SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮ सूरीश्वर और सम्राट् । होता था कि, वे किसी गंभीर ध्यानसागर में निमग्न हैं। उन्हें घेर के बैठे हुए मुनि टगर टगर उनके मुखकी ओर देख रहे हैं, और उत्कंठासे गुरुदेव के वचन सुननेकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। सैकड़ों श्रावक श्राविकाएँ आते हैं और सूरिजीकी पूजा कर उदास मुख बैठ जाते हैं । भादवा सुदी ११ ( वि० सं० १६५२ ) का दिन था । संध्या समय निकट आ रहा था । सूरिजी अब तक ध्यानमें मग्न थे । साधु उनके मुखारविंदको देख रहे थे । अकस्मात् उन्होंने आँखें खोलीं । प्रतिक्रमणका समय जाना । सब साधुओं को अपने पास बिठाकर प्रतिक्रमण कराया । प्रतिक्रमण पूर्ण होनेके बाद सूरिजीने अन्तिम शब्दोच्चार करते हुए कहा: "माइयो ! अब मैं अपने कार्य में लीन होता हूँ। तुमने हिम्मत नहीं हारना । धर्मकार्य करनेमें वीरता दिखाना । " फिर वे आत्मचिन्तवनमें लीन हुए- " मेरा कोई नहीं है; मैं किसीका नहीं हूँ; मेरा आत्मा ज्ञान-दर्शन चारित्रमय है; सच्चिदानंदमय है, शाश्वत है; मैं शाश्वत सुखका मालिक होऊँ मैं आत्माके सिवाय अन्य सब भावका त्याग करता हूँ; आहार, उपाधि और इस तुच्छ शरीरका भी त्याग करता हूँ । ” इत्यादि वाक्योच्चार कर सूरिजी चार शरणोंका स्मरण करने लगे। उस समय सूरिजी पद्मासनमें विराजमान हुए । हाथमें माला लेकर जाप करने लगे । चारमालाएँ समाप्तकर पाँचवीं फेरना चाहते थे, इतनेहीमें माला हाथसे गिर पड़ी । लोगों में हाहाकार मच गया । जगत्का हीरा मानवी देहको छोड़कर चला गया । जिस समय सुरलोक में हीरका स्वागत हुआ; सुरघंटका नाद हुआ । उसी समय भारतवर्षको गुरुविरहरूपी भयंकर बादलोंने आच्छादित कर लिया । X Jain Education International x x For Private & Personal Use Only x www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy