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________________ जीवनकी सार्थकता। जमीनपर गिरकर बेहोश हो गये। धमाका सुनकर साधु जागृत हुए । खोननेसे पता चला कि, मूरिजी ही अशक्तिके कारण ध्यान करते हुए गिर गये हैं । थोड़ी देर बाद जब उन्हें चेत हुआ तब सोमविजयजीने विनीत भावसे कहा:-" महाराज ! अब आप वृद्ध हुए हैं। जैनशासनोन्नतिकी चिन्तामें आपने अपना शरीर सुखा दिया है। शरीर बहुत ही कमजोर हो गया है । इस दशामें ऐसी आभ्यन्तरिक क्रियाओंसे दूर रहा जाय तो उत्तम है। आपने परमात्माके शासनके लिए जो कुछ किया है या जो कुछ करते हैं वह कुछ कम नहीं है। यदि आपके शरीरमें विशेष शक्ति रहेगी तो विशेष कार्य कर सकेंगे और हमारे समान अनेक जीवोंका उद्धार भी कर सकेंगे।" सूरिनीने सोमविजयजी आदि साधुओंको समझाते हुए कहा:--" भाई ! तुम जानते हो कि, शरीर क्षणभंगुर है । कब नष्ट हो जायगा इसकी खबर नहीं है। इस अंधेरी कोठड़ीमें अमूल्य रत्न भरे हुए हैं। उनमें से जितने अपने हाथ आवे उतने ले लेने चाहिए। शरीरकी दुजनताका विचार करनेसे मालूम होता है कि, उसको तुम कितना ही खिला पिलाकर हृष्टपुष्ट करो मगर, अन्तमें वह जुदा हो ही जायगा-यहींपर रह जायगा । तो फिर उसपर मोह किस लिए करना चाहिए। उससे तो बन सके उतना काम लेना ही अच्छा है। इस बातको भी ध्यानमें रखना चाहिए कि, हजारों लाखों मनुष्य वशमें किये जा सकते हैं; परन्तु आत्माको आधीन करना बहुत ही कठिन है। जब आत्मा आधीन हो जाता है तब सारा संसार आधीन हो जाता है । 'अपा. जीए सव्वं जी।' आत्माको जीता तो सबको जीता। जगतको जीतनेमें-मनुष्योंपर अपना प्रभाव डालने में भी आत्माको जीतनेकी आवश्यकता है। इस आवश्यकताको पूर्ण करनेके लिए अध्यात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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