________________
सूरि-परिचय । तब वे और उनके साथी सब सुरिजीसे ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने सुरिजीको कष्ट देना स्थिर किया। वे पाटण गये। वहाँके सूबेदार कलाखाँसे मिले, और उसे समझाया कि,-'हीरविजयसूरिने बारिश रोक रक्खी है।' क्या बुद्धिवादके कालमें कोई मनुष्य इस बातको मान सकता है ? मगर पाटलके हाकिम कलाखाने तो उस बातको ठीक समझा और हीरविजयसूरिको पाड़नेके लिए सौ घुड़सवार भेज दिये । सवारोंने जा कर ' कुणगेर ' को घेर लिया। हीरविजयसूरि रातको वहाँसे निकल गये। उनकी रक्षाके लिए 'वडावली' के रहनेवाले तोला श्रावकने कई कोलियोंको उनके साथ भेज दिया । हीरविजयसूरि 'वडावली' पहुँचे । जब वे वडावली जानेको निकले थे तब खाईमें उतर कर जाते समय उनके साथके साधु 'लाभविजयजीको सर्पने काट खाया । मगर सूरिजीके हाथ फेरनेसे सर्पका जहर न चढ़ा।
उस तरफ कुणगेरमें गये हुए घुड़सवारोंने हीरविजयसूरिको ढूंढा । मगर वे नहीं मिले । इससे पैरोंके निशानोंके सहारे सहारे वे वड़ावली पहुंचे। वड़ावलीमें भी उन्होंने बहुत खोज की मगर सूरिजी उन्हें नहीं मिले । इससे अन्तमें निराश हो कर वे वापिस पाटन चले गये । इस आपत्तिसे बचनेके लिए उन्हें एक भोयरेमें रहना पड़ा था। इस तरह उन्हें तीन महीने तक गुप्त रहना पड़ा था। वि० सं०
१ यह उपद्रव वि. सं० १६३४ में हुआ था । यह बात कवि ऋषभदास कहते हैं । मगर यदि यह उपद्रव पाटनके. सूबेदार कलाखाँके ( जिसका पूरा नाम खानेकलाँ मीर महम्मद था ) वक्तमें हुआ हो तो उपर्युक्त संवत् लिखनेमें भूल हुई है । कारण-कलाखाँ तो संवत् १६३१ ( सन् १५७५ ) तक ही पाटनका सूबेदार रहा था । पश्चात् उसकी मृत्यु हो गइ थी । इससे यह समझमें आता है कि, या तो संवत् लिखनेमें भूल हुई है या सूबेदारका नाम लिखनमें भूल हुई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org