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________________ परिस्थिति। परस्परमें नीचा दिखानेका प्रयत्न, आपसी द्वेष और एकका दूसरे पर आक्षेप भी बढ़ता गया । ' अपना सच्चा और दूसरेका मिथ्या ' यह नियम प्रत्येक पंथवालेके साथ कार्य कर रहा था। उसीके वश हो कर मूल परंपराको उच्छेद करनेके लिये वे कुल्हाड़ीका कार्य कर रहे थे। उन्हें इतनेहीसे संतोष नहीं होता था । वे जैनोंके प्राचीन तीर्थों, मंदिरों और उपाश्रयों पर भी अपना अपना अधिकार जमानेके प्रयत्न करते रहते थे। इसी लिए उस समय भिन्न भिन्न गच्छोंके सभी आचार्य एक वार शत्रुजय ( पालीताना ) में एकत्रित हुए और उन्होंने निश्चित किया कि-" शत्रुनयतीर्थ पर जो मूल गढ़ है वह और आदिनाथ भगवान्का मुख्य मंदिर है वह, समस्त श्वेतांबर जैनोंका है और अवशेष देवकुलिकाएँ भिन्न भिन्न गच्छवालोंकी हैं । " आदि । एक तरफ तो भिन्न भिन्न मतों और पंथोंके जोरसे जैनधर्मके अनुयायियोंमें बहुत बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ था; अशान्ति फैल गई थी और दूसरी तरफ शिथिलाचारने साधुओं पर अपना अधिकार जमाना प्रारंभ किया था। इससे साधुओंमें स्वच्छंदताका वायु फैलने लगा, छोटे मोटेकी मर्यादा प्रायः उठने लगी, गृहस्थोंके साथ साधु विशेष व्यवहार रखने लगे। उसका परिणाम 'अतिपरिचयादवज्ञा' के अनुमार, साधुओंको भोगना पड़ा । साधुओंमें ममत्व बढ़ा। वे पुस्तकों और वस्त्रोंका और कई कई तो द्रव्यका भी संग्रह करने लगे। रसनेन्द्रियकी लुब्धताके कारण कई तो शुद्धाशुद्ध आहारका भी विचार छोड़ने लगे । पडिलेहण और इसी तरहकी अन्य जयणाओंमें भी वे उपेक्षा करने लगे। उनकी वचन वर्गणाओंमें भी कठोरताने प्रवेश किया। इन बातोंसे श्रावकोंकी साधुओंपरसे श्रद्धा हटने लगी। राजकीय झगड़ों और मतोंके टंटोंसे कई प्रान्तोंमें तो साधुओंका विहार भी बंद हो गया। साधुओंकी शिथिलतासे नये निकले हुए मत बहुत लाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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