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________________ २०४ सूरीश्वर और सम्राट् । न्यूनता है उन जीवोंकी हिंसाका पाप भी कम होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि, जब तक थोड़े पुण्यवाले जीवोंकी हिंसासे काम चलता है तब तक विशेष पुण्यवाले जीवोंकी हिंसा करना बुरा है । इस तरह जब हमारा कार्य अनाजसे चल जाता है तब हमें विशेष इन्द्रियवाले जीवोंका संहार किस लिए करना चाहिए । जो विशेष इन्द्रियवाले जीवोंको खाते हैं-जो मांसाहारी हैं उनके अन्तःकरणोंमें, यह बात निर्विवाद है कि, खुदाके हुक्मके माफिक महर-दया नहीं रहती है।" सूरिजीके वक्तव्यसे कासिमखाँ बहुत प्रसन्न हुआ। उसके अन्तःकरणमें दयाभाव उत्पन्न हुए । उसने सूरिनीसे कोई कार्य ,बतानेको कहा । सारनीने जो बकरे, भैंसे, पक्षी और बंदीवान बंद थे उन्हें छोड़ देनेके लिए कहा। उसने सूरिनीकी आज्ञाका पालन किया । सबको छोड़ दिया। इस कार्यद्वारा कासिमखाने सूरिनीको प्रसन्न करके उनसे एक याचना की, " आपने अपने जिन दो शिष्योंको गच्छ बाहिर निकाला है उन्हें यदि आप वापिस गच्छमें लेलेंगे तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।" सूरिजीने कहाः-" सैयद साहब ! शायद आप जानते होंगे कि, हम मनुष्यको, उसके कल्याणार्थ, साधु बनानेके लिए कितना प्रयत्न करते हैं ? एक जीव संसारी बंधनोंको तोड़कर साधु बनता है तब हमें बहुत आनंद होता है। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तब बने हुए साधुओंको हम, विना ही कारण अलग करदें यह कभी संभव है ? मगर किया क्या जाय ? वे किसीका कहना नहीं मानते और स्वतंत्र रहते हैं, इसीलिए मुझे ऐसा करना पड़ा है। तो भी आपके आग्रहको मानकर मैं उन्हें वापिस समुदायमें शामिल करलेता हूँ; परन्तु आप उन्हें समझा दीजिए कि, वे आगेसे हमेशा मेरी आज्ञामें रहें।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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