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सूरीश्वर और सम्राट्। एक बार पद्मसागरजीने यज्ञमें भी पशुहिंसाका निषेध किया था। उस समय वहाँ कई व्याख्यान सुनने वाले ब्राह्मण बैठे थे । उन. मेसे एक बोला:-" हम बकरेको अपनी इच्छासे नहीं मारते हैं। वह चिल्ला२ कर हमसे कहता है कि, हे मनुष्यो ! मुझे जल्दी मारकर स्वर्ग पहुँचाओ जिससे मैं इस पशुयोनिसे छुटकारा पाऊँ ।"
पद्मसागरजीने इस युक्तिवादका उत्तर देते हुए कहा:" पंडितप्रवर ! आप ऐसी कल्पना न करें। यह स्वार्थमय कल्पना है। पशु तो चिल्लाकर कहता है कि,-'हे सज्जनो ! मैं न तो स्वर्गकी इच्छा रखता हूँ और न मैंने मुझे स्वर्ग पहुँचानेकी तुमसे प्रार्थना ही की है । मैं तो हमेशा तृण भक्षण करनेहीमें सन्तुष्ट हूँ। अगर यह सच है कि, यज्ञमें जितने जीव होमे जाते हैं वे सभी स्वर्गमें जाते हैं तब तुम अपने मातापिता, पुत्रभार्या आदि कुटुंबियोंको क्यों नहीं सबसे पहिले यज्ञमें होमते हो ? ताकी वे अतिशीघ्र स्वर्गलाभ करें ।, सज्जनो ! स्वार्थमय युक्तियाँ व्यर्थ हैं । इनसे कोई लाभ नहीं। वास्तविकताका विचार करना चाहिए । जैसे हमको लेशमात्र भी दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही दूसरे जीवोंको भी दुःख अच्छा नहीं लगता है । इसलिए किसी जीवको, किसी भी निमित्तसे मारना अनुचित है।"
पद्मसागरजीकी उपर्युक्त युक्तिसे सब चुप होगये । उसी समय कर्मसी नामके भंडारीने एक प्रश्न किया । उसने मूर्तिपूजाकी अनावश्यकता बताते हुए कहा,
"किसी स्त्रीका पति परदेश गया। पीछेसे वह स्त्री पतिकी मूर्ति बनाकर पूजा करती रही; परन्तु उस मूर्तिने पति के तुल्य कोई लाभ नहीं पहुँचाया । इसी तरह भगवानकी मूर्ति पूजना भी व्यर्थ है।"
पभसागरजीने उत्तर दियाः- " मैं कोई दूसरा उदाहरण हूँ
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