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प्रतिबोध ।
श्री हीरसौभाग्यकाव्य ' के कर्ता १३ वे सर्गके १३६ वे श्लोककी टीकामे, इस विषयका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि," एतत्कथनं त्वप्रतिबुद्धत्वेन अज्ञाततत्त्वभावेन म्लेच्छत्वेन वा। यद्यास्तिकः स्याचदा तु सर्वमपि त्यक्त्वा वन्दत एव " मगर हमको तो उसके मदिराके व्यसनका ही यह परिणाम मालूम होता है। जैसा कि, हम तीसरे प्रकरणमें बता चुके हैं । उससे इसी व्यसनके कारण अनेक अविवेकी व्यवहार हो जाते थे। जब उसके हृदयमें मदिरा-पानकी इच्छा उत्पन्न होती थी तब वह बड़े बड़े महत्त्वके कार्योंको भी छोड़ कर-और क्यों, चाहे किसी ऊँची श्रेणीके मनुष्यको मिलनेके लिए बुलाया होता तो भी-उससे भी न मिल कर अपनी शराब पीनेकी इच्छाको पूर्ण करता था।
क्या यह कहना अनुचित है कि उसने अपनी शराबकी बुरी आदतके कारण ही वैसा उत्तर दिया था ? अस्तु । वास्तविक बात तो यह है कि, सूरिजीके हृदयमें बादशाहसे मिलनेकी जितनी तीव्र इच्छा हुई थी, उससे हजार गुनी तीव्र इच्छा बादशाहको तत्काल ही होनी चाहिए थी।
कहावत है कि,-'जो कुछ होता है वह भलेहीके लिए होता है। यह एक सामान्य नियम है। इसीके अनुसार अब दूसरी तरहसे इस बातका विचार किया जायगा। एक तरहसे तो बादशाह तत्काल ही सरिजीसे नहीं मिला, इससे लाभ ही हुआ। कारण-बादशाहसे मिलनेके पहिले सूरिजीको-बादशाहका सर्वस्व गिने जाने वाले-विद्वान् शेख अबुल्फजलसे बहुत देर तक बातचीत करनेका मौका मिला। उससे बादशाहको मिलनेसे पहिले, बादशाहके खास मानीले एकाध पुरुषके अन्तःकरणमें सूरिजीकी विद्वत्ता और पवित्रताके विषयमें पूज्यभाव उत्पन्न करानेकी जो आवश्यकता प्रतीत होती थी वह भी पूर्ण हो गई। अर्थात्-अक
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