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सुरि-परिचय। शाहने जैसे व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिए पाठशालामें भेजा था, वैसे ही धार्मिक ज्ञान प्राप्त करनेके लिये साधुओंके पास भेजनेमें भी आगापीछा नहीं किया था। परिणाम यह हुआ कि, वे बारह वर्षकी आयुहीमें बहुत होशियार और धर्मपरायण बन गये । उनको देख देख कर लोगोंको आश्चर्य होता था ।
उनके बचपनके व्यवहारों, और संसारसे उदासीनता दिखानेवाले, भवभीरुतादर्शक मधुर वचनोंने उनके कुटुंबियोंको, विश्वास दिला दिया था कि,-' वे किसी दिन साधु होंगे।' एक वार उन्होंने बातों ही बातोंमें अपने पितासे कहा,-" यदि कोई व्यक्ति अपने कुटुं. बमेंसे साधु हो जाय तो अपना कुटुंब कैसा गौरवान्वित हो ?" कुटुंबी लोगोंकी उक्त प्रकारके मन्तव्यको इस कथनने और भी दृढ़ बना दिया।
भावी प्रबल । थोड़े ही दिनोंमें हीरजीके माता पिताका देहान्त हो गया। इस घटनाने हीरजीके संसारविमुख हृदयको और भी स्पष्ट ताके साथ संसारकी अनित्यता समझा दी-उनके हृदयको और भी विशेषरूपसे वैरागी बना दिया । माता पिताका स्वर्गवास सुन कर हीरजीकी दो बड़ी बहिने विमला और राणी-जो पाटन ब्याही गई थीं-आई और हीरजीको पालनपुरसे अपने साथ ले गई।
उस समय पाटनमें श्रीविजयदानमूरि विराजते थे। ये क्रियोद्धारक आनंदविमलमूरिके-जिनका पहिले प्रकरणमें उल्लेख है-शिष्य थे । हीरजी नित्यप्रति उनको वंदना करनेके लिए जाने लगे। विजयदानमरिकी धर्मदेशना धीरे धीरे हीरजीके कोमल हृदय पर प्रभाव डालने लगी । हीरजीके हृदयमें दीक्षा लेनेकी भावना दृढ़ हुई। अपनी यह भावमा उन्होंने अपनी बहिनोंको भी सुनाई।
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