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सूरीश्वर और सम्राट् । मुसलमान बादशाहों पर भी जिनसिंहसरि, जिनदेवमूरि और रत्नशेखरसूरि ( नागपुरी ) के समान जैनाचार्योंने कितने ही अंशोंमें प्रभाव डाल कर धर्म तथा साहित्यकी सेवा की थी।
अभिप्राय कहनेका यह है कि, जिस जैनधर्ममें समय समय पर ऐसे महान प्रभावक आचार्य होते आये थे उस जैनधर्म पर भी उस समयकी ( पन्द्रहवीं और सोलहवी शताब्दिकी ) अराजकताने बिजलिकी तरह आश्चर्योत्पादक प्रभाव डाला था। यह बिलकुल ठीक है कि, जहाँ देश भरमें हर तरहकी बगावत-अराजकता-निर्नाथता-अनुचित स्वच्छंदताका पवन चल रहा हो वहाँ किसी भी तरहकी मर्यादा नहीं रहती है । 'शान्तिप्रिय' के आदरणीय पदका उपभोग करनेवाले
और एकताके विषयमें सबसे आगे रहनेवाले जैन समाजमें भी उस समयकी अशान्ति देवीने अपना पैर फैला दिया था। न रहा संघका संगठन और न रही ऐसी स्थिति कि, जिसमें कोई किसीको कुछ कह सकता और कोई किसीकी बात मान लेता । संघ छिन्नभिन्न होने लगा। एक एक करके नये नये मत निकलने लगे । जैसे-१४५२ ईस्वीमें लौंका नामके गृहस्थने लौंका मत चलाया और मूर्तिपूजाकी उत्थापना की । १५०६ ईस्वीमें कटुक नामके गृहस्थने कटुकमत निकाला । विजयने १५१४ ईस्वीमें विजयमतकी स्थापना की । पार्श्वचंद्रने १५१६ ईस्वीमें पार्श्वचंद्रमतकी नींव डाली और १५४६ ईस्वीमें सुधर्म मत उत्पन्न हुआ । आदि। इन मतोंको चलानेवालोंने जैनधर्मके सिद्धान्तोंमें कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर किया ! जैनधर्मके एक छत्र साम्राज्यको उन्होंने छिन्नभिन्न कर दिया। इस बातकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि, जिस धर्मके अनुयायियोंमें आपसमें झगड़ा होता है, पारस्परिक विभिन्नता रहती है उस धर्मका भी एक छत्र साम्राज्य रहता है । उस समय जैसे जैसे नवीन मत निकलते गये वैसे ही वैसे
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