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सूरि-परिचय। तक रह कर उन्होंने न्यायशास्त्रके कठिन कठिन ग्रंथ जैसे 'चिन्तामणि' आदिका अध्ययन किया था । उस समय निजामशाह देवगिरिका राज्यकर्त्ता था। उक्त तीनों मुनियोंके लिए जो कुछ व्यय होता था, वह वहींके रईस देवसीशाह और उनकी स्त्री जसमाबाई देते थे।
अभ्यास करके आनेके बाद विजयदानसरिने, हीरहर्षमें जब असाधारण योग्यता देखी तब उनको नाडलाई (मारवाड़) में सं. १६०७ ( ई० स० १५५१ ) में पंडितपद और संवत् १६०८ ( ई० सन् १९५२ ) के माघ सुदी ५ के दिन बड़ी धूमधामके साथ नाडलाईके श्रीनेमिनाथ भगवान्के मंदिर में ' उपाध्याय ' पद दिया। उनके साथ ही धर्मसागरजी और राजविमलजीको भी उपाध्याय पद मिले थे । तत्पश्चात् संवत् १६१० (ई० स० १५५४ ) के पोस सुदी ५ के दिन सीरोही ( मारवाड़) में आचार्य श्रीविजयदानमूरिने उन्हें ' सरिपद ' ( आचार्यपद ) दिया।
यह कहना आवश्यक है कि, जिस एक महान व्यक्तिके अवतरणकी आशाका उल्लेख प्रथम प्रकरणमें किया गया था वह महान् व्यक्ति ये ही सूरीश्वर हैं । उनको हम अब हीरविजयसूरिके नामसे पहिचानेंगे । इस पुस्तकके दो नायकोंमेंसे प्रथम ( सूरीश्वर ) नायक
यह नगर दक्षिण हैद्राबादके राज्यमें औरंगाबादसे १० माइल पश्चिमोत्तरमें है । ई० स० १२९४ में अलाउद्दीन खिलजीने इस नगरके अभेद्य दुर्गको तोड़ा था । यहाँके आधिपतिका नाम निजामशाह था । उसका पूरा नाम था बुराननिजाम शाह । इस शाहने ई० स० १५०८ से १५५३ तक दौलताबादमें हुकूमत की थी। हीरविजयसूरि इसकी हुकूमतमें ही देवगिरि गये थे ।
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