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________________ २० सूरि-परिचय। मैं तो इसका शीघ्र ही ब्याह करनेवाला हूँ। आपको किसीने यह झूठ कहा है।" रत्नपालकी बात सुन कर शिताबखाँने उसे छोड़ दिया । सब तरह शान्ति हो गई । इस झगड़ेंमें हीरविजयसूरिको तेईस दिन तक गुप्त रहना पड़ा था। दूसरा उपद्रव-विक्रम संवत् १६३० ( ई० स० १६७४ ) में हीरविजयसरि जब 'बोरसद' में थे,तब कर्णऋषिके शिष्य जगमालऋषिने आ कर उनसे फर्याद की कि, " मेरे गुरु मुझे पुस्तकें नहीं देते हैं सो दिलाओ।" सूरिजीने उत्तर दियाः-" तेरे गुरु तुझे अयोग्य समझते होंगे इसी लिए वे तुझे पुस्तकें नहीं देते। इसके लिए तू झगड़ा क्यों करता है ? " __ आचार्यश्रीने उसे समझाया तो भी वह न माना । इसलिए वह गच्छके बाहिर निकाल दिया गया । जगमाल अपने शिष्य लहुआऋषिको साथ ले कर 'पेटलाद' गया, वहाँ के हाकिमसे मिला और हीरविजयमूरिके विषयमें कई बनावटी बातें कहीं। हाकिमने नाराज हो कर उसी समय हीरविजयसूरिको पकड़नेके लिए कई पुलिसके सिपाही उसके साथ भेजे । सिपाहियोंको ले कर वह बोरसद गया, मगर वहाँ उसका काम न बना। यानी-हीरविजयसूरिया अन्य कोई साधु वहाँ न मिले। वह लौट कर 'पेटलाद' गया और कुछ घुड़ सवार लेकर पुनः बोरसद गया । इस वार भी हीरविजयसूरि न मिले । श्रावकोंने सोचा कि, इस तरह बार बार उपद्रवोंका होना, और आचार्य महाराजको हैरान करना उचित नहीं है। शाम, दाम, दंड, भेदसे इस उपद्रवको शान्त करना ही उचित है । ऐसा सोच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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