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सूरीश्वर और सम्राट् ।
था । वहाँकी भयकंर सर्दी भानुचंद्रजीको सहन करनी पड़ती थी । बादशाह वहाँ भी निरंतर प्रति रविवार सूर्यके हजार नाम सुनता था । एक बार उसने भानुचंद्रजीसे पूछा: " भानुचंद्रजी । आपको ! यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है ?" भानुचंद्रजीने मुसकुराते हुए उत्तर दिया – “ सम्राट् ! हम साधु हैं । हमें कैसी ही तकलीफ हो सहनी पड़ती है; शान्तिसे तकलीफ बर्दाश्त करना ही हमारा धर्म है ।" बादशाहने कहा: " यह तो ठीक है, मगर आपको किसी चीजकी आवश्यकता हो तो बतलाइए । " भानुचंद्रजी बोले :- " आजकल सर्दी बहुत ज्यादा पड़ती है, इसलिए यदि शरीर में थोड़ी उष्णता रहे तो सरदीका असर कम हो । ” बादशाहने कहा :- "यह तो कोई बड़ी बात नहीं है । दर्बारमें दुशाले वगेरा गरम कपड़े हैं । आप जितने आवश्यक हों ले सकते हैं । " भानुचंद्र जीने कहा :- "मैं दुशाकोसे शरीरमें उष्णता लाना नहीं चाहता । मेरे शरीरको सर्दी से बचानेवाली उष्णता है धर्म कार्य । ” बादशाह बोला :चाहते हैं ? " भानुचंद्रजीने कहाः " मैं यह चाहता हूँ कि, हमारे पवित्र तीर्थ सिद्धाचल ( पालीताना ) की यात्रा करनेके लिए जानेवालोंसे जो ' कर ' वहाँ पर लिया जाता है वह बंद हो जाय ।"
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-" तब आप क्या
बादशाहने यह बात मंजूर की। उसने बादमें फर्मानपत्र लिखकर हीर विजयसूरिके पास भेज दिया ।
'हीरसौभाग्य काव्य ' के कर्ताका कथन है कि, सिद्धाचलजीकी यात्रा के लिए जानेवाले से पहिले ' दीनार ' ( सोनेका सिक्का ), फिर पाँच महमुदका और फिर तीन महमुंदिका लिये जाते थे । अन्तमें बादशाहने यह ' कर ' बंद कर दिया था ।
कहा जाता है कि, बादशाह जब काश्मीरसे लौटा तब वह हिमालयके विषम मार्ग ' पीरपंजालकी घाटी में हो कर आया था ।
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