________________
२०२
सूरीश्वर और सम्राट् । उस समय तेजसागर और सामलसागर नामके दो साधुओंको किसी कारणसे समुदाय बाहरकी सना दी गई थी। इससे वे दोनों साधु क्रुद्ध होकर कासिमखाँसे मिले। उस समय उसके शरीरमें कोई रोग था । साधुओंने औषध करके वह रोग मिटा दिया। इससे कासिमखाँ उनसे प्रसन्न हुआ । और बोला:--" मेरे लायक कोई कार्य हो तो कहो ।” साधुओंने कहा:--" अगर तुम हमसे खुश हो तो हीरविजयसरिको समझाकर हमें वापिस समुदायमें शामिल करा दो।"
कासिमखाँने तत्काल ही हीरविजयसूरिजीको अपने पास बुलाया । यद्यपि उसने यह सोचा था कि, मैं सूरिजीको दबाकर इन साधुओंको समुदायमें शामिल करा दूंगा। मगर हीरविजयसूरिनीको
और उनकी भव्य आकृतिको देखते ही उसका वह विचार जाता रहा । उनके चारित्रका उस पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि, उसने जिस हेतुसे सूरिजीको बुलाया था उसका कोई जिक्र ही नहीं किया । वह सादर उनके साथ वार्तालाप करने लगा। प्रसंगोपात्त सूरिजीने उसको जीवहिंसा-त्यागका उपदेश दिया । कासिमखाने कहा:
“संसारमें जीव जीवका भक्षण है । ऐसा कौनसा मनुष्य है जो जीवोंका भक्षण नहीं करता है। लोग अनाज खाते हैं,वह क्या है? उसमें भी तो जीव है । लोग अनाजके अनेक जीवों का भक्षण करते हैं, इसकी अपेक्षा केवल एक ही जीवका वध कर उसका भक्षण किया जाय तो इसमें बुराई क्या है ? "
सूरिजी बोले:-" सुनिए खासाहब ! खुदाने सारे जीवों पर
गुजरातका सबेदार नियत हुआ। ई० स० १५९८ में उसका देहान्त हुआ। मरा उस समय वह पन्द्रह सा सेनाका नायक था। विशेषके लिए आईन-इअकबरी (ब्लॉकमनकृत अंग्रेजी अनुवाद ) का ४१९ वाँ पृष्ठ देखो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org