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सूरीश्वर और सेंम्राट
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उतना ही, बरके उससे भी ज्यादा खयाल उन्हें इस बातका रखना पड़ता था कि, समाजमें एकका छूत दूसरेको न लग जाय । जब कोई ऐसी बात उपस्थित होती थी तब मूरिनी गंभीरता पूर्वक उस पर विचार करते थे और उसके बाद कोई मार्ग ग्रहण करते थे। सूरिनीको ऐसे अनेक प्रसंगोंका मुकाबिला करना पड़ा था । हम उनमेंसे एक दो का यहाँ उल्लेख करते हैं।
हीरविजयसूरि जब अकबर बादशाहके पास थे तब उनकी अनुपस्थिति द्वेषी लोगों ने गुजरातमें अनेक उपद्रव खड़े किये थे। खंभातके xरायकल्याणने कई गैनोंस अमुक कारणको सामने कर बारह हजार रुपयोंका खत लिखवा लिया था और कइयोंके सिर मुंडवा डाले थे। कइयोंने, प्राणभयसे इस उपद्रवमें जैनधर्मका भी त्याग कर दिया था। इस उपद्रवसे सारे गुजरातमें हाहाकार मच गया। दूसरी तरफ पाटनमें विजयसेनसूरिके साथ खरतरगच्छवालोंने शाखा करना प्रारंभ किया था।
x यह राज्याधिकार्यों में से एक था। खंभातहीका रहनेवाला वैश्य था। इसके विषयमें विशेष जाननेके लिए ' अकबरनामा' के तीसरे भागके अंग्रेजी अनुवादका ६८३ वाँ तथा ' बदाउनी ' के दूसरे भागके अंग्रेजी अनुवादका २४९ वा पृष्ठ देखना चाहिए ।
* यह उस समयका शास्त्रार्थ है कि, जब विजयसेनसरिने पाटनम चौमासा किया था । इस शास्त्रार्थमें खरतरगच्छवाले निरुत्तर हो गये थे। उसके बाद उन्होंने रायकल्याणका आश्रय लेकर अहमदाबादमें फिरसे शास्त्रार्थ शुरू किया था । अहमदाबादका यह शास्त्रार्थ वहाँके सूबेदार खानखानाकी सभामें हुआ था । वहाँ भी कल्याणराय और खरतरगच्छके अनुयायियोंको विजयसेनसूरिके शिष्योंसे निरुत्तर होना पड़ा था । इस विषयमें विशेष जानना हो तो · विजयप्रशस्तिकाव्य के दसवे सर्गका १ से १० वा श्लोक पढ़ना चाहिए ।
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