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सूरीश्वर और सम्राट्। वे इस बातसे अपरिचित नहीं थे, तो भी वे निषेध करते थे। कारण-उनको यह निश्चय हो गया था कि, मेरी आयु अब बहुत ही थोड़ी है । अब मुझे बाह्य उपचार और औषधकी अपेक्षा धर्मोषधका सेवन ही विशेष रूपसे करना चाहिए। अल्प अवशेष जीवनके लिए ऐसी आरंभ-समारंभवाली औषधे करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसी कारणसे वे श्रावकोंको निषेध करते रहे। श्रावकोंको बड़ा दुःख हुआ। वे सभी उपवास करके बैठ गये । उन्होंने कहा,सूरिजी यदि दवा नहीं करने देंगे तो हम भोजन नहीं करेंगे। ऋषभदास कवि तो यहाँ तक लिखता है कि, कई स्त्रियोंने उस समय तकके लिए अपने बच्चों तकको धवाना छोड़ दिया जब तककी सूरिजी उपचार करानेके लिए राजी न हों । सारे ऊनामें हाहाकार मच गया। सूरिजीके शिष्योंको भी बहुत कष्ट हुआ । अन्तमें सोमविजयजीने सूरिजीसे निवेदन किया:-"महाराज ! ऐसा करनेसे श्रावकोंके मन स्थिर नहीं रहेंगे । जैसे आप दवा लेनेसे इन्कार करते हैं वैसे ही श्रावक भी अन्ननल ग्रहण नहीं करनेकी हठ पकड़के बैठे हैं । इसलिए संघका मान रखनेके लिए भी आपको औषध लेनेकी स्वीकारता देनी चाहिए । यह बात तो आपसे छिपी हुई है ही नहीं कि, पहिलेके वाषियोंने भी रोगके उपस्थित होनेपर दवा ग्रहण की है। अतः आपको भी कुछ छूट रखनी ही चाहिए।शुद्ध और थोड़ी दवा ही ग्रहण करनेकी हाँ कहिए।"
सोमविजयजीके विशेष आग्रहसे अपनी इच्छाके विरुद्ध भी सरिजीने दवा लेनेकी स्वीकारता दी । संब बहुत प्रसन्न हुआ। स्त्रियाँ बच्चोंको धवाने लगीं । सुदक्ष वैद्य औषधोपचार करने लगा। प्रतिदिन व्याधिमें भी कुछ न्यूनता होने लगी। तो भी शारीरिक अवस्था सुखसे ज्ञान, ध्यान, क्रिया करने योग्य न हुई।
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