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परिस्थिति। समय न लायगी कि, जिसमें हम अपने दुःखके आँसू पौंछ डालें ?"
इस मौके पर एक दूसरी बात कहना भी जरूरी है । जैसे देशहितका आधार देशका राजा है, वैसे ही सच्चरित्र विद्वान् महात्मा भी है। विद्वान् साधु महात्मा जैसे प्रजाके हितके लिए; उसको अनीतिसे दूर रख सन्मार्ग पर चलानेके लिए, प्रयत्न करते हैं, वैसे ही राजाओंको भी वे निर्भीकता पूर्वक उनके धर्म समझाते हैं। घनिष्ठ संबंधियोंका और खुशामदियोंका जितना प्रभाव राजा पर नहीं होता है, उतना प्रभाव शुद्ध चारित्रवाले मुनियोंके एक शब्दका होता है। इतिहासके पृष्ठ उलट कर देखोगे तो मालूम होगा कि, राजाओंको प्रतिबोध देनेमें या प्रजाको उसका धर्म समझानेमें जो सफल मनोर्थ हुए थे वे धर्मगुरु ही थे । उनमें भी यदि निष्पक्ष भावसे कहा जाय तो, कहना पड़ेगा कि, इस कर्तव्यको पूरा करने मुख्यतया जैनाचार्य ही विशेष रूपसे आगे आये थे। उन्हींको पूर्ण सफलता मिली थी। और उसका खास कारण था, उनका सच्चरित्र और उनकी विद्वत्ता । कौन इतिहासज्ञ नहीं जानता है कि, संपति राजाको प्रतिबोध करनेका सम्मान आर्यमुहस्तिने, आमराजाको प्रतिबोध करनेका सम्मान बप्प भट्टीने, हस्तिकुंडीके राजाओंको प्रतिबोध करनेका सम्मान वासुदेवाचार्यने, वनराजको प्रतिबोध करनेका सम्मान शीलगुणसूरिने
और सिद्धराज तथा कुमारपालको प्रतिबोध करनेका सम्मान हेमचंद्राचार्यने प्राप्त किया था। ये और ऐसे दूसरे कितने ही जैनाचार्य हो गये हैं कि, जिन्होंने राजा महाराजाओंको प्रतिबोध दे कर देशमें शान्तिका और आर्यधर्मके प्रधान सिद्धान्त-अहिंसाका प्रचार करनेमें सफलता लाथ की थी। इतना ही क्यों ? महम्मद तुगलक, फीरोजशाह, अलाउद्दीन और औरंगजेबके समान क्रूर हृदयी व निष्ठुर
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