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________________ ૨૨ सूरीश्वर और सम्राट् । इससे यह स्पष्ट है कि,-"असमर्थों भवेत् साधुः" का सूत्र उनके किसी तरहसे भी लागू नहीं पड़ सकता है। जो 'दीक्षा' को ऐहिक और पारलोकिक सुखका सर्वोत्कृष्ट साधन समझते हैं, जो 'शुद्धचारित्र को ही जगत् पर प्रभाव डालनेका एक चमत्कारिक जादू समझते हैं वे कभी क्षणभंगुर लक्ष्मीके और अन्तमें भयंकर कष्ट पहुँचानेवाली विषयवासनाओंके फंदेमें नहीं फंसते हैं-उनमें मुग्ध नहीं होते हैं। वे तो प्रतिक्षण यही सोचा करते हैं कि,-" हम साधु हो कर अपना और जगत्का कल्याण करेंगे।" ऐसी शुभ भावनाएँ रख कर अच्छे अच्छे खानदानके युवक उस समय दीक्षा लेते थे। उसीका यह परिणाम था कि, 'स्वोपकार' के साथ ही अपनी पूर्णशक्तिके साथ वे परोपकारके सिद्धान्तको भी पालते थे । वे इतने महान हो गये इसका वास्तविक कारण हमें तो उनका बचपनमेंही दीक्षित हो कर उच्च धार्मिक क्रियाओंको व्यवहारमें लाना मालूम होता है। इस समय दीक्षाकी बात तो दूर रही, धार्मिक संस्कारोंका ही अभाव हो रहा है । अच्छे अच्छे व्यवहारज्ञ युवक भी धर्मका तो कक्का भी कठिनतासे जानते हैं। इसका खास कारण यह है कि, वे बचपनहीसे गुरुओं-साधुओं की संगतिसे दूर रहे हैं। यदि प्राचीन प्रथाके अनुसार वे बचपनहीसे अमुक समय तकके लिए नियमित रूपसे साधुओंकी संगतिमें रहते और व्यावहारिक ज्ञानके साथ ही धार्मिक ज्ञान भी प्राप्त करते तो उनकी धर्म-भावनाएँ दृढ होती और आज 'नास्तिकता' का जो दोष उनके सिर रक्खा जाता है सो न रक्खा जाता । अस्तु । ऊपर लिखित रीतिके अनुसार हीरजीको उनके पिता कूरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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