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सूरीश्वर और सम्राट् । एक एक नकल अपने ग्यारह प्रान्तोंमें भेज दी थी* । यह उस समयकी बात है कि, जब बादशाह लाहोरमें रहता था। और भानुचंद्रजी आदि भी वहीं रहते थे।
दूसरा नाम मानसिंहका है । ये वे ही मानसिंह हैं जो जिनचंद्रसूरिके शिष्य थे और जिनका प्रसिद्ध नाम जिनसिंहसूरि था। बादशाह जब काश्मीर गया था, तब वह भानुचंद्रजीकी तरह मानसिंह (जिनसिंहमूरिजी) को भी साथ ले गया था। जिनचंद्रसूरि लाहोरहीमें रहे थे । काश्मीरकी मुसाफिरीसे लौटकर आने पर मानसिंहको बड़ी घूमधामसे सूरि पद दिया गया था और उसी समय उनका नाम जिनसिंहसूरि क्खा गया था । मानसिंहजीको आचार्य पदवी दी, इसकी खुशीमें बादशाहने खंभातके बंदरोंमें जो हिंसा होती थी उसको बंद कराई थी। लाहोरमें भी एक दिनके लिए कोई जीवहिंसा न करे इस बातका प्रबंध किया था। मंत्री कर्मचंद्रने इस अवसर पर बड़े उत्साहके साथ बहुतसा धन उत्सवार्थ खर्च किया था।
यह उपर कहा जाचुका है कि, जब शान्तिचंद्रजी बादशाहके पाससे रवाना हुए थे तब भानुचंद्रजीके साथ उनके सुयोग्य शिष्य सिद्धिचंद्रजी भी रक्खे गये थे। उनके सिवा उदयचंद्रजी आदि कई विद्वान् शिष्य भी वहाँ रहे थे । बादशाह सिद्धिचंद्रजीका भी बहुत __* यह असली फर्मानपत्र, सबसे पहिले परमगुरु शास्त्र-विशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजको वि० सं० १९६८ के सालमें लखनौके खरतरगच्छका पुस्तक भंडार देखते हुए मिला था और उसकी एक नकल सरस्वतीके विद्वान् संपादक श्रीयुत महावीरप्रसादजी द्विवेदीको दी गई थी। उसको उन्होंने सं० १९१२ के जूनके 'सरस्वती' के अंकमें प्रकाशित किया था। इस फर्मानपत्रमें बादशाहने हीरविजयसुरिको, उनके उपदेशसे, पर्युषणके आठ और दूसरे चार ऐसे बारह दिनतक जीवरक्षाका जो फर्मान दिया था उसका भी उमेख है।
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