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सूरीश्वर और सम्राट् । सूरिजीके हाथोंसे उनकी प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। उनके निमित्त बड़े बड़े उत्सव कराये थे । शाह हीराने ननगरमें, कुंवरजी * बाढुआने
साथ यह भी बताया गया है कि, इस मंदिरके उद्धारके साथ ही शा रामजी, जसु ठक्कर, कुँअरजी और मूला सेठक बनवाये हुए मंदिरोंकी प्रतिष्ठा भी, सूरिजीने उसी समय की थी। ___ अन्तमें सूत्रधार-तीन वस्ता, प्रशस्तिके लेखक कमलविजय पंडितके शिष्य हेमविजय, शिलापर लिखनेवाले पीडित सहजसागरके शिष्य जयसागर और शिलामें अक्षर खोदनेवाले माधव तथा नाना नामक शिल्पियोंके नाम देकर यह लेख समाप्त किया गया है ।
उपर्युक्त कार्योंके अलावा तेजपालने शासनकी प्रभावनाके और भी अनेक कार्य किये थे । कवि ऋषभदासने 'हीरविजयसूरिरास' में तेजपालकी प्रशंसामें जोकुछ लिखा है, उसका भाव यह है,
" उसने आबूजीका संघ निकाला था। रास्तेमें लाहणी ( भाजी ) बाँटता हुआ गया था। आबू पर जाकर अचलगढ़ में ऋषभदेवजीकी पूजा की थी। सातों क्षेत्रोंमें उसने धन खर्चा था । हीरविजयसूरिका यह श्रावक था। इसके बराबर कोई 'पोसा' करनेवाला नहीं था। यह विकथा कभी नहीं करता था। उसके हाथमें हमेशा उत्तम पुस्तक ही रहती थी ।” - * कुँवरजीने कावीमें-जो खंभातके पास है-दो बड़े बड़े मंदिर बनवाये हैं। दोनों मंदिर इस वक्त मौजूद है। एक मंदिर धर्मनाथजीका कहलाता है
और दूसरा आदीश्वरजीका । धर्मनाथजीके मंदिरके रंगमंडपके बाहिर दर्वाजेकी भीतमें एक लेख है। उसमें कुंवरजीका संक्षिप्त परिचय है । उस लेखका संवत् है-१६५४ का श्रावण वदी ९ शनिवार । उसमें बताया गया है कि,, इस मंदिरका नाम ' रत्नतिलक' दिया गया है। इसके अलावा इसी मंदिरके मूलनायकको परिकरको दाहिनी तरफ़के काउसगिया पर एक लेख है। उसमें लिखा है कि, सं० १६५६ के वैशाख सुद ७ के दिन कुँवरजीने विजयसेनसूरिसे प्रतिष्ठा कराई थी।
आदीश्वरके मंदिरमें मूलगभाराके दर्वाजेमें घुसते दाहिने हाथकी तरफ़ झरोखेमें ३२ श्लोकोंकी प्रशस्ति सहित एक लेख है। उससे भी कुँवरजीके विषयमें निम्न लिखित उल्लेख है ।
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