SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮૪ 1 सूरीश्वर और सम्राट् । थे कि, मैंने जो कुछ किया है या करता हूँ अपना कर्तव्य समझकर किया है; या करता हूँ | मैंने विशेष कुछ नहीं किया । मैं तो, मेरे सिरपर जितना कर्तव्य है उतना भी पूर्ण नहीं कर रहा हूँ । 1 एक बार किसी प्रसंगपर एक श्रावकने सूरिजीसे उनकी प्रशंसा करते हुए कहा :66 आप जैसे शासनप्रभावक पुरुष धन्य हैं कि, जिन्होंने अकबर बादशाहको उपदेश देकर उससे वर्ष में से छः महीनों के लिए सारे भारतमेंसे जीवहिंसा बंद करवादी । " 1 सूरिजीने कहा : - " भाई ! जगत् के जीवोंको सन्मार्गपर arter प्रयत्न करना तो हमारा धर्म ही है । हम तो केवल उपदेश देनेके अधिकारी हैं । उपदेशके अनुसार व्यवहार करना या न करना श्रोताओंके अधिकारकी बात है । हम जब उपदेश देते हैं तब कई सावधान होकर सुनते हैं; कई बैठे हुए ऊँचा करते हैं । कई अव्यवस्थित रीति से बैठकर मनको इधर उधर भमाते हैं और कई तो उठकर चलते भी जाते हैं । अभिप्राय यह है कि, हजारों को उपदेश देनेपर भी लाभ तो बहुत ही कम मनुष्योंको हुआ करता है। अकबरने जो काम किये हैं इनका कारण तो उसका स्वच्छ अन्तःकरण ही है । यदि उसने वे काम न किये होते तो हम क्या कर सकते थे ? मैंने जब सिर्फ पर्युषणोंके आठ दिन माँगे तब उसने अपनी तरफसे चार दिन और जोड़कर बारह दिनका पर्वाना कर दिया । यह उसकी सज्जनता थी या और कुछ ? यदि विचार करेंगे तो मालूम होगा कि, श्रेष्ठ कार्य में याचना करनेवालेकी अपेक्षा दान करनेवालेकी कीर्त्ति विशेष होती है । मैंने माँगकर अपना कर्तव्य पूर्ण किया, बादशाहने देकर - कामकर अपनी उदारता दिखाई। कार्य करनेकी अपेक्षा उदारता दिखाना विशेष लाया है । इसके उपरान्त मुझे स्पष्टतया यह कह देना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy