी ढाला जाता था। इसके एक तरफ़ शाहन्शाह सिकेके जैसी ही आकृति थी और दूसरी तरफ़ फैजीकी रुबाई लिखी थी। उसका अर्थ यह होता है, “शाही खजानेका प्रचलित सिक्का शुभ भाग्यके ग्रह-युक्त है। हे सूर्य ! इस सिकेकी वृद्धि कर; क्योंकि हर समय अकबरकी मुहरसे यह सिक्का उत्तमताको प्राप्त हुआ है । (४) चौथा आत्मह नामका सिक्का था। यह सिक्का प्रथम शाइन्शाह नामक सिक्केसे चोथाई था। उसकी आकृति चौरस और गोल थी। इनमेंसे कइयोंपर तो शाहन्शाह नामक सिकेके समानही Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ज) अक्षर लिखे गये थे, और कइयों पर फैजीकी रुबाई दी गई थी। उसका अर्थ यह होता है:__" यह सिका भाग्यशाली पुरुषके हाथको सुशोभित करे नौ स्वर्गों और सात ग्रहोंका अलंकार बने; यह सिक्का सोनेका है इसलिए कार्य भी इसके द्वारा सुनहरी ही हों; (और) यह सिक्का बादशाह अकबरकी कीर्तिको हमेशा कायम रक्खे ।" दूसरी तरफ रहस नामक सिक्केवाली रुबाई ही लिखी गई थी। (५) पाँचवाँ बिन्सत नामक सिका था। उसकी आकृति आत्मह नामक दोनों सिक्कोंकीसी थी। इसका मूल्य शाइन्शाह नामक सिक्केका ६ था । ऐसे ही दूसरे भी कई सिके थे जिनका मूल्य शाहन्शाह सिकेका है और जितना था। (१) छठा चुगुल (जुगुल ) नामका सिक्का था वह शाहशाह सिकेके पचासवे भाग जितना था। उसका मूल्य दो अशरफियाँ था। (७) सातवाँ सिक्का लालेजलाली नामका था। उसकी आकृति गोल थी। मूल्य दो अशरफियाँ था। उसके एक तरफ़ 'अल्लाहो अकबर ' और दूसरी तरफ़ 'यामुईनु ' शब्द थे। (८) आठवाँ आफताबी नामका सिक्का था। वह गोल था। उसका वज़न १ तो० २ मा० ४॥ सुर्ख था । मूल्य बारह रुपये था । उसके एक तरफ़ ' अल्लाहो अकबर जल्लजलालहू' और दूसरी तरफ़ इलाही संवत् तथा टकसालका नाम था । (९) नववाँ सिक्का इलाही नामका था । उसकी आकृति गोल थी और वजन १२ मासा १॥ सुर्ख था । उसपर मुहर आफ़ताची सिकेके समानही थी । उसका मूल्य दश रुपये था । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सूरीश्वर और सम्राट्। (१०) दसवाँ लालेजलाली नामका चौकोर सिक्का था। उसका वज़न और मूल्य इलाही सिक्के जितना ही था । उसके एक तरफ 'अल्लाहो अकबर' और दूसरी तरफ़ 'जल्ल जलालहू' शब्द लिखे थे। (११) अदलगुत्क नामक ग्यारहवाँ सिक्का था । उसका वज़न ११ माशे और मूल्य ९) रु. था। उसके एक तरफ़ 'अल्लाहो अकबर' और दूसरी तरफ 'यामुइनु' शब्द थे । (१२) बारहवाँ सिक्का गोल मुहर था। उसका वज़न और मूल्य अदलगुत्क सिक्के के समान थे। उसकी मुहर दुसरी तरहकी थी। ( १३ ) तेरहवाँ मिहराबी नामका सिक्का था । इसका वजन, मूल्य और मुहर गोल अशरफ़ीके समान थे। (१४ ) मुईनी सिका चौदहवाँ था. उसकी आकृति चोरस गोल थी । वज़न और मूल्य लालेजलाली और गोल मुहर जितना ही था । उसपर यामुईनु नामकी छाप थी। (१५) चहार गोशह नामक पन्द्रहवाँ सिक्का था । उसकी मुहर और वज़न आफ़ताबी सिक्केके समान थे। (१६ ) सोलहवाँ गिर्द नामका सिक्का था। वह इलाही नामक सिकेसे आधा था । मुहर भी उसके समान ही थी। (१७) सत्रहवाँ धन ( दहन ) नामका सिक्का था। वह लालेजलालीसे आधा था। ( १८ ) सलीमी नामक अठारहवाँ सिक्का था । यह अदल. गुत्कसे आधा था। ( १९ ) उन्नीसवाँ रबी नामक सिक्का था । वह आफ़ताबी सिकेसे चौथाई था। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ज). (२०) बीसवाँ मन नामक सिक्का इलाही और जलालीके चौथे भाग जितना था। (२१ ) इक्कीसवाँ आघासलीमी सिक्का अदलगुत्कका चौथा भाग था। ( २२ ) बाईसवाँ पंजनामक सिक्का इलाहीके पांचवें भाग जितना था। (२३) तेईसवॉ पंदो नामक सिक्का था। वह लालेजलाली का पाँचवाँ भाग था । उसके एक तरफ 'कमल' और दूसरी तरफ 'गुलाब ' बनाया गया था। (२४ ) चौबीसवाँ समनी अथवा अष्टसिद्ध नामक सिक्का था । वह इलाही सिक्केके आठवें भाग जितना था। उसके एक तरफ 'अल्लाहो अकबर' और दूसरी तरफ 'जल्लनलालहु' शब्द लिखे गये थे। (२५) पचीसवाँ कला नामक सिक्का इलाही सिकेका सोल. हवाँ भाग था । उसके दोनों तरफ जंगली गुलाब लिखा गया था। (२६ ) छब्बीसवाँ झरह नामका सिक्का इलाही सिकेके बत्तीसवें भाग जितना था । मुहर उस पर कलाके जैसी थी। इस तरह अकबरके छब्बीस सिक्के स्वर्णके थे। अबुल्फ़ज़ल लिखता है कि,-" इनमेंसे लाले जलाली, धन ( दहन ) और मन नामके तीन सिक्के तो हरेक महीनेतक निरंतर शाही टकसालमें ढाले जाते थे। दूसरे सिके, जब ख़ास हुक्म मिलता था तभी ढलते थे ।" इस कथनसे यह अनुमान सहनीमें हो सकता है कि,-उपर्युक्त छब्बीस सिक्कोंमेंसे ये तीन ( जालेजलाली, धन और मन) सिक्के व्यवहारमें आते थे । ई. स. १६७३ में मुद्रित 'डिस्क्रिप्शन ऑफ एशिया ' के पृ० १६३ पर (Description of Asia by ogilby Page 163 ) लिखा है कि, 52 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० सूरीश्वर और सम्राट् । __" ऊपर जिस अशरफ़ीके सिक्कोंका उल्लेख किया गया है उसे 'जेरेफ़ीन अकबर ' (?) मी कहते थे । क्योंकि अकबरहीने सबसे पहले यह सिक्का चलाया था । और इसका मूल्य १३॥) रु० था । इसी तरह चादीके सिक्के भी अनेक चलते थे । उनमेंसे निम्न लिखि. तको अबुल्फजलने मुख्य बताया है।" (१) रुपया-यह गोल था । वजन ११॥ माशा था। सबसे पहले शेरशाहके समयमें रुपयेका उपयोग होने लगा था। उसके एक तरफ़ 'अल्लाहो अकबर जल्लजलालहू' शब्द थे और दूसरी तरफ़ वर्ष लिखा गया था । उसका मूल्य लगभग ४० दाम था। (२) जलालह-इसकी आकृति चौरस थी। इसकी कीमत और मुहर रुपयेके समानही थे। (३) दर्ब-यह जलालहसे आधा था । ( ४ ) चन-यह जलालहका चौपाई था (५) पन्दउ-यह जलालहके पाँचवें भाग जितना था। (६) अष्ट---यह जलालहके आठवें भाग जितना था। (७ ) दसा---यह जलालहका दसवाँ भाग था। (८) कला--यह जलालहका सोलहवाँ भाग था। (९) सूकी-यह जलालहका बीसवाँ भाग था। अबुल्फज़ल कहता है कि,-" जैसे जलालह नामक चौरस आकृतिवाले सिकेके जुबाजुदा हिस्से किये गये थे उसी तरह गोल सिकके-जिसका नाम रुपया दिया गया था-भी कई हिस्से किये गये थे । मगर इन भागोंकी आकृति कुछ भिन्न थी।" विन्सेंट ए. स्मिथ अग्ने अंग्रेज़ी ' अकबर' नामके ग्रंथके दि इंलिश फेक्टरीज इन इंडिया (ई. स. १६१८-१६२१ ) के पृष्ठ २६९ में रुपयेकी कीमत ८. पैसे बताई गई है । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ज). पृ० ३८८-८९ में लिखता है कि,-" अकबरके रुपयेका मूल्य यदि अमीके हिसाबसे लगावे तो २ शी. ३ पेन्सके लगभग होता है।" ___ ' इंग्लिश फेक्टरीज़ इन इंडिया' नामके ग्रंथके ( ई. स. १६५१ से १६५४ ) पृ० ३८ में भी अकबरके रु. की कीमत उतनी ही अर्थात् २ शि. ३ पेन्स बताई गई है। 'डिस्क्रिप्शन ऑफ ए शया ' के पृ० १६३ में लिखा गया हैं,-" रुपया, रूकी, रुपया, अथवा शाहजहानी रुपयाके नापसे पहचाना जाता था। उसका मूल्य २ शि. २ पेन्सके बराबर था और वह खरी चाँदीका बनता था। यह सिक्का सारे गुजरातमें चलता था। इसी लेखकने लिखा है कि एक रुपया ५३-५४ पैसेका होता था ।" मि० टेबरनियरने ' ट्रेवल्स इन इंडिया के प्रथम भागके १३-१४ वे पृष्टमे लिखा है कि,-" मेरी ( भारतकी) अन्तिम यात्राके समय सूरतमें १ रु० के ४९ पैसे मिलते थे । कई बार ५० भी मिलते थे। कभी कभी ४६ का भाव भी हो जाता था।" इसी पुस्तकके ४१३ वे पृष्ठमें उसने लिखा है कि,-" आगरे में एक रुपयेके ५५-५६ पैसे मी मिलते थे।" 'कलेक्शन ऑफ वॉयेजेज़ एण्ड ट्रेवल्स' के चौथे वॉ० के पृ० २४१ में लिखा है कि,- हिन्दुस्थान में जो सिक्के ढलो थे उनमें चाँदीके रुपये, अठन्नियाँ और चौ भन्नियाँ भी थीं।" यह कथन भी उपर्युक्त सिक्कों के जो भेद बताये गये हैं उन्हें सही प्रमाणित करता है। आगे चलकर इस लेखकने यह भी लिखा है कि, " एक रुपयेका मूल्य ५४ पैसा होता था। यह बात ऊपर बताई हुई .... रुपयेकी कीमतहीको सही साबित करती है।" अब अकबरके ताँबेके सिक्कोंका उलेख किया जायगा । अबुल्फजलन तानेके चार सिक बताय हैं । वे ये हैं। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सूरीश्वर और सम्राट् । (१) दाम-इसका वजन ५ टाँक था। पाँच टॉक एक तो० ८ माशा और ७ सुर्खके बराबर होता था । दाम एक रुपयेका चालीसवाँ भाग था । अर्थात् एक रुपये के चालीस दाम मिलते थे । यद्यपि यह सिका अकबरके पहले पैसा और बहलोली कहलाता था; मगर अकबरके समयमें तो दामके नामहीसे प्रसिद्ध था । इस सिक्कमें एक तरफ़ टकसालका नाम और दूसरी तरफ़ संवत् रहता था । अबुल्फ़ज़ल कहता है कि,-" गिनतीकी सरलताके लिए एक दामके २५ भाग किये गये थे। उसका प्रत्येक भाग जेतल कहलाता था। इस काल्पनिक विभागका उपयोग केवल हिसाबी ही करते थे। (२) अधेला-यह आधे दाम जितना था। (३) पाउला--दामका चौथाई भाग। (४) दमड़ी-दामका आठवा भाग । उपर्युक्त प्रकारसे सोना चाँदी और ताँबेके सिक्के अकबरके समयमें प्रचलित थे । इनके अलावा थोड़े दूसरे सिक्के भी चलते थे। यह बात कुछ लेखकोंने लिखी है। १ महमूदी-यह चाँदीका सिका था। इसकी कीमत एक शिलिंगके लगभग थी । अथवा २५-२६ पैसे एक महमूदीके मिलते थे। कहाजाता है कि, -" शायद यह महमूदी गुजरातके राजा महम्मद बेगड़ा ( ई. स. १४५९ से १५११ ) के नामसे प्रचलित हुई थी' । मेंडेल्स्लो नामका मुसाफिर लिखता है कि,-" हलकेसे हलके धातुके भेलसे सूरतमें यह महमूदी ढाली जाती थी। उसकी कीमत १२ पेन्स ( १ शि.) थी और वह सूरत, बडौदा, भरूच, खंभात और उसके आसयामके भागोंहीमें चलती थी।" १ देखो-नासिक जिलेका गेजेटिअर, पृ० ४५९ का तीसरा नोट । २ देखो-' मीराते अहमदी' (बर्डकी ) पृ० १२६-१२७ तथा 'जर्नल ऑफ द बॉम्बे ब्रांच ' द रॉयल ए० सोसायटी' ई० स० १९०७ पृ० २४७. - - - Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (ज). ४१३ 'टेवरनियर्स ट्रेवल्स इन इंडिया के वॉ. १ लेके पृ० १३-१४ में एक महमूदीकी ठीक ठीक कीमत बीस पैसे बताई गई है, और ऊपर तो २५-२६ पैसे बताई गई है । इसी तरह 'द इंग्लिश फेक्टरीज इन इंडिया (ई. स. १६१८-१६२१ ) के पृ० २६९ में एक महमूदीका मूल्य ३२ पैसे लिखा है। इससे मालूम होता है कि, उसका मूल्य बदलता रहा होगा। अकबरके समयमें महमूदीकी कीमत कितनी थी सो ठीक ठीक मालूम नहीं हुई । मगर, अनुमानसे कहा जासकता है, कि उसके समयमें भी क़ीमत बदलती रही होगी। इसके अलावा एक लारी नामक सिक्का चलता था। वह परशिअन सिका था। और खरे सोनेका बना हुआ था। उसकी आकृति लंब-गोल और कीमत १ शिलिंग ६ पेन्स थी। 'दि इंग्लिश फेक्टरीज़ इन इंडिया' (ई. स. १६१८ से १६२१) पृ० २२७ के नोटमें इसकी कीमत लगभग १ शिलिंग लिखी है। एक टंका नामक ताँबाका सिक्का था। जैनग्रंथोमें इसका बहुत उल्लेख आता है । विन्सेंट ए. स्मिथने ' इंडिअन एण्टिक्वेरी ' वॉ० ४८, जुलाई सन् १९१९ के अंकके पृ. १३२ में लिखा है कि,-"टंका और दाम दोनों एक ही हैं।" मि० स्मिथका यह कथन छोटे टंकोंके लागू पड़ता है । क्योंकि, कॅटलॉग ऑफ दि इंडिया कोइन्स इन द ब्रिटिश म्यूजिअम ' के पृ० xc में दिये हुए सिक्कोंके वर्णनमें दो प्रकारके टंका बताये गये हैं। छोटे और बड़े । बड़े टकेका वजन बताया गया है ६४० ग्रेन और छोटेका ३२० ग्रेन । बड़ेका मूल्य दो दाम बताया गया है और छोटेका एक । अतएव स्मिथका मत छोटे टंकेके साथ लागू होता है । मि० बर्डकी 'मीराते अहमदी' के १ देखो-डिस्क्रिप्शन ऑफ एशिया पृ० १०३ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सूरीश्वर और सम्राट् । पृ० ११८ में १०० टंकोंके बराबर ४० दाम (१ रुपया) बताये गये हैं। इससे भी उपर्युक्त कथनहीकी पुष्टि होती है । इसके अलावा और भी कई ताँबेके सिके चलते थे। वे फ़लूम, निस्फी, एकटंकी, दोटंकी, चारटंकी आदिके नामसे ख्यात थे। अकबरके समयमें, जैसा कि ऊपर उल्लेख हुआ है, मुहरवाले सिकका प्रचार था । इसी तरह बगैर मुहरकी भी कई चीजें नाणामुद्राकी तरह काममें आती थीं। उनका हिसाब गिनतीसे होता था। ऐसी चीज़ोंमें ( कडवी ) बादामें और कोड़ियाँ मुख्य थीं। टेवरनियरने लिखा है कि, " मुगलोंके राज्यमें कड़वी बादाम और कोड़ियाँ भी चलती थीं। गुजरात प्रान्तमें छोटे लेनदेनके लिए ईरानसे आई हुई कड़वी बादामें चलती थीं। एक पैसेकी ३५ से ४० तक बादामें मिलती थीं।" इसी विद्वानने आगे लिखा है कि, "समुद्रके किनारेपर एक पैसेकी ८० कोड़ियाँ मिलती थीं। जैसे जैसे समुद्रसे दूर जाते थे वैसे ही वैसे कोड़ियाँ भी कम मिलती थीं । जैसे,-आगरेमे १ पैसेकी ५०-५५ मिलती थीं।" 'डिस्क्रिप्शन ऑफ एशिया के पृ० १६३ में भी बादामोंका भाव १ पैसेकी ३६ और कोडियोका भाव १ पैसेकी ८० बताया गया है। - ऊपरके वृत्तान्तसे अकबरके समयकी प्रचलित मुद्राका कोष्टक इस प्रकार बताया जासकता है, ३९ से ४० बादामें अथवा ८० कोड़ियाँ = १ पैसा। ४९ से १६ पैसे अथवा ४० दाम = १ रुपया । . १३॥ से १४ रुपया -१ अशरफ़ी १ देखो-' टेवरनियर्स ट्रेवल्स इन इंडिया' वॉ० १ ला. पृ. १३-१४. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ति। इस पुस्तकमें लिखी गई कुछ बातोंका विशेष स्पष्टीकरण इस पूर्तिमें किया जाता है। अभिरामावाद ।। पृ० १०३ में अभिरामाबाद पर एक नोट लिखा गया है। कि, अभिरामाबाद, अलाहाबाद नहीं था मगर फतेहपुरसीकरीसे छःकोसपर बसे हुए एक गाँवका नाम था । इस विषय में ' मंडीज ट्रेवल्स' (Mundy's Travels)-जो सर रिचर्ड सी. टेम्पल द्वारा प्रकाशित हुआ है-विशेष प्रकाश डालता है। इस पुस्तकसे मालूम होता है कि अभिरामाबाद एक अच्छा करवा था । वह ' बयाना ' से उत्तर दिशामें दो कोसके फासलेपर था। इसको ' इब्राहीमाबाद ' भी कहते थे। यहाँ एक बहुत ही सुंदर बावड़ी थी । यह बावड़ी अब भी मौजूद है और ' झालर बावड़ी ' के नामसे पहचानी जाती है । इसपरके एक लेखसे मालूम होता है कि, अलाउद्दीन खिलजीके वज़ीर काफूरने इसको ई० स० १३१८ में बंधाया था । देखो--( Cunningham Archaeological Survey of India Report Vol. XX 69-70 Also Mundy P. 101 ) विजरेल । पृ० २५२ में फिरंगीयोंके नायकका नाम विजरेल दिया गया है। विजरेल यह पोटुंगीज़ शब्द Vice-rei on Viso-rei का अपभ्रंश रूप मालूम होता है । अंग्रजीमें उसे — वॉइसराय ' कहते हैं । देखो-'डिक्शनरी ऑफ दि इंग्लिश-पोटुंगीन लेगवेज' लेखक; एन्थनी, वीरा, पे० ६९४. ( Dictionary of the English Portugese Languages by Anthony Yieyra Page 694.) Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ale brary.org