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प्रतिबोध ।
वक्त बहुत होनेसे बादशाह अबुल्फजलके मकानसे अपने महलोंमें गया और सूरिजी जबतक 'फतेहपुर सीकरी । में रहे तबतक अनेक बार बादशाहसे मिले और धर्मचर्चा की । भिन्नभिन्न मुलाकातोंमें सूरिजीने बादशाहको भिन्नभिन्न विषय समझाये । इससे बादशाहको यह निश्चय हो गया कि, सूरिनी एक असाधारण विद्वान् साधु हैं । उनको जैन तो मानते और पूजते ही हैं, परंतु अपनी विद्वत्ता और पवित्र चारित्र के गुणके लिए वे समस्त संसारके वन्द्य और पूज्य हैं। अतः उन्हें जैनगुरु न कहकर 'जगद्गुरु' कहना ही उनका उचित सत्कार करना है । बादशाहने अपनी इस धारणाको मनहींमें नहीं रक्खा । एक दिन उसने अपनी राजसभामें मूरिजीको 'जगद्गुरु ' के पदसे विभूषित किया । इस पदप्रदानकी प्रसन्नतामें बादशाहने अनेक पशुपक्षियोंको बंधनसे मुक्त किया।
___ एकबार बादशाह अबुल्फ़ज़ल और बीरबल आदि दर्वारियोंके साथ बैठा था । उसी समय शान्तिचंद्रजी आदि कई विद्वान् मुनियोंके साथ सूरिजी महाराज भी वहाँ पहुँच गये। उस समय सूरिजीने बादशाह को उपदेश दिया । कुछ देरके बाद बादशाहने विनम्र स्वरम कहाः-"महाराज ! मेरे लायक जो कुछ काम हो वह निःसंकोच भावसे बताइए । क्योंकि में आपहीका हूँ। और जब मैं ही आपका हूँ तब यह कहनेकी आवश्यकता नहीं रह जाती है कि, यह राज्यऋद्धि समृद्धि और सारा राज्य आपहीका है।
सूरिजीने कहा:--"आपके यहाँ कैदी बहुत हैं । उनको यदि मुक्तकर दें तो अच्छा हो ।' बादशाहको अपराधियोंसे विशेष चिढ़ थी। इसलिए उसने सूरिजीकी इस बातको नहीं माना । ऋषभदास कविने बादशाहके उत्तरका इन शब्दोंमें वर्णन किया हैः
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