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सूबेदारों पर प्रभाव |
महर रखनेकी आज्ञा की है । इस बातको शायद आप भी जरूर स्वीकार करेंगे। समस्त जीवोंपर रहम - दया करके उसके भक्षणसे दूर रहना, यह सर्वोत्कृष्ट मार्ग है । मगर ऐसा करन । मनुष्य जातिके लिए अशक्य है । क्योंकि पेट हरेकको भरना पड़ता है । इसलिए यह बात विचारणीय है कि, जीवहिंसा जितनी हो सके उतनी कम करके पेट कैसे भरा जा सकता है ?
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" संसार में जीव दो तरह के हैं । 'स' और 'स्थावर' | जो जीव अपने आप हलन चलन नहीं कर सकते हैं वे 'स्थावर ' कहलाते हैं । जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति । अनाजके जीव भी 'स्थावर' जीव हैं । जो जीव अपने आप हलनचलन कर सकते हैं वे त्रस जीव होते हैं ! नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव ' त्रस ' कहलाते हैं । 'स्थावर' जीवोंके सिर्फ एक ही इन्द्री होती है । 'स' जीवोंके दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियाँ होती हैं । एकेन्द्रियकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रियकी अपेक्षा चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रियकी अपेक्षा पंचेन्द्रियका पुण्य विशेष होता है। यदि पुण्य में न्यूनाधिकता न होती तो फिर इन्द्रियोंमें न्यूनाधिकता कैसे होती ? पाँच इन्द्रिय जीवोंमें भी पशु, मनुष्य आदि हैं। पशुओंकी अपेक्षा मनुष्योंका पुण्य ज्यादा होता है । मनुष्योंमें भी पुण्यकी न्यूनाधिकता है । कोई गरीब है और कोई राजा है । कोई साधु है और कोई गृहस्थ है । इस भिन्नताका कारण पुण्यकी न्यूनाधिकता ही है । अब मैं आपसे पूछता हूँ कि, जो मनुष्य अनाजके जीवोंको और पशुओं के जीवोंको समान गिनके पशुओं का मांस खाते हैं, वे मनुष्यों का मांस क्यों नहीं खाते हैं ? क्योंकि उनकी मान्यतानुसार तो अनाज, पशु और मनुष्य सबके जीव समान ही हैं । मगर नहीं खाते । कारण- पारे जीवोंके पुण्य में न्यूनाधिकता है। जिन जीवों में पुण्यकी
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