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________________ शिष्य-परिवार, निःस्पृहताके कारण ही वे जहाँ जाते थे वहाँ सम्मान पाते थे और इच्छित कार्य समाप्त कर सकते थे। इतना ही नहीं उन्हें अचिन्तित शिष्य-संपदा मी आ मिलती थी । इसीसे वे धीरे धीरे दो हजार साधुओंके अधिकारी-आचार्य-हो गये थे। यहाँ यह बात जरूर ध्यानमें रखनी चाहिए कि, किसी भी 'पद' के प्राप्त करनेमें इतनी कठिनता नहीं है, जितनी उस पद का'ऊपरी' पनका उत्तरदायित्व समझने में है। आचार्य श्रीहीरविजयसरि आचार्य हुए, गच्छनायक हुए और दो हजार जनसाधुओं व लाखों जैनगृहस्थोंके नेता हुए, उससे वे जितने प्रशंसाके पात्र हैं उससे भी विशेष प्रशंसाके पात्र इस लिए हैं कि उन्होंने अपने 'पद'का उत्तरदायित्व समझ कर युक्ति पुरस्सर विशाल-भावसे उन्होंने समुदायकी सँभाल रक्खी थी और शासनके हितार्थ अनेक कठिनाइयाँ झेली थीं। सदासे चला आया है उस तरह हीरविजयसरिके समयमें भी कई क्लेशप्रिय और संकृचित हृदयके मनुष्य, झूठे सच्चे कारण खड़े कर समाजमें क्लेश उत्पन्न करते थे । कई सम्मानके भूखे और प्रतिष्ठाके पुजारी मनुष्य अपनी इच्छा तृप्त करनेके लिए समाजमें फूट डालते ये और कई ईर्ष्यालु हृदयी दूसरेकी कीर्ति न सह सकनेसे अनिष्ट उपद्रव खड़े करते थे। ऐसे मौकों पर सरिनी जल्दबाजी, दुराग्रह और छिछोरापन न कर इस तरहसे काम लेते थे कि, जिसका परिणाम उत्तम ही होता था। कईशार मूरिजीकी कृति उनके अनुयायियोंको भी ठीक नहीं जंचती थी, मगर पीछे से जब वे उसका शुभ परिणाम देखते थे तब उन्हें इस बातकी सत्यता पर विश्वास होता था कि,'महात्माओंके हृदयसागरका किसीको भी पता नहीं लगता है।' ऐसे प्रसंगोंको दबादेनेका मूरिनीको जितना खयाल रखना पड़ना या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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