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सूरीश्वर और सम्राट् । बीरबल आदि राज्यके बड़े बड़े कर्मचारियों सहित हाथ जोड़े सामने खड़ा था और दूसरी तरफ़ जिनके मुखमंडलसे तपस्तेज-ज्योति चमक रही थी, ऐसे सूरिजी अपने विद्वान् मुनियों सहित खड़े थे। वह दृश्य कैसा था ? इसकी कल्पना पाठक स्वयमेव करलें।
इस तरह बाहशाहके बाहिरकी बैठकके बाहिरवाले दालानमें जो संगमरमरका बना हुआ था-दोनों मंडल खड़े रहे। बादशाहने सविनय सूरिजीसे कुशल-मंगल पूछा और कहा:---
" महाराज! आपने मेरे समान मुसलमान कुलोत्पन्न एक तुच्छ मनुष्य पर उपकार करनेकी इच्छासे जो कष्ट उठाया है उसके लिए मैं अहसान मानता हूँ। और कष्ट दिया उसके लिए क्षमा चाहता हूँ। मगर कृपा करके यह तो बताइए कि, मेरे अहमदाबाद के सूबेदारने क्या आपको हाथी, घोड़े आदि साधन नहीं दिये थे जिससे आपको इतनी लंबी सफर पैदल ही चल कर पूरी करनी पड़ी।"
सरिजीने उत्तर दियाः-" नहीं राजन् ! आपकी आज्ञाके अनुसार आपके सूबेदारने तो सारे साधन मेरे सामने उपस्थित किये थे; परन्तु साधुधर्मके आधीन होकर मैं उन साधनोंको ग्रहण न कर सका । आपने, यहाँ आनेसे मुझे तकलीफ हुई है, यह कहकर क्षमा माँगी है, यह आपकी सजनता है । मगर मुझे तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं दिखती जिसके लिए आप क्षमा माँगते या उपकार मानते । कारण,हमारे साधु जीवनका तो मुख्य कर्तव्य ही 'धर्मोपदेश देना है।' हमें इस कर्तव्यको पूरा करने के लिए यदि कहीं दूर देशों में जाना पड़ता है तो जाते हैं और धर्माचारको सुरक्षित रखने के लिए शारीरिक कष्ट झेलने पड़ते हैं तो उन्हें भी झेलते हैं। इस ऋतिसे हम यह सोच कर संतुष्ट होते हैं कि, हमने अपना कर्तव्य किया है। इसलिए आपको इस विषयमें लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए।"
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