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ग
प्रकरण बारहवाँ ।
निर्वाण |
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त प्रकरणके अन्तमें यह कहा जा चुका है कि, सूरिजी वि. सं० १६५१ का चातुर्मास समाप्तकर जब ऊनासे विहार करने लगे थे तब उनका शरीर अस्वस्थ था, इसलिए संघने उन्हें विहार नहीं करने दिया । विवश सूरिजीको वहीं रहना पड़ा ।
जिस रोगके कारण सुरिजीने अपना विहार बंद रक्खा था वह रोग विहार बंद रखनेपर भी शान्त न हुआ । प्रति दिन रोग बढ़ता ही गया। धीरे धीरे पैरों पर भी सूजन आगई । श्रावकोंने सब तरहकी औषधियोंका प्रबंध करना चाहा; परन्तु सूरिजीने उन्हें रोक दिया । उन्होंने कहा:-- " मेरे लिए दवाका प्रबंध करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । मेरा धर्म है कि, मैं उदयमें आये हुए कर्मोंको समतापूर्वक भोग लूँ । रोगोंसे भरे हुए विनश्वर शरीरकी रक्षाके लिए अनेक प्रकार के पापपूर्ण कार्य करना सर्वथा अनुचित है । "
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विधि - अपवादको जाननेवाले श्रावकोंने शास्त्रीय प्रमाणोंद्वारा यह बताने की कोशिश की कि, आपके समान शासनप्रभावक गच्छनायक सूरीश्वरको अपवादरूपसे, रोगनिवार्णार्थं यदि कुछ दोषका सेवन करना पड़े तो वह भी शास्त्रोक्त ही है । मगर सूरिजीने उनकी बात नहीं मानी । सूरिजी इस अपवादमार्ग से अनभिज्ञ नहीं थे । वे शास्त्रोंके पारगामी थे; गीतार्थ थे और महान अनुभवी थे । इसलिए
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