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________________ ९६ सूरीश्वर और सम्राट् । मैं ऐसा तुच्छ हूँ कि आपके व्यक्तित्वको जाने बिना ही नौकरोंके कहने से आपको कष्ट दिया । आप महात्मा हैं । मेरे इस अक्षम्य अपराधको क्षमा कीजिए और मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि, जिससे मेरे समान दुष्ट मनुष्य भी उस महान पापसे बच जाय । "3 सूरिजीने सहास्य वदन उत्तर दिया:- “ खाँसाहिब ! हमारा धर्म भन्न ही प्रकारका है । हमारे लिए परमात्मा महावीरकी आज्ञा है कि, कोई चाहे कितना ही कष्ट तुम्हें दे तो भी तुम तो उस पर क्षमाभाव ही रक्खो । यद्यपि हमारे लिए यह आज्ञा है तथापि ससंकोच मुझे यह कहना पड़ता है कि, मैं अभी तक उस स्थिति में नहीं पहुँचा हूँ । जिस दिन मेरी ऐसी अवस्था हो जायगी उस दिन मैं स्वयं ही अपने आत्माको धन्य मानूँगा । इतना होने पर भी यह बात स्पष्टतया कह देना चाहता हूँ कि, मुझे आप पर लेशमात्र भी द्वेष नहीं है । अब आपको अपने मनमें गत घटनाके लिए किचिन्मात्र भी दुःख न करना चाहिए। मैं मानता हूँ कि, संसार में मेरा कोई भी व्यक्ति भला या बुरा नहीं कर सकता है । मुझे जो कुछ भले बुरेका या सुखदुःखका कारण मेरे कर्म ही हैं । दूसरा कोई नहीं है कर्म करते हैं वैसे ही वैसे फल हमें मिलते अनुभव होता है उसका I । संसारमें हम जैसे जैसे हैं । इसलिए आप उसके लिए लेशमात्र भी विचार न करें । " 1 उसके बाद सूरिजीने अपने आचारसे संबंध रखनेवाली बातें कहीं । और antaraat समझाया कि, " हम लोग कंचन और कामिनीसे सदा दूर रहते हैं । हीरा मोती आदि जवाहरात और पैसा का हम नहीं रख सकते हैं । हमारा धर्म है कि हम गाँव गाँव पैदल ही फिरें और जन समाजको अहिंसामय धर्मका उपदेश दें | इसलिए आप मेरे सुभीते के लिए घोड़े हाथी आदि मेरे साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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