________________
प्रकरण चौथा।
आमंत्रण।
त प्रकरणमें यह कहा जा चुका है कि, अकबरने सन् १९७९ ईस्वी में 'दीने-इलाही' नामके एक स्वतंत्र धर्मकी स्थापना की थी। स्वाधीन धर्मकी
स्थापना करनेके पहिले उसने सन् १९७६ ईस्वीमें एक 'इबादतखाना' स्थापन किया था। उसको हम 'धर्मसभा के नामसे पहिचानेंगे । इस सभामें उसने प्रारंभमें तो भिन्न भिन्न मुसलमानधर्मके फिकोंके मौलवियोंको-विद्वानोंको ही सम्मिलित किया था । वे आपसमें वाद-विवाद करते थे, और अकबर उसको ध्यानपूर्वक सुनता था । खास तरहसे शुक्रवारके दिन तो इस सभामें वह बहुत ही ज्यादा वक्त गुजारता था। लगभग तीन बरस तक तो केवल मुसलमान ही इसमें शामिल होकर धर्मचर्चा करते रहे; मगर उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ । अकबरके सामने जो मुसलमान वादविवाद करते थे उनके पक्ष बंध गये थे । इसलिये वे एक पक्षवाले दूसरे पक्षवालेको झूठा साबित करनेहीके प्रयत्न करते रहते थे। पक्ष खास तरहसे दो थे । एकका नेता था, 'मख्दमुल्क' और दूसरेका था 'अबदुल्नबी' । इसको 'सदरे सदूर' की पदवी थी। इन दोनोंमे शान्त धर्मवादके बजाय क्लेशकारी वितंडावाद होने लगा। इससे अकबरको-' वादे वादे जायते तत्वबोधः' के बजाय विपरीत ही फल मिलने लगा । आखिरकार झगड़ा बहुत बढ़ गया । इससे अकबर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org