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सूरीश्वर और सम्राट्। हीरना गुणनो नहि पारो, साध साधवी अढी हजारो। विमलहर्ष सरीषा उवझाय, सोमविजय सरिषा ऋषिराय ॥१॥ शान्तिचंद परमुष वली सातो, वाचक पदे एह विष्यातो। सिंहविमल सरिषा पंन्यासो, देवविमल पंडित ते षासो ॥ २ ॥ धर्मशीऋषि सबली लाजो, हेमविजय मोटो कविराजो। जससागर वली परमुष षास, एकसो ने साठह पंन्यास ॥ २ ॥
हीरविजयसरिजीकी आज्ञाको सर्वतो भावसे माननेवाला केवल साधुवर्ग ही नहीं था बल्कि सैकड़ों और हजारों श्रावकोंका समूह बंगाल और मदरास के सिवा समस्त भारतके प्रायः गामों में था। उनकी हीरविजयसूार पर अनन्य श्रद्धा थी । किसी भी कार्यमें हीरविजयसूरिकी आज्ञा मिलने पर वे हजारों ही नहीं बल्कि लाखों रुपये आनंदसे खर्च कर देते थे।
मूरिजीकी सूचना मिलने पर शंकाके लिए स्थान नहीं रहता था । श्रावकोंको जिस तरह इस बातका पूर्ण विश्वास था कि, हीरविजयसूरि हमें निरर्थक कामोंमें पैसा खर्च करनेका उपदेश नहीं देंगे; उसी तरह मूरिनी भी इस बातको पूर्णतया समझते थे कि, जिस धनको गृहस्थ लोहीका पानी बनाकर और अनेक तरहके पापोंका सेवन कर संग्रह करते हैं; उस धनको बेमतलब अपने स्वार्थ के लिए खर्च कराना नीतिका भंग करना ही नहीं है बल्के विश्वासघात करना है। इसी हेतुसे सूरिजीकी हर जगह प्रशंसा होती थी। उनके मुख्य श्रावकोंमेंसे कुछके नाम यहाँ दिये जाते हैं ।
गंधारमें इन्द्रजी पोरवाल सूरिजी का परम भक्त था । ग्यारह बरसकी आयुमें उसके हृदयमें दीक्षा लेनेकी भावना उत्पन्न हुई थी। मगर उसके भाई नाथाको उससे बहुत प्रेम था. इसी लिए उसने उसको दीक्षा नहीं लेने दी थी। यद्यपि उसका भाई उसको ब्याह देना
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