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दीक्षादान। मुनीम-गुमास्तोंको भी संसारसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने भी उनके साथ दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । इस तरह नौ मनुष्योंका एक साथ दीक्षा लेनेका विचार स्थिर हुआ । फिर अभयकुमारने आचार्य श्रीहीरविजयमूरिको एक पत्र लिखा। उसमें उसने उक्त आठ आदमियों सहित दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । मूरिजी उस समय खंभातमें थे। उन्होंने उत्तरमें दीक्षा देनेकी प्रसन्नता प्रकट की ।
ऐसे लज्जासंपन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, धनसम्पन्न और हरतरहसे योग्य वैरागी मनुष्योंको दीक्षा देनेकी आचार्य श्रीउत्सुकता बतावे इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है।
सूरिजीका उत्तर मिलते ही अभयराज सबको लेकर खंभात गया । वहाँ वे वाघजीशाह नामक गृहस्थके घर पर ठहरे । दीक्षोत्सवकी तैयारी होने लगी। आसपासके गाँवोंके लोग जमा होने लगे। अभयराजकी ओरसे नित्यप्रति साधर्मीवत्सल होने लगे । दान दिया जाने लगा । इस तरह बराबर तीन महीने तक शुभ कार्य होते रहे । लगभग ३५ हजार ' महमूंदिका ' ( उस समयका चलनी सिक्का ) खर्च हुई । अभयराज का लक्ष्मी पाना सार्थक हुआ।
इस तरह धनधान्य, ऋद्धि-सिद्धिका परित्याग कर; उनको शुभ कार्यमें लगा अभयराजने अपनी स्त्री, पुत्री, माई की पत्नी, पुत्र
और चार नौकरों सहित खंभातके पासके कंसारीपुर '* ___ * 'कंसारीपुर' खंभातसे लगभग एक माइलके अन्तर पर एक छोटासा गाँव है । यद्यपि इस समय वहाँ न कोई मंदिर ही है और न कोई श्रावकका घर ही, तथापि कई प्रमाणोंसे यह मालूम होता है कि पहिले वहाँ ये सब कुछ थे। सत्रहवीं शताब्दिके सुप्रसिद्ध कवि ऋषभदासने खंभातकी चेत्यपरि.
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