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________________ २९४ PAAAA क्रियाओंमें मुझे यासाध्य चेष्टा नती है । मनुष्यार सूरीश्वर और सम्राट् । सूरिजीकी रुग्णताके समय विजयसेनसरिजी उनके पास नहीं थे। इन्हें उनकी रुग्णताके समाचार दिये गये थे । इधर जैसे जैसे हीरविजयसूरिकी रुग्णता बढ़ती गई वैसे ही वैसे विजयसेनसूरिकी अविद्यमानताकी चिन्ता भी बढ़ती गई । उनके हृदयमें बारबार यही विचार आने लगे कि,-वे अबतक क्यों नहीं आये ? यदि इस समय वे मेरे पास होते तो अन्तिम अनशनादि क्रियाओंमें मुझे बड़ा उल्लास होता ।" बहुत विचार और यथासाध्य चेष्टा करने पर भी मनुष्य चल तो उतना ही सकता है जितनी उसम शक्ति होती है । मनुष्योंके पंख नहीं होते कि, वे झटसे उड़कर इच्छित स्थानपर पहुँच जायँ । इसी तरह विजयसेनसूरि साधु होनेसे यह भी नहीं कर सकते थे कि, वे बादशाहके किसी पवनवेगसे चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर लाहौरसे तत्काल ही ऊना जा पहुँचते । हीरविजयसूरि जितनी आतुरताने विजयसेनसूरिके आनेकी प्रतीक्षा कर रहे थे उतनी ही बल्कि उससे भी विशेष आतुरता विजयसेनसूरिको हीरविजयसूरिकी सेवामें पहुंचनेके लिए हो रही थी। मगर हो क्या सकता था ? बहुत दिन बीत जानेपर भी जब विजयसेनसूरि नहीं पहुंचे तब एक दिन हीरविजयसूरिने सब साधुओंको अपने पास बुलाया और कहा: "विजयसेनसरि अबतक नहीं आये । मैं चाहता था कि, वे अन्तिम समयमें मुझसे मिल लेते तो समाज संबंधी कई बातें मैं उनसे कह जाता । अस्तु ! अब मुझे अपनी आयु बहुत ही अल्प मालूम होती है, इसलिए तुम्हारी सबकी सम्मति हो तो मैं आत्मकार्य साधनका प्रयत्न करूं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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