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सूरीश्वर और सम्राट्। बहिनको भी दीक्षा लेनेके लिए तत्पर किया। तीनों भाईबहिन हीरविजयसूरिके पास अहमदाबाद गये । वे वहाँ जौहरी कुंवरजीके यहाँ उतरे । दीक्षाका उत्सव प्रारंभ हुआ। जुलुस निकलने लगे। कुंवरजी जौहरीने इस उत्सवमें बहुतसा धन खर्चा । गोपालजी और कल्याणजीको दीक्षा लेते देख शाह गणजी नामक एक व्यक्तिको भी वैराग्य हो आया। उसने भी उन्हींके साथ दीक्षा ले ली । इनके सिवाय धनविजय नामक साधु हुए । उनके साथ ही उनके दो भाईयों (कमल और विमल) तथा मातापिताने भी दीक्षा लेली । इनके अलावा सदयवच्छ भणशाली, पद्मविजय, देवविजय और विजयहर्ष आदि ऐसे सब मिलाकर अठारह आदमियोंने उस समय दीक्षा ली थी।
गोपालजीका नाम सोमविजय रक्खा गया था। ये वे ही सोमविजयजी हैं कि, जिन्हें उपाध्यायकी पदवी थी और जो हीरविजयसारके प्रधान थे। कल्याणजीका नाम कीर्तिविजयजी और उनकी बहिनका नाम साध्वी विमलश्री क्खा गया था। ये वेही कीर्तिवि. जयजी हैं कि, जो सुप्रसिद्ध उपाध्याय श्रीविनयविजयजीके गुरु थे।
हीरविजयसूरि प्रायः ऐसोंहीको दीक्षा दिया करते थे कि, जो खानदानी और लज्जा-विनयादि गुणसम्पन्न होते थे। यह बात बिलकुल ठीक है कि, जब तक ऐसे मनुष्योंको दीक्षा नहीं दी जाती है; दूसरे शब्दोंमें कहें तो-जब तक उत्तमकुलके और व्यावहारिक कार्योंमे कुशल बहादुर मनुष्य दीक्षा नहीं लेते हैं, तब तक वे साधुवेष में रहते हुए भी शासनके प्रति जो उनका कर्तव्य होता है उसको पूर्ण नहीं कर सकते है । यह बात सदा ध्यान रखनी चाहिए कि, देश, समाज या धर्मकी उन्नतिका मुख्य आधार साधु ही हैं। जब तक साधु सच्चे निःस्वार्थी, त्यागी और उपदेशक नहीं होते हैं, तब तक उन्नतिकी आशा केवल भावनामें ही रह जाती है। जब जब शासनमें
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