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आमंत्रण।
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भेजना चाहते हैं या मुझे देना चाहते हैं, उन्हें मैं स्वीकार नहीं कर सकता । कारण ये मेरे लिए भूषण न हो कर दूपण हैं। इसलिए मैं पैदल ही चल कर, जैसे बनेगा वैसे, शीघ्र ही सम्राट्के पास पहुँचनेका प्रयत्न करूँगा।"
सूरीश्वरजीके इस वक्तव्यने शहाबखाँके हृदय पर गहरा प्रभाव डाला। जैनसाधुओंकी त्यागवृत्ति और सच्ची फकीरी पर वह मुग्ध हो गया। उसने उपर्युक्त बातोंको लक्षमें रखते हुए बादशाहको एक पत्र लिखा । उसमें उसने यह भी लिखा कि,
"हीरविजयसरि गंधारसे पैदल चल कर यहाँ आये हैं। उनको आपकी आज्ञाके अनुसार मैं सब चीजें देने लगा, मगर उन्होंने अपने धर्मके विरुद्ध होनेसे कोई चीज स्वीकार नहीं की। सरकार ! मैं आपसे क्या निवेदन करूँ ? हीरविजयमूरि एक ऐसे फकीर हैं कि, इनकी जितनी तारीफ़ की जाय उतनी ही थोड़ी है । वे पैसेको तो छू भी नहीं सकते । पैदल चलते हैं। किसी भी सवारी पर नहीं चढ़ते और स्त्रियोंके संतर्गसे सर्वथा दूर रहते हैं । इनके आचार ऐसे कठिन हैं कि, लिखनेसे एक बार उन पर विश्वास नहीं होता । इनसे जब आप मिलेंगे तभी आपको यकीन होगा।"
अहमदाबादमें थोड़े दिन रह कर मूरिजी आगे चले। मौंदी और कमाल नामके दो मेवड़े-जो अकवरके पाससे आमंत्रण लेकर आये थे और अब तक अहमदाबादहीमें ठहरे हुए थे-भी मूरिजीके साथ रवाना हुए। अहमदाबादसे चल कर सूरिजी उसमानपुर, सोहला, हाजीपुर, बोरीसाना, कड़ी, वीसनगर, और महसाना आदि होते हुए पाटन पहुँचे । यहाँ सात दिन तक रहे । इसीके बीचमें उन्होंने कई प्रतिष्ठाएँ भी कराई । यहाँसे श्रीविमलहर्ष उपाध्यायने पैंतीस साधुओं सहित पहिले विहार किया । सूरिजी पीछेसे रवाना हुए। सूरिजी
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