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सूरीश्वर और सम्राट् । हैं । आयुष्यको क्षणमात्र बढ़ानेके लिए भी कोई समर्थ नहीं हुआ है। इसलिए तुम लेशमात्र भी दुखी न होना । विजयसेनसूरि यदि यहाँ होते तो मैं तुम सबकी उन्हें उचित भोलामन देता । कल्याणविजय उपाध्याय भी अन्तमें न मिले । अस्तु । अब मैं जो कुछ तुम्हें कहना चाहता हूँ वह यह है कि,तुम किसी भी तरहकी चिन्ता न करना । तुम्हारी सारी आशा विजयसेनसूरि पूर्ण करेंगे। वे साहसी, सत्यवादी और शासनके पूर्ण प्रेमी हैं। मेरी यह सूचना है कि, तुम जिस तरह मुझे मानते हो उसी तरह उनको भी मानना और उनकी सेवा करना । वे भी पुत्रकी तरह तुम्हारा पालन करेंगे । तुम सभी मेलसे रहना और जिससे शासनकी शोभा बढ़े वही काम करना । विमलहर्ष उपाध्याय और सोमविजयजी ! तुमने मुझे मुख्यतया बहुत सन्तुष्ट किया है । तुम्हारे कार्योंसे मुझको बहुत प्रसन्नता हुई है । मैं तुमसे भी अनुरोध करता हूँ कि, तुम शासनकी शोभा बढ़ाना और सारा समुदाय सदा एकतासे रहे ऐसे प्रयत्न करते रहना"।
साधुओंको उपर्युक्त प्रकारका उपदेश देकर सूरिनी अपने पापोंकी आलोचना और समस्त जीवोंसे क्षमायाचना करने लगे। जिस समय वे साधुओंसे क्षमा माँगने लगे उस समय साधुओंके हृदय भर आये । आँखोंसे आँसू गिरने लगे और गला रुक गया। सोमविजयनी भराई हुई आवाजमें बोले:-" गुरुदेव ! आप इन बालकोंसे क्यों क्षमा माँगते हैं ? आपने तो हमें प्रियपुत्रोंकी तरह पाला है पुत्रोंसे अधिक समझकर आपने हमारी सार सँभाल ली है और अज्ञानरूपी अंधकारसे निकालकर हमें ज्ञानके प्रकाशमें ला बिठाया है। आपके हमपर अनन्त उपकार हैं । आप-पूज्य हमसे क्षमा माँगते हैं इससे हमारे हृदयमें व्यथा होती है। हम आपके अज्ञानी-अविवेकी बालक हैं। पद पदपर हमसे आपका अपराध हुआ होगा। समय
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