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परिशिष्ट (ग). परमानंद, महानंद और उदयहर्ष तपा यति ( तपागच्छके साधु ) विजयसेनसूरि विजयदेवसूरि और नंदिविजयजी,-जिनको
गच्छके साधु बताते हैं। (देखो महाजनवंशमुक्तावलीको प्रस्तावनाका पृ. ६
और पुस्तकका पृष्ठ ५९-६० ) मगर यह बात इतिहाससे सर्वथा प्रतिकूल है। मोटी खाखरके मंदिरके जिस शिलालेखका उल्लेख किया गया है वह और तीसरा फर्मान स्पष्टतया बताता है कि, वे तपागच्छके साधु थे। विवेकहर्षकी बनाई हुई · हरिविजयसूरि सज्झाय' के अन्तमें लिखा है,
" जस पर प्रगट प्रताप उग्यो, विजयसेन दिवाकरो ।
कविराज हर्षानंद पंडित 'विवेकहर्ष' सुहंकरो।" इससे स्पष्ट ज्ञात होता कि, वे तपागच्छाचार्य श्री विजयसेनरिकी आज्ञामें रहनेवाले, और हर्षानंद कविके शिष्य थे। इसके सिवाय उन्होंने 'परब्रह्मप्रकाश' नामक एक पुस्तक भाषामें कविताबद्ध लिखी है। उसके अन्तमें भी उन्होंने अपनेको तपागच्छका ही बताया है । उन्होंने बीजापुरमें, वि० सं० १६५२ में ' हीरविजयसूरि रास' नामक एक छोटीसी पुस्तक लिखी है। उसमें भी उन्होंने अपनेको तपागच्छ का बताया है । विशेष आश्चर्य तो यह है कि,श्रीयुत रामलालजीगणिने विवेकहर्षको खरतरगच्छका बतानेके साथ ही उनका नाम भी वेषहर्ष बतानेकी बहुत बड़ी भूल की है।
१ ये विवेकहर्षके गुरुभाई थे । इनको भी श्रीयुत रामलालजीगणिने खरतरगच्छके साधु ही बताया है । मगर यह भी भूल है। परमानंद भी तपागच्छहीके साधु थे। इस बातको यह तीसरे नंबरका फर्मान भली प्रकार सिद्ध करता है । इसके अलावा उन्होंने जुदी जुदी भाषाओंमें 'विजयचिन्तामाणि स्तोत्र लिखा है । उसका अन्तिम पद
" श्रीविजयसेनसूरिंद सेवक पंडित परमानंद जयकरु " भी इसी बातको पुष्ट करता है । १ देखो इसी पुस्तकका पृष्ठ १५९-१६५ तथा २१६-१३८ ।
३ ये विजयसेनसूरिके शिष्य थे। वि. सं. १६४३ में इन्होंने विजयसेनसूरिसे अहमदाबादमें दीक्षा ली थी । सं० १६५६ में इन्हें
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