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સર
सुरीश्वर और सम्राट् ।
वक्त अनुमानसे भी ज्यादा गुजर गया था । फल प्राप्ति भी कल्पनातीत हो गई थी । गुजरात से भी विजयसेनसूरिके पत्र बार बार आते थे कि, आप गुजरात में बहुत जल्दी आइए। ऐसे ही अनेक कारणोंसे ' सूरिजी की इच्छा गुजरातकी तरफ जानेकी हुई । तभी ठीक ही है कि, साधुओंको ज्यादा समय तक एकही स्थानमें नहीं रहना चाहिए | ज्यादा रहनेसे लाभके बजाय हानि ही होती है । कवि ऋषभदासके शब्दों में:
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" स्त्री पीहरि नर सासरइ, संयमियां सहिवास; ए त्रिणे अलषांमणां जो मंडइ थिरवास | "
एक कविने कहा है :--
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बहता पानी निर्मला, बँधा सो गंदा होय; साधू तो रमता भला, दाग न लागे कोय ।
अतः सूरिजीकी विहार करनेकी इच्छा अयोग्य न थी । एक वार अवसर देखकर सूरिजीने अपनी यह इच्छा बादशाहके सामने प्रकट की । बादशाहने बड़े ही आग्रहातुर शब्दोंमें कहाः " आप जो कुछ आज्ञा दें वह करनेको मैं तैयार हूँ । आपको गुजरात में जानेकी कोई आवश्यकता नहीं है । आप यहीं रहिए और मुझे धर्मोपदेश दीजिए । "
सुरिजीने कहा :- " मैं समझता हूँ कि, आपके समागमसे मैं अनेक धार्मिक लाभ उठा सकता हूँ । अर्थात् आपसे अनेक धार्मिक कार्य करा सकता हूँ। मगर कई अनिवार्य कारणोंसे श्रीविजयसेनसूरि मुझको बहुत ही जल्द गुजरातमें बुलाते हैं। इसलिए मेरा गुजरात जाना जरूरी है । वहाँ जाकर मैं यथासाध्य शीघ्रही विजयसेनसूरिको आपके पास भेजूँगा । "
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