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________________ शिष्य परिवार | २५७ फिर कहा - " आप भेट - सत्कारके योग्य मैं निग्रंथ हूँ । इसलिए मैं आपको कुछ बहुत सत्कार किया और हैं; मगर आप जानते हैं कि, भी भेट नहीं कर सकता हूँ । " अध्यापक ने कहाः "महाराज! इस बातका आप कोई खयाल न करें। मैं तो आपके पास किसी दूसरे ही उद्देश्यसे आया हूँ । मुझे एक दिन सर्पने काट खाया था । अनेक उपाय करने पर भी उसका विष न उतरा । अन्तमें एक सद्गृहस्थने आपके नामका स्मरण कर उस जगहकी चमड़ीको चूरा जिस जगह सर्पने काटा था । आपके नामके प्रभाव से जहर उतर गया और मेरे प्राण बच गये । तब मैंने विचारा कि, जिनके नाम - प्रभाव से मैं बचा हूँ उनके दर्शन करके अपनेको कृतार्थ करना चाहिए । बस इसी लिए मैं आपके पास आया हूँ । ” उस समय संघवण साँगदे वहाँ बैठी हुई थी। उन्होंने पूछा:“ ये ब्राह्मण क्या आपकी पूर्वावस्था के पाधे - शिक्षक हैं ? " सूरिजीने उत्तर दिया:- "पाधे नहीं गुरु हैं ।" यह सुनकर संघवणने तत्काल ही अपने हाथमेंसे कड़ा निकाला और दूसरे बारहसौ रुपये जमा कर ब्राह्मणके भेट किये । ब्राह्मण आनंद पूर्वक सूरिजीके नामका स्मरण करते हुए रवाना हो गया । इसी तरह एक बार सूरिजी जब आगरेमें थे, तब भी ऐसे ही कीर्तिदानका प्रसंग आया था। बात यह हुई थी कि, सूरिजी के पधारने के निमित्त लोगोंने अनेक तरहके दान किये । उस समय अक नामके एक याचककी स्त्री पानी भरनेके लिए गई थी। उसे घर आने में कुछ देर हो गई। जब वह घर पहुँची तब उसके पति ने उसको धमकाया और कहाः " इतनी देर कहाँ लगाई ? मैं तो कभी का -- 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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