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सूरीश्वर और सम्राट् । अकबरके समान मुसलमान बादशाहको ऐसा उपदेश-किसी तरहके स्वार्थ विना केवल जगत्के कल्याणहीका-दूसरोंकी भलाईके कार्योहीका उपदेश जैन साधुके समान त्यागी-निःस्पृही पुरुषके सिवा दूसरा कौन दे सकता था ?"
बादशाहने हीरविजयसूरिके उपदेशसे पर्युषणके आठ दिन और दूसरे चार दिन ऐसे बारह दिन ( भादवा वदी १० से भादवा सुदी ६) तक अपने समस्त राज्यमें, कोई मनुष्य किसी भी जीवकी हिंसा न करे, इस बातकी जो आज्ञा प्रकाशित की थी उसकी छः नकलें करवाई गई । उनका इस तरह उपयोग हुआ-१ गुनरात और सौराष्ट्र के सूबेमें, २ दिल्ली, फतेहपुर आदिमें, ३ अजमेर, नागोर आदिमें, ४ मालवा और दक्षिणमें ५ लाहोर, मुलतानमें भेजी गई और ६ खास सूरिजी महाराजको सौंपी गई।
ऊपर कहा जा चुका है कि, अबुल्फज़लक मकान पर बादशाह और सूरिजीके बीचमें बहुत ही खुले दिलेसे धर्मचर्चा और वार्तालाप हुआ था । उस समय सूरिजीने उपदेश देते हुए कहा था कि, “ मनुष्य मात्रको सत्यका स्वीकार करनेकी तरफ रुचि रखनी चाहिए । अज्ञानावस्थामें मनुष्य अनेक दुष्कर्म करता है; परन्तु ज्ञान होने पर उसे अपने कृत दुष्कर्मोंका पश्चात्ताप और सत्यका स्वीकार करना ही चाहिए । उसे यह दुराग्रह न करना चाहिए कि, मैं चिरकालसे अमुक मार्ग पर चलता आया हूँ, मेरे बापदादे इसी मार्गपर चले आ रहे हैं इसलिए मैं इस बातका त्याग नहीं कर सकता हूँ।"
सूरिजीकी इसी बातको पुष्ट करनेवाली एक बात बादशाहने भी कही थी। वह मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद होनेसे यहाँ लिखी जाती है।
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