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________________ सूरीश्वर और सम्राट् । गुरुकी पूर्ण कृपा प्राप्त करें और संसारमें सुयश-सौरभ फैलावें तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हीरविजयसृरिमें उपर्युक्त प्रकारके उत्तमोत्तम गुण थे। वे उपदेशद्वारा हजारों मनुष्योंका कल्याण करनेका अश्रान्त प्रयत्न करते थे, इसलिए उनका जीवन तो वास्तविक अर्थमें सार्थक ही था । तो भी वे यह मानते थे और यह सचभी है-कि, बाह्य प्रवृत्तियोंकी अपेक्षा आध्यात्मिक प्रवृत्ति ही विशेष लाभदायक होती है। आध्यात्मिक प्रवृत्तिद्वारा प्राप्त हार्दिक पवित्रता बाह्य प्रवृत्तिमें बहुत सहायता पहुँचाती है । हार्दिक पवित्रताविहीन मनुष्यका लाखों ग्रंथ लिखे जायें इतना उपदेश भी निष्फल जाता है । हृदयकी पवित्रतावाले मनुष्यको बहुत बोलनेकी भी आवश्यकता नहीं होती है। उसके थोड़े ही शब्द मनुष्योंके हृदयोंपर अपना पूरा असर डालते हैं। हीरविजयसूरिजीने जैसे उपदेशादि बाह्य प्रवृत्तियोंसे अपने जीवनको सार्थक किया था वैसे ही बाह्य प्रवृत्तिकी पूर्ण सहायक-कारण आध्यात्मिक प्रवृत्तिको भी वे भूले न थे । वे समय समयपर एकान्तमें बैठकर घंटों ध्यान करते थे। कईबार तपी हुई रेती पर बैठ 'आतापनाभी लिया करते थे। रात्रिके पिछले पहरमें-जो योगियोंके ध्यानके लिए अपूर्व गिना जाता है-उठकर ध्यान तो वे नियमित रूपसे किया ही करते थे । सूरिनीकी इस आध्यात्मिक प्रवृत्तिसे प्रायः लोग अनान ही थे। और तो और उनके साथ रहनेवाले साधुओंमेंसे भी बहुत कम साधु इस बातको जानते थे। एक दिनकी बात है। सूरिनी उस समय सीरोहीमें थे। वे हमेशाके नियमानुसार पिछली रातमें उठकर ध्यानमें खड़े थे। अवस्था और शारीरिक अशक्तिके कारण उनको चक्कर आ गया । वे धड़ामसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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