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सूरीश्वर और सम्राट् ।
हजारों आदमी सिर झुकाए चले जा रहे थे । गाँवके बड़े बड़े मार्गों से निकलकर पालकी आंबावाड़ी में पहुँची । वहाँ निर्जीव भूमिमें उत्तम नातिके चंदनकी चिता रची गई। सूरिजीका शब उसमें रखा गया । चितामें आग लगानेका कोई साहस नहीं करता था । सबकी आँखोंमें फिरसे पानी भर आया । सूरिजी के मुखकी तरफ देखते हुए सभी स्थिर होकर खड़े रहे । कुछ लोग गद्गद कंठसे बोले:-" हे गुरुदेव ! आप हमें मधुर देशना दीजिए ! हे हीर ! आप धर्मके विचार प्रकट कीजिए ! देव ! आपके भक्त रुदन कर रहे हैं तो भी आप बोलते क्यों नहीं हैं ? क्यों आप अपना पवित्र हाथ हमारे सिर पर रख कर हमें पवित्र नहीं बनाते हैं ? आप हमें रोते छोड़कर कहाँ जाते हैं ? हम किसके दर्शन करके पवित्र होंगे ? आपके सिवा हमारे संदेहोंको कौन दूर करेगा ? हे गुरु, आपकी मधुरवाणी अब हम कहाँ सुनेंगे ? हमारे समान संसार में फँसे हुए प्राणियों का उद्धार कौन करेगा ? "
अन्तमें हृदय कड़ाकर लोगोंने चितामें अग्नि लगाई । चितामें पन्द्रह मन चंदन, तीन मन अगर, तीन सेर कपूर, दो सेर कस्तूरी, तीन सेर केसर और पाँच सेर चूआ डाला गया था ।
सूरिजीका मानवी शरीर भस्मसात् हो गया । केवल यश :शरीर संसारमें रह गया । सूरिनीके शरीर संस्कार में सब मिलाकर सात हजार ल्याहरियाँ खर्च हुई थीं। समुद्र के किनारे अमारी पाली गई । समुद्र में कोई जाल न डाले इस बातका प्रबंध किया गया । गुरु-विरहसे दुःखी साधुओंने तीन तीन दिन तक उपवास किये । अग्नि संस्कार करके श्रावकोंने मंदिर में जाकर देववंदन किया । और फिर साधुओंका वैराग्यपूर्ण उपदेश सुन सत्र अपने अपने घर गये ।
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जिस बागीचे में हरिविजयसूरिका अग्नि संस्कार हुआ था वह
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