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दीक्षादान ।
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इस भाँति एक साथ नौ मनुयोंको दीक्षा लेते देख, श्रीमाली ज्ञातिके नाना नागजी नामक गृहस्थकोभी वैराग्य उत्पन्न हो गया । इससे उसने भी उसी समय दीक्षा ले ली। उसका नाम भाणविजय रक्खा गया ।
इस तरह क्षणमात्र वैराग्यके उत्पन्न होते ही दीक्षाका लेना या देना कइयोंको अनुचित मालूम होगा । मगर वस्तुतः वह अनुचित नहीं था । क्योंकि ' श्रेयांसि बहु विघ्नानि ' श्रेष्ठ कार्योंमें अनेक विघ्नोंकी संभावना रहती है, इसीलिए कहा है कि, धर्मस्य त्वरिता गतिः धर्म कार्यमें देर नहीं करना चाहिए। उसमें भी मुख्यतया दीक्षाकार्य के लिए तो हिन्दुधर्म शास्त्रोंमें भी यही कहा गया है कि, यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् । यानि जिस दिन वैराग्य हो उसी दिन दीक्षा ले लेनी चाहिए । यह ठीक ही है । जिस समय तीव्र वैराग्य हो उसी समय, एक मुहूर्त्तकी भी प्रतीक्षा न कर दीक्षा ले लेनी चाहिए। न जाने दूसरे मुहूर्तमें कैसे विचार आवें और शुभ समय हाथ से जाता रहे । हाँ, यह बात ठीक है कि, दीक्षा देनेवालेको लेनेवालेकी योग्यताका विचार अवश्यमेव करलेना चाहिए ।
दूसरे प्रकरण में यह कहा जा चुका है कि, हीरविजयसूरि एक बार जब खंभातमें गये थे तब वहाँके ' रत्नपाल दोशी ' नामक गृहस्थने सूरिजीको वचन दिया था कि, ' मेरा लड़का रामजी बीमार है, यदि वह अच्छा हो जायगा तो, मैं उसे, अगर वह चाहेगा तो, आपके सिपुर्द कर दूंगा । पीछेसे वह लड़का अच्छा हो गया तो भी सूरिजीको न सौंपा गया * रामजी इस दीक्षाके समय वहीं खड़ा ।' था । वह पहिलेहीसे यह जानता था कि, मेरे मातापिताने मुझे हीर विजयसूरिजी को सौंपने का वचन दिया था । मगर पीछे से सौंपा
* पृष्ठ २७ देखो ।
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