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दीक्षादान |
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उदयका आता है उस समय लोग, स्थान स्थान पर पाठशालाएँ स्कूल बनवाने, विश्वविद्यालय स्थापन करने और पुस्तकालयोंका उद्घाटन करनेमें लग जाते हैं। कोई समय चारित्र के उदयका आता है उस समय साधुओं की वृद्धि ही दृष्टिगत होती है ।
विक्रमकी सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दिका समय, जिस समयका हम जिक्र कर रहे हैं, प्रधानतया चारित्र के उदयका था । उस समय संसारकी अनित्यताका भान होते ही बहुत से गृहस्थ - बहुत से गर्भश्रीमंत भी गृहस्थावस्थाका परित्याग कर चारित्र ( दीक्षा ) ग्रहण कर लेते थे । और इसीका यह परिणाम था कि, सैकड़ों ही नहीं बल्कि हजारोंकी संख्यामें जैनसाधु विचरण करते थे ।
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कर्तव्यभ्रष्ट मनुष्य संसार में निंदा पात्र बनते हैं । यद्यपि यह बात सत्य है कि, संसार के समस्त मनुष्य समान प्रकृतिके, समान विद्वत्तावाले और समान ही कार्य करनेवाले नहीं होते । तो भी इतना जरूर है कि, किसीको अपने लक्ष्यबिंदुसे च्युत नहीं होना चाहिए । जैसे दीक्षा लेनेवालेको यह भली प्रकार से समझ लेना चाहिए कि, दीक्षा लेनेका उद्देश्य क्या है ? इसी तरह दीक्षा देनेवालेको भी यह न भूलजाना चाहिए कि, दीक्षा देनेका उद्देश्य क्या है ?
दीक्षा परम सुखका कारण है। दीक्षा मोक्षकी निसेनी है। दीक्षित मनुष्य जिस सुखका अनुभव करता है, वह इन्द्र, चंद्र नागेन्द्रको भी नहीं मिलता । ऐसी इस भव और परभव दोनोंमें सुख देनेवाली दीक्षा अंगीकार करना प्रत्येक सुखाभिलाषी मनुष्यके लिए आवश्यक है। मगर उस ओर मनुष्यकी अभिरुचि नहीं होती । इसका कारण संसारके अनित्य पदार्थों परकी आसक्ति और चारित्र के महत्त्वकी अज्ञानता है । कई वार ऐसा भी बनता है कि, दीक्षा लेनेके बाद भी
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