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________________ शिष्य-परिवार | और अमुकको नहीं मानना चाहिए, हमने माना उस स्वरूपवाला ईश्वर ही सच्चा है दूसरा नहीं, यह वृत्ति संकुचित है । कल्याणविजय वाचककी ये और इसी तरहकी दूसरी अनेक युक्तियाँ सुन कर बच्छराज बहुत प्रसन्न हुआ । उसने जैनधर्मकी बहुत प्रशंसा की । वह कल्याणविजयनीको उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण देने लगा । उन्होंने अस्वीकार कर उसे साधुधर्म समझाया, जिससे वह इस बात को समझ गया कि, साधुओंके लिए इन चीजोंका ग्रहण करना मना है । वह साधुओंके त्याग धर्मसे और भी विशेष प्रसन्न हुआ और उन्हें बड़ी धूमधामसे उपाश्रय पहुँचाया । २४७ कल्याणविजयजी वाचकने वि. सं. १६९६ का चौमासा सूरतमें किया था । उस समय धर्मसागरजी के अनुयायियों और हीरविजयसूरिके अनुयायियोंमें बहुत विवाद चल रहा था । इस विवादमें यद्यपि वाचकजीको भी बहुत कुछ सहन करना पड़ा था, तथापि उन्होंने बहुत ही समयसूचकतासे काम लिया था, और आचार्य विजयसेनसूरिको सारी बातें लिखकर अपराधीको दंड दिलाया था ।x उपर्युक्त मुख्यमुख्य साधुओंके सिवा, सिद्धिचंद्रजी, नंदिविजयजी, सोमविजयजी, धर्मसागर उपाध्याय, प्रीतिविजयजी, तेजविजयजी, आनंद विजयजी, विनीतविजयजी, धर्मविजयजी, और हेमविजयजी आदि भी धुरंधर साधु थे । वे हमेशा स्व- पर कल्याणही में लगे रहते थे । उनके आदर्शजीवनका जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता था । ऋषभदास कवि हीरविजयसूरि रासमें सूरिजी के मुख्य मुख्य साधुओंके नाम गिना कर अन्तमें लिखता है X इस विषय में जिनको विशेष जानना हो वे ऐतिहासिक राससह भा. ४ था ( विजयतिलकसूरिरास ) देखें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003208
Book TitleSurishwar aur Samrat Akbar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyavijay
PublisherVijaydharm Laxmi Mandir Agra
Publication Year
Total Pages474
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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