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निर्वाण ।
MAAMANRAA
हीरविजयसूरिके वचन सुनकर साधुओंके हृदयमें बड़ा आघात लगा । सोमविजयजीने कहा:--" महाराज ! आप लेशमात्र भी चिन्ता न करें । आपने तो ऐसे विषमकालमें भी आत्मसाधन करनेमें कोई कमी नहीं की है । त्याग, वैराग्य, तपस्या, ध्यान और क्षान्त्यादि गुणोंद्वारा तथा असंख्य जीवोंको अभयदान देने और दिलानेद्वारा आपने तो अपने जीवनको सार्थक कर ही लिया है। निश्चित रहिए । आप शीघ्र ही नीरोग हो जायेंगे । विजयसेनसूरि भी शीघ्र ही आपकी सेवामें उपस्थित हो जायगे।"
सरिजी बोले: ---"तुम कहते हो सो ठीक है। मगर चौमासा शुरू होजानेपर भी विजयसेनसूरि अबतक नहीं आये। न मालूम वे कब आयेंगे ?"
सोमवियजीने पुनः कहा:-"महाराज अब आप बहुत जल्दी स्वास्थ्य लाभ करेंगे । विजयसेनसूरि भी शीघ्र ही आयेंगे।"
इस तरह करते करते पर्युषणा पर्व आ पहुँचा । यह बात बड़े आश्चर्य की है कि, इतनी रुग्ण दशामें भी पर्युषणामें कल्पसूत्रका व्याख्यान हीरविजयसूरिहीने बाँचा था। व्याख्यान बाँचनेके श्रमसे उनका शरीर विशेष शिथिल हो गया। पर्युषणा समाप्त हुए । सूरिनीको अपने शरीरमें विशेष शिथिलता मालूम हुई। तब उन्होंने भादवा सुदी १० ( वि० सं० १६५२ ) के दिन मध्यरात्रिके समय अपने साथके विमलहर्ष उपाध्याय आदि सारे साधुओंको एकत्रित कर कहाः
" मुनिवरो ! मैंने अब अपने जीवनकी आशा छोड़ दी है। जो जन्मता है वह मरता ही है। जल्दी या देरमें सबको यह मार्ग लेना ही पड़ता है। तीर्थकर भी इस अटल सिद्धान्तसे छूट नहीं सके
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