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आमंत्रण,
विचार जैसे जैसे लोगोंके हृदयोमें उठने लगा वैसे ही वैसे उनके हृदय भर आने लगे और उनके बहुत रोकने पर भी-बहुत धैर्य धारण करने पर भी आँखोंसे आँसू गिरे बिना न रहे । गुरुने हजारों लोगोंकी इस उदासीनताकी तरफ ध्यान नहीं दिया । वे समभावमें लीन हो, पंच परमेष्ठीका ध्यान करते हुए आगेकी ओर ही बढ़ते गये । नगरसे बाहिर थोड़ी दूर आ मूरिजीने तमाम संघको वैराग्यमय उपदेश दिया । उन्होंने कहा:
धर्मस्नेह यह संसारमें अनोखा स्नेह है। गुरु और शिष्यका जो स्नेह है वह धर्मका स्नेह है । तुम्हारा और हमारा धर्म-स्नेह है
और उसी स्नेहके कारण इस समय तुम्हारे मुखकमल मुझी गये हैं। मगर तुम यह जानते हो कि, परमात्माने हमें ऐसा मार्ग बताया है कि, जिस मार्ग पर चले विना हमारा चारित्र किसी तरह भी सुरक्षित नहीं रह सकता है । चौमासेके अंदर चार महीने तक ही हम एक स्थान पर रहते हैं। मगर इस थोड़ी अवधिमें भी तुम्हें इतना स्नेह हो जाता है कि, मुनिराज जब विहार करते हैं, तब तुम्हें अत्यंत दुःख होता है । यद्यपि यह धर्मस्नेह लाम-दायी है; भव्य पुरुष इससे अपना उद्धार कर सकते हैं; तथापि यह स्नेह भी आखिर एक प्रकारका मोह ही है। किसी समय यह भी बंधनका कारण हो जाता है। इसलिए इस स्नेहसे भी हमें मुक्त ही रहना चाहिए। महानुभावो ! तुम जानते हो कि, मुनिराजोंके धर्मानुसार यह समय हमारे विहारहीका है। उसमें भी एक विशेषता है। मुझे अपने देशके सम्राट अकबर बादशाह का आमंत्रण मिला है। इस आमंत्रणको स्वीकारनेसे शासनकी प्रभावना होगी इसी लिए मैं जा रहा हूँ। तुमने अब तक बहुत भक्ति की है । वह याद आया करेगी। अब भी मैं आप लोगोंसे-चतुर्विध संघसे एक सहायता चाहता हूँ। वह यह है,-आप लोग शासनदेवोंसे
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