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________________ सूरीश्वर और सम्राट्। कर उन्होंने 'दामनीति' का उपयोग किया । घुड़सवारोंकी मुट्ठी गरम होते ही वे जगमालके विरुद्ध हो गये और उसे कहने लगेः “तू शिष्य है और वे तेरे गुरु हैं । गुरुके साथ झगड़ा करना उचित नहीं है । गुरुको अधिकार है कि, वे चाहें तो तुझे बाजारमें खड़ा करके बेच दें और चाहें तो तेरे नाकमे नाथ डालें। तुझे सबकुछ सहना होगा।" जो उसके सहायक थे वे ही जब इस तरह विरोधी हो गये तब बेचारा वह क्या करता ? उसकी एक न चली । अन्तमें उन्होंने उसको वहाँसे निकाल दिया । इस तरह उस उपद्रवका अन्त हुआ। हीरविजयसूरि पुनः प्रकट रूपसे विचरण करने लगे। विहार करते हुए वे खंभात आये। तीसरा उत्पात-श्रीसोमविजयजीने दीक्षा ली उसके बाद हीरविजयसूरि विहार करते हुए, 'पाटन' हो कर 'कुणगेर' गये। ( यह कुणगेर पाटनसे ३ कोस दूर है । ) चौमासा वहीं किया । सोमसुंदर नामक एक आचार्य भी उस समय वहीं थे। पर्युषण पर्व बीतनेके बाद, उदयप्रभ नामके आचार्य वहाँ और गये । ( उदयप्रभ सरि उस समयके शिथिल साधओं ( यतियों) मेंसे कोई एक होने चाहिए । कारण-यदि वे शिथिलाचारी न होते तो, निष्प्रयोजन एक गाँवसे दूसरे गाँव चौमासेमें न जाते । कहा जाता है कि, उस समय उनके साथ तीनसौ महात्मा थे। अस्तु ।) उदयप्रभसूरिने हीरविजयसूरिको कहलाया कि, तुम सोमसुंदरसूरिको "खामणा करो-क्षमापना माँगो ।” सुरिजीने कहलायाः--- जब मेरे गुरुजीने नहीं किये तो मैं कैसे कर सकता हूँ ? " इस तरह हीरविजयसूरिने जब उदयप्रभसूरिकी बात न मानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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